अंत तक पढ़ के बताना कि पढ़ के भीतर का जमींदार जागा कि नहीं?
फंडी भगवान और भय के दम पर बिज़नेस ओप्पोरचुनिटीज क्रिएट करके देता जाता है और मंडी उनको कैश करता जाता है| और यह मत समझना कि फंडी, मंडी के हाथों सिर्फ जमींदार को लुटवा रहा है, उसको तो लुटवा ही रहा है; उससे भी डबल-ट्रिप्पल कई गुना ज्यादा शहरी (90% से ज्यादा) बने और अपने आपको दुनिया के सबसे अव्वल स्याणे परन्तु तार्किकता में सबसे चम्पू, दब्बू और उल्लू साबित होते जा रहे जमींदारी परिवेश के परिवारों को पीतल लगवा रहा है|
जमींदारों के गाँवों में तो आज भी फंडी-पाखंडियों के टकनों पर लठ मारने वाले और इनके सतसगों में रेत-पत्थर बरसाने वाले बाकी हैं, परन्तु असली पढ़े-लिखे मूर्ख देखने हैं तो जाओ शहरों में देखो कैसे जमींदारी परिवेश के परिवार इनके चरणों में शाष्टांग गिरे पड़े हैं|
तौबा-रे-तौबा पढ़ने और तरक्की करने का यही सबब है तो इनसे तो गाँव का वो अनपढ़ गंवार ही बेहतर जो कम-से-कम ढोंग-पाखंड को तो अच्छे से जानता-पहचानता है| जिसके दम से जमींदारी जातियों की वो कहावतें तो जिन्दा खड़ी है कि "अनपढ़ जाट पढ़े जैसा और पढ़ा जाट खुदा जैसा!" परन्तु इन शहरी चम्पुओं ने तो जैसे यह गौरवपूर्ण और अपने वर्ग-समाज की अभिजातीयता दर्शाने वाली कहावतें "जाटड़ा और काटडा, अपने को ही मारे" तर्ज पर खत्म करने की उलटी मति धार रखी है|
हाँ, यह जमींदारी परिवेश के शहरी लोग, इन फंडी-पाखंडियों के बिज़नेस में कुछ हिस्सा ले रहे होते, एक आध मंदिर की फ्रेंचाइजी ले उससे समाज का पैसा समाज को वापिस कर रहे होते तो भी इनका इनके आगे शाष्टांग करना समझ आता; यह तो फ्री-फंड में उल्लू बने फिरते हैं और घर बुलवा के अपना उल्लू कटवाते हैं|
जो भक्त बने टूल रहे हैं, उनके बारे भी सुना जाता है इनको कभी भी भक्तों की तमाम फ्रेंचाइजियों की घोर-कोर कमेटियों में घुसने तक नहीं दिया जाता; अधिकतर या तो थर्ड लेवल की लाइन या सेकंड लेवल की लाइन तक रखे गए हैं, फर्स्ट लाइन में ना कभी इनका नंबर आना| इससे तो अच्छे यह गाँवों में ही थे, वहाँ कम-से-कम अपनी स्वछंद मति व् गति के मालिक तो थे|
जमींदारी वर्ग के जो लोग इनसे अभी बचे हुए हैं या अपनी सोच को आज भी अपने पुरखों की भांति बुलंद रखे हुए हैं, आप अपना भगवान खुद बन जाओ या अपने महान पुरखों को बना लो (जैसे आपके पुरखे जमींदारों के अपने दादा खेड़ा कांसेप्ट के जरिये मानते आये हैं) या फिर मंदिरों में अपने पुरखों की मूर्तियां लगवाने की जिद्द बाँध लो; फंडी अपने आप तीतर-बितर हो जायेगा और मंडी उतने ही पर फैलाएगा, जितने जमींदारों के भगवान सर छोटूराम ने निर्धारित कर दिए थे|
वैसे हर मंदिर में सर छोटूराम की मूर्ती साथ धरवाने का आईडिया कैसा रहेगा? कहीं यह लोग यह तो नहीं कह देंगे कि अपना अलग मंदिर बना लो अगर छोटूराम की मूर्ती रखनी है तो? क्यों अच्छा है ना अगर ऐसा भी हो जाए तो, फिर भगवान भी अपना और दान-चंदा भी अपना| मंथली ऑडिट करके जनता का दान, जनता को सौंप दिय करेंगे| धर्म के नाम पर समाज का पैसा समाज में और फंडी की लूट से पैंडा भी छूट जायेगा? वैसे भी हिन्दू धर्म में 33 करोड़ देवी-देवता हैं, एक-आध जमींदार ने अपना भी बैठा दिया मंदिरों में तो कौनसी आफत टूट पड़ेगी? आखिरकार यह सब फंडा जब है ही भगवान के नाम पर इधर के पैसे को उधर करने का, तो अपने भगवान के जरिये, अपना पैसा अपने ही यहां क्यों ना रखा जाए?
तो बताओ, पढ़ के भीतर का जमींदार जागा कि नहीं? शहरों में बैठे हो या गाँवों में परन्तु जमीनों के मालिक होने के नाते, जमींदार तो आज भी कहलाते हो ना? या शहर में गए हुओं को मंडी-फंडी ने अपने बराबर का मान लिया है? मेरे ख्याल से उनके लिए एक मंदबुद्धि ग्राहक (खासकर फंडी के चोंचलों में फंसने वाले ग्राहक) से ज्यादा कुछ नहीं हो, चाहो तो बराबरी के ओहदे का टेस्ट करके देख लो; पता लग जायेगा कि पैसे से बेशक कोरड़पति हो गए हो, परन्तु इनके बराबर (हालाँकि जमींदार को इसकी दरकार कभी रही भी नहीं, परन्तु आप जमींदारी परिवेश के 90% शहरी लोग यह दरकार दिखाते से प्रतीत होने लगे हो; क्योंकि गाँव वाला तो अनपढ़ होते हुए भी आज भी पढ़ालिखा कहलाता है और आप पढ़लिख के भी भगवान नहीं बन पा रहे हो, है ना?) की हैसियत व् हस्ती के इन्होनें आपको आज भी नहीं माना|
फिर वही बात इन वाली हैसियत की बराबरी में क्यों अपनी "अनपढ़ जाट पढ़े जैसा और पढ़ा जाट खुदा जैसा" वाली आइडेंटिटी का मलियामेट करते हो? इनसे समझौते करो, परन्तु बिज़नेस करने के, नौकरी करने के; अपनी आइडेंटिटी व् सभ्यता गिरवी रखने के नहीं|
अंत निचोड़ यही है कि: जाट-जमींदारों, अपनी लुगाईयों को रोको-समझो-समझाओ| इनको स्याणे-सपटों के फेर में पड़ डेड-स्याणी बनने के चक्कर में ढेढणी मत बनने दो| वर्ना इतना समझ लो कि कल को नए जमाने के "अळ काका" वाले ढेढ़ तुम ही बनने जा रहे हो|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
फंडी भगवान और भय के दम पर बिज़नेस ओप्पोरचुनिटीज क्रिएट करके देता जाता है और मंडी उनको कैश करता जाता है| और यह मत समझना कि फंडी, मंडी के हाथों सिर्फ जमींदार को लुटवा रहा है, उसको तो लुटवा ही रहा है; उससे भी डबल-ट्रिप्पल कई गुना ज्यादा शहरी (90% से ज्यादा) बने और अपने आपको दुनिया के सबसे अव्वल स्याणे परन्तु तार्किकता में सबसे चम्पू, दब्बू और उल्लू साबित होते जा रहे जमींदारी परिवेश के परिवारों को पीतल लगवा रहा है|
जमींदारों के गाँवों में तो आज भी फंडी-पाखंडियों के टकनों पर लठ मारने वाले और इनके सतसगों में रेत-पत्थर बरसाने वाले बाकी हैं, परन्तु असली पढ़े-लिखे मूर्ख देखने हैं तो जाओ शहरों में देखो कैसे जमींदारी परिवेश के परिवार इनके चरणों में शाष्टांग गिरे पड़े हैं|
तौबा-रे-तौबा पढ़ने और तरक्की करने का यही सबब है तो इनसे तो गाँव का वो अनपढ़ गंवार ही बेहतर जो कम-से-कम ढोंग-पाखंड को तो अच्छे से जानता-पहचानता है| जिसके दम से जमींदारी जातियों की वो कहावतें तो जिन्दा खड़ी है कि "अनपढ़ जाट पढ़े जैसा और पढ़ा जाट खुदा जैसा!" परन्तु इन शहरी चम्पुओं ने तो जैसे यह गौरवपूर्ण और अपने वर्ग-समाज की अभिजातीयता दर्शाने वाली कहावतें "जाटड़ा और काटडा, अपने को ही मारे" तर्ज पर खत्म करने की उलटी मति धार रखी है|
हाँ, यह जमींदारी परिवेश के शहरी लोग, इन फंडी-पाखंडियों के बिज़नेस में कुछ हिस्सा ले रहे होते, एक आध मंदिर की फ्रेंचाइजी ले उससे समाज का पैसा समाज को वापिस कर रहे होते तो भी इनका इनके आगे शाष्टांग करना समझ आता; यह तो फ्री-फंड में उल्लू बने फिरते हैं और घर बुलवा के अपना उल्लू कटवाते हैं|
जो भक्त बने टूल रहे हैं, उनके बारे भी सुना जाता है इनको कभी भी भक्तों की तमाम फ्रेंचाइजियों की घोर-कोर कमेटियों में घुसने तक नहीं दिया जाता; अधिकतर या तो थर्ड लेवल की लाइन या सेकंड लेवल की लाइन तक रखे गए हैं, फर्स्ट लाइन में ना कभी इनका नंबर आना| इससे तो अच्छे यह गाँवों में ही थे, वहाँ कम-से-कम अपनी स्वछंद मति व् गति के मालिक तो थे|
जमींदारी वर्ग के जो लोग इनसे अभी बचे हुए हैं या अपनी सोच को आज भी अपने पुरखों की भांति बुलंद रखे हुए हैं, आप अपना भगवान खुद बन जाओ या अपने महान पुरखों को बना लो (जैसे आपके पुरखे जमींदारों के अपने दादा खेड़ा कांसेप्ट के जरिये मानते आये हैं) या फिर मंदिरों में अपने पुरखों की मूर्तियां लगवाने की जिद्द बाँध लो; फंडी अपने आप तीतर-बितर हो जायेगा और मंडी उतने ही पर फैलाएगा, जितने जमींदारों के भगवान सर छोटूराम ने निर्धारित कर दिए थे|
वैसे हर मंदिर में सर छोटूराम की मूर्ती साथ धरवाने का आईडिया कैसा रहेगा? कहीं यह लोग यह तो नहीं कह देंगे कि अपना अलग मंदिर बना लो अगर छोटूराम की मूर्ती रखनी है तो? क्यों अच्छा है ना अगर ऐसा भी हो जाए तो, फिर भगवान भी अपना और दान-चंदा भी अपना| मंथली ऑडिट करके जनता का दान, जनता को सौंप दिय करेंगे| धर्म के नाम पर समाज का पैसा समाज में और फंडी की लूट से पैंडा भी छूट जायेगा? वैसे भी हिन्दू धर्म में 33 करोड़ देवी-देवता हैं, एक-आध जमींदार ने अपना भी बैठा दिया मंदिरों में तो कौनसी आफत टूट पड़ेगी? आखिरकार यह सब फंडा जब है ही भगवान के नाम पर इधर के पैसे को उधर करने का, तो अपने भगवान के जरिये, अपना पैसा अपने ही यहां क्यों ना रखा जाए?
तो बताओ, पढ़ के भीतर का जमींदार जागा कि नहीं? शहरों में बैठे हो या गाँवों में परन्तु जमीनों के मालिक होने के नाते, जमींदार तो आज भी कहलाते हो ना? या शहर में गए हुओं को मंडी-फंडी ने अपने बराबर का मान लिया है? मेरे ख्याल से उनके लिए एक मंदबुद्धि ग्राहक (खासकर फंडी के चोंचलों में फंसने वाले ग्राहक) से ज्यादा कुछ नहीं हो, चाहो तो बराबरी के ओहदे का टेस्ट करके देख लो; पता लग जायेगा कि पैसे से बेशक कोरड़पति हो गए हो, परन्तु इनके बराबर (हालाँकि जमींदार को इसकी दरकार कभी रही भी नहीं, परन्तु आप जमींदारी परिवेश के 90% शहरी लोग यह दरकार दिखाते से प्रतीत होने लगे हो; क्योंकि गाँव वाला तो अनपढ़ होते हुए भी आज भी पढ़ालिखा कहलाता है और आप पढ़लिख के भी भगवान नहीं बन पा रहे हो, है ना?) की हैसियत व् हस्ती के इन्होनें आपको आज भी नहीं माना|
फिर वही बात इन वाली हैसियत की बराबरी में क्यों अपनी "अनपढ़ जाट पढ़े जैसा और पढ़ा जाट खुदा जैसा" वाली आइडेंटिटी का मलियामेट करते हो? इनसे समझौते करो, परन्तु बिज़नेस करने के, नौकरी करने के; अपनी आइडेंटिटी व् सभ्यता गिरवी रखने के नहीं|
अंत निचोड़ यही है कि: जाट-जमींदारों, अपनी लुगाईयों को रोको-समझो-समझाओ| इनको स्याणे-सपटों के फेर में पड़ डेड-स्याणी बनने के चक्कर में ढेढणी मत बनने दो| वर्ना इतना समझ लो कि कल को नए जमाने के "अळ काका" वाले ढेढ़ तुम ही बनने जा रहे हो|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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