Friday 7 April 2017

आम-मानव के हिसाब से किसान को बोलना क्यों नहीं आता?

क्योंकि उसकी रोजगारी-रोटी-रोजी भगवान (प्रकृति) के हाथ में होती है, जबकि आम इंसान की रोजी-रोटी आम इंसान के ही हाथ में होती है| और जिसके हाथ में रोजी-रोटी होती है इंसान उसी के आगे झुकता है, उसी से विनम्र बोलता है|

स्पष्ट शब्दों में कुछ यूँ समझिये: किसान की फसल अच्छी होगी, बुरी होगी सब निर्भर करता है प्रकृति की मर्जी पर| सूखा पड़ा, बाढ़ आई, बेमौसम बरसात आई, ओले पड़े, बीमारी आई तो फसल खत्म; वक्त की बारिश हुई, सही वक्त पर सही तामपान चला, बीमारी ना आई तो फसल अव्वल और किसान की बचत अव्वल| तो यह सब होना या नहीं होना निर्भर हुआ प्रकृति पर यानि भगवान पर| मतलब साफ़ है किसान को कमाई देने वाला उसका बॉस इंसान नहीं अपितु भगवान है|

जबकि एक सरकारी या प्राइवेट नौकरी करने वाले इंसान का, उसकी नौकरी की प्रमोशन-डिमोशन का पैरोकार कौन; दुकान करने वाले दुकानदार का कारोबार चलाने वाला कौन; मन्दिर में पुजारी का पेट पालने वाला व् उसका घर चलाने वाला कौन; जवाब एक ही है - इंसान| इसलिए अगर आपको सुरक्षित नौकरी, बढ़िया सैलरी, बढ़िया कारोबार व् बढ़िया चढ़ावा चाहिए तो आपको इंसान की जी-हजूरी करनी पड़ती है| उसको भाव देना पड़ता है, उसको खुश करना पड़ता है| अत: आपकी भाषा में आपको विनम्रता झक मार के भी लानी ही पड़ती है|

जबकि किसान के बॉस भगवान के केस में कोई जी-हजूरी काम नहीं आती| प्रकृति को कितना सहेज के रखो, वह उतनी किसान पर खुश होती है| तभी तो किसानी परिवेश की पहली पीढ़ी जो बाहर नौकरियों या कारोबारों में हाथ आजमाने आती है तो जल्दी से जी-हजूरी नहीं कर पाती; क्योंकि उसके पैतृक कारोबार का बॉस भगवान रहा होता है, इंसान नहीं|

दूसरा अहम पहलु, किसान (सनद रहे यहां किसान की बात हो रही है, उन सामन्तों की नहीं, जो खेत के किनारे खड़े होकर दूसरों से खेती करवाते हैं) कितना ही अमीर हो जाए, विनम्रता नहीं छोड़ता, हेराफेरी, छलावा नहीं सीखता; क्योंकि उसके खेत रुपी दफ्तर में प्रकृति व् भगवान रुपी बॉस के आगे यह सब नहीं चलते| जबकि जिन कार्यों में बॉस भी इंसान और एम्प्लोयी भी इंसान वहाँ हेराफेरी, डर, भय छलावे सब पनपते हैं|

और यही दो सबसे बड़े डिसकनेक्ट हैं, किसान और बाकियों के कारोबार में| और क्यों फिर दूसरे कारोबार वाले किसान को अपने से कम आंकने व् दिखाने और अपना झूठा अहम् ऊपर रखने के लिए अक्सर किसान पर तोहमत लगाते पाए जाते हैं कि उसको बोलना नहीं आता|

किसान को बोलना आता है, किसान को अपने बॉस भगवान को खुश रखने की भाषा भली-भांति आती है; जबकि बाकि अधिकतर भगवान को खुश करने हेतु भी उसको रिश्वत रुपी दान-चन्दा-चढावा चढ़ाते हैं| जिन कार्यों में इंसान ही इंसान का बॉस है वहाँ उनको दोनों यानी इंसानी बॉस को भी और भगवान् (किसान के बॉस) को भी रिश्वत देनी पड़ती और खिलानी पड़ती है, कभी पैसे की रिश्वत तो कभी खुशामद की रिश्वत| जबकि किसान को इंसानों को खुश करने की ना ही तो कला आती होती और बस हाँ दाता की भांति अन्नदाता बन भूखा पेट वो दुश्मन का भी भर देता है|

किसान का प्रकृति से, भगवान से वन-टू-वन कनेक्शन खेत के जरिये होता है तो उसको किसी इंसान की जी-हजूरी नहीं करनी पड़ती| उसको स्वच्छन्दता रहती है|

परन्तु इस स्वच्छन्दता का एक नुकसान भी है| किसान उसकी फसलों के भाव निर्धारति करने वाले इंसानों और उसकी फसलें खरीदने वाले इंसानों से इंसान लेवल की डालॉगिंग नहीं करता या कहो कि इन मसलों को अपने हाथों में नहीं रखता| क्योंकि उसकी आदत भगवान की यानी प्रकृति की स्तुति करने की बनी होती है तो वह इंसानी आढ़तियों-मंडियों से बार्गेनिंग करने को सीरियस नहीं लेता; सीरियस लेवे तो उसकी फसलें उसी भाव पे बिकें, जिसपे वो चाहे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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