कोई कह रहा है कि संस्कृति-संस्कार बदल रहे हैं!
कोई कहता है हमारा समाज तेजी से बदल रहा है, जो कि बहुत खतरनाक है!
कोई इसको समय की मांग बता रहा है!
कोई इसी को आधुनिकता बता रहा है कि बदलने दो, यही बदलाव है!
इन प्रतिक्रियात्मक विचारों में कहीं बेसमझी स्वीकार्यता है, कहीं चिंता है, कहीं बेचैनी और कहीं उलझन|
कहीं लोग ऐसी प्रतिक्रियाएं देते वक्त संस्कृति-संस्कार और सामाजिक पहचान व् किरदार को मिक्स तो नहीं कर रहे? मुझे तो ऐसा ही लग रहा है|
क्योंकि संस्कृति-संस्कार-मान-मान्यताएं बदलती तो सदियों से चले आ रहे बाइबिल-कुरान-गीता-रामायण-महाभारत-गुरुग्रंथ आदि भी बदल गए होते, नहीं?
क्योंकि संस्कार-संस्कृति-मान-मान्यताएं बदलती तो सदियों से चले आ रहे चर्च-मस्जिद-मंदिर-गुरुद्वारे भी बदल गए होते, नहीं?
क्योंकि संस्कार-संस्कृति-मान-मान्यताएं बदलती तो मराठी-बंगाली-पंजाबी-गुजराती-मलयाली-उड़िया-बिहारी-पहाड़ी-सिंधी-पारसी-कन्नड़ी आदि सब सामाजिक समूह बदल चुके होते, नहीं?
मगर हाँ, इस बीच एक चीज जरूर बदल रही है, दरअसल कहूंगा कि कंफ्यूज हुई अनराहे पर खड़ी है| ऐसे अनराहे पर जो ना तो दोराहा है, ना तिराहा, ना चौराहा; असल में समझ ही नहीं आ रहा कि कितने राहा है?
इसके नाम पे आने से पहले इसकी समस्या पे बात करते हैं| समस्या हैं दो| एक तो यह कि यह हरयाणा-दिल्ली-वेस्ट यूपी-राजस्थान-पंजाब के तथाकथित मेजोरिटी धर्म वाले जमींदार के "के बिगड़े से", "देखी जागी", "यें भी आपणे ही सैं" वाले अभिमानी अतिविश्वासी स्वभाव की है| दूसरी बात में बड़ा उल्टा सिस्टम है| बाहर से आये हुए शरणार्थी, नौकरी-पेशा-व्यापारी वर्गों के साथ मिक्स होने की ललक बाहर से आये हुए लोगों से ज्यादा इन स्थानीय जमींदार वर्ग के लोगों को है| और इन स्थानियों में से जो शहर को निकल जाते हैं, उनके तो बाप रे कहने ही क्या| बाजे-बाजे तो ऐसे अहसास दिलाते हैं जैसे वो भी शरणार्थी ही यहाँ आये थे|
इस हरयाणा-दिल्ली-वेस्ट यूपी-राजस्थान-पंजाब क्षेत्र जिसको मोटे तौर खापलैंड भी कह देते हैं, इन लोगों को समझना होगा कि आप संस्कृति-संस्कार-मान-मान्यताओं से ज्यादा अपनी सामाजिक पहचान व् किरदार बदल ही नहीं रहे हैं; बल्कि खो रहे हैं, उसको घटा रहे हैं|
जैसे ईसाई एक धर्म है संस्कृति है, और उसमें कैथोलिक-प्रोटेस्टंट्स-ऑर्थोडॉक्स इसके सामाजिक समूह व् किरदार हैं| ऐसे ही हिन्दू एक धर्म है, इसमें सनातनी (मूर्तिपूजक), आर्यसमाजी (सन 1875 से पहले यह समूह मूर्तिपूजा-विमुख परन्तु मूर्ती-उपासक, जिसमें खापलैंड की जमींदार जातियां झंडबदार रही हैं) इसके सामाजिक समूह व् किरदार हैं| व् ऐसे ही अन्य समूह|
विश्व में कहीं भी चले जाइये, किसी भी देश-सभ्यता-धर्म-संस्कृति में; हर किसी के धर्म-कानून-कस्टम का निर्धारक जमींदार वर्ग रहा है| फ्रांस हो, इंग्लैंड हो, अमेरिका हो, इटली-स्पेन-जर्मनी-ऑस्ट्रेलिया-चीन कोई देश हो; हर जगह जमींदार वर्ग की पहचान ही धर्म-सभ्यता-संस्कृति का सोर्स होती है| व्यापार-धर्माधीस-भूमिहीन कहीं भी इन चीजों का निर्धारक नहीं मिलेगा|
बाहर भी क्यों देखना दिल्ली-एनसीआर-चंडीगढ़ जैसे शहरों में आन बसे मराठी-बंगाली-पंजाबी-गुजराती-मलयाली-उड़िया-बिहारी-पहाड़ी-सिंधी-पारसी-कन्नड़ी आदि में क्या छोड़ा किसी ने खुद को इन पहचानों के अनुसार कहना-कहलवाना-पहनना-खाना आदि? जबकि हरयाणवी यहां के स्थाई निवासी होने पर भी, इनसे मिक्स होने के चक्कर में अपनी पहचान दांव पे धरते जा रहे हैं|
दादा खेड़ा, बेमाता, चौपाल, खाप, गाम-गुहांड-गौत, जोत-ज्योत-टिक्का सब सुन्ना सा छोड़ दिया है; ऊपर वाले के रहमो कर्म पर? बावजूद इसके कि इनमें कोई खोट नहीं, बावजूद दुनिया की मानवता व् समरसता से भरपूर होने के?
मैंने तो जीवन में एक चीज देखी और बड़े अच्छे से समझी है| जमींदार चाहे तो धर्म को अपने अनुसार चला ले, व्यापार तक अपने अनुसार करवा ले| उदाहरण के तौर पर सिख धर्म देख लो, दस-के-दस गुरु व्यापारिक वर्ग के पिछोके से हुए; परन्तु वहां जमींदार की खोली खुलती है और उसी की बाँधी बंधती है| हाँ, व्यापार और जमींदार के रिश्ते पर इन लोगों को काम करना अभी बाकी है| इस्लाम धर्म देख लो, जमींदार वर्ग की खोली खुलती है और उसी की बाँधी बंधती है|
सदियों तक धूमिल चले हिन्दू धर्म में भी सन 1669 के गॉड-गोकुला जी की शहादत के बाद से इसके जमींदार की फिरकी ऐसी निकली कि खापलैंड पर बीसवीं सदी के अंत तक ना सिर्फ धर्म में अपितु व्यापार में भी इसी की खोली खुली और इसी की बाँधी बंधी| मैं इसको जमींदार वर्ग के आधुनिक युग का स्वर्णिम काल कहता हूँ|
और इसको हमें आगे भी जिन्दा-जवाबदेह-जोरदार रखना है तो बहुत लाजिमी है कि फिल्म-सीरियल्स में दिखाई जाने वाली कल्चर-मान-मान्यताओं पर चौपाल स्तर के विश्लेषण होवें| इन पर जवान-बच्चे-बूढ़े-महिला-पुरुषों के साथ बैठ के चिंतन-मनन करने होंगे| जमींदार वर्ग के समूहों की जितनी भी पत्र-पत्रिकाएं निकलती हैं उनमें इन पर विशेष कॉलम-सेक्शंस बना के सीरीज में इन फिल्मों-सीरियलों के एक-एक एपिसोड के विश्लेषण छापने होंगे| जो कि आज के दिन 99% पत्रिकाओं से गायब हैं| जबकि मैं-स्ट्रीम के अख़बार-पत्रिकाएं इनसे सम्भंधित विशेष कॉलम रखते हैं|
और इन विश्लेषणों में इनको अपनी स्थानीय संस्कृति-सभ्यता की मान-मान्यताओं के समक्ष रख तुलनात्मकताएँ पेश करनी होंगी| ताकि आपकी युवा पीढ़ी अपने आपको अपनी जड़ों से सटीकता से सहज बैठा सके| फिल्म-सीरियलों में जो आता है, उसमें और अपने वाले की वास्तविकता की सच्चाई जान्ने के साथ, कौनसा बेहतर है यह पूरी विश्वसनीयता से सेट कर सके| और अपने हरयाणवी होने की बजहों में गर्व-गौरव-गरिमा सब समझ सके| मैनेजमेंट की परिभाषा में बोले तो बेंचमार्किंग करनी होगी|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
कोई कहता है हमारा समाज तेजी से बदल रहा है, जो कि बहुत खतरनाक है!
कोई इसको समय की मांग बता रहा है!
कोई इसी को आधुनिकता बता रहा है कि बदलने दो, यही बदलाव है!
इन प्रतिक्रियात्मक विचारों में कहीं बेसमझी स्वीकार्यता है, कहीं चिंता है, कहीं बेचैनी और कहीं उलझन|
कहीं लोग ऐसी प्रतिक्रियाएं देते वक्त संस्कृति-संस्कार और सामाजिक पहचान व् किरदार को मिक्स तो नहीं कर रहे? मुझे तो ऐसा ही लग रहा है|
क्योंकि संस्कृति-संस्कार-मान-मान्यताएं बदलती तो सदियों से चले आ रहे बाइबिल-कुरान-गीता-रामायण-महाभारत-गुरुग्रंथ आदि भी बदल गए होते, नहीं?
क्योंकि संस्कार-संस्कृति-मान-मान्यताएं बदलती तो सदियों से चले आ रहे चर्च-मस्जिद-मंदिर-गुरुद्वारे भी बदल गए होते, नहीं?
क्योंकि संस्कार-संस्कृति-मान-मान्यताएं बदलती तो मराठी-बंगाली-पंजाबी-गुजराती-मलयाली-उड़िया-बिहारी-पहाड़ी-सिंधी-पारसी-कन्नड़ी आदि सब सामाजिक समूह बदल चुके होते, नहीं?
मगर हाँ, इस बीच एक चीज जरूर बदल रही है, दरअसल कहूंगा कि कंफ्यूज हुई अनराहे पर खड़ी है| ऐसे अनराहे पर जो ना तो दोराहा है, ना तिराहा, ना चौराहा; असल में समझ ही नहीं आ रहा कि कितने राहा है?
इसके नाम पे आने से पहले इसकी समस्या पे बात करते हैं| समस्या हैं दो| एक तो यह कि यह हरयाणा-दिल्ली-वेस्ट यूपी-राजस्थान-पंजाब के तथाकथित मेजोरिटी धर्म वाले जमींदार के "के बिगड़े से", "देखी जागी", "यें भी आपणे ही सैं" वाले अभिमानी अतिविश्वासी स्वभाव की है| दूसरी बात में बड़ा उल्टा सिस्टम है| बाहर से आये हुए शरणार्थी, नौकरी-पेशा-व्यापारी वर्गों के साथ मिक्स होने की ललक बाहर से आये हुए लोगों से ज्यादा इन स्थानीय जमींदार वर्ग के लोगों को है| और इन स्थानियों में से जो शहर को निकल जाते हैं, उनके तो बाप रे कहने ही क्या| बाजे-बाजे तो ऐसे अहसास दिलाते हैं जैसे वो भी शरणार्थी ही यहाँ आये थे|
इस हरयाणा-दिल्ली-वेस्ट यूपी-राजस्थान-पंजाब क्षेत्र जिसको मोटे तौर खापलैंड भी कह देते हैं, इन लोगों को समझना होगा कि आप संस्कृति-संस्कार-मान-मान्यताओं से ज्यादा अपनी सामाजिक पहचान व् किरदार बदल ही नहीं रहे हैं; बल्कि खो रहे हैं, उसको घटा रहे हैं|
जैसे ईसाई एक धर्म है संस्कृति है, और उसमें कैथोलिक-प्रोटेस्टंट्स-ऑर्थोडॉक्स इसके सामाजिक समूह व् किरदार हैं| ऐसे ही हिन्दू एक धर्म है, इसमें सनातनी (मूर्तिपूजक), आर्यसमाजी (सन 1875 से पहले यह समूह मूर्तिपूजा-विमुख परन्तु मूर्ती-उपासक, जिसमें खापलैंड की जमींदार जातियां झंडबदार रही हैं) इसके सामाजिक समूह व् किरदार हैं| व् ऐसे ही अन्य समूह|
विश्व में कहीं भी चले जाइये, किसी भी देश-सभ्यता-धर्म-संस्कृति में; हर किसी के धर्म-कानून-कस्टम का निर्धारक जमींदार वर्ग रहा है| फ्रांस हो, इंग्लैंड हो, अमेरिका हो, इटली-स्पेन-जर्मनी-ऑस्ट्रेलिया-चीन कोई देश हो; हर जगह जमींदार वर्ग की पहचान ही धर्म-सभ्यता-संस्कृति का सोर्स होती है| व्यापार-धर्माधीस-भूमिहीन कहीं भी इन चीजों का निर्धारक नहीं मिलेगा|
बाहर भी क्यों देखना दिल्ली-एनसीआर-चंडीगढ़ जैसे शहरों में आन बसे मराठी-बंगाली-पंजाबी-गुजराती-मलयाली-उड़िया-बिहारी-पहाड़ी-सिंधी-पारसी-कन्नड़ी आदि में क्या छोड़ा किसी ने खुद को इन पहचानों के अनुसार कहना-कहलवाना-पहनना-खाना आदि? जबकि हरयाणवी यहां के स्थाई निवासी होने पर भी, इनसे मिक्स होने के चक्कर में अपनी पहचान दांव पे धरते जा रहे हैं|
दादा खेड़ा, बेमाता, चौपाल, खाप, गाम-गुहांड-गौत, जोत-ज्योत-टिक्का सब सुन्ना सा छोड़ दिया है; ऊपर वाले के रहमो कर्म पर? बावजूद इसके कि इनमें कोई खोट नहीं, बावजूद दुनिया की मानवता व् समरसता से भरपूर होने के?
मैंने तो जीवन में एक चीज देखी और बड़े अच्छे से समझी है| जमींदार चाहे तो धर्म को अपने अनुसार चला ले, व्यापार तक अपने अनुसार करवा ले| उदाहरण के तौर पर सिख धर्म देख लो, दस-के-दस गुरु व्यापारिक वर्ग के पिछोके से हुए; परन्तु वहां जमींदार की खोली खुलती है और उसी की बाँधी बंधती है| हाँ, व्यापार और जमींदार के रिश्ते पर इन लोगों को काम करना अभी बाकी है| इस्लाम धर्म देख लो, जमींदार वर्ग की खोली खुलती है और उसी की बाँधी बंधती है|
सदियों तक धूमिल चले हिन्दू धर्म में भी सन 1669 के गॉड-गोकुला जी की शहादत के बाद से इसके जमींदार की फिरकी ऐसी निकली कि खापलैंड पर बीसवीं सदी के अंत तक ना सिर्फ धर्म में अपितु व्यापार में भी इसी की खोली खुली और इसी की बाँधी बंधी| मैं इसको जमींदार वर्ग के आधुनिक युग का स्वर्णिम काल कहता हूँ|
और इसको हमें आगे भी जिन्दा-जवाबदेह-जोरदार रखना है तो बहुत लाजिमी है कि फिल्म-सीरियल्स में दिखाई जाने वाली कल्चर-मान-मान्यताओं पर चौपाल स्तर के विश्लेषण होवें| इन पर जवान-बच्चे-बूढ़े-महिला-पुरुषों के साथ बैठ के चिंतन-मनन करने होंगे| जमींदार वर्ग के समूहों की जितनी भी पत्र-पत्रिकाएं निकलती हैं उनमें इन पर विशेष कॉलम-सेक्शंस बना के सीरीज में इन फिल्मों-सीरियलों के एक-एक एपिसोड के विश्लेषण छापने होंगे| जो कि आज के दिन 99% पत्रिकाओं से गायब हैं| जबकि मैं-स्ट्रीम के अख़बार-पत्रिकाएं इनसे सम्भंधित विशेष कॉलम रखते हैं|
और इन विश्लेषणों में इनको अपनी स्थानीय संस्कृति-सभ्यता की मान-मान्यताओं के समक्ष रख तुलनात्मकताएँ पेश करनी होंगी| ताकि आपकी युवा पीढ़ी अपने आपको अपनी जड़ों से सटीकता से सहज बैठा सके| फिल्म-सीरियलों में जो आता है, उसमें और अपने वाले की वास्तविकता की सच्चाई जान्ने के साथ, कौनसा बेहतर है यह पूरी विश्वसनीयता से सेट कर सके| और अपने हरयाणवी होने की बजहों में गर्व-गौरव-गरिमा सब समझ सके| मैनेजमेंट की परिभाषा में बोले तो बेंचमार्किंग करनी होगी|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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