Sunday, 31 May 2020

एथिकल पूंजीवाद के धोतक अमेरिका का नश्लभेद व् अनएथिकल पूंजीवाद के धोतक इंडियन वर्णवाद का नश्लभेद!

It is about the justice sensitivity in Ethical Capitalism of USA versus Unethical Capitalism of Indian Varnvad.

अमेरिका में एक गौरे Donald Trump की सरकार होते हुए, एक गौरा पुलिस वाला Derek Chauvin एक ब्लैक George Floyd की लगभग 27 मिनट पैरों तले कुचल के हत्या कर देता है या कहिये उससे हो जाती है परन्तु यह अमेरिकी कोर्ट ने कन्फर्म किया है कि हत्या की है| 25 मई 2020 को हत्या हुई, 27 को गिरफ्तारी कर केस FBI को (आम पुलिस को नहीं), और 29 मई 2020 को Derek को कोर्ट से सजा कन्फर्म सुना दी जाती है| 4 दिन में ताबड़तोड़ तरीके से प्रोसेस कम्पलीट| पूरा मामला खुलने पर पब्लिक जबरदस्त हंगामा करती है इतना कि Donald Trump व् उसका परिवार हाई सिक्योरिटी के तहत बंकरों जैसी सुरक्षा में डालना पड़ता है; यह होता है जागरूक व् आत्मनिर्भर पब्लिक का रूतबा व् रौब|

रंगभेद-नश्लभेद का यह मामला बना है, अमेरिका में एक ऐसा केस बर्दास्त नहीं और अपने इंडिया में चतुर्वर्णीय व्यवस्था का फंडियों (जो धर्म के सच्चे मानवीय पथ के अनुयायी हैं वो फंडियों में नहीं आते) ने जो मकड़जाल बुन रखा है कि बहुतेरे तो इस मानसिक गुलामी में जीने को ही संस्कृति-सभ्यता मान के जिए जाते हैं| और इसको कायम रखने के लिए फंडियों ने सरकारों से ले प्रसाशन तक ऐसा तंत्र बना-बुना हुआ है कि 4 दिन तो क्या 4 दशक तक भी फैसला हो ले किसी केस का तो गनीमत| केस हो ले, अरे चिमयानन्द स्वामी व् उन्नाव वाले एमएलए बाबू तो इन वर्णवादी फंडियों की शय पर ऐसे खुल्ले सांड हैं कि बलात्कार के आरोप लगाने वाली लकड़ियों समेत उनके परिवारों तक को पाताललोक पहुंचवा देते हैं| जम्मू-कश्मीर में एक गुज्जर लड़की के गैंग-रेप व् हत्या के आरोपियों के पक्ष में तथाकथित धर्मरक्षक आन खड़े होते हैं| यूँ ही थोड़े इंडिया के कोर्टों में 3.5 करोड़ केसों का ढेर लगा हुआ है, सब इन वर्णवादियों की मेहरबानी है| क्योंकि इस अनएथिकल पूंजीवाद की मानसिकता में पोषित हैं 90% जज-वकील| एंडी के चेले काम ही करके नहीं देते, फोकट की सैलरी व् वीआईपी सुविधाएँ फोड़ते हैं पब्लिक के टैक्स पे| इनको यह लगता है कि तुम कोर्ट में नहीं किसी धर्मस्थल में बैठे हो कि जनता तुमको चढ़ावा चढाती रहे और तुम बस जीमते रहो| और यह बिना काम किये, बिना हाथ-पैर हिलाये कमाई का सिस्टम यूँ ही चलता रहे इसलिए समयबद्ध-क्रमबद्ध-न्यायबद्ध जस्टिस डिलीवरी पे ध्यान ही मत दो| और 90% प्रतिशत इंडियन इस तथ्य से सहमत है परन्तु चतुर्वर्णीय व्यवस्था के मकड़जाल बुद्धि-चेतना पर ऐसे पड़े हैं कि चुसकते ही नहीं| ठाठी के चेले उल्टा इसी को कल्चर-सभ्यता के नाम पर ओढ़े टूरदे हैं|

यह फंडी 36 बिरादरी के भाईचारे की पीपनी भी बजायेंगे तो अपने सुर की, ऐसे थोथे तो इनके भाईचारे के लहरे हैं| और जो भाईचारे के असली पैरोकार हैं वह इन थोथे लहरों में ऐसे झूमते हैं कि जैसे भाईचारा शब्द सुना ही पहली बार हो| बोर और बड़ाई के भूखे-बावले ना हों तो|

अमेरिका-यूरोप जैसे देशों की ऊपरवर्णित पहले पहरे वाली सोच से मिलती एथिकल पूंजीवाद वाली न्यायप्रियता इंडिया में सिर्फ उदारवादी-जमींदारी व्यवस्था में रही है, जिसने दोषियों को सजा देते वक्त ना वर्ण देखे, ना रंग (1-2% अपवादों को छोड़कर| परन्तु इन फंडियों ने उन्हीं को इतना बदनाम कर दिया तालिबानी-रूढ़िवादी आदि-आदि शब्दों के साथ कि आज के दिन वह भी विचलित से चल रहे हैं| इनको जरूरत है तो इस वर्णवादी सामंती व्यवस्था से हट के अपने पुरखों की वर्णवाद से रहित ईजाद की हुई उदारवादी जमींदारी की फिलॉसफी को अंगीकार कर, उसका प्रचार करने की| कम-से-कम एनआरआई तो कर ही सकते हैं, अगर इंडिया में वर्णवादियों के हद से ज्यादा बढ़ चुके मकड़जाल के चलते चीजें अभी इतनी आसान नहीं लग रही फिर से बहाल करनी तो? तो इसके लिए आप सर-जोड़िये व् इंडियन धरातल के अपने घर-कुणबे-ठोले-समाज को ऐसा करने की कहिये|

फंडियों की पीठ तोड़ने का मंत्र: यह फुकरे प्रशंसा के बहुत भूखे होते हैं| तुम्हारा लाचारी भरा चेहरा इनके चेहरे की सबसे बड़ी मुस्कान व् शरीर की खुराक होती है| इसलिए लाचारी-बेबसी सा चेहरा बना के इनको ताड़ पे चढ़ाये रखा करो और देने-दुने को यानि दान के नाम पे लाचारी दिखाते रहा करो| और नीचे-नीचे अपनी कार्यवाही बिठाते जाओ और एक सटीक वक्त आने पर मारो उलाळ के इनके सिंहासनों समेत ऐसे कि बस यही कहने तक का वक्त मिले इनको कि "यह क्या बनी"|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 29 May 2020

छोटा-मोटा कैपिटलिस्ट (Capitalist) मैं भी हूँ परन्तु एथिकल कैपिटलिस्ट हूँ मैं!

बचपन से बाप-दादा को मुनीम के जरिये मेरे घर में काम करने वाले सीरियों (वर्णवादयुक्त सामंतवादी जमींदारी में जिसको नौकर कहते हैं, हमारी वर्णवादमुक्त उदारवादी जमींदारी में उसको सीरी कहते हैं), के सीर बही में चढ़वाते देखते हुए जो बड़ा हुआ वो छोटा-मोटा कैपिटलिस्ट हूँ मैं; परन्तु एथिकल यानि नैतिक व् मानवीय कैपिटलिस्ट हूँ मैं| क्योंकि जो बही में रकम लिखी सिर्फ उतना नहीं बल्कि सीरी का तीन जून का खाना, वक्त-वक्त पर अपने खेतों का हरा चारा, लकड़ी, बणछटी, तूड़ा, अनाज, दूध तक से अपने सीरी के परिवार को सहारा देना सीखा और आज भी दस्तूर जारी है| भीड़ पड़ी में सीरियों की बहन-बेटियों के ब्याह-वाणे अपनी सगियों जैसे निबटवाने का दस्तूर है मेरे कैपिटलिज्म में| दरअसल यह जो कैपिटलिज्म खापलैंड के ग्रामीण आँचल का है मेरा परिवार तो उसको बताने का एक जरिया मात्र है अन्यथा खापलैंड का 90% उदारवादी जमींदार (10% वर्णवादी बुद्धि से ग्रसित वालों के लिए अपवाद स्वरूप छोड़ रहा हूँ) ऐसा ही कैप्टिलिस्ट होता है| सीरी तो सीरी बाप-दादाओं के वक्तों में तो घर के कुम्हार-लुहार-नाई-खाती-तेली-झीमर आदि तकों की बेटियों के ब्याह-वाणे ओटदे रहे उन उदारवादी जाट-जमींदारों के कल्चर का एक छोटा सा चिराग हूँ मैं| यह 35 बनाम 1 व् जाट बनाम नॉन-जाट तो 2016 की कहानी हैं, इससे पहले न्यूतम 2016 सालों से जो एथिकल कैपिटलिज्म पालता आया वह पिछोका है मेरा|

बचपन से जो अपने यहाँ पूर्वांचल-बिहार-बंगाल-झारखंड-नेपाल तक से मजदूर गेहूं कटाई, धान रोपाई, डंगर चराई व् वेस्ट यूपी से अधिकतर मुस्लिम मजदूर गंडा (गन्ना) छुलाई के लिए आते देखे, वह सब आते वक्त भी एडवांस पेमेंट ले के आते देखे और जाते वक्त भी एडवांस पेमेंट ले के जाते देखे| बाप-भाई रेलवे स्टेशंस पर से लाते देखे तो खैर-ख्व्वहा-खैरियत से रेलों में बैठा के भी आते देखे| एक-दो बार खुद लाने व् छोड़ने गया हूँ| सीजन खत्म होने पे वापिस जाते वक्त गाड़ी में बैठते हुए बिहारी मजदूर यह कहते हुए कि "बाबू जी, अगली बार किसी और टोली को मत बुलाइयेगा, हम ही आएंगे आपके यहाँ" कहते हुए मुझको यह तसल्ली देते हुए दिखे कि हमने हमारे कैपिटलिज्म को बड़ी नैतिकता यानि एथिक्स से निभाया तभी इन्होनें आगे की एडवांस बुकिंग की हमारे ही यहाँ की हमसे हाँ भरवाई|

यहाँ बता दूँ कि 100% दिहाड़ीदारप्रवासी मजदूर वहां के वर्णवादी सामंती जमींदारों के अत्याचार के सताये हुए आते हैं| मेरे घर आने वाली हर टोली से व्यक्तिगत रिसर्च के आधार पर कह रहा हूँ, सबने यही कहा कि हमारे यहाँ भूमिहार ब्राह्मण-ठाकुर हमें इज्जत से हमारा जायज भी कमाने दे तो हम क्यों आवें यहाँ; हमारे यहाँ क्या पानी की, नदियों की, उपजाऊ जमीन की हरयाणा-पंजाब से कमी है? कमी है तो इंसानियत की जो कि धरती की सबसे घटिया वर्णवादी व्यवस्था हमारे यहाँ पनपने नहीं देती| कहते थे मुझे सीधे की आप जाट-जमींदार बेशक खूंखार हो परन्तु इंसानियत में लाजवाब हो; बाबू जी अपनी इस इंसानियत को इन वर्णवादियों की चपेट से बचाये रखना, आपकी धरती यूँ ही पूरे इंडिया की सबसे सम्पन्न व् समृद्ध धरती रहेगी| वरना जिस दिन इन वर्णवादी गिद्दों की गिरफ्त यहाँ बढ़ी, समझ लेना बिहार-बंगाल से भी बड़ा उज्जड-बियाबाँ बना छोड़ेंगे ये यहाँ|

खैर, आज भी घर में कभी दो, कभी तीन सीरी रहते हैं, सब मुस्लिम हैं और वेस्ट यूपी के हैं; परन्तु बरतेवा इनसे भी एथिकल कैपिटलिस्ट्स वाला है|

मैं खुद छोटा-मोटा डिजिटल मार्केटिंग का बिज़नेस कर लेता हूँ, इससे पहले दो साल इ-कॉमर्स की वेबसाइट चलाई; जितनी भी दो-चार-पांच-सात वर्कफोर्स की जरूरत या रहती आई, सबको यही ट्रीटमेंट दिया जो घर-आंगन से पुरखों से सीखा यानि एथिकल कैपिटलिस्ट वाला|

बाबा नानक ने जो सच्चा सौदा 1469 में किया था मेरे कल्चर के पुरखे यह सच्चा सौदा "गाम-गुहांड में सर्वधर्म-सर्वजाति का कोई इंसान भूखा-नंगा नहीं सोना चाहिए" के नियम के तहत कईयों 1469 सालों से पालते आये; इसीलिए जब भी बाबा नानक बारे सोचता हूँ तो यही पाता हूँ कि सिख बनने से पहले बाबा जी जिस भी परिवार-कल्चर से रहे होंगे जरूर मेरे वाले इस "एथिकल कैपिटलिज्म" वाले कल्चर जैसे ही रहे होंगे|

अभी हरयाणा के पांच-छह कोनों से, गामों व् दोस्तों से फीडबैक लिया कि हमारे यहाँ से कितना परदेशी मजदूर पलायन करके गया है कोरोना के चलते? तो जवाब आया कि उदारवादी जमींदार को छोड़ के कोई नहीं जाने वाला, 70% यहीं है हमारे पास| जो गया है वो शहरी फैक्ट्रियों-इंडस्ट्री वालों का गया है|

जानकर अहसास हुआ कि यूँ ही नहीं उदारवादी कहला गए मेरे कल्चर के पुरखे| पैसा जोड़ने के मामले में इतने बड़े कैपिटलिस्ट सोच के कि उनके पैसे जोड़ने के तरीकों के आगे मूंजी से मूंजी व् कसाई से कसाई भी शर्मा जाए| परन्तु फिर भी कभी जिंदगी में ऐसा मंजर नहीं दिखाया हमारे एथिकल कैपिटलिज्म ने खेतों के सीरियों से ले प्रवासी मजदूरों व् कॉर्पोरेट वर्कफोर्स को, जैसा यह वर्णवादी सामंती मानसिकता से ग्रसित अनएथिकल यानि अनैतिक-बेगैरत कैपिटलिज्म दिखा रहा है कि जो इनके घर-आंगन सींचने-पोछने से ले फैक्टरियों को चलाने वालों के लिए ना इनके पास इनको घर लौटने को देने हेतु पैसे हैं, ना साधन, ना सरकारों के नाक में डंडा कर इन लाचारों के लिए इनके घरों तक जाने का सुखद इंतज़ाम करवाने की कूबत तक उठाने का मर्म, 99% में नहीं|

दुनियां का सबसे खून-चूसने वाला कैपिटलिज्म है सामंती वर्णवादी मानसिकता वाला अनएथिकल कैपिटलिज्म| यह जितना जल्दी खत्म हो उतना इंडिया का उद्धार होगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 24 May 2020

चंद्रप्रकाश कथूरिया का भाजपा से 6 साल के लिए निलंबन अत्याचार है उन पर!

पहले 498A यानि एडलट्री की कानूनी धारा तुम खुद हटाते हो और तो और समलैंगिक प्रेम की धारा 377 तक तुम लागू करते हो| बल्कि इन दोनों को लागू करने बारे, पब्लिक में छीछालेदार भी हुए हो| जब इतनी छिछालेदारी सहन करी और फिर कोई कथूरिया जैसा शरीफ इंसान उसका पालन करे तो पार्टी से निकाल बाहर करते हो, किस आधार पर? चरित्रहीनता के आधार पर या क्राइम के आधार पर? दोनों ही लागू नहीं होते बंदे पे| यह दोगलापन क्यों फिर?

और ऐसे ही ना वह औरत दोषी है, जिसकी वीडियो वायरल की गई है| भला क्यों, जब तुम खुद कानून बना के "एक्स्ट्रा-मेरिटल-अफेयर" को कानूनी वैधता दिये हो तो करने दो लोगों को उसका पालन|

अन्यथा वो "900 चूहे खा के बिल्ली हज को चली" तर्ज पर इतनी मोरल पोलिसिंग का शौक चढ़ा है तो फिर यह 498A पुराने रूप में ही रहने दो और 377 को बंद कर दो|

ओ हो शुक्र मनाओ यह तो भाजपा ने निलंबित किया! तमाशा तो तब देखते जब अगर कोई जाट खाप पंचायत टाइप बॉडी ऐसे ही किसी अवैध-संबंध वाले को "गाम निकाला दे देती" या "हुक्का-पानी बंद कर देती" या "समाज से गिरा देती"| यही मीडिया में बैठे पिलुरे क्या-क्या तोड़ पाड़ देने वाले शब्द ढूंढ-ढूंढ कर लाते, "तालिबानी लोग", "क्रूर-निर्दयी इंसानियत के दुश्मन, गंवार जाहिल लोग, "कंगारू कोर्ट्स चलाने वाले रूढ़िवादी-तकियानूसी" पता नहीं क्या-क्या फूट पड़ता इनकी जुबान व् कलम दोनों से|

वो मेरी दादी वाली बात, "ऐ जाओ ना उठाईगीरों" देखी तुम्हारी आधुनिकता और खुलापन; दो मर्जी से प्यार करने वाले नहीं सुहाते तुम्हें, वह भी तुम्हारे बनाये कानूनों पर चलते हुए|

चिंतन कीजिये: क्या तो उस औरत की वीडियो वायरल करने से होगा और क्या कथूरिया को पार्टी से निलंबित करने से होगा? करना है कुछ, माथा मारना है तो बोलो इन कानून बनाने वालों को कि 498A पुनर्बहाल हो व् 377 खत्म हो| 498A हटा के जो गदर मचाने का हक तुमने खुद दिया हुआ है मैरिड-कपल्स को इतना गदर तो वेस्टर्न कंट्रीज में भी नहीं है; जिनको अक्सर तुम तुम्हारे कल्चर-वैल्यू सिस्टम को बिगाड़ने की तोहमद रखते रहते हो| यहाँ मैरिड आदमी हो या औरत, ब्याहता के अलावा किसी के साथ दिख भी जाता है तो मात्र इस बात पे भी तलाक हो जाते हैं यहाँ| और इसीलिए ज्यादा तलाक होते हैं यहाँ| तुमसे-हमसे तो ज्यादा चरित्रवान फिर यह लोग हुए, या नहीं हुए?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 22 May 2020

ना आर्यसमाज का सम्पूर्ण विरोध व्यवहारिक है और ना ही अंधसमर्थन!

सम्पूर्ण विरोध करना, पुरखों की करी-कराई मेहनत उनको सौंप देना है जो गिद्द की भाँति आर्य समाज की लैंड-प्रॉपर्टी पर नजर गड़ाए बैठे हैं बल्कि घुसे भी हुए हैं| यह लैंड-प्रॉपर्टी रोज-रोज खड़ी नहीं हुआ करती| ऐतराज है मुझे भी इससे कि इसके अंदर फंडी व् सनातनी यानि मूर्ती-पूजक घुस आये हैं जिनको इनसे बाहर होना ही होना चाहिए| मंत्रणा इस पर होनी चाहिए कि इनको कैसे बाहर किया जाए और चीजों को अपने नियंत्रण में ले कर वह ठीक किया जाए जो आज के दिन इसमें गलत है, या इसको अपनाने के वक्त इसमें डाला नहीं गया या आगे की 100-50 साल की रणनीति क्या होनी चाहिए| किसी को इस नाम से ही दिक्कत है तो उसका भी सलूशन है कि पहले नियंत्रण में लें, उसके बाद गुड़गांवां का गुरुग्राम बनाना या गुड़गाम्मा, तुम्हारे हाथ की बात रहेगी| यह बिना दार्शनिकता का विरोध या तो असमर्थ किया करते हैं या विज़न से रहित किया करते हैं या परिस्तिथि को और ज्यादा तहस-नहस करके, लोगों को कंफ्यूज करके; बंदर की भांति गुड़िया को ऐसे तोड़मोड़ देते हैं कि ना तो वह किसी के काम की रहती अपितु गिद्दों के मंसूबे पूरे करने में और सहायक होती चली जाती है|

अंधसमर्थन करने से पहले:
1 - आर्यसमाज में कुछ ऐसी बातें हैं जो एक हांडी में दो पेट वाली तर्ज पर रही हैं, जैसे शहरों में डीएवी होना, गांव में गुरुकुल; डीएवी इंग्लिश मीडियम से होना, गुरुकुल संस्कृत व् हिंदी, डीएवी में कोएजुकेशन होना, गुरुकुल में लड़कों का अलग, लड़कियों का अलग| इसको ठीक किया जाए|
2 - आर्यसमाज की विचारधारा से ले इनकी लैंड-प्रॉपर्टी में सनातनियों की मूर्ती-पूजा कौन डाल रहा है, आर्य समाज के मूर्ती-पूजा रहित समाज के बेसिक कांसेप्ट के विरुद्ध? है किसी के पास इनको इन घुसपैठियों से बचाने का प्लान? सनद रहे सनातनी वो जो मूर्ती-पूजा करे, आर्यसमाजी वो जो मूर्तिपूजा ना करे|
3 - आर्यसमाज में स्थापना के वक्त नहीं डाली गई चीजें ठीक की जावें: जैसे मूर्तिपूजा रहित हमारा समाज 1875 से पहले भी था, उसका सबूत दादा नगर खेड़े, दादे भैये हैं हमारे| इसलिए अंधसमर्थक जो यह स्तुति करने लगते हैं कि आपके समाज में ज्ञान-विकास 1875 के बाद ही आई, वह अपनी नियत ठीक रखें अपने पुरखों के आध्यात्म के प्रति| यह वो गलती थी ऋषि दयानन्द की जिसका जहाँ क्रेडिट बनता था वह नहीं दिया, जबकि कांसेप्ट मूर्ती-पूजा रहित का दादा खेड़ों से चुपके से उठा लिया; कौन इंकार करेगा इससे? बात इस मिसिंग कनेक्शन को जोड़ने की होनी चाहिए व् साथ ही हमारा समाज सिर्फ मूर्तिपूजा रहित ही नहीं मर्द-पुजारी सिस्टम रहित भी रहा है, इसको जोड़िये यहाँ| 100% औरत को धोक-ज्योत का अधिकार जो समाज देता आया उसमें मर्द पूजा-पदाधिकारी घुसाने का इल्जाम तो है आर्यसमाज पर| कैसे ठीक करेंगे इसको या इसका कोई मध्यम रास्ता निकालेंगे, इसपे बात की जाए|
4 - जो लोग यह कहते हैं कि आर्यसमाज ने उनको मानवता सीखा दी, या सभ्यता बता दी; वह यह ना भूलें कि जब आर्यसमाज स्थापित हो रहा था जाट जैसा समाज "धौली की जमीन" के तहत जमीनें दे-दे ना सिर्फ ब्राह्मणों को रैन-बसेरे-रोजगार के साधन कर रहा था अपितु दलित से ले ओबीसी हर जाति को अपने यहाँ बसा रहा था और उससे बहुत पहले बसाता आया है, "दादा नगर खेड़े के खेड़े के गौत" के नियम के तहत| 95% जाट बाहुल्य गामों को यही कहानी है, किसी को बहम हो तो बात कर ले| यहाँ तक दर्जनों तो बनियों को जानता हूँ मेरे आज के सर्किल में, जिनके दुकान-फैक्ट्री जाटों के यहाँ से लिए उधार या कर्जे पे बसे-बने-चले| बेशक आज वो अरबो-कऱोड़ोंपति हों; परन्तु हर चार में से एक बनिये की यह कहानी मिल जानी है, आज की पीढ़ी में नहीं तो दो-चार-पांच पीढ़ी पहले| इसलिए रहम कीजिये अपने पुरखों में मानवता-सभ्यता डालने का सारा क्रेडिट आर्यसमाज को देने बारे| यहाँ ऐसे-ऐसे साहूकार जाट रहे हैं जिनके घरों में पंडतानी ब्राह्मणी औरतें रसोई का रोटी-टूका-बर्तन करने आती रही हैं| इसमें पहला उदाहरण तो खुद मेरा बड़ा नानका रहा है| चाटुकारिता व् स्वभिमानहीनता की हद पर मत उतरिये|
5 - इस बात में कोई दो राय नहीं कि आर्यसमाज जाटों को सिखिज्म में जाने से रोकने हेतु मनाने हेतु लाया गया था, वरना यह गुजरात-महाराष्ट्र-बॉम्बे में क्यों नहीं फैला, जहाँ के कि खुद ऋषि दयानन्द थे? यह उसी इलाके में क्यों फैला जहाँ सिखिज्म बढ़ रहा था और जाट उसमें जा रहे थे?

अत: यहाँ इस बात को इस अहम-डिग्निटी से जोड़ के देखिये कि वह ब्राह्मण जो धोक-पूजा की मोनोपोली में किसी को ऊँगली भी नहीं धरने देता, उसने इसमें जाटों की हिस्सेदारी स्वीकार की| स्वीकार ही नहीं की अपितु ब्राह्मण की सनातनी परम्परा के समानांतर जाट की मूर्ती-पूजा रहित दादा नगर खेडाई (1875 के बाद आप इसको आर्य-समाज कह सकते हैं) स्वीकारी| यह डिग्निटी थी हमारे पुरखों की कि यहाँ रहे भी तो इस डिग्निटी के साथ कि ब्राह्मण हमारे धोक-पूजा-कर्मकांड-हवन-यज्ञ में दखल नहीं देगा| जिसमें कि आज के दिन हद दर्जे से ऊपर तक जा के हो रहा है|

अगर खुद को अपने पुरखों से स्याना-बेहतर-जागरूक व् क्रांतिकारी समझते हो तो इसको रोकने पर व् पुरखों की वह डिग्निटी यानि अणख कायम रखवाने पर काम होना चाहिए| जिसपे मैं और मेरे जैसे बहुत से भाई चुपचाप दिनरात लगे रहते हैं| और गजब देखिये हमारी पोस्टों पर कभी ऐसे विरोधाभाष भी नहीं होते, हम इस स्टाइल से काम कर रहे हैं| क्योंकि हमें काम करना है, हमें जो चाहिए वो पाना है| आप भी हासिल पे ध्यान दिजिये, मात्र हस्तक्षेप पर नहीं; बल्कि हस्तक्षेप करने वाले तो आर्यसमाज से बाहर निकालने हैं या निकलवाने हैं| ऐसे ही और बिंदु है इस लेख के शीर्षक के दोनों भागों के लिए, वह फिर कभी|

और हाँ 1937 के आर्य मैरिज एक्ट में सिर्फ इतना है कि आप अंतर्जातीय व् अंतरधर्म विवाह कर सकते हो, उसमें यह कहीं नहीं लिखा कि आप एक गाम या एक गौत में भी ब्याह कर सकते हो| ऐसा होता तो उस वक्त सर छोटूराम की सरकार थी यहाँ वह नहीं होने देते| इतना भरोसा रखिये अपने उस पुरखे पर| समझ नहीं आती कि अपने बेसिर-पैर के प्रोपगैण्डे आगे करते-करते कब उसी व्यक्ति के राज में हुई चीजों (यह आर्य मैरिज एक्ट इस केस में) पर ही उँगलियाँ उठाने लग जाते हैं जिसको अपने मिशन का फिगर व् आइडियल पुरुष बना कर चले हुए हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 20 May 2020

आज मेरे पास एक अजीब प्रश्न आया: क्या यौद्धेय-लोग नास्तिक होते हैं? क्या यूनियनिस्ट मिशन नास्तिक है?

मैं: आपको क्यों लगा?
प्रश्नकर्ता: जब देखो, फंडियों के खिलाफ पोस्टें, फंडियों की आलोचना|
मैं: धर्म की आलोचना या धर्म के खिलाफ तो पोस्टें नहीं देखी होंगी?
प्रश्नकर्ता: एक-आध की पोस्टों में फंडी विरोध की इतनी अति हो जाती है कि ऐसा ही प्रतीत होने लगता है कि आप यौद्धेय तो धर्म के ही विरुद्ध हैं|
मैं: नहीं ऐसा नहीं है| अगर ऐसा किसी की पोस्ट से प्रतीत भी होता है तो उसको सटीक बैलेंस्ड शब्दों का चयन करना सीखने के अभ्यास की जरूरत है|
प्रश्नकर्ता: तो फिर धर्म पर आप लोगों का सही-सही स्टैंड क्या है?
मैं: वैसे तो हर यौद्धेय, अपने-अपने हिसाब से अपनी व्याख्या रखने को स्वतंत्र है; परन्तु मोटे-तौर पर जिस प्रकार के धर्म-आध्यात्म पर यौद्धेयों में सहमति देखी गई है, वह है पुरख पूजा व् प्रकृति की पूजा|
प्रश्नकर्ता: और जिस पर सहमति नहीं है, वह?
मैं: माइथोलॉजी को हम नहीं मानते|
प्रश्नकर्ता: क्यों?
मैं: जिसके नाम में ही मिथ है वह नाम से ही बोल रही है कि मैं सच नहीं हूँ, तो कैसे मानें उसको?
प्रश्नकर्ता: पुरख पूजा व् प्रकृति पूजा से आशय?
मैं: दोनों की शक्ति का एक धाम, जो जेंडर सेंसिटिव (मर्द देखरेख व् सुरक्षा देखता है, औरत धोक-ज्योत व् बच्चों को इनके माध्यम से अपने पुरखों, प्रकृति, इतिहास व् ह्यूमैनिटी से जोड़ती है; मर्द पुजारी सिस्टम प्रतिबंधित है) भी है और ह्यूमैनिटी सेंसिटिव (कोई जाति-धर्म-वर्ण प्रतिबंध या भेदभाव नहीं) भी है यानि मूर्ती-पूजा रहित "दादा नगर खेड़े"| इसमें मर्द-पुजारी सिस्टम नहीं होने से समाज के बच्चे नशे-पते से बचे रहते हैं व् औरतें, 99% पुजारियों (1% अच्छे भी होते हैं, परन्तु 1% के लिए 99% को समाज को गंदा करने की इजादत देना, सामाजिक तंत्र को अपने हाथों दिया-सलाई दिखाने जैसा है) की गंदी सामंती व् वासनायुक्त नजरों से| दादा नगर खेड़े को खापलैंड पर क्षेत्र व् हरयाणवी-पंजाबी-मारवाड़ी भाषाओं की बोलियों के अनुसार "दादा भैया", "गाम खेड़ा", "जठेरा", "पट्टी खेड़ा", "बड़ा बीर", "बाबा भूमिया", "भूमिया खेड़ा" आदि बोला जाता है| इस कांसेप्ट के सबसे नजदीक लगता है "आर्य समाज", जिसमें सुधार करके फंडियों को आर्य-समाज की तमाम संस्थाओं-इमारतों से बाहर निकाल इनको शुद्ध करने के पक्षधर हैं यौद्धेय; क्योंकि आखिरकार आर्य-समाज की यह तमाम प्रॉपर्टी खासकर ग्रामीण आँचल की तो विशेष-तौर से हमारे पुरखों की दी हुई जमीन व् धन से बनी हुई हैं| इसलिए इन पर पहला और आखिरी हक वंशानुगत, लीगल व् वैचारिक हर तौर पर हमारा बनता है|
प्रश्नकर्ता: तो आप मूर्तिपूजा नहीं मानते तो घरों में पुरखों की, बच्चों की, ब्याह-शादियों की फोटोज क्यों रखते हो?
मैं: क्या हम उनको यादगार हेतु रखते हैं या पूजने हेतु? मेरे ख्याल से फंक्शन्स वाली यादगार हेतु व् पुरखों की उनकी स्मृति को जिन्दा रख उनकी सीखों से मिलने वाली प्रेरणा को तरोताजा रखने हेतु?
प्रश्नकर्ता: हम्म, यह बात जंची कुछ|
मैं: बस तो फिर|
प्रश्नकर्ता: हम्म्म तर्कसंगत है|
मैं: जी!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

Saturday, 16 May 2020

फोकस की बात: सत्ता-सोहरत के चार फ्रंट, चारों दुरुस्त तो सब चुस्त, सब मस्त; वो कैसे?

पहला फ्रंट: इकॉनमी (रिसोर्सेज, रोजगार, आमदनी) यानि मनी पॉलिटिक्स
दूसरा फ्रंट: धर्म यानि साइकोलॉजिकल पॉलिटिक्स
तीसरा फ्रंट: सोशल इंजीनियरिंग यानि सोशल प्रेशर ग्रुप यानि प्रेशर पॉलिटिक्स
चौथा फ्रंट: राजनीति यानि पावर पॉलिटिक्स
नार्थ इंडियन परिवेश में जिस-जिस समाज के पास जब-जब यह चारों चीजें सधी रही, वह समाज सर्वसमाज की धुर्री रहा व् जब-जब इनमें से एक-दो में भी कमी-पेशी आई तो वह समाज डावांडोल भी हुआ और प्रतिदवंद्वी समाजों के सॉफ्ट से ले हार्ड टारगेट पर रहा|
ब्राह्मण समाज:
इकॉनमी: पुजार, मीडिया, ब्यूरोक्रेसी, खापलैंड पर खेती व् पशुपालन भी|
धर्म: खापलैंड के बाहर 99% मंदिरों-मठों-डेरों पर डायरेक्ट कमांड, खापलैंड पर 50 से 70% तकरीबन एक-डेड दशक पहले तक, अगर आर्यसमाज या दादा नगर खेड़ों वाले फरवरी 2016 देख के भी नहीं सम्भले तो यह प्रतिशत बढ़ भी सकता है और शायद बढ़ता जा रहा है|
सोशल इंजीनियरिंग: आरएसएस
राजनीति: बीजेपी, पहले कांग्रेस थी कभी|
बनिया समाज:
इकॉनमी: व्यापार (दुकान, उद्योग), मुख्यत: डॉक्टरी, ब्यूरोक्रेसी| कुछ-कुछ मीडिया|
धर्म: ब्राह्मण के साथ मिनिमम कॉमन एजेंडा के साथ मंदिर बना के देना, मंदिर के जरिये पुजारी बनिए का उद्योग चलवायेगा| एक-डेड दशक पहले तक ब्राह्मण के पुजार नामक कारोबार के सबसे बड़े इन्वेस्टर बनिया ही रहे हैं| आज कुछ नए-नए कॉम्पिटिटर्स उभर आये हैं|
सोशल इंजीनियरिंग: "एक रुपया, एक ईंट; परन्तु सिर्फ बनियों में| आरएसएस| जब खाप मजबूत होती थी तो बनिए खापों की पंचायतों-चबूतरों पर भी दान देते आये हैं|
राजनीति: मुख्यत: जहाँ ब्राह्मण, वहां बनिया|
अरोड़ा/खत्री:
इकॉनमी: व्यापार (दुकान, उद्योग), ब्यूरोक्रेसी, मीडिया व् कुछ मात्रा में खेती|
धर्म: ब्राह्मण के हिंदी आंदोलन के अगुवा, परन्तु पंचनद के जरिये पंजाबी को भी बचाने की लालसा; इसीलिए आजकल ब्राह्मण को बाईपास करने की स्थिति व् शायद मूड में भी| हुड्डा सरकार द्वारा धौली में मिली दान की जमीनें (90% जाटों से) कानूनी तौर पर ब्राह्मणों के नाम किये जाने के बावजूद, खट्टर बाबू ने पहली योजना में ही सारी नाम से वापिस हटा दी| फरसे से गला काटने की गुर्खी के जरिये अपनी अग्रिम मंशा जता दी| हिंदी आंदोलन व् जगरातों-भंडारों के जरिये जितना बिज़नेस कर सकते थे वह करके व् इन पहलुओं का पूरा जूस निचोड़ के, अब पंजाबी भाषा व् कल्चर को अमृतसर से ले दिल्ली तक वापिस खड़ा करने हेतु जाटों के साथ दबे सुर में अलायन्स के इच्छुक|
सोशल इंजीनियरिंग: पंचनद व् आरएसएस दोनों|
राजनीति: मिक्स, आज के दिन बीजेपी, पहले इनेलो व् कांग्रेस भी सूट करती आई हैं|
ओबीसी:
इकॉनमी: कारीगर, खेती, पशुपालन, साजिंदे, कुछ मात्रा में व्यापार व् ब्यूरोक्रेसी
धर्म: सटीक-सटीक जानकारी नहीं मेरे पास| हालाँकि खापलैंड पर आर्यसमाज के प्रभाव में रहे हैं|
सोशल इंजीनियरिंग: खापलैंड पर गए जमानों तक खाप, आज की सटीक जानकारी नहीं|
राजनीति: कांग्रेस, जनता दल, इनेलो, सपा, बसपा, बीजेपी|
क्षत्रिय यानि राजपूत:
इकॉनमी: आज़ादी से पहले राजे-रजवाड़े| कृषि-पशुपालन व् इनसे संबंधित व्यापार, लैंड एंड प्रॉपर्टी, आर्म्ड फोर्सेज (डिफेंस, पुलिस)
धर्म: जहाँ ब्राह्मण, वहां क्षत्रिय|
सोशल इंजीनियरिंग: आज के दिन आरएसएस, खापलैंड पर राजपूत खाप भी पाई जाती हैं|
राजनीति: पहले कांग्रेस, अब बीजेपी व् कुछ क्षेत्रीय दल जैसे हविपा, जनता दल, इनेलो, रालोद आदि|
दलित:
इकॉनमी: मजदूरी, कारीगरी, नौकरी व् उद्योग
धर्म: बुद्ध, सनातन व् कहीं-कहीं आर्य समाजी| इसके अलावा जातीय गुरुवों के नाम के अपने-अपने पंथ| परन्तु मंदिरों में अधिकारों का मोह नहीं छोड़ पाते|
सोशल इंजीनियरिंग: बामसेफ
राजनीति: बसपा मुख्यत:|
जाट:
इकॉनमी: आज़ादी से पहले राजे-रजवाड़े| उदारवादी जमींदारी (कृषि-पशुपालन व् इनसे संबंधित व्यापार), लैंड एंड प्रॉपर्टी, आईटी इंजीनियर्स बहुतायत में, खेल, आर्म्ड फोर्सेज (डिफेंस, पुलिस), कुछ-कुछ मीडिया व् पुजार (आर्यसमाज व् दादा नगर खेड़े मुख्यत:)|
धर्म: मुख्यत: दादा नगर खेड़ों के मूर्ती-पूजा रहित कांसेप्ट पे बना आर्यसमाज, आर्य समाज से पहले दादा नगर खेड़े, एरिया के हिसाब से लोकल जाट डेरे व् मंदिर| खापलैंड पर ब्राह्मण के बाद दूसरा ऐसा समाज जो गए डेड-दशक तक अपने यहाँ के बयाह-शादी-फेरे-काज-कर्म खुद ही करता आया है| यानि नार्थ इंडिया में धर्म में ब्राह्मण ने अपनी मोनोपॉली किसी के साथ बंटवाना स्वीकारा तो सिर्फ जाट के साथ| आर्य-समाज इसका सबसे बड़ा उदाहरण है| जो जाट 35-40 साल की उम्र से ज्यादा के हैं उनमें न्यूतम 50% से 70-80% ऐसे मिलेंगे जिनके ब्याह-फेरे किसी जाट शास्त्री या आर्यसमाजी के ही करवाए हुए हैं| आज भी गाम गेल बहुतेरे परिवार-ठोले, बहुत से जाट कुनबे ऐसे हैं जो आज भी अपने हवन-यज्ञ-कर्मकांड-ब्याह-फेरे कुनबे-ठोले के बूढ़े जाट शास्त्री या आर्य समाजी से ही करवाते हैं|
सोशल इंजीनियरिंग: सर्वधर्म सर्वजातीय सर्वखाप|
राजनीति: आज़ादी से पहले यूनियनिस्ट पार्टी, फिर वामपंथ, हरयाणा बनने के बाद लोकल पार्टीज जैसे जनता दल, हविपा, इनेलो, 2004 के बाद कांग्रेस, अक्टूबर 2014 से फरवरी 2016 छोटे से काल के लिए बीजेपी, जेजेपी, रालोद, सपा, 2015 से सर छोटूराम की लिगेसी पर बना यूनियनिस्ट मिशन आदि|
फोकस की बात: फोकस ना तो इतना तंग हो, छोटा हो कि इन चारों में से सिर्फ एक पहलु पर रगड़ा लगाए रखो और ना इतना सुस्त हो कि चारों पर ध्यान ना रख पाओ| वह लोग खासकर ध्यान देवें, जो सिर्फ राजनीति के दम पर सब कुछ हासिल करना चाहते हैं, नहीं हो पायेगा|
आज के दिन इस क्षेत्र में सबसे बड़ा कॉम्पिटिटर वो है जिसके पास इकॉनमी के नाम पर सिस्टम के लगभग हर क्लच पर उसका पंजा है, धर्म उसका अपना मजबूत है, सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर आरएसएस जैसी मजबूत व् विस्तृत संस्था है व् राजनीति के नाम पर बीजेपी जिसके पास है| और अगर तुम यह सोचते हो कि तुम सिर्फ राजनैतिक फ्रंट पर एक मिशन मात्र पर फोकस करके सब अर्जित कर लोगे तो समझें कि आप इस पूरे खेल के सिर्फ 25% हिस्से पर फोकस दे पा रहे हो| इसलिए फोकस 100% कीजिये|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 14 May 2020

उदारवादी जमींदार वही होता है जो धर्म को भी उदारता की मर्यादा में बांध के रखे!

आज के ही दिन 15 मई 2011 को बाबा महेंद्र सिंह टिकैत अपनी देह यात्रा पूरी करके गए थे, इस पर सबसे पहले तो उन हुतात्मा को हार्दिक नमन| बाबा जैसे बड़े स्याणों के जीवन (फोटो देखिये सलंगित, कैसे 3-3 धर्म उनके दरबार में हाजिरी लगाए बैठे हैं) व् उनके मत-मथन-मगज थे कि सामाजिक स्टेजों के चौधरी, इनकी चौधर यानि कमांड; सामाजिक लोगों के हाथ में ही रखें तो भला| धर्म प्रतिनिधि की चौधर हेतु समाज ने उसको धर्मस्थल बना के दिए हैं, वह अपनी चौधर वहां से चलाएं| अगर धार्मिक लोग ही हर जगह सर बैठाओगे तो ऐ सामाजिक लोगो, बाबा टिकैत पूछ रहा कि अपनी चौधर किधर किसके सर धराओगे?
अत: मर्यादा में बांधों इनको सबसे पहले! कोई सरकार, कोई प्रसाशन, कोई व्यापारी तुम्हारा तभी नुक्सान या तुम्हारे प्रति गैर-जिम्मेदारी बरतेगा अगर तुमने धर्म को मर्यादा में रखना छोड़, खुद उसके आगे-पीछे टूलना शुरू किया हुआ है तो| पुरखों की यह थ्योरी आपको ईसाई धर्म वालों के बराबर बैठाती है, देखें इन्होनें अपने धर्मावलम्बी यानि पादरियों को चर्च के अंदर सिमित कर रखा है| आज तक एक उदाहरण ऐसा नहीं मिलता जब इनके धर्म का प्रतिनिधि ईसाईयों के सामाजिक चबूतरों-फग्सनों-समारोहों में आ के चौधरी बनता, तो क्या वहां बैठता तक हो| 99% तो यही देखा है आज तक जीवन में, 1% अपवाद हेतु छोड़ रहा हूँ| जबकि आपने इस अनुपात की उल्टी सुई टच की हुई है आज के दिन| और इसीलिए ईसाई लोग वर्ल्ड के मोस्ट डेवलप्ड लोग हैं| यूरोप के 14वीं सदी के ब्लैक प्लेग के बाद से इन्होनें धर्माधीशों को चर्चों तक सिमित कर रखा है|
और हमारे पुरखे रहे ऐसे ही, मूर्ती-पूजा रहित, धर्म-वर्ण-जाति रहित, मर्द-पुजारी रहित, 100% औरत की धोक-ज्योत की सुपुर्दगी वाले "दादा नगर खेड़ों" रुपी इतना जागरूक समाज रहा हमारा कि 100% मूर्ती-पूजा के समाज से आने वाले महर्षि दयानन्द ब्राह्मण भी आपके इन सिद्धांतों की तारीफ़ में अपने सत्यार्थ प्रकाश में लिखे बिना ना रह सके कि, "अगर सारी दुनिया जाट जी जैसी पाखंड-रहित मानवीय हो जावे तो पंडे भूखे मर जावें"| खैर, हमें पंडे तो भूखे नहीं मारने, हम क्यों तो मारें और कौन हम जो इनको भूखे मारें, परन्तु आज बाबा टिकैत की बरसी पर इतना जरूर धारें कि सामाजिक मंचों की चौधर सामाजिक हाथों में रहेगी| इन पर किसी धर्म प्रतिनिधि को आना भी है तो याचक बन के आये (ठीक वैसे ही जैसे आप-हम धर्मस्थल में याचक बन के जाते हैं) या आम आदमी की तरह सामाजिक कपड़े पहन कर सभा में बैठे|
अन्यथा तो आपकी इन अपने-अपने धर्मों को हद से ज्यादा सर पे चढ़ाने की लत कहिये या सनक, इसका ही परिणाम है कि जब से बाबा टिकैत गए हैं तभी से उदारवादी जमींदारों की नीतियों-नियतों-नियमों-नामों की गाड़ी सी उलळी पड़ी है| और वो इसीलिए उलळी हुई चल रही है क्योंकि इस फोटो में बाबा टिकैत की भांति सब धर्मों को अपने यहाँ हाजिरी लगवाने वालों की औलादें, आज अपने-अपने पंथ-धर्म की हाजिरी लगाने में उलझी पड़ी हैं| इनके खूँटों पर ऐसे बंधी पड़ी हैं जैसे जमींदार के बाड़े में भैंस या गाय| और यह विरासत बाबा टिकैत से होती हुई सर छोटूराम, महाराजा रणजीत सिंह, महाराजा सूरजमल सुजान, गॉड गोकुला व् बहुत पीछे तक जाती है (14 वीं सदी वाले यूरोप के ब्लैक-प्लेग काल से भी कई सदियों पीछे), जिन्होनें धर्मों तक को उदारता सिखाई| और आज हम जैसे उनके वंशज, एक धर्म की उड्डंता काबू नहीं कर पा रहे? और तो और हमारे इन पुरखों के दिए धर्म, जाति व् वर्ण से रहित "दादा नगर खेड़ों" को या तो फंडी निगल जाने को लालायित हैं या इनमें अपना 100% मर्दवाद का सिस्टम घुसाने को फिर रहे हैं; जबकि हमारे पुरखों ने इसको 100% औरत की सुपुर्दगी में बनाया| देखो पुरखों की चाल से कितनी 180° उल्टी दिशा में जा रहे हो|
अगर यह जिम्मेदारी समझते हो तो, सम्भालो समाज के सामाजिक मंचों को| अगर लेख पसंद आया हो तो आगे बढ़ावें, उदारवादी जमींदारी परिवेश के तो हर ग्रामीण-शहरी-एनआरआई परिवार के मर्द-औरत दोनों तक बराबरी से पहुँचावें| अन्यथा तो इन फंडियों द्वारा इंडिया को विश्वगुरु बनाने के सगूफों में उससे भी जाओगे, जिसके कारण खुद को यूरोपियन्स से ले अमेरिकन्स तक के साथ तुलनात्मक खड़े कर सकते हो|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Sunday, 10 May 2020

थापा लगाने वाली ऐसी होती हैं, सोहरों ने मर्द को लत्ते पहरा रखे थे!

आज मदर्स डे पर थोड़ा सा मेरी दादी के बारे बताता हूँ!

सलंगित फोटोज में, एक में मेरे पिता की गोदी में मैं हूँ और दादी के दाईं ओर बड़ा भाई है| दूसरे फोटो में मैं और मेरी माँ हैं|

दादी का रुतबा और रोल: मेरा घर गाम के व्यस्तम चौराहों पर है, जिसको "मैदान" भी बोला जाता है| तो दादी फुरसत में जब भी पीढ़ा डाल के मैदान में बैठा करती थी तो बिगड़ी-से-बिगड़ी बहु के मुंह पर घूंघट हो आता था| हिरणों की डार की भांति कूदती आती लड़कियों के पैरों में ठमक आती व् सर पर पल्ला| कोई लम्बी व् उल्टी जुल्फों वाला "गधे के अढ़ाई दिन" जिसमें आ रहे हो उस टाइप का लड़का दादी को बैठी देख या तो गली बदल जाता या बचते-बचाते हुए निकलने की कोशिश करता| छोटे भाई के डब्बी (दोस्त) तो मैदान की तरफ आने वाली गलियों या इन गलियों में मिलने वाली गलियों से, आगे पैर रखने से पहले मुंडी बाहर निकाल यूँ चेक करते थे "उधम की दादी बैठी है कि नहीं" जैसे चूहा बिल से बाहर आने से पहले मुहकार लिया करता है कि सब ठीक तो है| दादी बैठी दिखती तो काफी सारे तो उल्टे ही मुड़ जाया करते थे| उनको पता था कि हम कितने ही ठीक हो के, सीधे हो के गुजरें; दादी ने डांट लगानी ही लगानी|

दादी की कद-काठी (फोटो से देख ही रहे होंगे) इतनी थी कि जब भी किसी बारात में चौधरी को थापा लगवाने दादी को बुलाया जाता तो बाराती कहते कि नहीं-नहीं, सोहरे मर्द को कपड़े पहना के लाये हुए थे| एक बार ठेठ बांगर से बारात आई थी हमारी एक चचेरी बुआ को ब्याहने| दादी का नंबर लग गया थापा लगाने में| वो चौधरी इतना कमजोर कि एक बार दादी के थापे वाली मेहँदी लगे हाथ को देखे और एक बार खुद को और कांपे-ही-कांपे, जबकि दादी ने इतनी सहजता और सद्भाव से थापा लगाया कि चौधरी को थापा लगने के बाद पता लगा कि उसको थापा लग गया| फिर भी बारात यह कहती हुई टूरी थी कि, "थापा लगाने वाली ऐसी होती हैं? सोहरों ने मर्द को लत्ते पहरा रखे थे|"

जब बड़े नाना मेरे पिता जी को देखने आये थे और अपनी घोड़ी को ठान में बाँधने गए तो वहां देखा कि दादी, घोडे जितने हो चुके बछेरे को कोहनी नीचे दे बाँध रही थी| वापिस जाते ही माँ से बोले कि, "ए गोधा, सासु तो तेरी ऐसी टोह आया हूँ बेटा कि ज्यादा मैं-मगर करी तो एक कोहनी में ही नीचे धर लेगी"| तेरे बड़े नानके का इतना बड़ा साहूकारा था कि मिश्राणी पंडतानी तो रसोई बनाने आया करती थी, ऐसे राजकुमारियों से ठाठ में पली थी तुम्हारी बड़ी माँ| दादी ही सुनाया करती, ये सारे किस्से|

दादी जब मरी थी तो लोग कहते हुए सुने थे कि, "मैदान का बड़ गया", "गाम का ठाण गया"|

अगर हमारी-तुम्हारी माँ-दादियों के ऐसे ही रोल आज भी चल रहे हों तो समझना की हमारा कल्चर-कस्टम-सिस्टम सुरक्षित व् जागरूक गृहणियों के हाथों में है अन्यथा तो गृहणी ही घरों पर ग्रहण लगाने की राह पर हैं इतना समझ लेना|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक



खापों की प्रधानी जाटों कै के जड़ राखी सै!

बिनैण-खाप के प्रधान दादा चौधरी नफे सिंह नैन जी की खाप-प्रधानी बदलने की बात उठी थी, शायद अभी थमी नहीं है| बोल रहे थे कि खापों की प्रधानी जाटों कै के जड़ राखी सै, बदलो इस प्रधान को| ऐसे बदबुद्धियों से मेरा सवाल, "इन मंदिरों की पुजारत के एक जाति विशेष कै जड़ राखी सै, बदलो इनको भी?" इस तरह के "चूचियों में हाड" ढूंढने टाइप के न्याय करने चले हो तो आ जाओ मैदान में, देखें कितने आदर्शवादी हो, कितने न्यायकारी हो? दूसरी बात वह बूढा दादा 90 साल से ऊपर का हो लिया, क्या उसकी खाप के प्रति श्रद्धा (जैसी भी रही हो परन्तु बहुतों जगह अड़ा है वो बूढा, वक्त-वक्त पर) का यह सिला दोगे उसको? तुम्हें ऐसे घल्लू-घारे करने भी हैं तो उसकी मृत्यु के बाद कर लेना?

बाकी यह "खापों की प्रधानी जाटों कै के जड़ राखी सै" की बकवास काटने वालों से पूछो कोई कि तुम 2007 से ले 2012 तक कित थे, जब शक्ति-वाहिनी एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में केस डाला था खापों पर? था एक भी नॉन-जाट, खापों को डिफेंड करने वाली कमेटी में? जब जनवरी 2012 में इन्हीं दादा नफे सिंह जैसी चौधरियों ने अपनी दलीलों से सुप्रीम कोर्ट में शक्ति-वाहिनी एनजीओ को झुका लिया था और जब इनको लगा कि यह कानूनी तरीके से भी खाप को नहीं मार सकते, तब रिटायर्ड जरनल डीपी वत्स की खापों में एंट्री करवाई गई ताकि खापों को बचाने का सारा क्रेडिट अकेले जाट ना ले जावें|

हम जानते हैं तुम्हारे यह ड्रामे| मैं खुद हूँ इस सुप्रीम कोर्ट वाले केस में कूटनैतिक से ले एनालिटिकल योगदान देने वाला रहा हूँ, फ्रांस बैठे-बैठे भी, इसलिए सब बाहर-भीतर जानता हूँ आज की खापों की हालत की| और मेरी तरफ से अनुरोध है बिनैण खाप के यूथ को कि ऐसे "बंदरों" को दूर रखना अपनी खाप से| वह बूढा दादा कड़वा बोले, हड़क के बोले तो भी उसके आदर-मान में कमी मत आने देना, वर्ना ऐसा बड़-वृक्ष ढाया तो आत्मा कटोचेंगी तुम्हें, तुम्हारी ही| और भतेरे हैं, जो खापों के नाम पर स्वांग करते फिरैं हैं, इनको सुधार लो| 

जय यौद्धेय! - फूल मलिक       

10 मई 1753 - महाराजा सुरजमल सुजान द्वारा इस तारीख को दिल्ली फतेह की गई थी|

आज दिल्ली विजय दिवस के उपलक्ष्य में नीचे पढ़िए कि क्यों "दिल्ली को जाटों की बहु" कहा जाता है?

ऐसे 3 दिवस आते हैं महाराजा सूरजमल व् इनकी मित्र बिरादरियों के बाँटें, जब दिल्ली फतेह की गई| एक यह तारीख|

दूसरी दिल्ली फतेह की तारीख है फरवरी 1764, जब दिल्ली तीस-हजारी में सरदार जट्ट भघेल सिंह धालीवाल जी द्वारा दिल्ली फतेह की गई थी| उन्होंने 30 हजार सेना के साथ दिल्ली जीती थी, इसीलिए इस जगह का नाम उसके बाद से "30 हजारी" पड़ गया|

तीसरी तारीख है अक्टूबर 1764 की महाराजा जवाहरमल वाली दिल्ली फतेह की| यह तब की बात है जब उनकी माँ-रानी महारानी किशोरी जी की प्रेरणा पर अहमदशाह अब्दाली को ठेंगा दिखाते हुए दिल्ली फतेह की गई थी| इसमें दिल्ली के सिंहासन समेत लाल किले के वो अष्टधातु के किवाड़ जिनको अल्लाउद्दीन खिलजी चित्तौड़गढ़ किले से उखाड़ लाया था व् दिल्ली किले में लगा दिए थे, वो लालकिले से उखाड़ लोहागढ़ सेना (जिसको जाट सेना भी कहा जाता है, लोहागढ़ एक जाट रियासत होने के नाते) भरतपुर ले गई थी, जो कि आज भी भरतपुर के "दिल्ली-गेट" में शोभायमान हैं|

इसीलिए तो कवि जयप्रकाश घुसकानी वाले लिखते हैं कि, "धोखा-पट्टी सीखी नहीं, जंग में पछाड़ लाये, मुग़लों का सिंहासन जाट दिल्ली से उखाड़ लाये'|

यह तीन लड़ाइयां, वैसे तो जाट व् इसकी तमाम मित्र बिरादरियों के नाम हैं परन्तु एक तो यह जाटों के नेतृत्व में की गई, दूसरा इनमें 80% सेना जाट ही होती थी इसलिए आम जनता, इन लगातार दिल्ली विजयों के कारण "दिल्ली को जाटों की बहु" कहने लग गई थी, कि जब जी में आती है तब जैसे कोई बहु लेने जाता है ससुराल, ऐसे दिल्ली आते हैं और "दिल्ली की जीत" नामक बहु ले कर ही लौटते हैं|

काश! इन फंडियों ने कभी वास्तव में उसी बराबरी से इन समाजों को ट्रीट किया होता जिसकी लालसा सी ये, "हिन्दू एकता व् बराबरी" के नारे में दिखाते हैं तो इंडिया इतने लम्बे वक्त तक गुलाम नहीं रहता| परन्तु इनको बीमारी है "बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद" टाइप में हर चीज अपने हाथ में ले उसकी ऐसी-तैसी करने की, जैसे अब देश के भाईचारे (सत्ता हाथ लगते ही रचा ना फरवरी 2016 का 35 बनाम 1 का क्लेश) से ले इकॉनमी तक का चुघड़ा चास रखा; बस इनकी इस "बंदराई चपलता" के चक्र में देश ने भुगता ही भुगता है सिर्फ| और अब भी जब तक ये रहेंगे, सिर्फ भुगतवाएंगे ही भुगतवाएंगे|

खैर, एक काम की बात: तथाकथित हिन्दू राष्ट्रवादीयों की बिरादरी से होते महाराजा सूरजमल तो 10 मई "इंटरनेशनल वीरता दिवस" की तरह मनाया जा रहा होता| महाराजा सूरजमल व् इनकी मित्र बिरादरियों के बालकों (जब इनको अपने मतलब साधने हों) को बहकाने को तो पता नहीं कितने ही फंडी "हिन्दुआ सूरज, हिन्दुआ सूरज" लिखेंगे लेकिन ईमानदारी से बंदे को उनकी वीरता व् योगदान के लिए क्रेडिट देना हो तो ऐसे कान मारेंगे जैसे कीड़े पड़ रे हों इनके कानों में, क्या लोकसभा में फोटो नहीं लगनी चाहिए ऐसे वीरों की? तो महाराजा सूरजमल व् इनकी मित्र बिरादरियों के बालकों, देखिए व् समझिये इन "हिन्दू एकता व् बराबरी" वालों के यह तथाकथित घल्लू-घारे| इनसे जुड़े हो तो या तो इनके तमाम स्टेजों पर महाराजा सूरजमल जैसे वास्तविक वीरों के नाम दर्ज करवा दो सदा के लिए अन्यथा तो दरी बिछाने से ज्यादा की औकात मत मानना इनके यहाँ अपनी| अपने व्यक्तिगत स्वार्थ में बेशक जुड़े रहो, छोटे-मोटे फायदे पूरे करते रहो परन्तु खुद को इस बहम में मत रखना कि अपनी कौम-बिरादरियों के नाम पे कुछ योगदान कर रहे हो इसके जरिये| और छोडो तुम इनसे "हिन्दू एकता व् बराबरी" के नारे को ही प्रैक्टिकली धरातल पर लागू ही करवा के दिखा दो, बाकि उछालते नहीं यह नारा इसलिए उनसे कहता नहीं; परन्तु यह उछालते हैं तो कह रहा हूँ|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 5 May 2020

क्षत्रिय शब्द की परिभाषा: एक वर्ग विशेष का पठाया हुआ बेगार-बधिर-मूक मात्र बॉडीगॉर्ड विद एक्स्ट्रा प्रिविलिज!


कई दिन से कैडर के कई साथी पीछे पड़े हुए थे कि आपको क्षत्रिय की आपकी एनालाइज़ की हुई परिभाषा बतानी ही पड़ेगी, अन्यथा हम इन बावले उदारवादी जमींदारों और उनमें भी खासकर जाटों को इस क्षत्रिय शब्द के फितूर से बाहर कैसे ला पाएंगे? मखा यार रहने दो, तम खामखा बवाल करवाओगे, जाटों की नाराजगी तो मैं झेल लूंगा परन्तु खामखा राजपूत साथियों को खासकर बिदकवाओगे तुम मेरे से| बोले, बिदकाने नहीं उनकी भी आँखें खोलनी हैं| मैंने कहा हम-तुम कौन होते हैं किसी की आँखें खोलने वाले? तुम्हारी खुल गई, इतना बहुत, तुम खुश रहो| वह इस परिभाषा के साथ खुश हैं, उनको उधर रहने दो ना? क्यों जूत बजवा रहे हो? बोले, राजपूत व् अन्य क्षत्रिय गीता बहुत पढ़ते हैं, कृष्ण द्वारा करण वाला ज्ञान पढ़ के खुद को उस "लग्जीरियस गुलामी" में पड़े रहने हेतु आश्वस्त कर लेंगे| परन्तु इस क्षत्रिय शब्द के चक्कर में जाट ज्यादा बावले हुए घूम रहे हैं, साथ ही बहुतेरे राजपूत तक जाटों को क्षत्रिय शब्द में स्वीकार नहीं करते| आप बताओ बस| अरे तो तुम जाट भी इसी तरीके के कोई करार कर लो ना यार, जैसे क्षत्रिय शब्द ओढ़ने वालों ने कर रखे| बोले धौळी की जमीनें तक फ्री में इनमें बाँट रखी, धर्म-कर्म के नाम पर सबसे ज्यादा इनको हम देवें और के अपने घर भी गिरवी रख देवें इनके; तब जा के इनको दिखेगा कि इनका वास्तविक हितैषी कौन है? मखा ये यूँ चाहवें से कि थम इनके साथ क्षत्रिय टाइप वाले करार में जाओ, तो ये तुम्हारी ना तो बदनामी फैलवायेंगे और ना ही 35 बनाम 1 रचवायेंगे तुम्हारे खिलाफ| अरे तो गुरु जी, इसीलिए तो यह क्षत्रिय वाला करार समझना है, इसको समझाओ तो पहले सही से| इसके pros एंड cons दिखाओ तो पहले| कुछ जचेगा तो कर लेंगे हम भी यह या इसी टाइप का कोई करार| मखा जिन जाटों को जंच चुका वो सदियों पहले ही राजपूत बन, क्षत्रिय का टाइटल ले चुके| बाकी थारै-म्हारै रास आवै कोनी यो करार| बोले वो बाद में देखेंगे पहले आप इसकी परिभाषा की व्याख्या बताओ| मखा थम मुझे सूली पे चढ़ा दो, लो सुनो क्यों है, "क्षत्रिय बेगार-बधिर-मूक मात्र बॉडीगॉर्ड विद एक्स्ट्रा प्रिविलिज"|

दो किस्सों के जरिये बताऊंगा:

महारानी पद्मावत का किस्सा: बेगार-मूक-बधिर इसलिए कि जब चित्तोड़ की महारानी पद्मावत को एक दरबारी राघव चेतन गलत तकता है तो, उसको क्या सजा दी जाती है? सिर्फ इतनी कि जैसे एक शरारती बालक को एक टीचर क्लॉस से निकाल देती हो, ऐसे दरबार से निकाल दिया? उसके बाद वो डाकी का चेला इसमें भी अपनी गलती मान, खुद को पछतावे की राह पर ले जाने की बजाये कहाँ ले गया? अलाउद्दीन के पास दिल्ली? किसलिए? अल्लाउद्दीन को पद्मावत के रूप के किस्से सुना, उसको पाने की लालसा जगाने के लिए? देख लो यहाँ भी उसकी वासना ही उसपे हावी चली| ले आया अल्लाउद्दीन को चित्तौड़गढ़? किसी क्षत्रिय ने उसको दूसरा जयचंद कहने की हिम्मत जुटाई? तो हुए ना मूक-बधिर? इस करार के अंदर कौन जयचंद कहलायेगा और कौन नहीं, यह भी क्षत्रिय निर्धारित नहीं करेगा, बल्कि उसको पठाने वाले करेंगे| अब इसके आगे देखो, अल्लाउद्दीन को लाया कौन? राघव चेतन? दोषी किसको मशहूर करना था, राघव चेतन को? फांसी किसको तोडना था, राघव चेतन को? परन्तु सारा किस्सा ड्रामा बना के, दोष की सुई किसपे डाल दी, अल्लाउद्दीन पे? वह भी क्या लेप-पलोथन लगा के कि यह देश-धर्म पर मुल्लों हमला था? क्यों भाई जितने उछाले जाते हो क्षत्रिय के नाम पर न्यायकारी बना के, उसके नाते राघव चेतन की गर्दन, वहीँ पहले झटके दरबार में ही तलवार से उड़ानी बनती थी या नहीं? वह कोई आम दासी या औरत नहीं थी जिसपे गलत नजर डाली गई थी, महारानी थी वो महारानी वो भी एक क्षत्राणी| अब बताओ, जब इस करार में खुद क्षत्रियों की औरतों को गलत तकने तक पे क्षत्री इनको पठाये हुओं को जो सजा बनती थी, वह नहीं दे सकते तो न्यायकारी होने की बजाये बेगार बॉडीगार्ड हुए या नहीं? फांसी, गर्दन वगैरह नहीं काटनी थी तो जेल में सड़ा देते, उसकी आँखें फोड़ देते, जिह्वा काट देते, कानों में उबलता तेल डाल देते, हाथ या ऊँगली काट देते, हुआ ऐसा कुछ? तो इनके करार में पड़ के तुम चित्तौड़गढ़ बना भी लोगे तो अंत दिन उजड़वा तो इन्होनें अपने हाथों ही देने हैं और तुम इन पर दोष तक भी नहीं धर पाओगे, जायज सजा देनी तो सपनों की बात ठहरी|

जयचंद राठौड़ का किस्सा: पृथ्वीराज चौहान और जयचंद दो सगी बहनों के बेटे थे, तो आपस में क्या हुए? मौसेरे भाई ना? ऐसे मौसेरे भाई, जिनकी माओं का गौत एक था? जिनकी औलादों के आपस में ब्याह नहीं हो सकते थे? और यहाँ तो पृथ्वीराज चौहान खुद ही, अपने सगे मौसेरे भाई जयचंद की बेटी संयोगिता को वह भी स्वयंवर से अगवा कर लाता है? आखिर किसकी शिक्षा, बहकावे या उकसावे पे? ब्याह-शादी के मामले में जाट ही क्या, सुनी है राजपूत भी न्यूनतम 3 से ले 7 गौत तक छोड़ते हैं? तो क्या यह शिक्षा पृथ्वीराज चौहान को नहीं दी गई होगी, वह भी इस बात के मद्देनजर तो दी जानी और भी लाजिमी बनती है कि आगे चल के उसको राजा बनना था, उसके दरबार में ब्याह-शादी के मसले भी आने थे, या नहीं? तो कल्चरल-कस्टम जैसी चीज को जो छिनभिन्न करता हो, उसको सजा देने हेतु कोई दरबार या पंचायत सजी/बैठी? नहीं? क्यों? इनका समझौता करवाना व् संयोगिता को वापिस जयचंद को सौंपवाना किसका फर्ज बनता था? दोनों तरफ के दरबारियों का, या नहीं? परन्तु उन दरबारियों ने क्या किया? जब जयचंद को कोई न्याय नहीं मिला तो वह मोहम्मद गौरी को ले आया| भाई अगले की बेटी उठाई गई थी, वह भी भरे दरबार से; उसको भी अपनी जनता में अपना सामंजस्य-विश्वास कायम रखना था, और वैसे भी गीता ज्ञान वाले ही कहते हैं कि अपने धर्म की पालना हेतु, आपको अधर्म का सहारा लेना पड़े तो वह जायज है| तो जयचंद ने वह लिया, वह किया| परन्तु इन राजदरबारियों के क्या किया? दोनों को भिड़ाया, फिर जिसने गलत किया, उसको धर्म-रक्षक व् जिसके साथ अन्याय हुआ उसके तो नाम को ही गद्दारी का पर्याय बना दिया यानि "जयचंद"? जबकि इस मामले में सबसे पहले दोषी कौन बनते हैं? नंबर एक ब्याह के गौत-नियम-रिश्तों की पृथ्वीराज को सही-सही शिक्षा नहीं देने वाले| दूसरे दोषी, जयचंद को न्याय नहीं दे पाने वाले|

तो बन लो इनके क्षत्रिय, तुमको एक सर्किल के अंदर बाँध देंगे, उसमें न्याय भी इनका और अन्याय भी इनका| यह चाहे तुम्हारी महारानी तक को छेड़ें या सगे मौसेरे भाई की रिश्ते में भतीजी लगने वाली राजकुमारी को अगवा करवाएं/होने दें, नचाएंगे तुमको अपने अनुसार| तो हुए ना, "क्षत्रिय, बेगार-बधिर-मूक मात्र बॉडीगॉर्ड विद एक्स्ट्रा प्रिविलिज"?

अभी तो इन दोनों किस्सों से भी हद दर्जे तक अपमानित कर देने वाला किस्सा, यहाँ नहीं डाल रहा हूँ, क्षत्रियों को 21 बार धरती से मिटा देने वाला| एक साथ पाठक इतना डाइजेस्ट नहीं कर पाएंगे| पोस्ट भारी-भरकम हो जाएगी, अन्यथा वास्तव में क्षत्रिय बेगार-बधिर-मूक मात्र बॉडीगॉर्ड मात्र से ज्यादा कुछ नहीं तो यही वाला किस्सा साबित करता है|

परन्तु तुम्हारी सोच सही दिशा में जा रही है कि क्षत्रिय टाइप का करार हमें यानि जाटों को भी कर लेना चाहिए| किया तो था यार पुरखों ने 1875 में आर्य समाज के माध्यम से जब इन द्वारा "जाट जी" बोल के जाट की स्तुति की गई थी| परन्तु अब देख लो फरवरी 2016 आते ही खुद ही तोड़ दिया ना करार इन्होनें ही? जाट-खाप-हरयाणा पर सबसे ज्यादा दुष्प्रचार करने वाले मीडिया में बैठे सबसे ज्यादा कौन बिरादरी के हैं? कहने की जरूरत है क्या? आर्य-समाज को खुद ही निगल गए, वाले कौन लोग हैं? यह खुद ही ना? तो क्या-कैसा-करार किया जाए, मंथन करो| परन्तु इतना जरूर है कि जाट इनसे क्षत्रिय टाइप करार तो करेंगे नहीं| हाँ "जाट जी" टाइप वाला जिसमें स्टेटस बराबरी स्वछंदता का हो, ऐसा कुछ हो तो लाओ, विचार करने को|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 4 May 2020

कैसे आर्य प्रतिनिधि सभा, अपने मूल उद्देश्य व् समाज से खुद को छिंटक चुकी है?

मेरे निडाणे में दूसरे पान्ने से मेरा एक भतीजा एक दिन व्हाट्स-एप्प परमुझे मैसेज भेजता है कि काका, मुझे अपने "दादा नगर खेड़े बड़े बीर" बारे कुछ सवालों के जवाब चाहियें| मैंने कहा हाँ, पूछो क्या बात हुई? वार्तालाप कुछ यूँ चली:

भतीजा: काका, हमारे स्कूल में आर्य प्रतिनिधि सभा वाले आये थे और कह रहे थे कि तुमको दादा नगर खेड़े की सच्चाई बता दी तो तुम इसको उखाड़ के फेंक दोगे?

सुन के मैं अचिंभित कि जिस आर्य समाज की मूर्ती पूजा नहीं करने के कांसेप्ट का आधार ही ये "दादा नगर खेड़े" रहे हों, उसी की आर्य प्रतिनिधि सभा ऐसे क्यों बोलेगी? आखिर किसके इशारों पे चलने लगे हैं ये आर्य प्रतिनिधि सभा वाले आजकल? मैंने मेरे बचपन से ले और कॉलेज टाइम लग दर्जनों कार्यक्रम करवाए इनके गाम में, पहले तो इनका कभी यह रूप नहीं देखा था, अब कौन फंडी घुस आया है इनमें जो यह लगे यूँ खुद को ही भुलाने की राह चलने? मैंने भतीजे से पूछा ऐसा क्यों, कहा उन्होंने?

भतीजा: काका, यह तो पता नहीं परन्तु उन्होंने "खेड़ों" बाबत बहुत अशोभनीय बोला?
मैं: हम्म, क्या कह रहे थे?
भतीजा: कह रहे थे कि "खेड़े" तो मुस्लिमों की निशानी हैं| देखो मुस्लिम भी मूर्ती नहीं पूजते, खेड़ों में भी मूर्ती नहीं होती| देखो, निडाना के खेड़े का मुंह पश्चिम की तरफ है, और पश्चिम में ही मक्का-मदीना है| यह तो मुस्लिमों के "कोला-पूजन" की निशानी हैं, इनको तो तोड़ देना चाहिए|

सुन के पहले तो बहुत परेशान हुआ, फिर मन में टीस उठी कि इन आर्य समाजियों को क्या हुआ जो यह इतनी उल्टी राह चलने लगे? ऐसा, सोच ही रहा था कि

भतीजा बोला: काका जवाब नहीं हैं क्या? क्या वह वाकई में सच कह रहे हैं? मैंने कई जगह पूछा परन्तु संतुष्टिजनक जवाब नहीं मिले| फिर कई दादा-ताऊओं ने आपका नाम लिया कि तेरे फ्रांस वाले काका फूल से पूछ, उसने गाम के बड़े बूढ़ों से बहुत शिक्षा और नॉलेज ली है इन चीजों पे|

मैं, भतीजे को उसके सवालों के जवाब देने से पहले सोचता रहा कि एक तो मुझे समझ यह नहीं आती कि अगर मुझे, मेरे कल्चर की बैटन को संभालने वाले लोग ग्राउंड पर ही नहीं दिख रहे हैं और बच्चों को मुझ तक पहुंचना पड़ता है इन जानकारियों के लिए तो यह गाम वाले क्या सिर्फ ताश खेलने, हुक्के पाड़ने औरआपस में बैर-बिसाहणे को गाम की गलियों में भटकने हेतु जन्म ले के आते हैं? आखिर क्यों नहीं है ऐसा सिस्टम जो इन बच्चों को वहीँ की वहीँ, सटीक बचपन में इन चीजों की सही-सही जानकारियां पास कर सकें? और फंडी दुश्मनों से आगाह रहना सीखा सकें? मैं खेतों में या अन्य प्रोफेशनल काम में व्यतीत होने वाले वक्त की नहीं कहता, परन्तु ताश खेलने या हुक्के पाड़ने के वक्त में से कम-से-कम 1-2 घंटा तो अपनी कल्चरल-कस्टमरी विरासत अपनी पीढ़ियों को पास करने में लगा ही सकते हैं? खैर, मन मायूस सा मसोस के भतीजे के सवालों के जवाब देने शुरू किये|

मैं: अपने जिंद के भूतेश्वर मंदिर का मुंह मक्का-मदीना की ही तरफ है तो क्या इससे वो मंदिर मुसलमान हो गया? दिल्ली की जामा मस्जिद का मुंह दक्षिण में है, वह क्या हुई फिर इन फंडियों के लॉजिक से? और तो और जिंद के एसडी स्कूल के बगल वाले खुद आर्य समाज मंदिर का मुंह पश्चिम में हैं, तो क्या यह खुद भी मुस्लिम हो गए? इनके अनुसार मंदिर का मुंह पूर्व में होना चाहिए या पश्चिम में? पहले तो इनको बोलो कि अपने सारे मंदिरों का मुंह इनकी एक निर्धारित दिशा में करें और फिर यह वाहियात काटें| तो "दादा नगर खेड़े" का मुंह पश्चिम दिशा में क्यों है का जवाब क्लियर हुआ?
भतीजा: हाँ, काका बिल्कुल हुआ| मुझे मिलने दो उस प्रतिनिधि सभा वाले को अगली बार, उसकी तो|
मैं: "खेड़ों में मूर्ती नहीं होती और मुस्लिम भी मूर्ती पूजा नहीं करता, इसलिए खेड़े मुस्लिमों की निशानी हैं", उसने ऐसा बोला ना?
भतीजा: हाँ!
मैं: उसको बोल कि अबे गधे जिस आर्य समाज का तू प्रतिनिधि है, उसका तो पूरा कांसेप्ट ही मूर्ती पूजा नहीं करने पे टिका हुआ है, तो फिर तेरे ही इस वाहियात लॉजिक से तू कितना बड़ा मुसलमान होना चाहिए?
भतीजा, जवाब सुन के हँसता ही जा रहा| और बोला: यार काका, मुझे यह जवाब उस वक्त क्यों नहीं सूझा?
मैं: एक तू स्कूल में था, ऊपर से उसने यह चीजें बताने से पहले, निष्ठा-आस्था-श्रद्धा के कैप्सूल गिटका के फिर तुझे अपनी वाहियात सुनाई होंगी| बस इसीलिए|
मैं: तेरा अगला सवाल, खेड़े 'कोला पूजन' की निशानी हैं| सन 1620 में दादीराणी समां कौर गठवाळी की प्रेरणा पर मलिक गठवाला खाप ने सर्वखाप का आह्वान कर कलानौर रियासत का कौला तोड़ दिया था, तो बताओ जब सर्वखाप ने पूरी रियासत ही नहीं छोड़ी, तो यह खेड़े, जो अगर कोले होते तो इनको छोड़ते वो?
भतीजा: बिल्कुल नहीं छोड़ते|
मैं: तो मिल गए उत्तर, तेरे सवालों के?
भतीजा: काका मिल भी गए और ऐसे मिल गए कि मुझे वो प्रतिनिधि सभा वाला कहीं मिल गया अगली बार तो खरी-खरी सुनाऊंगा|
मैं: खरी-खरी ही सुनाना, उसका खोपर मत खोल देना| और उसको कहना, कहना क्या बल्कि पूछना कि कौन फंडी तेरे पीछे लगे हुए हैं, जिनके दबाव या भय में तू आर्य समाज को उसके पथ से ही भटका ले चला है? हमें बता उन शक्तियों बारे, मिलके उनसे तेरी भी रक्षा करेंगे और आर्य समाज में आई कमियों को भी दूर करेंगे|

विवेचना: कमियां तो आई हैं आर्य समाज में तभी तो फरवरी 2016 हो गया हरयाणा में| इनमें कमियां ना आई होती, फंडी घुसपैठियों ने इनकी विचारधारा (जैसे भतीजे वाला ऊपर बताया एपिसोड) से ले इनके संस्थानों-मठों तक में सेंधमारी ना की होती तो फरवरी 2016 बिल्कुल ना होता| जिनको फरवरी 2016 नहीं चाहिए, उनको हर एक को आर्य समाज को सुधारना होगा| मूर्ती पूजा नहीं करने की जड़ें अब, इस कांसेप्ट के आध्यात्म के सुप्रीम सेंटर्स दादा नगर खेड़ों से जोड़नी होंगी और दोनों को आपस में एक दूसरे को प्रोटेक्ट करना होगा व् इनमें घुस आये फंडियों व् मूर्ती पूजा के फंडों को वापिस बाहर खदेड़ना ही खदेड़ा ही खदेड़ना होगा अन्यथा गुजारा नहीं है| और सारे आर्य समाजी लिटरेचर को संस्कृत के साथ-साथ हरयाणवी में ट्रांसलेट करके के इसका हरयाणवी वर्जन समानांतर रूप से आर्य समाज को चलाना होगा| सारे आयुर्वेद का पूरा क्रेडिट जहाँ से इसके कॉन्सेप्ट्स उठा-उठा यह लिखा गया, यानी खेत-जमींदार को देना होगा कि हमने यह ज्ञान किसान-जमींदार-मजदूरों के खेतों-क्रियाओं से कॉपी किये और आयुर्वेद की किताब बना डाली, उनको रिफरेन्स दिए बिना, क्रेडिट दिए बिना| या तो यह काम आर्य प्रतिनिधि सभा, दादा नगर खेड़ों के साथ मिलके करे अन्यथा उदारवादी जमींदार तो अब आ ही रहे हैं इस मिशन के साथ अपनी पीढ़ियों के बीच| सब कुछ छीनेंगे फंडियों से इन्होनें हमारे खेत-खलीहानों से कॉपी-पेस्ट मार के बिना प्रॉपर क्रेडिट दिए लिख के अपना क्लेम किया हुआ है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक