आज मदर्स डे पर थोड़ा सा मेरी दादी के बारे बताता हूँ!
सलंगित फोटोज में, एक में मेरे पिता की गोदी में मैं हूँ और दादी के दाईं ओर बड़ा भाई है| दूसरे फोटो में मैं और मेरी माँ हैं|
दादी का रुतबा और रोल: मेरा घर गाम के व्यस्तम चौराहों पर है, जिसको "मैदान" भी बोला जाता है| तो दादी फुरसत में जब भी पीढ़ा डाल के मैदान में बैठा करती थी तो बिगड़ी-से-बिगड़ी बहु के मुंह पर घूंघट हो आता था| हिरणों की डार की भांति कूदती आती लड़कियों के पैरों में ठमक आती व् सर पर पल्ला| कोई लम्बी व् उल्टी जुल्फों वाला "गधे के अढ़ाई दिन" जिसमें आ रहे हो उस टाइप का लड़का दादी को बैठी देख या तो गली बदल जाता या बचते-बचाते हुए निकलने की कोशिश करता| छोटे भाई के डब्बी (दोस्त) तो मैदान की तरफ आने वाली गलियों या इन गलियों में मिलने वाली गलियों से, आगे पैर रखने से पहले मुंडी बाहर निकाल यूँ चेक करते थे "उधम की दादी बैठी है कि नहीं" जैसे चूहा बिल से बाहर आने से पहले मुहकार लिया करता है कि सब ठीक तो है| दादी बैठी दिखती तो काफी सारे तो उल्टे ही मुड़ जाया करते थे| उनको पता था कि हम कितने ही ठीक हो के, सीधे हो के गुजरें; दादी ने डांट लगानी ही लगानी|
दादी की कद-काठी (फोटो से देख ही रहे होंगे) इतनी थी कि जब भी किसी बारात में चौधरी को थापा लगवाने दादी को बुलाया जाता तो बाराती कहते कि नहीं-नहीं, सोहरे मर्द को कपड़े पहना के लाये हुए थे| एक बार ठेठ बांगर से बारात आई थी हमारी एक चचेरी बुआ को ब्याहने| दादी का नंबर लग गया थापा लगाने में| वो चौधरी इतना कमजोर कि एक बार दादी के थापे वाली मेहँदी लगे हाथ को देखे और एक बार खुद को और कांपे-ही-कांपे, जबकि दादी ने इतनी सहजता और सद्भाव से थापा लगाया कि चौधरी को थापा लगने के बाद पता लगा कि उसको थापा लग गया| फिर भी बारात यह कहती हुई टूरी थी कि, "थापा लगाने वाली ऐसी होती हैं? सोहरों ने मर्द को लत्ते पहरा रखे थे|"
जब बड़े नाना मेरे पिता जी को देखने आये थे और अपनी घोड़ी को ठान में बाँधने गए तो वहां देखा कि दादी, घोडे जितने हो चुके बछेरे को कोहनी नीचे दे बाँध रही थी| वापिस जाते ही माँ से बोले कि, "ए गोधा, सासु तो तेरी ऐसी टोह आया हूँ बेटा कि ज्यादा मैं-मगर करी तो एक कोहनी में ही नीचे धर लेगी"| तेरे बड़े नानके का इतना बड़ा साहूकारा था कि मिश्राणी पंडतानी तो रसोई बनाने आया करती थी, ऐसे राजकुमारियों से ठाठ में पली थी तुम्हारी बड़ी माँ| दादी ही सुनाया करती, ये सारे किस्से|
दादी जब मरी थी तो लोग कहते हुए सुने थे कि, "मैदान का बड़ गया", "गाम का ठाण गया"|
अगर हमारी-तुम्हारी माँ-दादियों के ऐसे ही रोल आज भी चल रहे हों तो समझना की हमारा कल्चर-कस्टम-सिस्टम सुरक्षित व् जागरूक गृहणियों के हाथों में है अन्यथा तो गृहणी ही घरों पर ग्रहण लगाने की राह पर हैं इतना समझ लेना|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
सलंगित फोटोज में, एक में मेरे पिता की गोदी में मैं हूँ और दादी के दाईं ओर बड़ा भाई है| दूसरे फोटो में मैं और मेरी माँ हैं|
दादी का रुतबा और रोल: मेरा घर गाम के व्यस्तम चौराहों पर है, जिसको "मैदान" भी बोला जाता है| तो दादी फुरसत में जब भी पीढ़ा डाल के मैदान में बैठा करती थी तो बिगड़ी-से-बिगड़ी बहु के मुंह पर घूंघट हो आता था| हिरणों की डार की भांति कूदती आती लड़कियों के पैरों में ठमक आती व् सर पर पल्ला| कोई लम्बी व् उल्टी जुल्फों वाला "गधे के अढ़ाई दिन" जिसमें आ रहे हो उस टाइप का लड़का दादी को बैठी देख या तो गली बदल जाता या बचते-बचाते हुए निकलने की कोशिश करता| छोटे भाई के डब्बी (दोस्त) तो मैदान की तरफ आने वाली गलियों या इन गलियों में मिलने वाली गलियों से, आगे पैर रखने से पहले मुंडी बाहर निकाल यूँ चेक करते थे "उधम की दादी बैठी है कि नहीं" जैसे चूहा बिल से बाहर आने से पहले मुहकार लिया करता है कि सब ठीक तो है| दादी बैठी दिखती तो काफी सारे तो उल्टे ही मुड़ जाया करते थे| उनको पता था कि हम कितने ही ठीक हो के, सीधे हो के गुजरें; दादी ने डांट लगानी ही लगानी|
दादी की कद-काठी (फोटो से देख ही रहे होंगे) इतनी थी कि जब भी किसी बारात में चौधरी को थापा लगवाने दादी को बुलाया जाता तो बाराती कहते कि नहीं-नहीं, सोहरे मर्द को कपड़े पहना के लाये हुए थे| एक बार ठेठ बांगर से बारात आई थी हमारी एक चचेरी बुआ को ब्याहने| दादी का नंबर लग गया थापा लगाने में| वो चौधरी इतना कमजोर कि एक बार दादी के थापे वाली मेहँदी लगे हाथ को देखे और एक बार खुद को और कांपे-ही-कांपे, जबकि दादी ने इतनी सहजता और सद्भाव से थापा लगाया कि चौधरी को थापा लगने के बाद पता लगा कि उसको थापा लग गया| फिर भी बारात यह कहती हुई टूरी थी कि, "थापा लगाने वाली ऐसी होती हैं? सोहरों ने मर्द को लत्ते पहरा रखे थे|"
जब बड़े नाना मेरे पिता जी को देखने आये थे और अपनी घोड़ी को ठान में बाँधने गए तो वहां देखा कि दादी, घोडे जितने हो चुके बछेरे को कोहनी नीचे दे बाँध रही थी| वापिस जाते ही माँ से बोले कि, "ए गोधा, सासु तो तेरी ऐसी टोह आया हूँ बेटा कि ज्यादा मैं-मगर करी तो एक कोहनी में ही नीचे धर लेगी"| तेरे बड़े नानके का इतना बड़ा साहूकारा था कि मिश्राणी पंडतानी तो रसोई बनाने आया करती थी, ऐसे राजकुमारियों से ठाठ में पली थी तुम्हारी बड़ी माँ| दादी ही सुनाया करती, ये सारे किस्से|
दादी जब मरी थी तो लोग कहते हुए सुने थे कि, "मैदान का बड़ गया", "गाम का ठाण गया"|
अगर हमारी-तुम्हारी माँ-दादियों के ऐसे ही रोल आज भी चल रहे हों तो समझना की हमारा कल्चर-कस्टम-सिस्टम सुरक्षित व् जागरूक गृहणियों के हाथों में है अन्यथा तो गृहणी ही घरों पर ग्रहण लगाने की राह पर हैं इतना समझ लेना|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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