Sunday, 26 July 2020

त्रिपुरा के मुख्यमंत्री की जाट व् सिख सरदारों पे कही बात को Ethical Capitalism बनाम Unethical Capitalism के पहलु से समझा जाए!



Ethical Capitalism: यानि उदारवादी जमींदारी, जहाँ खेत में फसल उठने से पहले सब देनदारों का निर्धारित करार के तहत हिस्सा खलिहान से ही बाँट के उसके बाद खसम फसल घर ले जाता रहा है, फिर चाहे उसमें बढ़ई का हिस्सा रहा हो, मिटटी के बर्तन बनाने वाले का, कृषि के औजार बनाने वाले का, बाल बनाने वाले का, सीरी-साझी आदि का रहा हो| यह जमींदारी वर्णवाद-जातिवाद-धर्मवाद से रहित, सीरी-साझी के वर्किंग पार्टनर कल्चर की एथिक्स की होती है, कि अपनी पूँजी बनाओ जितनी चाहे उतनी बनाओ परन्तु दूसरे का हक मत खाओ व् अमानवीयता मत अपनाओं| और जहाँ-जहाँ तक जाट व् सिख सरदार बहुलयता में बसते आये हैं, वहां-वहां 5-10% को छोड़ के यही Ethical Capitalism प्रैक्टिस होता आया है|

Unethical Capitalism: यानि सामंती जमींदारी, जहाँ खलिहान में फसल बंटने का कोई कांसेप्ट नहीं होता, बल्कि बेगारी और होती है| सीरी-साझी की जगह नौकर-मालिक का कल्चर रहता आया| वर्णवाद-जातिवाद-धर्मवाद प्रकाष्ठा की नीचता के स्तर का होता है| और इनकी इस नीचता की बानगी ही है ये कि इनके यहाँ दलित-ओबीसी मात्र बेसिक दिहाड़ी कमाने तक को इन्हीं जाटों-सरदारों की धरती पर दशकों से आ रहे हैं| तो ऐसा है बिप्लब देब तेरी बुद्धिमत्ता उस दिन मानूं जिस दिन तू हमारी तरह तेरे यहाँ के वर्णवाद-जातिवाद-धर्मवाद के प्रताड़ितों को रोजगार देना तो छोड़, तू तेरे यहाँ वालों के ही रोजगार के बंदोबस्त कर दे तेरे यहाँ|

और अगर तेरे यहाँ से बिकने वाली बेटियों (जो हरयाणा-पंजाब में बहुओं के रूप में आने से पहले कोलकाता के सोना-गाछी, हैदराबाद, मुंबई, दुबई आदि में वेश्यावृति के लिए बेची जाती रही हैं) की बिक्रियां बंद करवा दे तो तुझे वाकई अकलवान इंसान मानें हम| लोग बड़े चौड़े हो के थू-थू करते हैं कि बंगाल-बिहार से बहुएं लाते हैं हरयाणा-पंजाब वाले, अरे यह देखो किन बच्चियों को ला के अपने घरों की शान बनाते हैं, उनको जो हरयाणा-पंजाब में आने से पहले कोठों पर बेचीं जाती रही हैं| और भाई सुन, तू बंगाली है ना? तेरा अहसान होगा अगर यह वृन्दावन के विधवा आश्रम को उठा के तेरे त्रिपुरा या बंगाल में ले जाए तो क्योंकि यह जमा जाट बाहुल्य धरती पर रखा है जबकि इसमें 90% विधवाएं बंगालन बैठी हैं जो प्रोफेशनल वेश्याओं से भी बदतर जीवन जीने को मजबूर हैं और तथाकथित धर्म के मोड्डे-फलहरी ही इनका जीना मुहाल रखते हैं| बोंडेड-वेश्याओं जैसी जिंदगी चलती है इनकी| उस दिन मानूं तेरी अक्ल जिस दिन तेरी इन बंगालन विधवाओं (सही मायनों में बोंडेड-वेश्याएं) के गले की फांस काट दे|

पर मुझे इतना भी पता है कि क्योंकि तू Unethical Capitalism के सिस्टम की उपज है, तो चिकने घड़े की भांति तू यह नोट पढ़ भी लेगा तो सकपका के नजरें झेंपने के अलावा कुछ कर ले तो| तो जिनकी कोई एथिक्स ही ना हों, उनको एथिक्स पर चल के पूँजी बनाने वाले कम दिमाग के लगें, इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं| लिखने को बहुत-कुछ है, 20 पन्ने जितना लेख छाप सकता हूँ परन्तु वक्त की कमी हो रखी है आजकल| इतने से ही समझ जाना कि अगर जाट-सरदार एथिक्स पे रहते हुए भी इतने ताकतवर हैं तो जिस दिन तेरी तरह Unethical हो गए तो तुम्हारा क्या होगा; सबसे पहले तुम ही फिर "लुटेरे" लिखते-लिखवाते-बिगोते-बड़बड़ाते हांडोगे|

अंतिम सुन ले, पूरे इंडिया में जाट-सरदार ही इकलौते Ethical Capitalism वो पैरोकार हैं जो इंडिया के बाद अमेरिका-यूरोप आदि वालों में ही मिलती है| तुमसे तो रीस तो छोड़, तकदीस भी ना होवे जाट-सरदारों की|

नोट: कुछ प्रोफेशनल-सोशल असाइनमेंट्स में बिजी था, इसलिए रिप्लाई लाने में लेट हो गया; हो सके तो पहुंचा दीजियेगा महाशय को यह लेख, वैसे तो पढ़ेंगे ही नहीं फिर भी दिमाग के किसी कोने में कोई बात चौंध जाए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 4 July 2020

दादा नील्ले खागड़ हो!

मेरे बचपन के, मेरे निडाणे के दादा नीले खागड़ की याद में समर्पित मेरी यह हरयाणवी कविता पढ़िए:

दादा नील्ले खागड़ हो, तैने आज भी टोहन्दा हांडु हो|
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूजा हो||

बुड्डे खागड़ का बदला तैने, लिया खेड़े आळी लेट म,
ड्यंग पाट्टी नही बैरी पै, ज्यब धरया तैने फटफेड़ म|
रुक्का पाट्या तेरी रहबरी का, दूर-दूर की हेट म,
आंडीवारें गाम की गाळैं, रहन्दा रात्याँ खेत म||
मिटटी-गारे की भरी मांग माथे म, किते सूरज, किते चंदा हो!
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूज्जा हो||

रोज सांझ नैं आया करदा, जाणू कोए सिद्ध-जोगी हो,
गाळ म आ धाहड्या करदा, जाणू अलख की टार देई हो|
ले गुड़ की डळी मैं आंदा और तू चाट-चाट हाथ खांदा हो,
गात पै खुर्रा फेरूँ, इस बाबत फेर पूंजड़ बारम्बार ठांदा हो||
जब मिटदी खुश्क खुर्रे तैं, तू अकड़दा ज्यूँ को बड़बुज्जा हो|
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूज्जा हो||

दो पल भिक्षा की बाट देखण की तैनें, मर्याद कदे तोड़ी नहीं,
दादी बरसदी म्हारे पै, जै टेम पै टहल तेरी मोड़ी नहीं|
दूसरा दर जा देख्या तन्नै, जो बार माड़ी सी हुई नहीं,
पर देहळ की सीमा-रेखा, तैने कदे लांघी नहीं||
सब्र-संतोष व् आत्मीयता की, अजब था तू धजा हो!
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूज्जा हो||

खागड़ सून्ने राह न्यडाणे की, भोत-ए-भोत चढ़े,
तू ए बताया जिसनें सबके मोर्चे खूब-ए-खूब अड़े|
एक-एक खैड़ तेरी, गाम की गाळा नैं सरणा ज्यांदी,
स्याह्मी आळे खागडाँ की, जोहडाँ बड़ें ज्यान छूटदी||
पाणी जांदे पाटदे जोहडां के, ज्यूँ चढ़ के चली को नोक्का हो,
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूज्जा हो||

उत्तराधिकारी नैं ब्यरासत सोंपणी तन्नें खूब स्य्खाई,
ज्यब नया बाछड़ा हुया तैयार, तू गाम की गाळ त्यज जाई|
सांझरण आळी पाळ बणी डेरा, तैनें जग-मोह तैं सुरती हटाई,
माणस भी के जी ले इह्सी, बैराग ज्यन्दगी तैनें लई प्रणाई||
सुणी ना भकाई मेरी एक भी, दे धर देंदा ठा सींगा हो!
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूज्जा हो||

आज भी तरी तस्वीर मग्ज म न्यूं की न्यूं धरी, ओ गाम के मोड़ हो|
गाम का दयोता, गाम का रुखाळा, तू था गाम का खोड़ हो|
लियें तासळा दळीये का हांडू, न्यडाणे के काल्लर-लेट हो,
फुल्ले-भगत की भेंट स्वीकारिये, नहीं आगै करूँ को अळसेट हो|
बुड्ढे खागड़ तेरी सोहबत, मैंने देवै रिश्तों का जज्बा हो,
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूज्जा हो||

दादा नील्ले खागड़ हो, तैने आज भी टोहन्दा हांडु हो|
नहीं पाया रहबर गाम की सीम्मां का, तेरे बरगा दूज्जा हो||

लेख्क्क: फूल कुंवार म्यलक