हरयाणवी ग्रामीण परिवेश के लोग जब 1970-80 में ज्यादा वेग से गामों से शहरों में आये तो इनको शहरियों का औरत को दबा के रखने का धर्म का नुस्खा बहुत फबा| इस चक्कर में बावले अपने "दादा नगर खेड़ों" के औरत को 100% धोक-ज्योत में दी जाने वाली लीडरशिप को धर के ताक पे, चढ़ा दी कहो या चढ़ने दी कहो अपनी लुगाईयां उन धर्मस्थलों पर जहाँ 100% मर्द-धर्मप्रतिनिधि खड़े होते हैं और यह भी वही निर्धारित करते हैं कि औरत कब इन धर्म-स्थलों पर चढ़ेगी और कब नहीं| और तो और ये औरत भी फिर रिफली-रिफली जब भी गामों में जाती, जो इनके धोरै नए धार्मिक फंड बिगोने के अलावा दूसरा कोई काम होता तो, बिठा दी गाम आळी भी इन 100% मर्दवाद के अड्डों पे पढ़ण| अपने पुरखों की सभ्यता-हरयाणत के बिल्कुल विपरीत चलोगे तो यह तो देखना ही था जो आज हो रहा है, 3 कृषि अध्यादेशों के रूप में| अब इतनी सिद्द्त से 4-5 दशक लगा के अपनी सभ्यता का मलियामेट किया है तो इतनी जल्दी शक्ल सुधर भी कैसे जाएगी| हमें 100% मर्दवाद के धार्मिक स्थल वालों से ऐतराज नहीं, क्योंकि इनको तो आजीविका चलानी ही औरत को दोयम दर्जे पे रख कर आती है, परन्तु तुम क्यों बौराए इनके पीछे; जिनके यहाँ औरत इतनी लिबरल रही? बौराए और फिर भी 1990 से 2020 तक अखबारों-मीडिया में तालिबानी-तुगलकी भी तुम ही कुहाए? इसको कह्या करैं "ऊँगली कटा के शहीद होना"| अब भी आ जाओ अपने पुरखों की आध्यात्मिक स्वछंदता पर जिसमें 100% धोक-ज्योत औरत के हाथ में है, ना किसी मर्द-धर्मप्रतिनिधि का दखल ना कोई मूर्ती-पूजा के आडंबर यानि अपने "दादा नगर खेड़ों/भैयों/बैयों/भूमियों/जठेरों/बड़े बीरों" पर| स्मृति व् प्रेरणा हेतु घर में मूर्ती रखो पुरखों की, कौम में हुए अलाही मसीहाओं की; परन्तु वो मिलें न मिलें इन फंडियों की बिसाई दर्जनों मिल रही हैं आजकल|
No comments:
Post a Comment