जिसने अपनी कष्ट कमाई की बेअदबी करनी सीख ली या सहज मंजूर कर ली, उससे खाली दिमाग कौन होगा? बस आप इस कष्ट-कमाई को कदमों-पत्थरों पर रुलवा सकते हो या नहीं; यह पत्थरों पर चढ़वा के बाकायदा पहले चेक किया जाता है|
इस बात को हमारे पुरखे भली-भांति समझते थे इसलिए "दादा नगर खेड़ा" के कांसेप्ट में उन्होंने यह सिस्टम कभी रखा ही नहीं| आपने देखा भी होगा आपकी दादी-नानी-माँ-काकी-ताई, "दादा नगर खेड़ों/भैयों/भूमियों/बड़े बीरों" पर सिर्फ ज्योत लगा के आती थी, "गुड़ की भेली" रुपी प्रसाद या तो खेड़े के आगे जो मिलता उसको खुद बांटती थी या अपने बगड़ में आ के बांटती थी|
संजोग कहिये या आपकी इस थ्योरी का ग्लोबल स्टैण्डर्ड की होना कहिये; अनाज को पत्थरों पर खराब नहीं करने का विधान ईसाई धर्म में भी है, सिख धर्म में यूँ अनाज की बेअदबी नहीं, काफी हद तक इस्लाम में भी है, शायद जैन व् बुद्ध वाले भी इसका अनुसरण करते हैं|
कहना सिर्फ इतना है कि पुरखों के सिद्धांतों को पकड़े रखिए; बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक दोहन व् व्यर्थ के इकनोमिक दोहन से तो इतने से ही बचे रह सकते हो|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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