Monday 26 July 2021

अनाज को पत्थरों पर चढ़ाते फिरते हो, इसलिए मंडियों/बाजारों में यथोचित दाम पर नहीं बेच पाते व् हताश हो सड़कों पर फेंक के आते हो!

एक कहावत चलती आई है उत्तरी भारत की सबसे बड़ी जमींदार/किसान बिरादरी पर कि, "जाट भेल्ली दे दे, पर गन्ना/गंडा ना दे"|

इसके आर्थिक (economical) व् मार्केटिंग पहलु पर विचारा कभी? हालाँकि पहले-पहल सुनने में ऐसा लगेगा कि जैसे जाट की कोई क्रूरता या नादानी इसमें दिखाई गई हो| परन्तु आपके जमींदार/किसान पुरखों के आर्थिक व् मार्केटिंग सिद्धांतों से इसको समझोगे तो बात का सही मर्म समझ आ जाएगा| परन्तु आपके पुरखे ही क्या आपकी तो पूरी कौम बारे फंडियों ने "भोली कौम", "भोला किसान" प्रचारित करा रखा तो कैसे इन बातों के मर्म तक जा के सोचना होगा|
चलिए थोड़ी सी इकोनॉमिक्स व् मार्केटिंग टर्म्स समझते हैं इस पर बताने से पहले| बिज़नेस में सेकेंडरी प्रोडक्ट व् प्राइमरी प्रोडक्ट (raw-material) होते हैं| सेकेंडरी प्रोडक्ट, प्राइमरी प्रोडक्ट से बना होता है| उदाहरणार्थ: बिस्कुट सेकेंडरी प्रोडक्ट है व् गेहूं जिससे बिस्कुट बनता है वह प्राइमरी प्रोडक्ट|
ऐसे ही ऊपर वाली कहावत में आई "भेल्ली" यानि "गुड़ की पेडियां" सेकेंडरी प्रोडक्ट है व् गन्ना/गंडा जिससे गुड़ बनता है वह प्राइमरी प्रोडक्ट| और पुरखे किसी भी आंगतुक को कभी गन्ना/गंडा ऑफर नहीं करते थे, बल्कि गुड़ खिलाते थे| इससे उनके गुड़ की मार्केटिंग होती थी, खाने वाले को स्वादिष्ट लगता था तो खरीद भी लेता था या अपने यारों-प्यारों-जान-पहचान वालों में बताता था कि फलाने "कोल्हू का गुड़" बहुत स्वादिष्ट है| इससे डिमांड क्रिएट होती थी व् किसान को और ग्राहक मिलते थे|
अब ऐसे ही रॉ-मटेरियल (प्राइमरी प्रोडक्ट) है अनाज; उसको आप बिना सेकेंडरी प्रोडक्ट बनाए पत्थरों पर चढ़ा आते हो, तो ना आपका सामुदायिक रुतबा बन पाता ना ब्योंत| अब जब खुद ही अपने प्राइमरी प्रोडक्ट को फ्री-फंड में चढ़ाते-बाँटते फ़िरोगे तो मंडी क्या ख़ाक कद्र करेगी उसकी? अंत में उचित दाम ना मिलने की हताशा में सड़कों पे ही फेंक के आओगे और बहुतेरों को आना भी पड़ता है| आगे समझदार को ईशारा काफी|
अब जिस बिरादरी पर यह कहावत बनी है, उसी को पुरखों के यह फंडे भुलाये जाते हैं तो बाकी किसान बिरादरियों के तो कहने ही क्या|
तो कृपा कहाँ रुकी पड़ी है? किसी कुंडली-सर्प या गृह दोष में नहीं; अपितु पुरखों के इकोनॉमिक्स व् मार्केटिंग कॉन्सेप्ट्स को तिलांजलि देने में|
निचौड़: आपकी आस्था/आध्यात्म के तौर-तरीके निर्धारित करते हैं कि आपका सामुदायिक रुतबा कैसा होगा व् आपकी सामुदायिक माली हालत कैसी होगी|
चलते-चलते एक चीज और नोट करने की है: जिन धर्मों में अनाज, पत्थरों पर ज्याया नहीं किया जाता; वहां किसान की भी कीमत है व् अनाज की भी| जहाँ ऐसा नहीं होता, वहां देख लीजिये| अमेरिका में किसान को इंडिया की अपेक्षा 734 गुना compensations व् subsidies मिलती है, यूरोप में औसतन 500 गुना ज्यादा मिलती है| लेकिन इंडिया में ना उचित दाम मिलते और ना सम्मानजनक compensations व् subsidies| अमेरिका-यूरोप में corporate ने किसानी हालात बिगाड़े तो कम-से-कम से compensations व् subsidies के जरिये उनको संभाले तो रखते हैं|
अब इन पहलुओं का साइकोलॉजिकल व् आर्थिक क्या कनेक्शन है, आपके लिए "food for thought" छोड़ दिया है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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