Friday, 22 May 2015

"Tanu Weds Manu Returns", एक Alarming Singal है स्थानीय हरयाणवी समाज के लिए!

विगत रात तनु वेड्स मनु रिटर्नस देखी| मिक्स्ड सी फीलिंग आती रही| कहीं लगा कि डायरेक्टर स्थानीय हरयाणवी समाज की प्रशंसा कर रहा है तो कहीं धो-धो के पुचकार रहा है| Overall its just another bullshit crap following 'NH10' by people obsessed with jatophobia or haryanophobia or khapophobia.

सबसे बकवास जो चीज लगी, वो था, "तुम क्या राजस्थान के रजवाड़े हो!" वाला डायलाग| पहली तो बात फिल्म के डायरेक्टर को यह बताऊँ कि काहे के रजवाड़े? प्राचीन विशाल हरयाणा के दोनों रजवाड़े भरतपुर और धौलपुर को निकाल के वापिस हरयाणा को दे दो, फिर दिखाओ जो एक भी रजवाड़ा ऐसा हो जिसने कभी जाटों की तरह मुग़लों और अंग्रेजों के विजयरथ रोक के दिखाएँ हों और खुद दुश्मनों के मुख से अजेय लोहागढ़ कहलायें हों या जाटों की तरह अंग्रेजों से 'Treaty of Equality and Friendship' पे दस्तखत करवाएं हो?

दूसरी बात हाँ वाकई में जाटों की इनसे कोई तुलना नहीं हो सकती, क्योंकि जाट वो (रजवाड़े-खापवाड़े-जटवाड़े) हैं जिन्होनें इतने ना सिर्फ अंतर्जातीय वरन अंतर्धार्मिक प्रेम-विवाह तक किये हैं कि जाटों के यहां कहावत चली, "जाट के आई जाटनी कुहाई|" जाटों ने उनकी बेटियां ब्याही जिनको ये बेटियों के डोले चढ़ा दिया करते थे| तो जाट इनके जैसे हों भी तो कैसे?

तीसरी बात इन रजवाड़ों को राजपुरोहित बन दिशा-निर्देश देने वालों और एक हिसाब से इनको बनाने वालों के लिए जाट "जाट जी" होते आये हैं, तो जिनको बनाने वालों के लिए ही जाट "जाट जी" होते आये हों तो जाट उनके शागिर्दों के जैसे हों भी तो कैसे? वैसे भी जाटों को तो इन रजवाड़ों को बनाने वाले ही खुद के (इनके नहीं, खुदके) एंटी बोलते हैं तो इनसे जाटों की तुलना को तो इससे ही विराम लग जाता है|

चौथी बात, डायरेक्टर साहब यह आप वाले, जाटलैंड की गली-गली में खुरपी-सीपियाँ-पल्टे आदि लोहे का सामान बेचते हैं तो इस हिसाब से भी आपकी तुलना नहीं बैठी| यह आप वाले जाटों के घर में सीरी (आपकी भाषा में नौकर) तक रहते आये हैं, तो बताओ अब कैसे तुलना करूँ?

हाँ जाटभाषा में तो तुलना हो सकती है, क्योंकि जाट सीरी को भी साझी (यानी पार्टनर) मानते हैं, परन्तु आप वाली में तो नहीं होगी ऐसी तुलना| दूसरी बात आपको ओपन होने का संदेश ही दिलवाना था तो 'जाट के आई जाटनी कुहाई' वाली कहावत प्रयोग करके यह सन्देश दिलवाते तो मैं आपकी भूरी-भूरी प्रशंसा करता| खामखा मुझसे identity safeguarding के चक्कर में वो तुलनाएं लिखवा दी जो सामान्य स्थिति में मैं ignore मार देता हूँ|

खैर यह घमंड की बात नहीं है, किसी को नीचा भी दिखाने की बात नहीं है, परन्तु डायरेक्टर को तर्कसंगत तस्वीर दिखाने की बात है; वरना खामियां-खूबियां तो हर मानव जाति-नश्ल में लगी आई हैं| मैं लोकतान्त्रिक कौम का खूम हूँ, और किसी से द्वेष नहीं रखता, परन्तु इस फिल्म जैसे नादाँ डायरेक्टर और स्क्रिप्ट राइटर को आईना दिखाना बेहद जरूरी हो जाता है| क्योंकि इंसान फिर हमें वैसे ही पक्का कर लेता है, जैसा ऐसे लोग दिखाने की जुर्रत चढ़ा बैठते हैं| You know its all about damage control over theirs this 'रायता फैलाई'|

और डायरेक्टर साहब, क्या मतलब अब हम हरयाणवी इन बिगड़ीजादियों को अक्ल लगवाने के लिए गंवार बना के दिखाने लायक ही रह गए हैं क्या, कि देखो या तो सुधर जाओ वरना ऐसी-ऐसी गंवार भी तुम्हें लेक्चर पिला देंगी| अरे श्रीमान डायरेक्टर साहेब, आपके तनु वाले किरदार वाली out of order बिगड़ीजादियाँ तो हमारे यहां just for timepass के लिए लाइन मारने तक के लिए भी सीधी 'of no use' and 'just avoid them' की सर्किल में राउंडलॉक करके साइड कर दी जाती हैं| और आप सोचते हो कि हम उनको लेक्चर देंगे? अरे बाबा हमें इनकी अक्ल ठीक भी करनी पड़ जाए तो at least आप वाले तरीके से तो बेहतर तरीके जानते हैं|

अब बात आती है कि यह फिल्म स्थानीय हरयाणवियों के लिए अलार्म क्यों है, वो इसलिए कि तुम लोग या तो इस जाट बनाम नॉन-जाट के खड़दू-खाड़े को छोड़ दो, वर्ना एक दिन इससे भी गंवार दिखाए जाओगे जितना कि literally इस डायरेक्टर ने दिखाना चाहा है| लगता है डायरेक्टर ने सोचा होगा कि हरयाणा में गैर-हरयाणवियों की धाक कैसे जमाऊँ और छोड़ दिया सगुफा हमें गंवार और जाहिल बताने का| चलो कोई नी निकाल लो भड़ास, वर्ना वैसे तो हरयाणा में बसने वाला हर गैर-हरयाणवी जानता है कि इस आपके अनुसार गंवारों के हरयाणा में ही देश के कोने-कोने से आये हर किसी को रोजी-रोटी से ले छत तक मिलती है| इन्हीं हरयाणवियों के यहां आ के आप जैसों के चेहरे की रंगत निखरती है|

परन्तु native हरयाणवी इस फिल्म से इतनी warning जरूर ले लेवें कि जब एक जाट जिसको कि हरयाणा की दबंग व् सक्षम रेस बोला जाता है, उसकी इतनी बेइज्जती करने की जुर्रत यह लोग कर सकते हैं, तो बाकी हरयाणवियो की क्या औकात मानते होंगे ऐसी मति के लोग; इस फिल्म से सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं| अभी भी सम्भल जाओ और निकल आओ इन जाट बनाम नॉन-जाट के धुर्वीकरण और घृणा से| वरना एक दिन तमाम हरयाणवी, हरयाणा में ही बोलने-चलने-उठने-बैठने-मिलने-झुलने तक के गुलाम बना दिए जायेंगे| And believe me ऐसी फ़िल्में आ ही इस तरह के एजेंडा के तहत रही हैं|

वैसे जब वो लास्ट के सीन में पूरे परिवार को कुसुम के घर की तरफ आते देखा तो लगा कि जैसे छोटे भाई को भेज दूँ उनको घर लिवा लाने को; वो क्या है कि आजकल खेतों में ईंख-नुलाई का सीजन चल रहा है ना|

बेसब्री से इंतज़ार है कि कब कोई हरयाणवी लेखक शुद्ध हरयाणवी संस्कृति के सकारात्मक पहलुओं पे स्क्रिप्ट लिखने की जुगत व् जिद्द बैठा पायेगा|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 21 May 2015

As it is spelled Ram not Raam so is Jat not Jaat!


Really, this is also a kinda question? Bullshit!

Seeing very absurdly on social media for quite a few days that spelling of Jat is tried to distract as Jaat?

Are such people thinking of changing these spellings thus English language pattern throughout?

For example:
1) Ram in English is Ram in Hindi, not Raam; do they wish to change it to "Raam" now?
2) Car in English is Car in Hindi, not Caar; do they wish to change it to "Caar" now?
3) Khap in English is Khap in Hindi, not Khaap; do they wish to change it to "Khaap" now?
4) Taj in English is Taj in Hindi, not Taaj; do they wish to change it to "Taaj" now?
5) same for examples like bar, war, watt, tar, papa etc.

So then why so much ruckus going on on spelling of Jat? It is Jat and not Jaat, and it should remain Jat because language pattern also supports the same.

So stop arguing uselessly on a useless topic arison from havocs of frustated people.

Jai Yoddheya! - Phool Malik

Wednesday, 20 May 2015

निडाना गाँव के नौनिहालों की जिज्ञासा व् फरमाईस पर!


मेरे गाँव के युवाओं द्वारा हमारी संस्कृति और मान्यताओं पर मेरे से पूछी गई उनकी जिज्ञासाओं बारे जानकारी इस प्रकार हैं:

Q1. हमारे गाँव में देवी के रूप में पूजी जाने वाली "दादी चौरदे" कौन हैं और क्या आप इनको मानते हैं?:

इसके लिए थोड़ा इतिहास से शुरू करूँगा| "गठवाला जाटों" व् कई अन्य जाट गोत्रों जैसे कि 'दलाल' का निकास गढ़-गजनी से है| "दादा महाराज मोमराज जी गठवाला" ने गढ़-गजनी की महारानी से प्रेम-विवाह किया था| जब उनके प्रेमविवाह का गजनी के बादशाह को पता चला तो दोनों को छलावे से आजीवन कैद में डाल दिया| तब वीर व् चतुर तेजस्वी "बाहड़ला पीर जी महाराज" हुए जिन्होनें दोनों को कैद से निकाला और वो गोहाना के पास "कासंढा" आकर बसे और फिर वहीं से आगे "मलिक यानी गठवाला जाटों" की लेन चली|

"बाहड़ला पीर जी महाराज" की धर्मपत्नी थी "दादी चौरदे", जिनका कि अपने गाँव के "दादा नगर खेड़ा (दादा बड़ा बीर)" के बगल में छोटा सा मूर्तिरहित अन्य "खेड़ालय" (हमारे असली भगवान सिर्फ दादा खेड़ा और दादी चौरदे के यह खेड़ालय ही हैं; जिनसे हम वंश व् खून से जुड़े हुए हैं) है। तो जब दादा मोमराज जी महाराज और महारानी गढ़गजनी को बचा के उनको "कासंढा" की ओर "बाहड़ला पीर जी महाराज और दादी चौरदे" ने विदा किया तो वो भावुक हो उठी और कहने लगी कि "मोमराज जी" आपका तो वंश आगे चल पड़ेगा, लेकिन हम दोनों बेऔलादे हैं, क्या हमें भी भविष्य में कोई याद करने वाला होगा? तब दादा मोमराज जी महाराज ने दादी चौरदे को वचन दिया था कि बहन आपको मेरा वंश गठवाला खूम की "देवी" के रूप में पूजा करेगा| और तब से गठवालों के यहां "दादी चौरदे" की पूजा होती है|

Q2. दादा खेड़ा (दादा बड़ा बीर) के बारे आप क्या जानते हैं और हम इनकी पूजा क्यों करते हैं:

दो बातों के साथ नीचे लिंक पे दिया हुआ आर्टिकल पढ़ने की कहूँगा; पहली बात "दादा खेड़ा" जाट व् भाईचारा जातियों का इकलौता वास्तविक भगवान है, गुरु है| गाँवों में भाषा और क्षेत्र के हिसाब से इसके नाम भिन्न-भिन्न हैं, परन्तु मूल स्थापना यह एक ही है, बिना मूर्ती का सफ़ेद छोटा कमरेनुमा ईमारत जिसको "खेड़ालय" भी कह सकते हैं| इस बारे विस्तार से लिंक में दिया लेख पढ़ लें| दूसरी बात यह कि गठवाला जाटों के गाँवों में जो खेड़े हैं, उनमें जिस प्रकार का खेड़ा निडाना में हैं, यह गठवालों के तीन ही गाँवों में है; निडाना, उलहाना और मोखरा|

सविस्तार इस लिंक से पढ़ें:
http://www.nidanaheights.com/EH-hn-dada-kheda.html

इसके अलावा गाँव के दो आदरणीय बुजुर्गों द्वारा मेरे को बताये गए अपने गाँव के अन्य इसी प्रकार के पहलु जानने हेतु इन लेखों पर पढ़ें:

1) गठवालों व् निडाना गाँव की कहानी, दादा चौधरी चतर सिंह मलिक की जुबानी: http://www.nidanaheights.com/indexhn-dada-chatar-singh.html

2) निडाना गाँव की कहानी, दादा श्री दयानंद कबीरपंथी की जुबानी -http://www.nidanaheights.com/indexhn-dada-dayanand.html

सप्रेम: फूल मलिक

1 MP per 0.115 million versus 1 MP per 2.3 million of population!


A country of France with a population of 6.6 crores constitutes 577 MPs in National Assembly and 348 in Senate; whereas India a country of 125 crores population constitutes just 543 MPs in Upper House of Parliament (Lok Sabha) and mere 245 in Lower House of Parliament (Rajya Sabha). Means 1 MP each for almost 1.15 lakhs (0.115 million) of population in France, whereas 1 MP each for almost 23 lakhs (2.3 million) of population in India.

What's the reason? Are Indians one all "Shaktiman", "Batman" or whatever kinda super heros or the Frenchs least capable? And that too despite the fact that France is a developed country whereas India still under development nation? And do we still believe that we will join the podium of VETOS with this much workload or representation per single unit of public?

Oh yeah, workload; forget, ours are not meant for being workload ridden while batting for or being sit in parliament seat. They are meant to do and spread all nonesense except heeding to public causes and welfares. But bet with me the day they would really mean to being over loaded with real work of cause, they would also increase the number of MPs counting one per said unit of population.

By the way if to put in line with French one, we would require 10869 MPs against current just 543. Oh pity on our MPs, I think ours are the most overly loaded MPs worldwide, what to do "neta ji"! A single MP of India is equal to almost 19 MPs of France. See we have 543 sheronwali mata with 38 hands each in our parliament. Sherowaali mata aur hamaare MPs, my foot.

Ours arrogancy claims that this much of population can be handled by an MLA which French MP handles; and yeah we all Indian know that how charismetically superficial are our superheros. And perhaps, that's why it is said that 33 crores Gods run my nation!

Phool Kumar Malik

अब दूध पे भी एम.एस.पी., आखिर सरकार किसान को बख्सेगी कि नहीं?

मुझे जानकर अचरच हुआ कि मॉडल-मॉडल चिल्ला के बोर कर देने वाले गुजरात और साथ लगते महाराष्ट्र में किसान से दूध की खरीद 14-16 रूपये प्रति लीटर में होती है, तो क्या ख़ाक मॉडल-स्टेट?

इससे अच्छा वो भी तीन गुना रेट तो उत्तरी भारत के हरयाणा-पंजाब-पश्चिमी से ले पूरे यू. पी. में मिलता है| यहां डेरी व् किसान के दरवाजे से दूध की सीधी खरीद 35 से 48 रूपये प्रति लीटर वैसे ही होती है, तो अगर यह 20 रूपये प्रति लीटर का एम. एस. पी. यह इधर भी ले आये तो इसका क्या मतलब?

यही कि किसान को लैंड बिल, फसलों के दामों, मुआवजों के बाद अब दूध के समर्थन मूल्यों पर भी सड़कों पर उतरना होगा? यार रुक जाओ तुम लोग भाजपा वालो, आखिर कहाँ तक जा के रुकोगे?

तुम लोग लग्जीरियस आइटम्स, एफ.एम.सी.जी. प्रोडक्ट्स के लिए क्यों नहीं एम.एस.पी. लाते, तब पता लगे तुम्हें असली न्यायकारी होने का|

किसी ने सच ही कहा है, बनिया हाकिम, ब्राह्मण शाह, जाट मुहाजिब, जुल्म खुदा| सीधे-सीधे डिक्लेअर करके किसान को बंधुआ मजदूर ही बना लो ना; कहाँ तो फसलों के भी एमएसपी खत्म कर, किसान को उसके मूल्य-निर्धारण के हक की बात होनी चाहिए थी और कहाँ अब दूध को भी एमएसपी के दायरे में लाया जा रहा है| यें मारेंगे किसान को बिन आई|

Source:
महाराष्ट्र : दूध के समर्थन मूल्य के लिए अध्यादेश की तैयारी
http://khabar.ndtv.com/video/show/news/maharashtra-govt-to-bring-ordinance-for-milk-prices-368086

Phool Malik

Tuesday, 19 May 2015

हमारी 'खेड़ा-खेड़ी' सभ्यता!


(पलायन करके बसने पर ही नया खेड़ा स्थापित होता है, बंटवारे पर नहीं)

"खेड़ा": एक गाँव/नगरी से गाँव/नगरी की ही जमीन पर बसाया गया नया गाँव/नगरी| लेकिन 'दादा-खेड़ा' पैतृक गाँव/नगरी में ही रहता है| "खेड़ा" प्रत्तय पुल्लिंग के नाम पर अगर गाँव का नाम पड़ा है तो लगाया जाता है| जैसे ललित खेड़ा, भैरों खेड़ा, सिंधवी खेड़ा, बराड़ खेड़ा, बुड्ढा खेड़ा आदि| यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि अगर आपने पैतृक गाँव की जमीन की अपेक्षा कहीं सुदूर जा के नया गाँव/नगरी बसाई तो नया नाम रखा जाता है| उदहारण के तौर पर मेरी निडाना नगरी, रोहतक जिले की "मोखरा" नगरी से आके बसी हुई है , इसलिए खेड़ा प्रत्तय से मुक्त है; परन्तु निडाना नगरी की जमीनी-सीमा में बसा "ललित खेड़ा" गाँव/नगरी में "खेड़ा" शब्द प्रयोग होता है और इसका मतलब यह है कि "ललित खेड़ा" का "दादा खेड़ा धाम" निडाना नगरी में ही है| और हर तीज-त्यौहार अथवा सांस्कृतिक मान-मान्यता पर ललित खेड़ा के लोग निडाना में पूजा-अर्चना करने आते हैं|
 
"खेड़ी": स्त्रीलिंग के नाम पर 'खेड़ा' वाले सिद्धांत पर चलते हुए ही जो गाँव/नगरी बसाई गई हो तो| जैसे शीला खेड़ी, खीमा खेड़ी, गद्दी खेड़ी, काणी खेड़ी आदि| हालाँकि अध्ययन अभी जारी है, इसलिए अपवाद मिल सकते हैं और उनके कारण भी|

इसके साथ यह भी कहा जाता है कि "खेड़ा" जनसंख्या में बड़े व् "खेड़ी" जनसंख्या में छोटे गाँव को कहा जाता है, जो कि अधिकतर मामलों में सही नहीं है| उदहारण के तौर पर शीला-खेड़ी जनसंख्या के हिसाब से बड़ा गाँव है जबकि उसी के साथ लगता रत्ता-खेड़ा उससे काफी छोटा, फिर भी पहले वाले के साथ खेड़ी जुड़ा है और दूसरे के साथ खेड़ा|

खेड़ा/खेड़ी का कांसेप्ट उसी प्रकार से समझा जा सकता है, जैसे कि जब दो भाई न्यारे हों तो पैतृक सम्पत्ति का बंटवारा करते हैं, लेकिन अगर एक भाई किसी वजह से गाँव/नगरी से दूर जा बसे तो उस सूरत में वो नया खेड़ा बसाता है और गाँव/नगरी के नाम में "खेड़ा/खेड़ी" शब्द इस्तेमाल नहीं होता, क्योंकि वो गाँव/नगरी खुद नया खेड़ा होता है जो उस गाँव/नगरी में ही स्थापित होता है|

इस प्रकार उस नए गाँव/नगर की अपनी सीमा होती है और उसी सीमा में दो भाइयों के बंटवारा होने जैसे अलग हिस्से या टुकड़े में नया गांव/नगर बसे तो उसके नाम के साथ "खेड़ा" अथवा "खेड़ी" शब्द जोड़ दिया जाता है परन्तु उस गाँव/नगरी की सीमा में धरती पर स्थापित खेड़ा एक ही जगह रहता है यानी पैतृक गाँव में, क्योंकि इसको बंटवारा हुआ है कहते, पलायन नहीं| इस तरह बसे हुए गाँवों को छोटा व् बड़ा गाँव भी कहते हैं|

सीमा के अंदर बंटवारे वाली स्थिति में जो पैतृक यानी वयोवृद्ध गाँव कहलाता है, तो उसमें से निकले उसी की सीमा में बसे नए गाँवों की आपसी मसलों से संबंधित पंचायत, वयोवृद्ध यानी बड़े गाँव में ही लगती है| यह दूसरा अंश है "खेड़ा-खेड़ी" संस्कृति का| जैसे जब निडाना-निडानी (सिर्फ निडाना से गई आबादी की) व् ललीतखेड़ा गाँवों का कोई सामूहिक मसला अथवा निर्णय होना हो तो उसकी पंचायत निडाना में बैठेगी यानी बड़े गाँव में बैठेगी|

और ऐसा होता मैं मेरे बचपन से देखता आया हूँ, कि जब कोई राजनैतिक महत्वकांक्षा का आदमी तीनों गाँवों की वोट लेने की इच्छा रखता हो अथवा सामूहिक सहमति से उम्मीदवार बनना चाहता हो तो वह तीनों गाँवों को निडाना में इकठ्ठा करता है| ऐसे ही कोई अन्य जमीन या इंसान से संबंधित ऐसा मसला हो जो तीनों गाँवों को प्रभावित करता हो, उसकी पंचायत निडाना में बैठती है|

Jai Yoddheya! - Phool Malik

Monday, 18 May 2015

जै जाट गेल पड़े उलझेड़याँ म्ह!

जै 'जाट जी' कह कैं बोलोगे, तो स्यर लग भी ब्यठा ल्यांगे,
जै जाट गेल पड़े उलझेड़याँ म्ह, तै दाहुँ धूळ म्ह ला दयांगे||

एक दयानंद महर्षि, 'सत्यार्थ-प्रकाश' म्ह जाट को 'जाट जी' जो कहग्या,
जो उल्टी राह्याँ चले मंदिर आर्यसमाज के, महर्षि तैं सिर्फ दयानंद रहग्या|
ढोंग दिखाईयो मत ना, पूरी खापलैंड पै स्यर ब्यठवा दयांगे|
जै जाट गेल पड़े उलझेड़याँ म्ह, तै दाहुँ धूळ म्ह ला दयांगे||

राजपूत को भी जिन्होनें कभी 'जी' ना लगाया,
उन्हीं ब्राह्मणों ने जाट को 'जाट जी' फ़रमाया|
जाट-देवता यूँ ही ना कुहाया, रहे धर्म तैं ऊँची मानवता बतांदे,
जै जाट गेल पड़े उलझेड़याँ म्ह, तै दाहुँ धूळ म्ह ला दयांगे||

'जाट-देवता' बाज्जे कदे तैं हम, बोद्दा म्हारा ढाहरा नहीं,
उलझण की राह चालियो ना, जाट को थारे तैं प्यारा नहीं|
हमनें जहर भी खारा नहीं, जै सुच्ची नीत तैं प्या द्योगे|
जै जाट गेल पड़े उलझेड़याँ म्ह, तै दाहुँ धूळ म्ह ला दयांगे||

'चौधर' किसे तैं खोस कैं ना चलाई, अर खेतां ढोळ बैठ कैं कदे ना खाई,
च्यारूं वर्ण छयकाये सदा, रोजगार पुगाये सदा, तब चौधर स्यर धराई|
मत सामन्तियों के भुकायां आईयो, थारै मोरणी अटारियां चढ़ा दयांगे|
अर जै जाट गेल पड़े उलझेड़याँ म्ह, तै दाहुँ धूळ म्ह ला दयांगे||


खून-पसीने तैं सींची हुई या, म्हारी हरयाणे की माटी सै,
जितणे दाब्बो उतने उभरां, सदा येहिं अळसेठ पाँटी सैं|
शर्मांदे भीतर बैठे सां, ना तै लोहागढ़ और भतेरे बणा दयांगे,
जै जाट गेल पड़े उलझेड़याँ म्ह, तै दाहुँ धूळ म्ह ला दयांगे||

'फुल्ले-भगत' सूं 'दादे खेड़े' की, चैन तैं हमनें जी ल्यण द्यो,
राहसर ल्य्कड़ो-राहस्यर बड़ो, सांस चैन की भर ल्यण द्यो|
ना तैं गढ़ी भतेरी घड़ी सैं हमनें, गुरिल्ल्याँ ढाळ नचा दयांगे|
जै जाट गेल पड़े उलझेड़याँ म्ह, तै दाहुँ धूळ म्ह ला दयांगे||

जै 'जाट जी' कह कैं बोलोगे, तो स्यर लग भी ब्यठा ल्यांगे,
जै जाट गेल पड़े उलझेड़याँ म्ह, तै दाहुँ धूळ म्ह ला दयांगे||

शब्दावली:
 
हरयाणा/खापलैंड = वर्तमान हरयाणा + दिल्ली + पश्चिमी यू. पी. + उत्तराखंड + उत्तरी राजस्थान|
सामन्तियों = मंडी-फंडी
च्यारूं वर्ण = चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व् शूद्र
गुरिल्ल्याँ = गुरिल्ला युद्ध कला, जो विश्व को जाटों की देन है, मुग़लों ने जिसको जाटों से सीखा, शिवाजी महाराज ने खापों-योद्धेयों को बुलवा मराठों को सिखवाया|
लोहागढ = भारतीय इतिहास का एकमात्र किला, जिसको अंग्रेज 13 बार हमले करके भी जीत नहीं सके, मुग़ल जिसकी तरफ नजर उठा के नहीं देख सके और राजपूत-मराठे-होल्करों की सात-सात सेनाएं मिलकर भी जिसको बींध नहीं सकी|
गढ़ी = उदाहरणत: रोहतक की साँपलागढ़ी, हिसार की राखीगढ़ी, दिल्ली की मोरीगेट, लालकिले वाली जाटगढ़ी, भरतपुर की बदनगढी, पानीपत की सिवाहगढ़ी, कलानौर की गढ़ी-टेकणा, करनाल की गढ़ी बीरबल, गढ़ी रोढाण, जींद की गढ़ी बधाना, बागपत की हजूराबाद गढ़ी आदि| ऐसा स्थान जहां खाप युद्ध करने से पहले, अंडरग्राउंड शेड बना के वृद्धों व् बच्चों को सुरक्षित छोड़ युद्धों में उतरा करते थे|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 17 May 2015

क्या पूरे भारत को हरयाणा व् एनसीआर में ला के बसाने का इरादा है?

आखिर नया लैंड बिल बना किसलिए है? ताकि एनसीआर में हर रोज अन्य राज्यों से चले आ रहे लोगों को बसाने के लिए फैक्ट्री-मकान-इंफ्रा दिया जा सके? और इससे जो स्थानीय यानी नेटिव एनसीआर निवासी हैं, उनपे जो मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक असर पड़े रहे हैं, उसका क्या?

अब यह आवाज उठाई जानी चाहिए की एनसीआर में बहुत हो लिया विकास, इन विकास के आकाओं को कहा जाए कि यह सुदूर राज्यों में भी जा के फैक्टरियां लगावें, ताकि एनसीआर के लोगों को बे-मापे हुए, गैर जरूरी मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक दबाव व् तनाव से बचाया जा सके|

लैंड बिल का विरोध कर रहे तमाम संगठनों को इस विरोध को इस एंगल से उठाना चाहिए, यही सबसे कारगर रास्ता है इसका, ताकि इसके साथ-साथ स्थानीय आबादी के मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक मुद्दों की आवाज भी बुलंद की जा सके|

हम हरयाणवी तो अब हरयाणवी हो के भी हरयाणवी नहीं रहे| बाहर से आने वालों की चिंता बहुत हो ली और कर ली, बहुत मानवता और भाईचारा दिखा लिया| कहते हैं कि अति हर चीज की ना सिर्फ बुरी होती है, अपितु स्वघाती भी होती है और अब यह स्वघात वाले स्तर तक पहुँच चुकी है| 1947 में पाकिस्तान से पंजाबी आते हैं तो तीन पीढ़ियां गुजरने पर वो हरयाणवी नहीं (सांस्कृतिक ना सही जन्म के आधार पर भी खुद को हरयाणवी नहीं कहते, जबकि इस सच को तो भगवान भी नहीं झुठला सकता) बन पाये, 1984-86 में पंजाब के आतंकवाद से तंग हो कर यही पंजाबी लोग एक बार फिर हरयाणा में शरण लेते हैं तो नतीजा अभी ताजा-ताजा स्थानीय जातियों के अधिकारों की आवाज के विरुद्ध (जाट आरक्षण के विरुद्ध) वो भी इनका उससे कोई मतलब ना होते हुए आवाज उठाने में तब्दील हो जाता है; फिर हरयाणा के मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर मिलकर लड़ने की बात तो गई भांग के भाड़े|

अगर बाहर से आये लोग शांति से बसने की बजाये जाट बनाम नॉन-जाट का जहर फैलाएंगे तो फिर कैसे चलेगा? स्थानीय हरयाणवी में फूट पड़ेगी तो हमारे आर्थिक-मानसिक-संस्कृति मुद्दों पर कौन लड़ेगा? और अब जब से बिहारी-बंगाली-असामी यहां आया है, तब से उधर के जो भी लोग मीडिया या जेएनयू जैसी यूनिवर्सिटीज में बैठे हैं सब हरयाणा की संस्कृति पे जहर उगल रहे हैं| यानी हम अच्छे हैं या बुरे इसके एक तरफ़ा सर्टिफिकेट ना सिर्फ पूरे देश को वरन विश्व स्तर तक बाँट रहे हैं|

आखिर इस पलायन के स्थानीय समाज पर पड़ने वाले इस नकारात्मक पहलु पर कौन ध्यान देगा? इन लोगों के हमारे स्थानीय मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक पहलुओं पर होने वालों हमलों से हमें कौन बचाएगा? मुंबई के मराठे गलत नहीं थे अगर उन्होंने वहाँ से उत्तर भारतियों को भगाया था तो; परन्तु हाँ उनका तरीका गलत था पर उनका कदम सही था|

अब हरयाणा व् एनसीआर में बैठी तमाम नेटिव जातियों को इस मुद्दे को कानूनी रूप से टैकल करवाना चाहिए और इनके यहां आने से हमें यानी नेटिव्स को जो मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक प्रताड़नाएं सहन करनी पड़ती हैं, इनका हिसाब सरकार से ले तमाम बुद्धिजीवी प्रकोष्ठों व् अन्य संबंधित विभागों से माँगना शुरू कर देना चाहिए|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

बिजनेसमैन बनाम अफसर:

कमाल का देश है हमारा भी, कोई पीएम की पीठ भी थपथपा दे तो भी 'पीएम रिजाईम' का प्रोटोकॉल नहीं टूटता परन्तु अगर एक अफसर सनग्लास भी पहन ले पीएम के आगे तो प्रोटोकॉल तोड़ने का नोटिस थमा दिया जाता है| यह नोटिस पीएम की पीठ थपथपाने वाले को थमाने की हिम्मत क्यों नहीं हुई किसी की?

वही "ढाक के तीन पात, चौथा होने को ना जाने को"; वही के वही सांतवीं सदी के लच्छन जिनकी वजह से देश ने 1300 वर्ष की गुलामी झेली|

An officer should not be judged by his clothes or satire rather he/she should be judged by his attitude and committment towards thou duty and funcitionality. These kind of incidents and political attitudes shows that ours is still to be launched on path of developed country.

Well if to see from such angle then PM himself is a govt. employee sitting on primemost post of nation, so when he can wear anything stylish or whatever he shows through his daily selfies (Huffington Post... has made fun of him for this), then why can not an employee like DM Amit Kataria, what is wrong in that?

This is the difference between a developed country and still to be a developed.

Public should take cognizance of this notice:

I have never seen any administration officer bound to any dress-code in Indian system and its not even in place til date. Dress code only implies to defense, police and security job sectors. Then how can this notice be legal to an administration officer?
I have fully read article 3(1) in which it is talked about integrity of duties and not of any dress as such.

News: http://abpnews.abplive.in/…/article5…/Who-is-DM-Amit-kataria

https://www.facebook.com/abdulhk1/posts/10200730287297604

Legal notice copy:
 

Thursday, 14 May 2015

सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या!

Presenting a poetic tribute to Late. Dada Ch. Baba Mahendra Singh Tikait Ji on thou 4th death anniversary (15/05/2011). -

धर्म छोड्या ना, कर्म छोड्या ना, फिरगे पाखंडी चौगरदे कै|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें खागे चूंट तेरे भोळे नैं||

धर्म नैं चिलम भरी थारी हो, थमनै होण दी ना पाड़ कदे,
अल्लाह-हू-अकबर - हर-हर-महदेव, राखे एक पाळ खड़े|
अवाम खड़ी हो चल देंदी, जब-जब थमनें हुम्-हुंकार भरे,
सिसौली से दिल्ली अर वैं ब्रज-बांगर-बागड़ के मैदान बड़े|
चूं तक नहीं हुई कदे धर्म पै, आज यें हाजिरी लावैं ढोंगियों कै|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें खागे चूंट तेरे भोळे नैं||

किसान यूनियन रोवै खड़ी, पाड़ उतरगी भीतर म्ह,
तीतर-बटेरों का झुण्ड हो रे, खा गये चूंट कैं चित्र नैं|
स्याऊ माणस लबदा ना, यू गहग्या सोना पित्तळ म्ह,
राजनीति डसगी उज्जड न्यूं, ज्यूँ कुत्ते चाटें पत्तळ नैं||
एक्का क्यूकर हो दादा, खोल बता ज्या इस त्यरे टोळे नैं|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें खागे चूंट तेरे भोळे नैं||

मंडी भाव-खाणी रंडी हो री, दवन्नी पल्लै छोड्ती ना,
आंधी पिस्सै कुत्ते चाटें, त्यरे भोळे की भोड़ती ना|
कमर किसान की तोड़दी हाँ, या आढ़त खस्मां खाणी,
गए जमाने लुटे फ़साने, कर्मां बची फांसी कै गसखाणी||
अन्नदाता की राहराणी बणै, तू ला ज्या बात ठिकाणे नैं|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें खागे चूंट तेरे भोळे नैं||

खाप त्यरी यैं बिन छतरी-चिमनी का हो री चूल्हा,
बूँद पड़ी अर चौगरदे नैं धूमम्म-धूमा-धूमम्म-धूमा|
टकसाळाओं की ताल जोड़ दे, ला चबूतरा सोरम सा,
'फुल्ले-भगत' मोरणी चढ़ा दे, अर पैरां तेरे तोरण शाह||
या चित-चोरण सी माया तेरी, करै निहाल सारे जटराणे नैं|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें खागे चूंट तेरे भोळे नैं||

धर्म छोड्या ना, कर्म छोड्या ना, फिरगे पाखंडी चौगरदे कै|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें खागे चूंट तेरे भोळे नैं||

शब्दावली: भोळा/भोळे = किसान

जय योद्धेय! - फूल मलिक

जाटों को रूढ़िवादी वर्ण व् जाति व्यवस्था के प्रभाव व् उद्दंडता से बाहर आना होगा:


भारतीय सामाजिक व्यवस्था में आदिकाल से दो धाराओं का आध्यात्मिक व् वैचारिक टकराव रहा है; ब्राह्मणों की बनाई हुई वर्ण व् जाति व्यवस्था और जाटों की बनाई खाप व् दादा खेड़ा व्यवस्था|

एक तरफ जहां ब्राह्मण रचित वर्ण व् जाति व्यवस्था पूर्णत इसके रचयिताओं के प्रभुत्व को लागू करने व् उसको पोषित-संरक्षित रखवाए जाने हेतु रंग-वंश-वर्ण-नश्ल भेद पर आधारित रही है, वहीँ दूसरी ओर जाटों की खाप व् दादा खेड़ा व्यवस्था सम्पूर्णत: समाज में समान न्याय, भागीदारी, हकदारी व् हर चीज की न्यूनतम शुल्क पर उपलब्धता आधारित रही है|

परन्तु ब्राह्मणी व्यवस्था जाट व्यवस्था को अपने रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा मानती रही है, क्योंकि जो नियम ब्राह्मण व्यवस्था बनाती आई है, जाट व्यवस्था विभिन्न खाप महापंचतयों के जरिये उनको नकारती व् ना अपनाने की वकालत करती आई है| उदाहरणत: पितृ श्राद्ध, मृत्यु भोज नहीं करने की वकालत, कम बारात व् विवाह में अधिक तामझाम से बचने की वकालत, विवाह में दहेज़ ना लेने-देने की वकालत (ध्यान दीजियेगा दहेज़ रोकने की सार्वजनिक वकालत आजतक सिर्फ खाप क्षेत्रों में खापों द्वारा ही हुई है, गैर खाप क्षेत्रों में इसके बारे कोई सामूहिक मंथन नहीं होते), आदि-आदि|

इसके अतिरिक्त विधवा विवाह समर्थक, नर अथवा पशु बलि विरोधी, सती-साक्का-जौहर प्रथा विरोधी व् कई और इसी प्रकार की अमानवीय मान्यताएं जैसे कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो जाट समाज आदिकाल से करता आ रहा है और इसी कारण जाट को एंटी-ब्राह्मण का तमगा ब्राह्मण समाज का प्रबुद्ध वर्ग अनंत काल से देता आ रहा है|

अन्य दूसरा सबसे बड़ा अंतर जो जाट थ्योरी का ब्राह्मण थ्योरी से प्रतिवाद करता है, वह है जाट की "सीरी-साझी सभ्यता", जो कि ब्राह्मण थ्योरी की "नौकर-मालिक सभ्यता" के बिकुल विपरीत धारणा पर है| सीरी-साझी सभ्यता जहां इतनी लचीली है कि यह नौकर को भी साझीदार-भागीदार बोलने को कहती है, वहीँ नौकर-मालिक सभ्यता इसके नाम को चरितार्थ करती है| और जाटलैंड को छोड़कर यह देश के किसी भी अन्य क्षेत्र में नहीं पाई जाती, गैर-जाटलैंड क्षेत्रों में सिर्फ "नौकर-मालिक" प्रणाली पाई जाती है|

परन्तु बावजूद इस सबके भी ऐसा क्या है कि जाट को अपनी इन मानवीय मान्यताओं को स्थाई व् सार्वजनिक मान्यता व् पहचान दिलाने में आज तक संघर्ष ही करते देखा गया है? इसकी मुख्य वजहें हैं:

1) जाट द्वारा इन चीजों को लिखकर एक स्थाई संदर्भ व् निर्देश पुस्तक का रूप ना देना|
2) जाट द्वारा अपनी दादा खेड़ा संस्कृति में वर्ण व् जाति भेद को घुसने देना|
3) जाट द्वारा अपनी इन मान्यताओं व् सभ्यताओं को काल व् समयानुसार पुरस्कृत, प्रचारित व् प्रमाणित ना करना|

और यह नहीं करने के परिणाम:
1) जाट समुदाय मौकापरस्त लोगों के सॉफ्ट-टारगेट पर बना रहता है|
2) सारे देश में जाट बनाम नॉन-जाट का जहर फैलाने वाले डंके की चोट पर इसको बढ़ावा देते हैं|
3) जाट युवा व् प्रौढ़ में समन्वय नहीं रहता|
4) शहर की तरफ निकल जाने वाला जाट, बहुत कम अपनी दादा खेड़ा व् जाट थ्योरी को तवज्जो देता है|
5) आडंबर व् पाखंड फैलाने वालों को जाट समाज एक ओपन मार्किट की तरह उपलब्ध रहता है|
6) जाट समाज को दलित व् ओबीसी जातियों के साथ संघर्षरत रहना पड़ता है अथवा पूर्वनिर्धारित एजेंडा के तहत गैर-जरूरी संघर्षों में झोंक दिया जाता है|
7) दलित व् ओबीसी समाज, जाट व्यवस्था के अधिक मानवीय होने के बावजूद भी इसकी प्रतिवादी व्यवस्था की तरफ ज्यादा झुकाव बनाये रखता है|
8) जाट उहापोह में डोलता रहता है, ना शुद्ध रूप से मानवीय बन पाता है और ना ही शुद्ध रूप से नश्लभेद का दूत|

और इस उहापोह की जाटों के लिए कितनी भयानक तस्वीर बन सकती है, उसको समझने और जानने के लिए उसके इर्द-गिर्द बनी हुई वर्तमान समय की परिस्थितियों से बेहतर कोई शिक्षक नहीं हो सकता|

इन दो विचारधाराओं के टकराव की बिलकुल यही स्थिति सांतवीं सदी में देश में मुग़लों की एंट्री से पहले थी| इन तेरह-सौ साल की गुलामी झेलने के बावजूद भी नस्लभेद के दूतों ने इससे कोई सबक नहीं लिया और थोड़ी सी आज़ादी मिली नहीं कि अपनी उन्हीं परिपाटियों को फिर से पकड़ लिया|

खैर, इससे निकलने के लिए हमें किसी के खिलाफ ना ही तो आवाज उठाने की जरूरत और ना ही हथियार उठाने की जरूरत; बस किसी एक जमाने से पुरानी-खाली-वीरान जालों-मकड़ियों-चमगादड़ों से सनी पड़ी किसी हवेली की भांति, अपनी हवेली में वापिस लौटने की जरूरत है| उसके जाले साफ़ कीजिये, उसकी रंगाई-पुताई करवाइये और उसको आधुनिक समयानुसार रहने के लायक बनाइये|

भरतपुर के अजेय लोहागढ़ किले की तरह अपने किले की दीवारों को मजबूत करना शुरू कीजिये; दुश्मन तो उस किले की दीवारों को तोड़ने में ही रींग जाएगा| हमें उनको हथियार अथवा धमकियां देना अथवा यहां तक कि उनकी तरफ घुर्राने की भी जरूरत नहीं| याद है ना कि 13 बार आक्रमण करने पर भी दुनिया में जिनके राज के सूरज नहीं छिपा करते थे, जिनकी विजय के सूर्यरथ नहीं थमा करते थे, वो कैसे लोहागढ़ के किले की दीवारों से टकरा-टकरा के खुद ही घुटने टेक गए थे? इसलिए बस अपनी खुद की आदिकालीन व्यवस्था में विश्वास रखते हुए, इसको मजबूत करने की जरूरत है|

वरना तो भाई फिर नश्लभेद का दूत तो आपको समाज में 35 बिरादरियों से काट, अकेला भटकने को छुड़वाने पे आमदा है ही|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 10 May 2015

धनखड़ साहब, आपकी बात और तर्क को मैं दुरुस्त किये देता हूँ|:

आपसे मुखातिब बाबत: आपने कहा कि "ब्राह्मणों ने अपने गोत्र ऋषियों के नाम पर रख लिए और जाटों के पशुओं के नाम पर|"

पहली तो बात आप यह भान रखिये कि जाटों के यहां "गोत्र" नाम का कोई सिस्टम नहीं, हमारे यहां "गोत" होता है सिर्फ गोत| शायद आपकी गलती नहीं, क्योंकि अधिकतर पढ़ा लिखा और आपकी तरह खुद को एडवांस समझने वाला जाट अपनी ही इन चीजों का ज्ञान लेना, रखना, सम्भालना जरूरी नहीं समझता| खैर कोई नहीं, परन्तु आप याद रखिये कि जाटों की गोत प्रणाली ब्राह्मण गोत्र प्रणाली से एक दम भिन्न है| और ना ही हमारे गोत ब्राह्मणों के रखे हुए और ना ही हमने उनसे कभी रखवाए| हमारे गोत हमारे खुद के पुरखों के रखे हुए हैं|
अब दूसरी बात आपने कहा कि ब्राह्मणों ने अपने गोत्र ऋषियों के नाम पर रखे, नहीं ऐसा नहीं है खुद ऋषियों से ले इनके वंशजों ने भी अपने गोत्र पशुओं, हथियारों, कागज किताबों के नाम पर भी रखे हुए हैं, यह देखिये उदाहरण:

पशुओं के नाम पर ब्राह्मण ऋषि व् गोत्र: गोस्वामी, गौतम
लोहा-हथियारों के नाम पर ब्राह्मण गोत्र: परशुराम, चौबे (कील)
कागज-किताबों के नाप पर ब्राह्मण गोत्र: द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी

अब आता हूँ जाटों के उन गोतों पर जिनका आपने अपने उदाहरण में जिक्र किया:

आपने खुद का गोत उठाया "धनखड़": यह बना है धन और खड़ (हरयाणवी में ढेर) यानी धन के ढेर जिनके यहां होते थे वो धनखड़ कहलाये| इसमें जानवर का कोई अंश नहीं|

दूसरा आपने उठाया "ढांढा": कुरुक्षेत्र के पास एक कस्बा है ढांढ नाम का, जहां कहीं ओर की अपेक्षा ब्राह्मण अधिक घनत्व में हैं| और ढांढ का मतलब होता है हांड के ढाहने वाला| यानी दुश्मन को भगा-भगा के मारने वाला| अब अगर यह एक पशु का भी पर्यायवाची है तो वह संयोग मात्र है| यहां एक और रोचक बात यह ध्यान दीजियेगा कि ढांढा, गौ का खसम भी होता है|

तीसरा आपने गोत उठाया "खरे": हरयाणा में शब्द होता है "खरा" यानी "निग्र" यानी शुद्धतम और इसक बहुवचन होता है "खरे"। जैसे कई बार हरयाणवी में कहते हैं कि भाई फैलाने के बालक एक दम खरे हैं, खरा सोना हैं| इसमें जानवर का कोई अंश नहीं|

चौथा आपने उठाया "जाखड़": यानी के जहां भी जाए वहाँ खड़ के यानी अधिपत्य से बसो| और जाखड़ कहलाओ|

पांचवा आपने उठाया खोखर: यानी खो + खर यानी बुजुर्गों ने आशीर्वाद दिया कि तुम दुश्मन का खो (हिंदी में खात्मा) करके खर से बसने वाले हो| और जब दादावीर रामलाल जी खोखर ने मोहमद गौरी जैसे दुश्मन को मारा तो उन्होंने अपने नाम को सिद्ध किया, कि हम दुश्मन का खो करके खर से बसने वाले हैं|

छठा आपने उठाया "मोर": क्यों जब ब्राह्मण के लिए "कमल" का फूल (एक पौधा) शुद्ध हो सकता है, ब्राह्मण के लिए गाय (एक पशु) शुद्ध हो सकती है तो जाटों के लिए "मोर" (एक पक्षी) शुद्ध क्यों नहीं हो सकता? फिर भी आपको बता दूँ, "मोर", "मौर्य" शब्द का हरयाणवी रूपांतरण है| लेकिन मोर पक्षी की एक जाट के लिए वही महता है जो एक ब्राह्मण के लिए गाय की|

इस विषय पर मेरे पास कहने को बहुत कुछ है, परन्तु वो सब कभी अगर जीवन में आपसे साक्षात मुलाकात हुई तो, तब|

फ़िलहाल आपने से इतनी ही उम्मीद करता हूँ कि अपने व्यस्तम जीवन से दो पल अपनी सभ्यता-संस्कृति-शब्दावली-इतिहास का सही-सही ज्ञान समझने व् अर्जित करने पे भी लगाएं| धन्यवाद|

अपील: इस लेख की प्रति हरयाणा के कृषि मंत्री माननीय चौधरी ओम प्रकाश धनखड़ तक पहुंचाने वाले भाई का धन्यवाद| हालाँकि मैं भी कोशिश करूँगा इसको उन तक पहुंचाने की, परन्तु मेरी लिस्ट में जो भी बीजेपी का कार्यकर्त्ता हो और जागरूक जाट हो वो इसको उन तक जरूर पहुंचाए, मैं आपका आभारी होऊंगा|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

वह खबर जिसके जवाब में मैंने यह लेख लिखा!

 

Saturday, 9 May 2015

जाट, जमीन, आरक्षण और खडदू-खाड़ा:


पहली बात: इनको आरक्षण की क्या जरूरत, इनके पास तो जमीन है? अरे तो भाई आप कौनसे आस्मां पे रहो, जमीन पे ही रहो| खेत ना होगा तो मकान-कोठी-बाग़-फैक्ट्री-मंदिर आपके पास कुछ तो होगा; वो कहाँ बन रे, जमीन पे ही ना?

दूसरी बात: जमीन रखनी, साह्मणी और पालनी कौनसी सबके बस की बात हो? 1980-90 के दशक में (असल तो पूरे भारत अन्यथा उत्तरी भारत में तो पक्का) कुछ पिछड़ी व् एस.सी./एस.टी. जातियों (सही-सही जाति का नाम उन जातियों की मान-मर्यादा को ध्यान में रखते हुए नहीं उछाल रहा, परन्तु तथ्य हेतु यह बात प्रयोग कर रहा हूँ) को गाँवों की सामलातों, खाली पड़ी जमीनों व् पंचायती जमीनों में से सरकार ने 1.75 एकड़ प्रति परिवार खेती करने को जमीन दी थी| परन्तु हरयाणा में तो आज हालत यह है कि 95% उस जमीन को बेच चुके हैं| उत्तर प्रदेश में मायावती ने इस प्रकार दी गई जमीन को बेचने पे रोक लगा दी थी, वरना वहाँ भी ऐसे ही होता| तो कहने का मतलब और जिनको यह बहम हो कि खेती हर कोई कर सके है, तो यह उदाहरण सामने है कि अगर जो खेती इतनी ही आसान और हर कौम-नश्ल के बन्दे के करने की बस की बात है तो यह लोग क्यों बेचते इसको? सरकार ने तो दिया था मौका मजदूर से जमींदार बनने का, परन्तु जमींदारी इतनी आसान चीज होती तो, इसको कुत्तेखानी कौन कहता|

तीसरी बात: जाट कहो या खापलैंड पर रहने वाली तमाम किसानी जातियां जैसे कि अजगर व् ब्राह्मण का किसान, कोई बिहार-बंगाल-पूर्वी भारत का ठाकुर या भूमिहार ब्राह्मण पद्द्ति पे खेती करने वाला किसान नहीं है कि खेत की मैंड पे या हवेलियों की अटालिकाओं पे खड़ा हो के आर्डर देवे और दलित-पिछड़ा मजदूर उसके लिए कमा के देवे; वो मजदूर के साथ खेत में कंधे-से-कन्धा मिला के उनके संग खुद खट के खेती करता है| और इसीलिए आज खापलैंड और पंजाब ही देश के अनाज के कटोरे कहलाते हैं, वर्ना बिहार-बंगाल की जमीनों को जितना पानी लगता है इतना पूरे भारत में कहीं की भी जमीनों को नहीं लगता| पर वहाँ का मजदूर (यहां तक कि जमींदार भी) धक्के खा के हमारे यहां ही रोजी-रोटी जोहता-खोजता हुआ चला आता है|

क्योंकि हम खेत की मैंड/डोल पे खड़े हो के नहीं अपितु खुद खेतों में उत्तर के खेती करी और अपनी भूमि को अपने खून-पसीने से सींच के दूसरों के भी रोजगार हेतु काम्मल बनाया|

चौथी बात: यह बात रखते हुए मैं दलितों या पिछड़ों को उलाहना नहीं दे रहा, और ना ही सरकार ने उनकी भलाई के लिए जो कदम उठाये उनको बुरा बता रहा; अपितु सरकार के उन क़दमों का जाट अथवा किसान पे क्या नकारात्मक प्रभाव पड़ा उसको बता रहा हूँ| सरकार ने दलित-पिछड़े को विभिन्न प्रकार के मुवावजे देने शुरू किये, आर्थिक से ले आवासीय, अनाज से ले चिकित्सीय हर सुविधा मुफ्त में या सस्ते में उपलब्ध करवानी शुरू करवाई; जिससे किसान को या तो मजदूर मिलना बंद हो गया अथवा महंगा मिलने लगा| जबकि सरकार को चाहिए था कि दलित-पिछड़े की इस भलाई के काम के साथ-साथ इस बात पर भी "सोशल इम्पैक्ट स्टडी" (social impact study) करवाती कि इसका किसान पे क्या आर्थिक प्रभाव होगा? अथवा किसान के खेत के लिए मिलने वाले मजदूर की बढ़ी मजदूरी सरकार वहन करती, अथवा उसको किसान की फसलों के दामों को बढ़ाने के जरिये पूरा करती| परन्तु ऐसा नहीं हुआ, क्यों?

क्योंकि यह था मंडी-फंडी का किसान को बर्बाद-लाचार-असहाय व् भूखा बनाने का पहला खड़दू-खाड़ा| अब इन इम्पैक्ट (impact) के ऐवज में भी जाट किसान को कुछ नहीं मिला और अब आरक्षण मांग रहा है तो आवाज उठा रहे? कर दो इसका हिसाब बराबर नहीं लेंगे आरक्षण|

पांचवीं बात: जाटों की जमीन की कीमत करोड़ों की है, इनके यहां तो सुख-समृद्धि छाल मर रही है| म्हारे हरयाणवी में कह्या करैं, "घूं कुत्त्याँ का छाळ मार रहा थोड़ा", सबकी तली लिकड़ी पड़ी है| हर नगरी-गाम गेल कोई दो-चार किसान इह्से हैं, जिनके सर कर्जा नहीं या जिनके घर भुखमरी नहीं, वर्ना सारे गरीबी और लाचारी ने तोड़ रखे| यह बात कहने वालों को जाट यह तर्क दे के समझाए कि जिस प्रकार बिज़नेस में करंट (current) यानी अलाइव (alive) व् फिक्स्ड (fixed) यानी डेड एसेट (dead asset) होते हैं, धरती डेड एसेट (dead asset) है| और इसकी प्रोडक्शन वैल्यू (production value) मंडी-फंडी की दमनकारी नीतियों के कारण कभी नहीं बढ़ती, इसलिए यह किसान पे डेपेरिसिअशन वैल्यू ऑफ़ एसेट (depreciation value of asset) की तरह 'सफ़ेद हाथी' बनके बैठी रहती है| यानी कुत्ते की हड्डी वाला हाल, जिसको ना निगलने से बनता और ना उगलने से|

इसको और सही से ऐसे समझो, मान लो एक व्यापारी ने एक बड़ी सी फैक्ट्री की बिल्डिंग खड़ी कर दी, परन्तु उसके अंदर बनने वाले उत्पाद का मूल्य मैनेजमेंट मेथड ऑफ़ डिफिायनिंग दी सेलिंग प्राइस ऑफ़ ए प्रोडक्ट (management method of definning the selling price of a product) के तहत नहीं, अपितु ठीक वैसे तय होता है जैसे साकार सरकार फसलों के एमएसपी (M.S.P.) निर्धारित करती है; तो वो व्यापारी दो दिन में या तो खुद को दिवालिया घोषित कर देगा अन्यथा जहर अथवा फांसी लगा के प्राण छोड़ देगा| चैलेंज करता हूँ, ज्यादा नहीं बस एक साल के लिए फैक्ट्री के उत्पादों का विक्रय मूल्य निर्धारण किसान वाले एमएसपी के तरीके से करवा दो, अगर आधे से ज्यादा व्यापारी फांसी पे ना झूल जाएँ तो| लेकिन फिर भी हम इन अनजस्टीफाईड (unjustified) तरीकों को झेल रहे हैं| और तुम कह रहे हो कि आरक्षण क्यों मांग रहे?

छटी बात: इनका तो अधिपत्य है, यह तो बहुसंख्यक हैं| अरे तो हैं तो फेर के किते कुँए-जोहड़-झेरे म्ह खोये जावां? थारा ठा लिया किमें, अक किमें खोस कैं खा लिया अक कोए-से की झोटी (ध्यान दियो जाट झोटी खोल्या करै तथाकथित राष्ट्रवादियों वाली गाय-गौकी नहीं) खोल ली? अरे सदियों से थारे भी तो रोजगार का साधन हम ही रहे? यें और जो अपने आपको सभ्य-सुशील कहलावैं हैं इनकी तरह किसी की बहु-बेटी देवदासी बना के सार्वजनिक तौर पर मंदिरों में ना बैठाई हमनें; बल्कि साबते गाँव की बेटी को अपनी बेटी कहने का और मानने का सिद्धांत चलाया है जाट ने| आज भी जाट किसी ब्याह-बारात के मौके पर हर सच्चा जाट उस गाँव-नगरी में अपने गाँव-नगरी की छत्तीस ज्यात (जाति) की बेटी की मान-मनुहार करकें आवै| और फिर भी थाम न्यू कहो अक यें दबंग सैं| फेर भी इनके बहुसंख्यक होने पे आपत्ति| हाँ रै न्यूं बताओ, जो अगर यें मंदिरों में देवदासी पालने वाले बहुसंख्यक हो जां, फेर आ जागा चैन थारे को?

आज खापलैंड पे अगर किसी दलित-पिछड़े के बेटी देवदासी बना के मंदिरों में ना बैठे जाती अगर तो वो हम जाटों की वजह से है, वर्ना जा के देखो दक्षिण-पूर्वी भारत में क्या हाल है आज भी| हाँ हैं हम दबंग परन्तु सबकी बहु-बेटी को अपनी बहु-बेटी कहने वाले दबंग, सबकी बहु-बेटी को इन देवदासियां पालने वालों से बचाने वाले दबंग|

सांतवीं बात: कैसे लैंड बिल के जरिये मंडी-फंडी कभी भी किसान को उसकी हैसियत और औकात दिखा सकते हैं, यह अब किसी से छुपा नहीं| किसान सिवाय बंधुआ मजदूर के कुछ भी नहीं| साधारण मजदूर की दिहाड़ी तो कम से कम उसको उसकी मर्जी से मिल जाती है, यहां तो किसान की फसल के भाव भी मंडी और व्यापारी तय करते हैं? यह तो सरकार ने जाट के पास इसलिए छोड़ रखी है क्योंकि और कोई इतनी बढ़िया खेती कर नहीं सकता; वरना कल को सरकार को कोई मिल जाए तो सबसे पहले जाट से जमीन ही छीनने का काम करे|
जाओ मंडी-फंडी के इन चन्गुलों से आज़ाद करवा के हमें हमारी खेती के उत्पादों के विक्रय मूल्य निर्धारण का हक़ दे दो, नहीं मांगेंगे आरक्षण|

और आज के जमाने में तुमको जमीन इतनी ही प्यारी है तो आ जाओ ले लो साल-दो साल के पट्टे पे मेरी जमीन| इस बात की गारंटी के साथ दूंगा कि अगर अकाल-बाढ़-ओला पड़ गया तो फसल के नुक्सान के अनुपात में पट्टा छोड़ दूंगा| आओ कौनसे-कौनसे हैं इस बात की ढींग हांकने वाले कि जाटों के पास तो जमीन है फलाना है ये है वो है करने वाले सारे ही आ जाओ मेरे खेतों में और खट के तो दिखाओ साल-दो साल| वो नेवा कर राखा, "अक अगला शर्मांदा भीतर बड़ ग्या, अर बेशर्म जाने मेरे से डर गया|" जिनको पादने के लिए भी टांग उठाने तक को नौकर चाहियें, वो जाटों पे जमीन को ले के तंज कसते हैं|

इसलिए जाटो, 11 मई को बिंदास भर दो जंतर-मंतर को| और इतना भर दो कि वो जवाहरलाल की कही हुई बात का अहसास दिल्ली में बैठे हर गैर-हरयाणवी को हो जाए कि दिल्ली के बाहर-भीतर-चारों ओर भी कोई बसै है, जो थारा हलक सुखा सकै है| आच्छी ढालाँ कटिये काट-काट कैं, भड़क बिठा कैं आना है राष्ट्रवादियों और खोदी जी कै |

जय यौद्धेय! - फूल मलिक