Monday, 24 August 2015

नहीं जाट-नेता मात्र हस्ती थारी!

जो सर छोटूराम को कभी अंग्रेजों का पिठ्ठू तो कभी सिर्फ जाट नेता मात्र आंक के देखते हैं या जाट-नेता तक सीमित करने की कुचेष्टा रखते हैं और इस हेतु ऐसा प्रचार तक करते हैं, वो जरा इस कविता को पढ़ लेवें और पढ़ने पर बता भी देवें कि कौन गांधी, कौन नेहरू, कौन जिन्नाह और कौन आर.एस.एस. हुई जो आज़ादी से पहले खुद उनकी जातियों तक के लिए ऐसे कार्य कर गए जैसे मेरे रहबरे-आजम ने किये? आर.एस.एस. समर्थित तो आज सरकार भी है, जरा जो सर छोटूराम कर गए उसके छटाँक भी आम भारतीय के लिए करके दिखा देवें तो मैं आजीवन स्तुति करूँ:

सर चौधरी छोटूराम रहबरे-आज़म थे,
दो राष्ट्र सिद्धांत को जड़ से ही मिटाया था|
मुहम्मद अली-जिन्नाह का मुंह थोब उसको,
पंजाब से चलता कर बम्बई का रस्ता दिखाया था||

असहयोग आंदोलन पे गांधी को चेताया था,
किसान-मजदूर ही क्यों व्यापारी भी करे|
विदेशी व्यापार का बहिष्कार, यूँ फरमाये थे,
देख तेवर रहबर के गाँधी भी थर्राये थे||

किसानों को जमीन के मालिकाना हक मिले यूँ,
अंग्रेजों के आगे गोल - टेबल बढ़ाई थी|
अजगर को ही देवें किसानी स्टेटस परन्तु,
ब्राह्मण-सैनी-खाती-छिम्बी को भी मल्कियत दिलवाई थी||

हिन्दू औ मुसलमान मिलकर एक किये,
भाई-भाई का हृदय मिलन कराया था|
राष्ट्र का दुर्भाग्य रायबहादुर स्वर्ग गए,
मानवता शत्रुओं ने राष्ट्र बंटवाया था||

अनपढ़ जाट पढ़े जैसा, पढ़ा जाट खुदा जैसा,
यह कहावत वाकई में सिद्ध करके दिखाई थी|
पढ़ा ब्राह्मण समाज तोड़े, पढ़ा जाट समाज जोड़े,
जीती-जागती मिसाल इसकी बनाई थी||

'फुल्ले भगत' करे नमन मसीहा,
दलित-मजदूरों के हिमायतकारी,
करूँ सुनिश्चित आप कहलाएंगे रहबर सबके,
नहीं जाट-नेता मात्र हस्ती थारी!

लेखक: फूल मलिक

भारत में लठतंत्र के प्रकार!

1) स्वघोषित राष्ट्रवादी लठतंत्र: आरएसएस इसको देश में इसकी स्थापना के वक्त से चला रही है|

2) क्लब बाउंसर लठंतत्र: हर डांसिंग क्लब, बार क्लब, रेव पार्टी स्टेज पर बौन्सर्स होते हैं जिनको अति-विशिष्ट विषम परिस्थिति में लठ चलाने की भी इजाजत होती है|

3) लव-कपल बीटिंग लठतंत्र: राम सेना, शिव सेना, बजरंग दल, रणवीर सेना को अक्सर वैलंटाइन डे, चॉक्लेट डे, फ्रेंडशिप डे, रोज डे आदि-आदि डेज के वक्त लव-कपल्स को लात-मुक्के-लाठियों से भांजते हुए यह लोग इस तंत्र को बखूबी निभाते हुए देखे सुने जा सकते हैं|
 

4) बैंक ईएमआई उगाही लठतंत्र: इससे तो खैर बैंकों के लोन ना उतारने या किसी वजह से ना उतार पाने वाला हर सख़्श वाकिफ ही होगा|

5) मंदिर में दलित प्रवेश निषेध पालना लठतंत्र: उत्तरी भारत में शायद कम परन्तु पूर्वी-मध्य व् दक्षिण भारत में इसकी बड़ी सिद्दत से पालना होती है और जो दलित चेतावनी पर भी नहीं समझता तो उसको फिर लठ से समझाया जाता है|

लेकिन अगर कोई जाट अपने हक मांगने के लिए भी लठ उठा ले तो यह सारे के सारे चिल्लाने लगते हैं कि देखो 'जाट लठतंत्र चला रहे हैं| या तो यह लठतंत्र पे किसी और का कब्ज़ा ना हो जाए इसीलिए घबराने लग जाते हैं, या फिर जाट इनसे अच्छा लठबाज है यह इसलिए डरने लग जाते हैं पता नहीं क्या कारण है परन्तु जब जाट लठ उठता है तो फटती अच्छे-अच्छों की है| और ऐसे आजतक सिर्फ सुना था परन्तु जैसे ही हरयाणा के जाट ने पिछले हफ्ते ही लठ उठाने की कही तो (सिर्फ बात कही ही थी, उठाया नहीं था) यह पांचों केटेगरी वाले चिल्लाने लगे| क्या आरएसएस, क्या लव कपल को पीटने वाले, क्या क्लब-बार में बॉउन्सर्स रखने वाले, क्या बैंकों वाले और क्या मंदिरों वाले सब एकमुश्त त्राहि-माम् करते दिखे|

और कानतंत्र में रहद जमा देने वाला भांडतंत्र तो फिर इनके सुर-में-सुर मिलाने को हमेशा उकडू हुआ ही रहता है|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 22 August 2015

हरयाणा का दलित, उसकी जमींदारी और उस जमींदारी का अल्पकालिक चरमोतकर्ष!

1980 और 1990 के दशक की बात है, उस वक्त की सरकारी योजनाओं के तहत हरयाणा के गाँवों के दलितों के कई समुदायों को 1.75 एकड़ (हरयाणवी में किल्ले) के हिसाब से मालिकाना हक वाली जमीनें मिली थी| मेरी निडाना नगरी (हिंदी में गाँव) जिला जींद हरयाणा में भी इस योजना के तहत करीब 48 दलित परिवारों को 1.75 एकड़ प्रति परिवार मालिकाना हक के तहत 84 एकड़ जमीन मिली थी|

जिसमें से तीन दलित परिवारों की करीब 5 एकड़ जमीनें तो मेरे पिता जी जब खेती किया करते थे और हम बच्चे हुआ करते थे तब करीब 20 सालों तक ठेके और हिस्से पर बोते रहे थे| यानी दलित एक जमींदार की भांति एक जाट को उसकी जमीन पट्टे पे कहो, हिस्से पे कहो, बाधे पे कहो या ठेके पे कहो, इसके तहत दिया करते थे और जाट उसको एक खेतिहर की तरह बोया करते थे| और दलित, जमींदार होने का अनुभव और आनंद दोनों उठाया करते थे|

यह पांच एकड़ जमीन हमारे खेतों से लगती थी जो कि आज भी यथावत वहीँ है| मैं जब विद्यार्थी होता था तो इन जमीनों में पानी भी लगाता था और इन पर ट्रेक्टर से खेत भी जोतता था| और दलित फसल पकने के वक्त आते और अगर हिस्से का कॉन्ट्रैक्ट होता तो अपना हिस्सा तुलवा कर या तो फसल ले जाते या कॉन्ट्रैक्ट अगर बाधे का होता तो उसके पैसे कॉन्ट्रैक्ट की शर्तों के हिसाब से चुकाए जाते थे|

करीब 20 साल हमने यह जमीनें बोई, इसका जिक्र करना इसलिए जरूरी है क्योंकि कई दलित भाई कह देते हैं कि क्योंकि दलित जाटों-जमींदारों के कर्जदार होते थे इसलिए अपना कर्ज वसूलने को दलितों की जमीन हड़प ली या दलितों ने खुद ही जाटों को बेच दी| ऐसे भाइयों को कहना चाहूंगा कि 20 साल का वक्त कोई कम नहीं होता है 20 साल में आप 1.75 एकड़ जमीन की कमाई से अगर किसी का कर्जा था तो वो भी उतार सकते थे और नई कमाई से खेती करके 1.75 एकड़ को 4-5 या इससे भी ज्यादा बना सकते थे| परन्तु आप लोगों में से अधिकतर ने उस जमीन के ठेके का जो पैसा मिलता था उस पैसे से पहले अगर किसी का कर्ज था तो उसको चुकता करने की बजाय लैविश लाइफ का आनंद लेना बेहतर समझा, दारु-मीट-मांस में उड़ाना बेहतर समझा|

दो तीन दलित भाइयों को मैंने यह तर्क रखे तो आगे से उनके तर्क आये कि जाट-जमींदार के खेतों के बीच दलित के खेत पड़ें तो जाट उनको रास्ता ही ना देवें| उन भाइयों की जानकारी में रहना चाहिए कि अगर मेरे गाँव को औसत मान के चलूँ (मेरा गाँव 4500 की जनसंख्या का मध्यम आकार का गाँव है, जबकि हरयाणा में इससे छोटे और बड़े बहुत सारे गाँव हैं) जहां कि 84 एकड़ जमीन दलितों को मिली थी और जैसा कि पूरे हरयाणा में 6841 गाँव बताये जाते हैं तो ऐसे 574644 यानी पांच लाख च्वहतर हजार छ: सौ चवालीस एकड़ जमीन के तो दलित एक मुस्त मालिक बने थे| तो जरा आप लोग बताएँगे कि ऐसे कितने मामले हरयाणा में आये जहां जाट या अन्य जाति के जमींदारों दवारा अगर आपकी जमीन उनके खेतों के बीच पड़ी तो आपको रास्ता नहीं दिया गया? हालाँकि खुद जाट-जमींदारों के यहां दो भाइयों में आपस में सैंकड़ों मामले सुनने को मिलते हैं जब पता लगता है कि एक भाई ने दुसरे भाई को उसकी जमीन में से आने-जाने के लिए रास्ता नहीं दिया, बावजूद इसके आप जरा बताएं कि ऐसे कितने मामले हुए दलितों के केस में? और आपने क्या लगा लिया कि कोई जाट-जमींदार रास्ता ना देता और दलित चुप रहते?

खैर 1980-1990 के दशक में जो दलित जमींदार हो गए थे, (हाँ जमींदार ही कहूँगा क्योंकि जब 80% से ज्यादा का जाट 2 एकड़ या इससे भी कम का मालिक होते हुए भी जमींदार कहलाया जाता है तो इतने ही का मालिक दलित जमींदार क्यों नहीं कहा जायेगा?) तब से 2000-2010 आते-आते 75-80% के करीब ने अपनी जमीनें बेच दी (मेरे गाँव में तो 95% बेच चुके)| कारण ऊपर बताया कि बजाय अपनी किसानी दक्षता को सिद्ध करने का मौका हाथ में होते हुए, उन जमीनों को जाट-जमींदारों को हिस्से-बाधे पे दे दलित भाइयों ने उस हिस्से-बाधे की कमाई से लैविश लाइफ जीना ज्यादा पसंद किया| और ऐसे अपनी जमीनें बेचते गए|

और इस तरह दलितों की उस सुखदायी परन्तु अल्पकालिक जमींदारी का अंत हुआ जिसमें एक जाट-जमींदार उनकी जमीनों पे एक खेतिहर की तरह खेती करने लगे थे| इसलिए मेरा मानना है कि 1980-1990 से पहले के दलित तो यह कह सकते थे कि वो कभी जमीनों के मालिक नहीं रहे, परन्तु उसके बाद के दलित यह बात कैसे कह सकते हैं जबकि यह चीज भारतीय दस्तावेजों में कानूनी तौर से रिकार्डेड है और धरातलीय सच्चाई है?

यह एपिसोड ठीक 1926-34 वाले वक्त की तरह है| उस वक्त रहबरे-आजम-दीनबंधु सर छोटूराम जी के अटूट इरादों की वजह से उस वक्त के पंजाब प्रान्त के जाट-गुज्जर-अहीर-राजपूत किसानों समेत गौड़-ब्राह्मण, सैनी (माली), जांगड़ा (खाती) जातियों {इन तीनों जातियों को अंग्रेजों ने किसान मानने व् जमीनों के मालिकाना हक देने से मना कर दिया था, परन्तु सर छोटूराम ने उनकी सरकार के तमाम एम. एल. सी. (आज की भाषा में एम. एल. ए.) से हस्ताक्षर करवा इन जातियों को भी इस सूची में शामिल करवाया} को उन जमीनों के मालिकाना हक दिलवाये|

इन हस्ताक्षर करने वाली एम. एल. सी. में 34 जाट थे| वो भी आज के राजकुमार सैनी की भांति सोच लेते तो शायद आज सैनी समाज जाटों से मतभेद में ना उलझ उनकी जमीनों के मालिकाना हक के लिए ही लड़ रहा होता| कुछ नेता कितने स्वार्थी हो जाते हैं कि दो जातियों के आपसी प्रेम-प्यार और प्रतिबद्धता के इस अटूट लगाव भरे इतिहास को दांव पे रख, दोनों में जहर घोलने पे तुल जाते हैं, राजकुमार सैनी साहब इसी की जीती-जागती मिसाल हैं|

खैर, तो इन जातियों ने इन जमीनों की जोत को जोत-जोत के इनमें और जमीन जोड़ते गए और अब तक जमीनों को कायम रखा हुआ है| तब किसी जाट ने यह बहाना नहीं बनाया कि उसपे किसी साहूकार का कर्जदार था तो उसको कर्ज के ऐवज में मैंने जमीन दे दी या साहूकार ने छीन ली, जैसे कि मैंने दलित भाई जाटों पर यह इल्जाम लगाते सुने हैं|

दलित भाई भी चाहते तो ऐसे ही कर सकते थे| परन्तु आपने जो रास्ता चुना वो भी अपनी मर्जी से चुना|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

हरयाणा में पंच/सरंपच/नगर निकाय चुनाव और शैक्षणिक योग्यता!

मैं निडाना नगरी जिला जींद हरयाणा का सपूत हूँ| मेरे गाँव की "खाप-खेत-कीट पाठशाला" अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है| मेरे गाँव और गुहाँडों में एक-एक किसान ऐसा है जो फसलों के सैंकड़ों कीटों का बायोलॉजिकल ज्ञान से ले उनके गुण-चरित्र, फसलों में उनकी लाभ-हानि की सारी बातें आपको फिंगर-टिप्स पे बता देगा| एक हिसाब से चलती-फिरती डिक्शनरी हैं मेरे गाँव के किसान फसलों के कीटों की|

देश और राज्य के कृषि विभागों से ले तमाम जानी-मानी एग्रीकल्चर युनिवर्सिटियों के वैज्ञानिकों-प्रोफेसरों तक की आँखें शर्म से झुक जाती है (और वास्तविकता में झुकी भी हैं) जब वो इन किसानों के फसल कीट ज्ञान को देखते-सुनते और जांचते हैं तो| भारत की किसी भी एग्री-यूनिवर्सिटी में विरला ही कोई ऐसा वैज्ञानिक-प्रोफेसर होगा जो मुश्किल से दस कृषि कीटों पे आपको पेपर में पास होने लायक जानकारी भी लिख सके तो|

अमूमन ऐसा ही हाल सरकारी विभागों के कृषि कर्मचारियों और अफसरों का है, सिर्फ माननीय स्वर्गीय डॉक्टर सुरेंद्र दलाल जैसे प्रतिबद्ध व् कटिबद्ध अफसरों को छोड़ कर|

मेरे गाँव के किसानों के कीट ज्ञान बारे इतना तक दावा कर सकता हूँ कि अगर इन चारों के बीच यानी कृषि अफसरों, कृषि वैज्ञानिकों, कृषि प्रोफेसरों और कृषि-कीट-कमांडो यानी कृषकों के बीच, परीक्षा की भाषा हिंदी रखते हुए और इनमें जो किसान अनपढ़ है उसको लिखने के लिए एक हेल्पर देते हुए फसल कीट ज्ञान विषय पर एक परीक्षा करवा दी जावे तो यह किसान 80% से 90% अफसरों-वैज्ञानिकों और प्रोफेसरों से ज्यादा अंक अर्जित करेंगे|

तो क्या यह ज्ञान, ज्ञान नहीं, यह इतनी बड़ी समझ जो लाखों-लाख खर्च करके बनाये गए साइंटिस्ट-इंजीनियर-अफसरों को मात दे दे उनका ज्ञान सिर्फ इसलिए ज्ञान नहीं क्योंकि उनके ज्ञान पे किसी सरकार या कानून ने लाखों-लाख नहीं खर्चे? या तथाकथित स्वर्ण बुद्धिजीवियों में से किसी ने इसको इंटेलेक्ट की श्रेणी ही नहीं दी?
दूसरी बात जिंदगी में सिखाई जाती है कि पढाई के साथ कढ़ाई यानी मनुष्य का अनुभव बहुत जरूरी होता है| धीरू-भाई अम्बानी दसवीं पास भी नहीं थे परन्तु उनकी रखी नींव पे आज उनका वंश भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक व् राष्ट्रीय राजनीति में हस्तक्षेप रखने वाला घराना कहलाता है| सचिन तेंदुलकर भी कोई बड़ी डिग्री नहीं रखते और ना रखती स्मृति ईरानी|

मुझे लगता है कि अब वक्त आ गया है कि किसान को अपनी नॉलेज को पहचान दिलवाने के लिए आंदोलन चलाना होगा तभी इन भीरु लोगों को यह समझ आएगी कि किसान तुमसे कितने बड़े ज्ञानी हैं| किसान को भी अपने इंटेलेक्ट पे लिटरेचर क्रिएट करना होगा, तभी यह लोग समझेंगे कि किसान कोई माँ के पेट से पैदा नहीं होता, तुम्हारी ही तरह पूरी जिंदगी खपानी पड़ती है एक किसान बुद्धिजीवी बनने में|

असल में गलती इनकी भी नहीं है, क्योंकि जब तक मनुवादी मति के लोग सरकारों में रहेंगे, यह किसी और के ज्ञान-अनुभव को स्थान देंगे ही नहीं| 

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 21 August 2015

राजकुमार सैनी साहब, जाट लठ उठा ले तो लठतंत्र और यह आर.एस.एस. जो 1925 से लाठी उठाये फिर रही; यह क्या?

वैसे तो जाट ने कभी किसी लठ वाले की चिंता नहीं की, फिर चाहे वह 1925 से कंधों पे लाठी रख बिना वजह यदाकदा गलियों में पैर पीटते आर.एस.एस. वाले हों या कोई और| परन्तु जैसे ही जाट ने जाट आरक्षण मामले पे लठ उठाने की बात कह दी तो राजकुमार सैनी, सांसद कुरुक्षेत्र उठ चले आये कि जाट तो लठतंत्र चलाते हैं| सैनी साहब मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि यह आरएसएस 1925 से हाथों में लाठी ले जो चला रही है यह कौनसा तंत्र है?

बड़ी जल्दी याद आ गई आपको लठ की? 60 साल के करीब होने को हुए आप, परन्तु तब से ले के अब तक तो आपको कोई लठ/लाठी नहीं दिखी, एक जाट ने लठ उठाने की बात मात्र क्या कही कि आपकी भौहें भी खुली और हिया भी हिलने लगा?

और तो और तमाम शंकराचार्य तक लाठी हाथ में ले के चलते हैं, तमाम नागा साधु जैसी कतार तो त्रिशूल-भाले तक ले के चलती है, यह कौनसा तंत्र है राजकुमार सैनी जी, क्या बताने की कृपया करेंगे?

कमाल है राजकुमार सैनी साहब! जाट के लठ उठाने मात्र से इतना खौफ! खैर, इससे बैठे-बिठाए एक बात तो साबित हो जाती है कि आर.एस.एस. की लाठी से समाज के दिलों-दिमागों में कोई उबाल या उफान नहीं आ सकता, 90 साल से लगे हुए थे किसी ने इनके लठ नोट तक नहीं किये, पर जब जाट ने उठाने की घोषणा कर दी तो मात्र घोषणमात्र से ही कैसे रातों-रात लठतंत्र स्थापित हो गए|

आर.एस.एस. वालो सीखो कुछ जाटों से, एक बार राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद की कमान दो किसी जाट को फिर देखो कैसे आर.एस.एस. मार्का रातों-रात अनछुई बुलंदियों को छूता है| या फिर छोड़ दो इन लाठियों को, यह उन्हीं को फब्ती हैं जिनको भगवान ने इनका बाई-डिफ़ॉल्ट टैलेंट दिया है| आप लोग नब्बे साल लठ उठा के भी 'लठतंत्र' का मार्का नहीं पा सके और एक जाट हैं कि उठाया भी नहीं था सिर्फ उठाने की कहा ही था इतने में ही 'लठतंत्र' स्थापित|

वाह रे जाट क्या हस्ती है तेरी, अंगड़ाई लेने की भाषा में सिर्फ लठ उठाने की ही कही (अभी उठाया नहीं) और इतने में ही मीडिया हाउस से ले सांसद तक हिलने लगे| वो आर.एस.एस. और शंकराचार्यों की भाषा में क्या कहते हैं "शिवजी की तीसरी आँख का खुलना" यही ना? भाई जाट प्लीज सच्ची में मत उठाना, अपितु असहयोग आंदोलन चला लेना|

मैं वैसे ही थोड़े कहता हूँ कि लठ तो जाट का जन्मजात फिक्स्ड एसेट है इसको तो कभी भी आजमा लिया जायेगा, फ़िलहाल जरूरत इसकी नहीं, क्योंकि यह विदेशी लुटेरों और आक्रान्ताओं का जमाना नहीं है (वो अलग बात है कि आरएसएस को अभी तक ध्यान नहीं आया कि विदेशी लुटेरे और आक्रांता जा चुके तो तुम क्यों कन्धों पे लाठी टाँगे फिर रहे?)। खैर वो टांगें फिरें हमें उनसे क्या, हमें तो अपनी सदियों-सदियों पुरानी लोकतान्त्रिक व् गणतांत्रिक मर्यादा को कायम रखते हुए यह लड़ाई लड़नी चाहिए ताकि समाज ना बिखरे| और इसका एक सुयोग्य मार्ग है "बाजार व् धर्म से असहयोग आंदोलन"।

बाकी सैनी, साहब कभी आर.एस.एस. की लाठियों के खिलाफ भी आवाज बुलंद करो तो जान पड़े कि आप वाकई में लठतंत्र के कितने निष्पक्ष और सच्चे विरोधी हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"गलियों के राष्ट्रभक्तों" की सरकार में "बॉर्डर के राष्ट्रभक्तों" की होती दुर्गति। - OROP Row

वर्तमान सरकार को फौजियों की सुननी चाहिए और बात-बात पे "भारत माता की जय" के जयकारे लगाने वालों को भारत माता के प्रथम व् असली सपूत यानी फौजियों की मांग को पहली कलम से पूरी करना चाहिए। वर्ना भाई भारत माँ के प्रथम सपूतों का यह हाल और वो भी भारत माता की जय बोलने वालों के राज में देख के तो यही लगता है कि आप लोगों और आपके सरदार के लिए "भारत माता की जय" भी एक जुमला ही है सिर्फ।
इसी से पता चलता है कि आपको वास्तविक राष्ट्रभक्ति की यानी बॉर्डर की राष्ट्रभक्ति की कितनी तो समझ है और कितना उसके प्रति इज्जत और जज्बा!

आप लोगों को समझना चाहिए कि कच्छाधारी बन, हाथों में लठ ले गलियों में मार्चपास्ट करने से ही कोई राष्ट्रभक्त कहलाता तो आधी रात को हाथ में लाठी ले देश की गलियों में चौकीदारी करते हुए "जागते रहो!" का हल्कारा लगाने वाले चौकीदार सबसे बड़े राष्ट्रभक्त कहलाते।

फिर भी राष्ट्रभक्त की परिभाषा के कुछ नजदीक लगने जैसा दिखना है तो OROP पे सकारात्मक कदम ले के दिखा जा सकता है, वरना वही कि "भारत माता की जय" भी आप लोगों के लिए एक जुमला है, जनता ऐसा ही समझने लगेगी।

वैसे ताज्जुब की बात एक यह भी है कि असली लठमार्का यानी जाट जब लठ उठाते हैं तो आप लोग यह क्यों चिल्लाने लगते हैं कि जाटों को तो लठ के सिवाय दूसरी भाषा ही नहीं आती। तरोताजा उदाहरण जाट आरक्षण मामले में हरयाणा में जाटों द्वारा लठ उठाने की घोषणा करने के बाद आपके लोगों की तरफ से आ रहे बयानों में साफ़ देखा जा सकता है। जैसे खुद आप तो जब लाठियां ले कच्छों में परेड करते हैं तो वो लठ फूल बन जाते हैं। यह भी एक समझने वाली बात है कि जाट जब लठ उठाये तो लठैत और बिना किसी युद्ध घड़ी के एविं अंग्रेजों के जमाने के अंग्रेजों वाले कच्छे पहन आप लोग परेड करें तो राष्ट्रभक्त। शायद आपको भी पता है कि आप जो लठ उठाते हो वो बस सामने वाले को डराने के लिए, परन्तु लठमार्का यानी जाट जब लठ उठाता है तो वो जरूर किसी का भोभरा खोल के ही वापिस रखता है।

खैर यह तो लठ की बात चली तो बीच में जिक्र आ गया, मुख्य बात यही है कि राष्ट्रभक्त भाईयो अगर आप चाहते हो कि "भारत माता की जय" भी एक जुमला मात्र साबित ना हो जावे, तो आप सबसे विनती है कि भारत माता के असली व् प्रथम सपूत यानी हमारे सम्मानीय सैनिकों की OROP की मांग को अपनी सरकार से पूरी करवा दो।

वर्ना कहीं ऐसा ना हो कि यह "राष्ट्रभक्त और राष्ट्रभक्ति" शब्द भी जुमले कहलाये जानें लगें।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

बालक मरवाने हैं तो इनके मरवाओ, अपनों को क्यों मरवाते हो?

जाट आरक्षण हेतु जाटों द्वारा असहयोग आंदोलन चला देने से जब जाट समाज इनकी कोई चीज नहीं हेजेगा, जब इनका कोई सामान ही जाट नहीं खरीदेंगे, इनकी दुकानों में चूहे कूदेंगे, बड़ी-बड़ी ट्रेक्टर से ले एक छोटी सी साइकिल तक की मशीनों को इनके शोरूमों में खड़े-खड़े जंग लगेंगे तो खुद ना जा के सरकार से कहेंगे की भाई बालक भूखे मर लिए सें, सामान दुकान-गोदाम-शोरूमों में पड़े-पड़े सड़ लिए सैं, दिवाला पिटन नैं आ लिया सै, भतेरे सांग रचा लिए सैं राजकुमार सैनी जैसों को इनके आगे अड़ा के, इब राजकुमार को भी पीछे खींचों और दे दो जाटों को आरक्षण, और जो कुछ और मांगते हों तो वो भी दे दो|

यह है एक-दो महीने भी अगर जाट ने स्वर्ण व्यापारी की दूकान से अगर सामान ना खरीदने के असहयोग का जादू, ताकत और मिलने वाला नतीजा| जाटों को जो चाहिए वो अगर घर बैठे वो भी हरयाणवी स्टाइल वाला फूफा कह के ना दे के जावें तो!

हमें लठ दे के अपने बालकों को इनके आगे खड़े करने की जरूरत नहीं अपितु इनकी कूटनीति का ऐसा जवाब दो कि इनके घरों में 'असहयोग आंदोलन' के जरिये खाने के लाले पढ़ें और ये खुद सरकार को जाटों की मांग मानने का डंडा देवें|

Jai Yoddhey! - Phool Malik

Thursday, 20 August 2015

जाट आरक्षण के रहनुमा लठ से पहले अपनी कंस्यूमर पावर की ताकत को समझें!

जब से अखबारों में टीवियों पे जाटों के बालकों को जाट आरक्षण हेतु हाथों में लठ उठाये देखा है तब से समझने की कोशिश कर रहा हूँ कि अगर कल को खुदा-ना-खास्ता सरकार इनकी ना सुने और इनपे बल प्रयोग कर दे और उससे क्षुब्ध-संसप्त यह बच्चे 1984 वाले पंजाब आतंकवाद की तरह उसी राह पर चल निकले तो उसका कौन जिम्मेदार होगा? मतलब एक पूरी की पूरी पीढ़ी खराब हो सकती है, यह इतना बड़ा रिस्क है|

आईये समझें कि लठ के बल के आंदोलन की जगह व्यापारियों से सामान ना खरीदने का एक से तीन महीने के लिए असहयोग आंदोलन जाट चला लेवें तो यह आपका कितना बड़ा कूटनीतिक हथियार हो सकता है, जो इतने ही की आपकी बचत तो करवाएगा ही करवाएगा, आपके भाड़े-तोड़े भी बचवायेगा और जिनकी इतने की खरीद नहीं होगी उनकी जब बैलेंस सीटें हिलेंगी तो वो खुद हमारे साथ आ के सरकारों को कहेंगे कि जाटों को आरक्षण दो| साथ नहीं आएंगे तो अंदर-खाते सरकारों पे दबाव डालेंगे| इसलिए आईये जन्मजात भगवान से विरासत में प्राप्त लठ की ताकत (जाट का फिक्स्ड एसेट) को तो बाद में भी कभी भी आजमाया जा सकता है परन्तु उससे भी बड़ी ताकत जो आज हमारे हाथ में है उसका गणित क्या कहता है, उसे समझें|

आईआईएम (IIM) कलकत्ता और अहमदाबाद की दो रिसर्च स्टडीज के अनुसार वर्तमान में औसतन 36600 ट्रैक्टर्स हरयाणा में, 46200 पंजाब में, 112800 ट्रैक्टर्स यू. पी. में और 44400 ट्रैक्टर्स राजस्थान में सालाना बिक रहे हैं| अगर हरयाणा और पंजाब में 70% व् यू. पी. और राजस्थान में 50% ट्रैक्टर्स अकेले जाट किसान खरीदता है तो इन चार राज्यों में कुल 136560 ट्रैक्टर्स एक साल में अकेले जाट खरीद देते हैं| औसतन एक नए ट्रेक्टर की कीमत अगर 4 लाख रूपये ले के चला जाए तो यह 54624000000 यानी 5462.4 करोड़ रूपये बैठती अर्थात अकेला जाट (हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई व् तमाम धर्मों का) व्यापारियों को 5462.4 करोड़ रूपये की तो सालाना इन चार राज्यों में सिर्फ ट्रेक्टर मार्किट देता है यानी यह उसकी कंस्यूमर पावर है| महीने के हिसाब से देखो तो एक महीने में 455.2 करोड़ रूपये की ट्रेक्टर मार्किट बैठती है यह|

अब अगर इसी प्रकार कार, मोटरसाइकिल, फ्रिज, ऐ.सी., वाशिंग मशीन, इन्वर्टर, ज्वैलरी की मात्र जाट की इन चार राज्यों में खरीद कैलकुलेट की जाए तो आप सोचें कि कितने हजार अरब रूपये में बैठेगी|

इस प्रकार अगर इस फार्मूला पे चल के 50% सफलता भी अर्जित कर ली जाए तो कितना बड़ा दबाव सरकार पर होगा और वो हमारा नहीं अपितु व्यापारियों का होगा| इससे राजकुमार सैनी जैसे जो हथियार हमारे विरोधियों ने हमपे तान रखे हैं वो भी स्वत: धत्ता हो जायेंगे|

और विरोधियों द्वारा ओबीसी को जाट के खिलाफ खड़ा करने की काट हेतु, ओबीसी भाईयों को भी यह कह के विश्वास में लेना होगा कि हमें ओबीसी में आ जाने दो, फिर नारा उठाएंगे, "जाट ने बांधी गाँठ, पिछड़ा मांगे सौ में साठ!" फिर चाहे आप लोग अपनी जनसंख्या के अनुसार साठ आगे छांट कर लेना|

इसलिए मेरी कौम के सारे जाट-आरक्षण रहनुमाओं से अनुरोध है कि आप एक बार इस पर विचार करें| और तीन से पांच महीने की टाइम विंडो रख के उन्हीं युवकों को जिनको कि आप लठ हाथ में दे 28 सितम्बर को दिल्ली कूच करने के लिए तैयार कर रहे हैं, उनको दो महीने यह ट्रेनिंग देने में लगवाये और तीसरे महीने इस आंदोलन को घर बैठे खड़ा किया जावे तो इससे हमारी ना सिर्फ आवाज सुनी जाएगी अपितु लठ उठाने से जो समाज का नुक्सान होगा वो भी बचेगा और गणतांत्रिक व् लोकतान्त्रिक प्रणाली को समाज में कायम रखने का जो रुतबा जाट का रहा है वो भी कायम रहेगा|

फिलहाल यही कह सकता हूँ कि अपने जाट समाज के नवयुवा का साथ ले के उसको ऐसी दिशा देवें जिसमें हमें चारों-खाने फायदा होवे और दुश्मन चारों-खाने चित होवे| सिर्फ जो चाहिए वो नवयुवा जाटों को आप लोगों की रजामंदी, मार्गदर्शन और आशीर्वाद| ऐसी नहीं कि आने वाले वक्तों में हमारी ही नवयुवा पीढ़ी हमको दोष देवे|

क्योंकि सत्ता में आते ही जिस प्रकार का इस सरकार का रवैया जाटों के प्रति रहा है उससे साफ़-स्पष्ट है कि ना सिर्फ आंदोलन को कुचला जायेगा वरन जाट युवा को इस हद तक तोड़ा जायेगा कि वो पंजाब वाले 1984 के आतंकवाद की राह पे चल निकले और अगर ऐसा हुआ तो ना सिर्फ सरकार अपितु आप भी बराबर के जिम्मेदार और जवाबदेह होंगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 19 August 2015

राजकुमार सैनी जी जरा याद करो उस जाट को जिसने आपकी जाति को किसान जाति घोषित करवाया था!


दोस्तों! इस तथ्य को आगे शेयर करना (खासकर हर जाट और ओबीसी में एकता चाहने वाला हर नुमाइंदा यह जरूर करे) ताकि राजकुमार सैनी जैसे सांसदो को याद दिलाया जा सके कि मंडी-फंडी के हाथों की कठपुतली बन जिन जाटों के वो आज दुश्मन बने खड़े हैं, उन्हीं जाटों की वजह से आज उनकी जाति किसानी व् माली जाती कहलाती है|

वैसे उम्मीद यह थी कि इतने बड़े राजनेता को यह बात जरूर पता होगी, परन्तु फिर भी जिस भी वजह से वो इसको छुपाते हैं या वाकई में जानते ही नहीं हैं तो मैं यहां रखे दे रहा हूँ|
यह ऐतिहासिक तथ्य ऐसे है:

आदरणीय कर्नल मेहर सिंह दहिया ऐतिहासिक प्रमाणों के साथ बताते हैं हैं कि बात सन 1926 के बाद की है| देश में रिफार्म्ज एक्ट (reforms act) लागु हो चुके थे| किसान कर्जा मनसूखी कानून बनने जा रहा था। उस समय की "हिन्दू महासभा" जैसी पार्टियों के नुमयानादे कर्जा मनसूखी कानून नहीं लागु करना चाहते थे|

अंग्रेज भी सिर्फ जाटों को ही किसान मानते थे| चाहे जाट सरदार हो, हिन्दू हो या मुसलमान सिर्फ उन्हें ही जमीदारों के कानून इन्तकाले अराजी (जमींदार/किसान स्टेटस) में रखना चाहते थे। परन्तु रहबरे-आजम सर छोटूराम जी के प्रयासों से गौड़-ब्राहमण, सैनी (माली) और जांगडे (खाती) किसानों को भी इस कानून की सुरक्षित जातियों में शामिल करवाया गया|

अत: राजकुमार सैनी जी आप ध्यान दें तब किसी जाट ने इसका विरोध नहीं किया था कि क्यों ब्राह्मण-सैनी-जांगडों की जमीनों को सुरक्षित कर रहे हो| सर छोटूराम की बदौलत कर्जा मनसूखी कानून 1934 के अनुसार इन जाति के किसानों का कर्जा भी माफ़ हो गया|

इसमें एक रोचक बात यह कि इस कर्जा कानून से माफ़ी में इन जातियों को शामिल करने वाले बिल पर जो तब पंजाब कॉन्सिल लाहौर में पेश किया गया था, उस पर 32 जाट विधायको तब (m.l.c.) के हस्ताक्षर थे।

जबकि खुद मंडी-फंडियों की पार्टी जो तब हिन्दू महासभा कहलाती थी इस बिल के विरोध में थी| एक जाट के कारण ही आज आप किसान हैं, जमींदार हैं अन्यथा आपकी जमीनों का मालिक कोई साहूकार होता|

और आज उन्हीं मंडी-फंडियों के बहकावे में आ आप जाटो के विरोधी बने खड़े हैं| पार्टी भी तो वही है सिर्फ नाम ही तो बदला है 'हिन्दू महासभा पार्टी' से हटा के|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

खुशखबरी! तथाकथित ऊँची जातियों में जिसे नौकरी नहीं मिली उनके हिस्से का C और D grade slot खाली है!


ये तथाकथित स्वर्ण जातियां आरक्षण को ले के इतना हो-हल्ला क्यों कर रही हैं जबकि C और D grade की नौकरियों में इनकी representation नदारद है| इनमें से जिसे नौकरी नहीं मिलने की शिकायत है वह लोग अपने हिस्से का C और D grade slot तो भर लेवें पहले, फिर बाकी की बात करें| A और B grade में तो आप लोग अपनी जनसंख्या के अनुपात में वैसे ही मल्टीप्ल टाइम्स ओवरफ्लो में हैं, जरा अपने हिस्से का C और D ग्रेड का स्लॉट भी तो भरें|

आखिर उन नौकरियों में भी तो टैलेंट चाहिए होता है कि नहीं? अचम्भा है कि टैलेंट का दम्भ भरने वाले ही अपने हिस्से का C और D grade slot भरने को कभी इतने उतावले नहीं दीखते जितना कि टैलेंट-टैलेंट की वायलेंट छाती पीटते हैं|

वैसे भी भारतीय सविंधान की फंडामेंटल धाराओं के अनुसार आरक्षण किसी को आर्थिक तौर पर ऊपर उठाने हेतु नहीं है, वरन एक जाति-सम्प्रदाय की रिप्रजेंटेशन सुनिश्चित करने हेतु है| तो करिये ना अपनी रिप्रजेंटेशन को C और D केटेगरी में पूरा, किसने रोका है आपको टैलेंट दिखाने से?

या फिर टैलेंट के ऊपर मनुवाद का सुरक्षा कवच ढाँपे हुए हो, कि बस जो मनु ने हमारे लिए कह दिया वो ही हमारा टैलेंट, बाकियों का और बाकी का टैलेंट इर्रेलेवांट (irrelevant)|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 18 August 2015

'हनुमान जी' का 'बाला जी' नाम व् उनको 'जाट की संतान' कैसे और कब से कहा जाने लगा!

मशहूर कवि, लेखक, विचारक व् जाट इतिहास के ज्ञाता सरदार प्रताप सिंह फौजदार बताते हैं कि सं 1025 में सोमनाथ मंदिर के पुजारियों और महंतों के डरावों और उसकी सेना मंदिर में घुसी तो अंधी हो जाएगी जैसे झूठे भयों को धत्ता बता जब महमूद गजनवी सोमनाथ के मंदिर का खजाना करीब 1700 ऊंटों पर लूट के अरब की ओर लौट चला तो सिंध क्षेत्र के जाटों ने "चौधरी बाला जी जाट महाराज" की अगुवाई वाली खापसेना से उस पर चढ़ाई कर उसका लूटा हुआ अधिकतर खजाना लूट लिया और उसको लगभग खाली हाथों अरब की ओर भागना पड़ा। और इस प्रकार देश का खजाना देश से बाहर ना जाने दे, बाला जी जाट ने देश की शान को कायम रखा था।

इस लड़ाई के बाद "चौधरी बाला जी जाट महाराज" व् उनकी सेना की इतनी वाहवाही हुई थी कि वो एक महानायक के रूप में बनकर उभरे। और सबकी जुबान पर "बाला जी" नाम चढ़ता गया। जिसको देख पुरजिरयों-महंतों-संतों ने सोचा कि यही मौका है इस नाम को हाईजैक करके इसके साथ रामायण पुराण के चरित्र हनुमान को जोड़ दो। प्रथम शंकराचार्य के जमाने आठवीं सदी में रामायण और महाभारत लिखवाई गई तब से और "बाला जी जाट" के काल के बीच "बाला" शब्द का कहीं भी महिमामयी वर्णन नहीं मिलता| यहां तक कि हनुमान के चरित्र का उद्भव कही जाने वाली रामायण और महाभारत में भी इस शब्द का कहीं भी वर्णन नहीं है।

यहां ध्यान रहे कि मैं सैंकड़ों पंडितों-पुजारियों-साधुओं से पूछ चुका हूँ कि आंठवीं सदी से पुरानी रामायण या महाभारत की कॉपी कहाँ रखी गई या किसके पास मिलेगी तो किसी की तरफ से आजतक हाँ में जवाब नहीं आया कि फलाने महानुभाव के पास फलानि जगह मिलेगी।

आगे बढ़ता हूँ, जनता में बाला जी जाट महाराज की असीम भगवान समतुल्य प्रसिद्धि बढ़ती देख और अपने रोजगार का एक और सुअवसर इसमें पा व् अपनी मानव-रचित रामायण के किरदार को वास्तविक रूप में सिद्ध करने हेतु धर्म के लोगों ने हनुमान के किरदार को दूसरा नाम दिया "बाला जी"। आखिर काम भी तो बाला जी जाट ने संकटमोचन वाला ही किया था। जब महमूद गजनवी को कोई नहीं रोक पाया तो तब अवतारे थे धरती के वास्तविक बाला जी।

परन्तु दुःख तब होता है जब हनुमान के नाम तले बाला जी जाट की कोई गाथा नहीं सुनाई जाती। और हनुमान जाट थे यह तब से ही प्रचारित करवाया गया ताकि लोग असली बाला जी जाट के नाम पर उनके फ़ॉनेटिक चरित्र हनुमान को स्थान दे देवें। जबकि वास्तविकता यह है कि हनुमान के चरित्र को वास्तविक बाला जी जाट से जोड़ा गया था, इस उम्मीद के साथ कि दो-चार सदी बाद के जाटों को यह लगता रहे कि हनुमान ही बाला जी जाट हैं।

और वही हुआ। परन्तु धर्म के लोग इनकी ही बुनी चाल में फंस गए और इससे कभी नहीं छूट पाये। और वो था बालाजी जाट का जाटपुत्र होना हनुमान जी के साथ जोड़ा था, वो सदियाँ बीत जाने पर भी लोक-किदवंतियों में आजतक भी ज्यों-का-त्यों कायम रहा और है। इससे भी मुझे यह बात कहने का बल मिला कि बालाजी जाट वास्तव में हुए थे और ग्यारहवीं सदी में महमूद गजनवी को सबक सिखाने को जाट-देह धार अवतारे थे।
परन्तु मंदिरों में आज तक भी यह छुपाया जाता है कि बाला जी वास्तव में हुए थे और यह वास्तविक बाला जी जाट का नाम है, हनुमान का नहीं।

परन्तु इससे एक ख़ुशी जरूर है कि हनुमान के बहाने ही सही परन्तु उन बाला जी जाट को खापलैंड के हर अखाड़े, पूरे भारत और यहां तक कि विश्व तक के कौनों-कौनों में पूजा जाता है, फिर भले ही उनके रूप को बंदर का रूप दिया हो वो भी बावजूद ग्यारहवीं सदी का मानवदेह का किरदार होने के।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 17 August 2015

सेल्फ-स्टाइल्ड राष्ट्रभक्तों की सरपरस्ती में जंतरमंतर पर पिटते ऑफिसियल राष्ट्रभक्त!

13 सितम्बर 2013 में पीएम कैंडिडेट घोषित होते ही मोदी ने रेवाड़ी (हरयाणा) में 15 सितंबर 2013 को पहली चुनावी रैली "सैनिक सम्मान" के नाम से आयोजित करी और OROP पर बोले कि आते ही सर्वप्रथम इस कार्य को करेंगे। जाहिर सी बात है पीएम कैंडिडेट के नाते सबसे पहली रैली में सबसे पहला वचन भी सैनिकों के लिए दिया तो सबसे पहले पूरा भी यही होना चाहिए था।

परन्तु अब हो क्या रहा है वो जंतरमंतर पर पिछले 65 दिन से धरने पर बैठे सैनिकों की बानगी हम सबको दिख ही रहा है।

कहने को तो बहुत कुछ है इस मुद्दे पर, 5-6 पन्ने तो आराम से लिख सकता हूँ, परन्तु ज्यादा सार्थक जो कहना रहेगा वो यही है कि अभी कल ही पाकिस्तान की तरफ से गोलीबारी हुई है। तो क्यों ना इन सेल्फ-स्टाइल्ड राष्ट्रभक्तों की एक छोटी सी परीक्षा हो जाए और ऑफिसियल राष्ट्रभक्तों यानी हमारे सैनिकों की जगह इनको मोर्चा संभालने दिया जाए? नितिन गडकरी, अमित शाह जैसों के तो पेट में ही 100-200 गोली तो यूँ ही पेट पे हाथ फेरते-फेरते ही खप जाएँगी दुश्मन की।

यह सेल्फ-स्टाइल्ड राष्ट्रभक्तों को समझना चाहिए कि जिनकी सुरक्षा के साये तले तुम्हारी सेल्फ-स्टाइल्ड राष्ट्रभक्ति चलती है, उनको इतना बेइज्जत मत होने दो, उनको उनका हक़ दिलवा दो। वह कोई कांग्रेस या आप के लोग नहीं हैं कि जिनकी ना सुनने की घुट्टी पिए बैठे हो| वो इस देश के सैनिक हैं, उनकी आत्मा को तो दुखाने से बख़्श दो।

वो कोई रामबिलास शर्मा वाले अस्थाई टीचर भी नहीं हैं जिनको आते ही एक कलम में पक्का करने के लिखित वादे करने के बाद भी लाठियों के अलावा कुछ ना मिला, वो इस देश के सैनिक (ऑफिसियल राष्ट्रभक्त) हैं। कम से कम उनको तो आम जनता मत समझो।

वैसे भी पीएम साहब को तो एक छोटे से आईडिया से 10-15 हजार करोड़ से ले 27 हजार करोड़ तो यूँ चुटकियों में निकाल लेने आते हैं (यह मैं नहीं कह रहा उनका 2 दिन पहले का लाल किले की मीनार से दिया भाषण कह रहा) तो क्या देश के ऑफिसियल राष्ट्रभक्तों के लिए उनकी तिजोरी में एक 8-10 हजार करोड़ रुपया नहीं?

अरे जब कहीं जनधन योजना तो कहीं गैस-सब्सिडियों से पैसा उगाह के व्यापारियों को दिया जा सकता है तो सैनिकों के मामले में तो जनता से झूठ बोलने की भी जरूरत नहीं। एक बार घोषणा करवा दो कि भारत का हर BPL घर महीने के 20 रूपये, हर मिड्ल क्लास घर 100 रूपये और हर वेल एस्टैब्लिशड घर 500 रुपए OROP के लिए दिया करेगा तो, देखो देश के 34 करोड़ घर, यह 8-10  हजार करोड़ रुपया तो हंसी-हंसी दे देंगे। बदले में ऐसी ही कोई छोटी-मोटी जनधन जैसी बीमा योजना दे देना जनता को।

पर शायद उसके लिए एक सैनिक (ऑफिसियल राष्ट्रभक्त) की देश के लिए क्या कीमत होती है यह समझना पड़ता है| और उसको समझने के लिए शायद सेल्फ-स्टाइल राष्ट्रभक्ति और ऑफिसियल राष्ट्रभक्ति में कितना दिन-रात का अंतर होता है यह समझना और महसूस करना जरूरी होता है। लगता है पीएम साहब ने सेल्फ-स्टाइल राष्ट्रभक्तों को ही ऑफिसियल राष्ट्रभक्त बनाने की वाकई में सोच ली है|

अगर ऐसा हुआ तो फिर कोई बाला जाट जी ही आ के बचाये सेल्फ-स्टाइल्ड राष्ट्रभक्तों की आँखों आगे महमूद गजनवी द्वारा होती सोमनाथ की लूट से सोमनाथ को, या फिर कोई रामलाल खोखर ही मार गिराये सेल्फ-स्टाइल्ड राष्ट्रभक्तों द्वारा माफ़ कर दिए मोहम्मद गौरी को, या फिर कोई जोगराज गुज्जर और हरवीर गुलिया जाट ही मार भगाने आएगा तैमूर लंग को, या फिर कोई गॉड गोकुला ही जा औरंगजेब की नाक में दम करे उसके लगाए जजिया कर की त्रासदी से त्राहि-त्राहि करते सेल्फ-स्टाइल्ड राष्ट्रभक्तों को।

खैर पीएम साहब आपको दर्द होता हो या ना होता हो, हम आमजनता से हमारे सैनिकों की यह दुर्दशा नहीं देखी जाती जो आपकी सरकार उनकी कर रही है। वो हमारा सम्मान-घमंड-अभिमान और विश्वास हैं, उस विश्वास को ऐसे तार-तार बेइज्जत करके मत तोड़िये।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thats why they are called as andhbhakta!

His highness prince of Abu Dhabi ji, his highness prince of Dubai ji, wo bhi ek baar nahin repeatedly baar-baar. Kaash agar aise kisi Congress ya AAP waale ne bola hota to o ho tauba-tauba, andhbhakton ne kya haay-tauba macha deni thi!

Aur ispe bhi agar kisi congressi ya aapiye ne, "islam ko shanti aur sadbhavna ka prateek" bata diya hota jaisa ki Modi sahab Abu Dhabi Mosque ki visitor diary mein likh diye hain; to kya sakshi, kya prachi aur kya adityanath, sabne ne unko Pakistan jao ke jhande dikha diye hote ab tak to. thats why they are called as andhbhakta.

मैं तो उस तांत्रिक को ढूंढ रहा हूँ जो इतनी तगड़ी भभूत बना के अंधभक्तों को चटवाता है।

Phool Malik