Thursday, 7 July 2016

ओबीसी को जाटवाद और मनुवाद तुलनात्मकता करते रहने की निरंतर वजहें और बातें देते रहिये!

जाटो, खाकी चड्ढी गैंग आपके साथ क्या दुर्व्यवहार कर रही है इसको जताने से ज्यादा, सोशल मीडिया, सामाजिक समारोहों-सभाओं हर जगह यह उजागर करो और फैलाओ कि ओबीसी के साथ यह कच्छाधारी सरकार क्या कर रही है?

क्योंकि ओबीसी जाटवादियों और मनुवादियों को तराजू के दो पलड़ों में रखता है और उसको जिसका पलड़ा भारी लगता है ओबीसी उसी के साथ रहता है| और इस वक्त मनुवादी एक तीर से दो निशाने साध रहा है, एक तो ओबीसी से दगाबाजी कर ही रहा है (ओबीसी को नौकरी नहीं, रोजगार नहीं, फसलों के दाम नहीं, पदोन्नति के इनके आरक्षण रद्द किये जा रहे हैं, केंद्रीय कैबिनेट में बावजूद 50% ओबीसी जनसंख्या के मात्र 1-2 मंत्री है, जाट तो मात्र 7-8% होने के बावजूद भी 1 केंद्रीय मंत्री तो फिर भी है) और दूसरी तरफ ओबीसी से इसके द्वारा किये जा रहे इस दमन को जाट पर दमन करके छुपा रहा है और ओबीसी को रिझा रहा है|

तो अगर आप अपने दमन को ही गाते रहोगे तो ओबीसी इन्हीं की ओर झुकता चला जायेगा| इसलिए इसकी बजाये ओबीसी को इन द्वारा ओबीसी के दमन बारे दिखाओ, ताकि ओबीसी की आँखें खुली रहें और वो बेहतरीन तरीके से समझ सके कि जाट नेतृत्वों ने ओबीसी का ज्यादा भला किया या मनुवादी नेतृत्वों ने|

ओबीसी को ज्यादा सम्पन्न, धनाढ्य, समर्थ सर छोटूराम, चौधरी चरण सिंह, ताऊ देवीलाल, चौधरी बंसीलाल, सरदार प्रताप सिंह कैरों, बाबा महेंद्र सिंह टिकैत (जो जाट नेता फ़िलहाल जिन्दा हैं उनपर आप अपने विवेक से निर्धारित कर लें) की नीतियों और नियतों ने किया या इन मनुवादियों की विभिन्न पार्टियों की सरकारों और प्रधानमंत्रियों ने या इनके वर्णवादों और जतिवादों के पोथों ने? ओबीसी को इस तुलनात्मकता को दिखाते रहना बहुत अहम है|

इसलिए एक पोस्ट अपने दमन की निकालते हो, एक चर्चा अपने दमन की करते हो तो दो चर्चाएं ओबीसी के दमन की भी करें| ताकि ओबीसी के प्रति मनुवाद से कहीं ज्यादा गुणा मित्रवत रहे जाटवाद से ओबीसी जुड़ा ना भी रहे तो कम से कम मनुवाद उनको हमसे इतना दूर ना कर दे कि वो हमसे छिंटक जाएँ| मनुवाद और जाटवाद के पलड़े को न्यूनतम बैलेंस में अवश्य रखें; अपनी तरफ झुक लेवेंगे तो फिर कहने ही क्या| इसलिए इन कच्छाधारियों की तरह प्रचारक बनो और इनके जाट-ओबीसी दोनों के दमन के अध्याय उजागर करते रहो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 4 July 2016

अगर किसान-दलित-पिछड़े को बौद्धिक एवं आर्थिक सत्ता में भागीदारी चाहिए तो उसको "कमेरा-बनाम-लुटेरा" शब्द की जगह "मंडी-फंडी" शब्द के साथ आगे बढ़ना बेहतर रहेगा!

यह मेरी निजी राय और क्यों और कैसे है, उसका विवरण इस लेख में है| फिर से स्पष्ट कर रहा हूँ, यह मेरा निजी विचार है, किसी पर बाध्यता नहीं| इस पर पक्ष-विपक्ष, सहमति-असहमति हेतु विचार आमंत्रित हैं|

इस बात और समझ पर अगर मैं गलत नहीं हों तो मुझे सही कीजियेगा कि -

कमेरा यानि सिर्फ कार्य से संबंधित मानसिक मेहनत के साथ शारीरिक मेहनत करने वाला, जैसे कि किसान-दलित-पिछड़ा|

लुटेरा यानि सिर्फ और अधिकतर मानसिक मेहनत के दम पर खाने वाला, जैसे कि हर इतिहास-वर्तमान-पत्रकार-कहानीकार हर प्रकार का लेखन करने वाला, धर्म-कर्म के कर्म-कांड करने वाला, दुकानदारी और बही-खातों का लेखा-जोखा करने वाला|

अगर इन परिभाषाओं को मैं सही से और सही परिपेक्ष में रख पाया हों, तो फिर किसान-दलित-पिछड़ा वर्ग से जो लेखन कार्य करने वाले रहे हैं, उनको किस श्रेणी में रखूं? जो किसान-दलित-पिछड़ा वर्ग से होते हुए सूदखोरी से रहित व्यापार और बही-खाते करते हैं, उनको किस श्रेणी में रखूं? जो ढोंग-पाखण्ड से रहित मूर्तिरहित रहित सिर्फ पुरखों और वास्तविकता को पूजने के विधान के बौद्धिक रहे हैं, उनको किस श्रेणी में रखूं?

जब इस सवाल का जवाब ढूंढ़ता हूँ तो जवाब आता है 'मंडी और फंडी' शब्द| यह शब्द जिस मंतव्य को निर्धारित करते हैं उसमें 'दूध का दूध और पानी का पानी' करने की कला है| यानि मंडी में जो सूदखोर है सिर्फ वो और फंडी में जो ढोंगी-पाखंडी-आडंबरी है सिर्फ वो| यानि दोनों के वो पहलु, जिनकी वजह से इन शब्दों को हेय-बदनामी की दृष्टि से देखा जाता है| इस परिभाषा में इत-उत किया जा सकता है, इसका स्कोप कम ज्यादा हो सकता है परन्तु इसमें मुझे लुटेरे-कमेरे से ज्यादा व्यवहारिकता दिखती है| वजहें यह हैं:

1) जिनको लुटेरा कहा जाता है उनको कमेरे के खिलाफ एक मुश्त नफरत और षड्यंत्र करने का बौद्धिक कारण मिल जाता है| यानि साफ़ वर्गीकरण ठहर जाता है|

2) लुटेरा शब्द में जो आते हैं, और जिस प्रकार की बौद्धिक और आर्थिक सत्ता और हस्तांतरण की ताकत वह रखते हैं, जो कि अगर उनसे छीननी, इनमें अपना हक़ लेना है या उपस्थिति और आदर दर्ज करवाना है तो इसमें घुसे बिना नहीं लिया जा सकता| किसान-दलित-पिछड़ा के पास बौद्धिकता है, परन्तु सिर्फ उसके कार्य से संबंधित या ऐसी जिसको यह लोग मान्यता नहीं देते| जिसको पाने-करवाने की कोशिशें हर किसान-दलित-पिछड़ा वर्ग का हर जागरूक और क्रांतिकारी युवा करता हुआ भी दीखता है कि मुझे ज्यादा से ज्यादा लिखना है, समाज की बौद्धिक्ताओं को मिलाना है या जगाना है|

3) किसान-दलित-पिछड़ा वर्ग 'कमेरा-लुटेरा' टैग के साथ राजनैतिक सत्ता तो हासिल कर सकता है, परन्तु इससे उसमें बौद्धिक और आर्थिक सत्ता कब्जाने की प्रेरणा नहीं बन पाती; जो कि वास्तव में राजनैतिक सत्ता की भी माँ है|

4) 'मंडी-फंडी' शब्द ध्यान आते ही इनके अंदर घुस के इनमें अपने अनुसार जो सही नहीं है उसको सही करने की प्रेरणा मिलती है; जबकि 'लुटेरा-कमेरा' शब्द नफरत और अलगाव का भाव ज्यादा लिए हुए है| और नफरत और अलगाव आंदोलनकारी तो बना सकते हैं, अल्पावधि के लिए परिवर्तनकारी भी बना सकते हैं; लेकिन चिरस्थाई शासनकारी नहीं| इस एप्रोच से ली गई सत्ता तभी तक टिक पाती है जब तक बौद्धिक और आर्थिक सत्ता पर आधिपत्य वाले इसका तोड़ नहीं निकाल पाते|

5) इस दोनों मेथडों की कारीगरी जांचने-परखने के लिए हमारे पास बिना नाम लिए सबके दिमाग में आ जाने वाले महापुरुषों के उदाहरण भी समक्ष हैं| सामने आ जाता है कि कैसे एक चिरस्थाई तरीके से इनपर आजीवन विजयी रहते हुए कार्य करके गया और दूसरे को कैसे इन्होनें मौका मिलते ही सत्ता से बाहर कर दिया|

बड़ा ही नाजुक विषय छुआ है मैंने, हो सकता है कि आपमें से किसी की तरफ से इसके ऐसे प्रतिउत्तर आवें कि मुझे मेरी राय ही बदलनी पड़ जाए; इसलिए इस पर खुलकर बहस करें और इनमे से वह ऑप्शन चूज करें जो हमें सिर्फ राजनैतिक सत्ता नहीं, अपितु राजनैतिक के साथ-साथ किसान-दलित-पिछड़े की बौद्धिक व् आर्थिक सत्ता को पहचान भी दिलाता हो और स्थाई भी बनाता हो|

मेरा इन दोनों मेथडों पर जो मानना है, उसका सार इस लेख के शीर्षक में व्यक्त कर चुका|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 3 July 2016

ग़दर फिल्म के 'तारा जट्ट' के बाद 'शोरगुल' में फिर से दिखा जाट का वास्तविक डीएनए!

पता नहीं बॉलीवुड वालों से तुक्का लगा, या क्या; परन्तु एक अर्से बाद किसी फिल्म में जाट को उसके वास्तविक डीएनए यानि "Savior of Society and Socialism" के अनुरुप दर्शाया तो बड़ा शुकुन मिला। इस फिल्म की पूरी टीम को हृदय से धन्यवाद, मुझे एक ऐसी फिल्म देने के लिए कि अगर कोई पूछें कि जाट क्या है तो मैं उसको इस फिल्म का नाम बता सकूं; कि इसमें जो "चौधरी साहब" का करैक्टर है वो ही असली जाट है, वही एक पहुँचे हुए जाट का चरित्र है जिसकी वजह से दुनिया में जाट "जाट-देवता" के नाम से भी प्रसिद्ध रहा है, जिसकी वजह से उसके लिए कहावत बनी है कि "अनपढ़ जाट पढ़े जैसा, और पढ़ा जाट खुदा जैसा!"; और इस फिल्म में जाट का वो खुदा वाला रूप बखूबी दिखाया गया है|

और कोई इस फिल्म को देखे ना देखे परन्तु अंधभक्ति में चूर और पथभ्रष्ट जाट इस फिल्म को कम-से-कम एक बार जरूर देखें। इस फिल्म को देखते हुए और "चौधरी साहब" के बेटे की मौत के बाद से उनके रवैये को देख फिल्म के अंत तक बार-बार यही आभास हो रहा था इस फिल्म का नाम "शोरगुल" की बजाय "Jat the Savior" रखा गया होता तो निसंदेह सिल्वर-स्क्रीन पर ज्यादा बेहतर उतरती।

जिस तरीके से इस फिल्म में "चौधरी साहब" का चरित्र, दोनों तरफ के धर्म वालों के वहशीपने और पीड़ित के साथ वास्तविक न्यायकारी होते हुए पूरी फिल्म में जद्दोजहद के साथ पिसता हुआ दिखाया गया है, मेरा विश्वास है कि कुछ ऐसा ही हाल और वेदना हर पहुंचे हुए जाट के अंदर आज देश के हालात देख के गुजर रही है। इस फिल्म के लेखक और डायरेक्टर ने इस चरित्र को "चौधरी साहब" का नाम दे, इस रोल के साथ पूरा न्याय किया है। अपने बेटे की मौत पे भी संयम रखने, धर्मान्धों द्वारा भड़काने की लाख कोशिशों पर भी ना भड़कने, जवान बेटे की मौत के गम के माहौल में भी पडोसी की मुस्लिम बेटी को बचाने का जज्बा और होशोहवास रखते हुए (इस सीन पर तो मुझे ग़दर में शकीना को बचाने वाला तारा जट्ट याद हो आया; हालाँकि अगले सीन में पता लगता है कि धर्मान्धों से लड़की को वह बचा के लाये) और उसके न्याय के लिए लड़ने का जज्बा; यही एक सच्चे "गणतांत्रिक न्यायाधीश" का गुण होता है, वास्तव में जाट होता है।

निसंदेह ना सिर्फ जाट युवा अपितु समाज के हर युवा को यह फिल्म झकझोरने के साथ उसको सही राह पर लाने का संदेश लिए हुए है।

धन्यवाद फिल्म के डायरेक्टर पवन कुमार सिंह और जीतेन्द्र तिवारी, एक ऐसे माहौल में यह फिल्म निकालने के लिए जब पूरा उत्तरी भारत सत्ताधारियों ने जाट बनाम नॉन-जाट के लफड़े में सुलगा रखा है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 2 July 2016

यह कैसे पंचायती हैं?

यह कैसे पंचायती हैं?:

कि जरा सी किसी असामाजिक तत्व या तत्वों के समूह ने किसी अपराधी (जैसलमेर कुख्यात चुतर सिंह) को पुलिस द्वारा मार गिराने पे मसले को जातीय रंग क्या दिया कि हरयाणा में हिंदुत्व की फायरब्रांड बनने को आतुर साध्वी देवा ठाकुर ने "हिन्दू एकता और बराबरी" का चोला ही उतार फेंका और किसी "सांप द्वारा केंचुली छोड़ने" की भांति आ खड़ी अपने समाज के अपराधी के पक्ष में? रिफरेन्स के लिए इस मामले से संबंधित कल की उनकी पोस्ट देखें| यह भी नहीं सोचा कि मामला सामाजिक झगड़े का नहीं, अपितु एक नामी बदमाश को पुलिस द्वारा मार गिराने का है?

मैं तो अब भी कह रहा हूँ कि यह कहाँ के पूरे हिंदुत्व के झण्डाबदार बनेंगे, जब अपनी कम्युनिटी-जाति की सोच से ही ऊपर नहीं ऊठ सकते तो? और हमसे उम्मीद की जाती है कि हम इनके लिए जातीय अभिमान-स्वाभिमान को त्याग के इनसे जुड़ें; इनसे मार्गदर्शन पाएं? यह हिन्दू-हिंदुत्व सिर्फ 2-3 जातियों द्वारा समाज में अपना छद्म रुतबा और सत्ता में अपना आधिपत्य बनाए रखने के सगूफेमात्र से फ़ालतू कुछ नहीं। अत: अब भी वक्त है कि इनसे ध्यान हटा के अपने आर्थिक और सामाजिक हितों और समावेश पर ध्यान लगा लो। जिसका रंग ही अग्नि वाला भगवा हो गया, वो भला समाज में आग लगाने के सिवाय किये हैं कुछ, जो अब करेंगे? देश में हरित-क्रांति और श्वेत-क्रांति के धोतक समझें इस बात को।

बाबा-साधु-मोड्डा ना कभी पंचायती हुआ इतिहास में और ना हो सकता। फिर भी किसी को धक्के से इनको पंचायती बना के सर पे बैठाए रखना है तो ऐसे लोगों को सिर्फ समय की मार ही अक्ल दे सकती है। और फिर वैसे भी साध्वी देवा ठाकुर की जाति तो इनके पुरखों को चूची-बच्चा समेत 21-21 बार मार के जिन्होनें धरती को क्षत्रियों से विहीन कर दिया हो, उन्हीं का आजतक कुछ नहीं बिगाड़ पाये तो यह क्या किसी को न्याय देंगे या दिलवाएंगे। या सच्चे पंचायतियों की भांति "दूध का दूध और पानी का पानी" करने का जिगर दिखाएंगे।

इसलिए दूर रहो ऐसे समाज के छद्म हितकरियों से और इनको इनके हाल पे छोड़ देना ही बेहतर। राजस्थान में जिस समाज के अफसर पर यह बरस रहे हैं, वो समाज इनसे चाहे कितना ही "अजगर भाईचारा" निभा ले, चाहे कितना ही इनके समाज से दो-दो पीएम (वीपी सिंह और चन्द्रशेखर) और एक सीएम (भैरो सिंह शेखावत) बनवा दे, परन्तु इन्होनें अंत में जा के गिरना उन्हीं के पैरों में जिन्होनें इनके पुरखों को 21-21 बार मारा।

विशेष: मेरी साध्वी देवा ठाकुर के समाज से यह कोई चिड़ या नफरत नहीं, अपितु सहानुभूति है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

इनको उतना ही दान दो जिससे यह इज्जत से जी सकें!

मंडी-फंडी के लिए जितनी यह कहावत सच है ना कि "जाट छिक्या और राह रुक्या!" इसका उल्टा भी किसान के लिए उतना ही सच है कि "मंडी-फंडी छिक्या और राह रुक्या!"

यानि आज सत्ता और पैसे दोनों से मंडी-फंडी छिक्या हुआ है तो इसने किसान के सारे रास्ते बंद करने शुरू कर रखे हैं, जबकि इस कहावत के अनुसार जब जाट छिक्ता है तो मंडी-फंडी के सिर्फ ढोंग-पाखण्ड-आडंबर-सूदखोरी के रास्ते बंद करता है| जबकि मंडी-फंडी ने तो किसान की नेक-कमाई की ही कीमत ना मिले, ऐसे रास्ते भी बंद कर दिए, उदाहरण स्वामीनाथन रिपोर्ट पर सरकार का ताजा-ताजा रूख|

इसलिए इनको उतना ही दान दो जिससे यह इज्जत से जी सकें व् मानवता बची रह सके, फ़ालतू और बेहिसाबा इनको दोगे तो यह उसको आपके ही रास्ते अवरुद्ध करने में लगाएंगे| उस दिए का हिसाब-किताब लेते रहो इनसे; वर्ना गुप्तदान के चक्कर में पड़के दोगे तो यह उसी गुप्तदान से तुम्हारे ही खिलाफ षड्यंत्र रच-रच एक दिन तुम्हें ही लुप्त कर देंगे और वही हो रहा है| अभी सुधार लें अपनी दान देने की आदत| मंडी-फंडी आपपे कितना जुल्म करे और कितना नहीं, उसकी चाबी यह दान है इसका सही इस्तेमाल कीजिये; इसको अपने डायरेक्ट कंट्रोल में रखिये|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 30 June 2016

जब मुग़लों के आगे हताश राजपूत-शिरोमणि छत्रसाल बुंदेला की मदद को आगे आये सर्वखाप यौद्धेय दादावीर चूड़ामण जी महाराज!


सन 1720 में राजा छत्रसाल बुंदेला की रियासत कालपी पर मुग़ल सूबेदार ने अपने नायक दिलेर खाँ को भेज राजपूतों को पराजित कर कालपी समेत जबलपुर पर भी अधिकार कर लिया| राजा छत्रसाल ने बहुत से राजपूत राजाओ से सहायता माँगी परन्तु सब मुग़लों के भय से सहायता से मना कर गए| तब राजा ने दादावीर चूड़ामण से सहायता माँगी। दादावीर ने डट कर सहायता की और 800 मुस्लिम सैनिकों को मौत के घाट उत...ार दिया और दिलेर खाँ को भी मार दिया गया।

यह जाट-राजपूत के उन कई आपसी सहयोग के अमिट पन्नों में से एक पन्ना है जो हमें मिलजुल के संगठित रहने की प्रेरणा देता है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 28 June 2016

2013 में मुज़फ्फरनगर में वही दोहराया गया जो सन 1435 में मोखरा, जिला रोहतक में दोहराया गया था!

आजतक टीवी के स्टिंग ऑपरेशन में कपिलदेव अग्रवाल का मुज़फ्फरनगर दंगों में मास्टरमाइंड पाया जाना मुझे "लाला बीहड़" के किस्से की याद दिलाता है| फर्क सिर्फ इतना है कि कपिलदेव ने हिन्दू को मुस्लिम से लड़वाया; और लाला बीहड़ ने जाट को राजपूतों से लड़वाया था|

और ऐसा लड़वाया था कि तमाम तरह के डूबाढाणी, खत्म-कहानी जैसे शब्द भी छोटे पड़ जाएँ|

जानिये गठवाला जाटों द्वारा राजपूतों को हराने, फिर राजपूतों द्वारा जाटों से राजीनामा कर उनको सामूहिक भोज पर आमंत्रित कर, राजीनामा संधि तोड़ते हुए (प्राण जाए पर वचन ना जाए की डींग हांकते ना थकने वालों ने) धोखे से सामूहिक रूप से अग्नि में जला देने और फिर वहाँ से लगभग उजड़ चुके मोखरा के गठवाला जाटों के पुनर-स्थापन का ऐतिहासिक, दर्दनाक एवं गौरवमयी किस्सा|

इस किस्से को सविस्तार इस लिंक से पढ़ सकते हैं: http://www.nidanaheights.net/scv-hn-mokhra.html

लेख में कहाँ जिक्र है इस किस्से का:
इस किस्से को पढ़ने के लिए इस लेख के बांये कॉलम के मध्य जा के "मम का मोखरा नींव रखने के बाद सवा दो सौ साल तक सुखचैन से बसता रहा|" वाले पैराग्राफ से पढ़ें|

यह किस्सा मेरे हृदय से इसलिए भी जुड़ा हुआ है क्योंकि मेरी जन्म-नगरी निडाना, जिला जींद भी हमारे पुरख दादा मंगोल जी महाराज ने सन 1600 में मोखरा से ही आकर बसाई थी| यानि मेरे पुरखों की भी जन्मस्थली है मेरा मोखरा|

मोखरा गाँव से जुडी एक रोचक बात यही भी है कि यही मोखरा सन 1620 में गठवाला खाप के निमंत्रण व् अगुवाई में रांगडों (मुस्लिम राजपूत) की रियासत का कोला तोड़ने की क्रांति का केंद्रबिंदु बना था और कलानौर की ईंट-से-ईंट बजा के पूरी रियासत को तहस-नहस कर दिया था|

लेखक: सर राजकिशन नैन जी
सामग्री उपलब्धकर्ता: सर रणबीर सिंह फोगाट जी (सर राजकिशन नैन जी की सहमति सहित)
वेब-संकलन/प्रस्तुति: फूल मलिक
जय यौद्धेय!

Sunday, 26 June 2016

ग्राउंड जीरो रिपोर्ट: गौ, आरएसएस और जाट का इमोशनल ब्रेनवाश!

दो-दो जाट आंदोलनों के बाद आरएसएस से नाराज जाटों को मनाने हेतु, आरएसएस गाय के कत्ल की वीडियो अपने एजेंटों के जरिए जाटों के मोबाइल, बैठक, चौपाल हर जगह पहुंचा रहा है; ताकि आपकी भावनाओं को उद्वेलित व् एक्सप्लॉइट किया जा सके|

ऐसे लोगों को मोबाइल, बैठक, चौपाल के जरिए यह सवाल भरे जवाब चिपका देवें:

1) सबसे 85% से ज्यादा गौ-कत्लखाने हिन्दू जाति के मंडी-फंडी वर्ग के लोगों के हैं| और मंडी-फंडी ही आरएसएस को पोषित व् संचालित करता है तो फिर जब अपराधी तुम्हारा, अपराध तुम्हारा, सरकार तुम्हारी, पुलिस-प्रशासन पर कंट्रोल तुम्हारा तो हमसे क्या चाहते हो; पकड़वा के डलवाते क्यों नहीं एक-एक को जेल के अंदर?

पहले उनको जेल में डलवाओ और फिर अगर उनके बनाये बूचड़खानों व् कतलखानों को तोड़ने-जलाने की बात आये तो बता देना, लठ समेत पहलवान भेज देंगे| परन्तु अगर इस कार्यवाही में किसी पहलवान को चोट लगी या कोई कानूनी पचड़ा पड़ा तो उसका बीमा पहले करके दोगे, उसके खानेपीने और आनेजाने का खर्च और दिन की दिहाड़ी के एवज में न्यूनतम 1000 (special dharmseva charges including) रूपये दोगे| दिहाड़ी और खर्चा इसलिए क्योंकि तुम दान-चन्दा लेते ही "धर्म-रक्षा के नाम का हो" तो फिर जब तुमसे रक्षा नहीं होती और हमारे वालों से करवानी है तो वो दान-चन्दा इधर धरो|

2) इनको बोलना कि जाट आंदोलन के दौरान जितने भी जाट बालक जेलों में बंद हैं, उन सबको पहले रिहा करवाओ| व् उन पर दर्ज तमाम झूठे और टोरचर करने के मुकदमे वापिस करवाओ|

3) सड़कों-गलियों-कुरडियों पर कागज-प्लास्टिक बीनती गायों को अपने-अपने घरों में बांधो|

4) किसान के घर पर बूढ़े हो चुके बैलों को पालने का खर्चा निकाल के आगे रखो|

5) जितने भी हिन्दू गौ-कत्लखाने चलाते हैं उनको धर्म से बाहर फेंको और उनका सार्वजनिक जुलूस निकालो, फिर वो चाहे कितने ही बड़े अरबों-खरबोंपति क्यों ना हों?

बोलो, यह बातें करते हो तो अभी चलें, तुम्हारे साथ? नहीं, तो यु देख खाट की बाहइ पै धरया लठ, कहंदा हो तो ईबे की इब तेरी सारी धर्म की ठेकेदारी झाड़ दूँ?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"बोलना नहीं आता" जाट को चुप कराने/रखने का टैग मात्र है!

वर्ना ऐसा कुछ नहीं कि दुनिया की सबसे हंसोकडी भाषा "हरयाणवी" के सरदार को बोलना ना आता हो!
इसकी गम्भीरता इसी बात से समझ लीजिए कि "जाटों को बोलना नहीं आता है" की बात वही लोग कहते हैं जो जाट को शुद्र, चांडाल, लुटेरे, सोलह दूनी आठ और मोलड़ इत्यादि कहते/लिखते हैं|

असल में 'बोलना नहीं आता' इनका वो हथियार है जिससे यह जाट को चुप कराकर, जाट द्वारा उसकी आलोचना होने के सारे मार्ग बंद कर देते हैं और जाट बैठा रहता है इस सदमे में कि क्या मुझे वाकई बोलना नहीं आता?

और यह ऐसा करते भी इसलिए हैं क्योंकि यह जानते हैं कि जाट को भय या डर दिखा के चुप नहीं कराया जा सकता, वो तुम्हारी पोल-पट्टी खोलने पे लग गया तो फिर अंत तक जायेगा| इसलिए उसका दुष्प्रचार कर दो, उसके आगे बेचारे वाली मुद्रा में आ जाओ; परन्तु खुद को पीड़ित दिखाते हुए, लाचार कुत्ते की भांति कुंह-कुंह जरूर मचाओ|

हाँ, इतना जरूर कहता हूँ कि जाट इनकी भांति ऐसे अभद्र और जलील कर देने वाले शब्द इनके लिए सीधे प्रयोग ना करें; बल्कि डिप्लोमेटिक शब्दों का चयन करें| जानता हूँ जाट सीधे-सीधे जो शब्द प्रयोग करता है वो एक दम सत्य होते हैं, परन्तु उनसे यह बेचारे घबरा जाते हैं, कांपने लगते हैं और डरते हुए और अपने बचाव हेतु व् आपके सवाल का जवाब देने से बचते हुए इनकी भाषा वाले ब्रह्मास्त्र की भांति फिर यही सगुफा छोड़ देते हैं कि "जाट को तो बोलना ही नहीं आता!"

यानि दुश्मन वैसे मरता ना दिखे तो उसका दुष्प्रचार कर दो उसको मिथ्या ठहरवा दो| यह बहुत बड़ी विधा है जो इनकी जड़ है; जाट या तो इस विधा से ही इनका सामना करे अन्यथा डिप्लोमेटिक शब्दों का चयन करे| इल्जाम लगाने, आरोप-प्रत्यारोप लगाने की शैली से बचा जाए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 25 June 2016

आर.एस.एस. चला सर छोटूराम और चौधरी चरण सिंह की राजनीति की राह!

बस फर्क सिर्फ इतना है कि सर छोटूराम और चौधरी चरण सिंह वाकई में नेकदिल से धर्मनिरपेक्ष राजनीति करते थे, जबकि आरएसएस छुपे और दोहरे मुखौटे के साथ करती है| और इसका प्रमाण है दैनिक जागरण में छपी (देखें स्लंगीत कटाई) यह खबर जो कहती कि आर.एस.एस. आने वाली ईद पर मुस्लिमों के लिए 'इफ्तार पार्टी' करेगी|

तो भोलेभाले लोगो, यूनियनिस्ट मिशन और सर छोटूराम को कोसना और हम पर भड़कना छोड़ो; क्योंकि अब तो आपका आर.एस.एस. भी यूनियनिस्ट मिशन की राह पर ही चल के दिखा रहा है| परन्तु सावधान इनका चलना ठीक इस कहावत जैसा है कि "बगल में छुर्री, मुंह में राम-राम!" और युनियनिस्टों वाला चलना इतना गाढ़ा और नेकनीयत का है कि अंधभक्त हमें "पाकिस्तानी", "देशद्रोही", "समाज को तोड़ने वाले", "हिन्दू धर्म के दुश्मन" आदि-आदि बड़बड़ाने लग जाएँ|

आज मैं बहुत खुश हूँ यह जानकर कि अल्टीमेट राजनीति और भाईचारा तो सर छोटूराम और चौधरी चरण सिंह की विचारधारा ही रही है; और इसी पथ पर हम युनियनिस्ट अग्रसर हैं| आशा करता हूँ कि मेरे उन पत्रकार मित्रों को भी आज इस खबर से जवाब मिल गया होगा, जो मुझे अक्सर कहते-पूछते थे कि भाई सर छोटूराम तो एक सदी पहले हो के जा चुके, आज उनकी क्या व्यवहारिकता?

मुझे गर्व है कि मैं ऐसे पुण्यात्माओं, हुतात्माओं और राजनैतिक पुरोधाओं की पीढ़ियों में पैदा हुआ हूँ कि जिनकी राजनीति की राह को समाज में सबसे विभष्त व् विघटनकारी राजनीति करने वालों को भी "वक्त पड़े पे गधे को भी बाप बनाने वाली" तर्ज पर चलते हुए अंगीकार करना पड़ता है; "बेपैंदी के लौटों" की तरह डावांडोल होते हुए सर छोटूराम की राजनीति को सजदा करना पड़ता है|

धन्य है यूनियनिस्ट मिशन, कि उसकी अंकुरित अवस्था के तेज ने ही इनको इतना चौंधा दिया; जिस दिन वयस्क रूप में आएंगे उस दिन तो भारत में तारीख ही नई लिखी जाएगी|

विशेष: सर छोटूराम से होते हुए सरदार प्रताप सिंह कैरों के आगे चौधरी चरण सिंह से चलते हुए इस राजीनति की बैटन को ताऊ देवीलाल और उनके बाद बाबा महेंद्र सिंह टिकैत ने पोषित कर आगे बढ़ाया और अब यूनियनिस्ट इसको आगे बढ़ाएंगे| आज इस खबर को पढ़ के हर यूनियनिस्ट का हौंसला बुलंद होना चाहिए!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

 

मेरे पिता की पीढ़ी ने उनके पिता की पीढ़ी की परम्परा को आगे नहीं बढ़ाया, परन्तु अब हम अपने दादाओं की परम्परा को आगे बढ़ाएंगे!

"आपके इर्दगिर्द जो धर्म है, वो कोरा व्यापार है" की विवेचना करते हुए, इस लेख के असल मुद्दे पर लेख का अंत करूँगा|

1) एक तरफ कहेंगे कि मक्का में शिवलिंग है, अत: व्यंगत्मक्ता में फिर यह भी कहेंगे कि मुस्लिम शिवलिंग पूजते हैं| तो भाई फिर उनसे झगड़ा किस बात का, आपके क्लेम के हिसाब से पूज तो शिव को रहे हैं ना वो?

2) बुद्ध को विष्णु का नौवां अवतार बताएँगे, परन्तु बुद्धिज़्म को दिन-रात बिसराहेंगे| भाई जब विष्णु का अवतार मानते हो तो दुत्कारते क्यों हो?

3) वेटिकन सिटी का डिज़ाइन 'शिवलिंग' की शेप का होने से उसको अपना कांसेप्ट क्लेम करेंगे, परन्तु ईसाईयों और अंग्रेजों को दुश्मन नंबर एक बताएँगे?

तो फिर आखिर झगड़ा किस बात का है, जो अंधभक्त हर वक्त चिल्लाते रहते हैं कि यह तुम्हारा दुश्मन, वह तुम्हारा दुश्मन; इससे देश को बचाओ, इससे धर्म को बचाओ?

नहीं, कोई खतरा नहीं; सब कोरी बकवास, छलावा, बहकावा| खतरा है तो सिर्फ इनके बिज़नेस को|

मक्का-बुद्ध-वेटिकन, इन सबसे आज इनको चन्दा-चढ़ावा यानि बिज़नेस आना शुरू हो जाए, यह इनके भी गुण गाने शुरू कर देंगे| दिक्क्त यह है कि इनको मक्का-बुद्ध-वेटिकन वालों से चंदे-चढ़ावे के रूप में हफ्ता (बिज़नेस) नहीं मिलता; तो बस पड़ो इनके पीछे और कर दो बदनाम इनको|

अब हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट क्या है, यह लोग जाट को चैन से क्यों नहीं रहने देते? और आज से नहीं सदियों से? जवाब सीधा सा है जाट इनके बिज़नेस को जड़ों समेत समझ रखने वाले रहे हैं| जानते रहे हैं कि यह इनके लिए सिर्फ एक धंधा है| जाट से ही इनको सबसे कम चन्दा-चढ़ावा आता रहा है|

परन्तु इनके पेट का कोई अंत नहीं, आप चढ़ावा राशि बढ़ा के देख लो या इनकी चाटुकारी बढ़ा के देख लो| उदाहरण समेत समझा देता हूँ|

देखो, जींद के रानी तालाब का भूतेश्वर मंदिर जींद के जट्ट राजा सरदार रणजीत सिंह सन्धु ने बनवाया? परन्तु क्या उस मंदिर के कैंपस या एंट्री पे कहीं भी एक भी शिलालेख उस राजा को सम्मान देने हेतु लगवाया इन्होनें? नहीं लगवाया, बस उनसे मंदिर बनाया या बनवाया और भुला दिया|

पिछले दो-तीन दशक से जाटों ने अपनी जमीनें व् धन दान से चौपाल, गुरुकुल व् जाट कॉलेज/स्कूल नाम की शिक्षण संस्थाओं की जगह निरी मंदिर-धर्मशाला बनवाई; और देख लो बजाये जाटों को और ज्यादा इज्जत मिलने के; इसका उल्टा यानि जाट बनाम नॉन-जाट के दंश और अखाड़े झेलने पड़ रहे हैं?

तो इनका तो यह भी कोई हिसाब नहीं कि आप इनको इज्जत दो, तवज्जो दो तो यह आपको बदले में ज्यादा तो छोडो, उसके बराबर का भी वापिस कर दें? इनको इज्जत-तवज्जो-चढ़ावे का प्रैक्टिकल करके देख लिया ना; सिवाय दुत्कार और जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े के मिला कुछ? तो क्या अब हमें अपने पुरखों की स्थापित की गई परम्परा वापिस नहीं लौट आना चाहिए?

तो समझो और लौटो अपने बुजुर्गों की दी गुरुकुल और स्कूल-कॉलेज बनाने की परम्परा पर| दावे से कहता हूँ जिस दिन मंदिर-धर्मशाला बनवानी छोड़ के दो-तीन दशक से बंद स्कूल/कॉलेज/गुरुकुल/चौपाल बनवाने की अपने पुरुखों की राह दिखाई परम्परा पर वापिस लौटे, उस दिन समझ लेना यह जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े स्वत: अपनी मौत मर जायेंगे|

मैं 34 साल का हूँ, मेरे पिता की पीढ़ी ने उनके पिता की परम्परा को आगे नहीं बढ़ाया, परन्तु अब हम अपने दादाओं की परम्परा को वापिस आगे बढ़ाएंगे, मंदिर-धर्मशालाओं से पहले स्कूल/कॉलेज/गुरुकुल/चौपाल बनवाएंगे| या फिर फिक्की (Federation of Indian Chambers of Commerce & Industry) और डिक्की (Dalit Indian Chambers of Commerce & Industry) की तर्ज पर जिक्की (Jat Indian Chambers of Commerce & Industry) बनाएंगे| फिर इसके लिए चाहे जितने तो दंश झेलने पड़ें, और चाहे जितना कष्ट; परन्तु यही सही में उन्नति होगी, खोते जा रहे वैभव बनाए रखने की नीति होगी|

विशेष: इन सबको वापिस हासिल करने में एक चीज सबसे जरूरी होगी और वो होगी अपने बुजुर्गों (दादा और पिता) दोनों पीढ़ियों से इन पहलुओं पर चर्चा करना| इन सब कार्यों के लिए उनका समर्थन, उनका आशीर्वाद और आशीष हासिल करके चलना| अत: खोलें अपने घरों-बैठकों में इन पहलुओं पर चर्चाओं-डिबेटों को और समझें और समझाएं इन हकीकतों से; ताकि सर छोटूराम का बताया दुश्मन देखने-समझने में एक समझ बने और हम वापिस अपनी इस आलीशान व् मानवता की सर्वोत्तम परम्परा को आगे बढ़ायें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 23 June 2016

फरवरी-जून के जाट आंदोलनों के बाद आर.एस.एस. के जाट-सम्मोहन के प्रयास!

जाट-सम्मोहन शब्द प्रयोग किया है तो इसका मतलब यह कतई नहीं कि आरएसएस पहले से जुड़े जाटों के अतिरिक्त नए जाट जोड़ने हेतु इस सम्मोहन को चलाये हुए है, नहीं; अपितु जो पहले से जुड़े हुओं में फरवरी-जून के जाट आंदोलनों के चलते शंकाएँ बन गई हैं, आरएसएस उन शंकाओं को खासतौर पर मिटाने में लगी हुई है। क्योंकि आरएसएस को इन जाटों का आरएसएस के प्रति मोह-भंग होने का भय सताने लगा है। और कुछ इस प्रकार के वशीकरण सोशल मीडिया समेत आमजन गलियारों से सुनने को आ रहे हैं, जो मैं हर बिंदु के दूसरे भाग में मेरे प्रतिउत्तर के साथ रखूँगा:

1) आरएसएस इसमें शामिल जाटों को कहती है, "देखो इन दोनों आंदोलनों से आरएसएस का कोई लेना-देना नहीं!", जबकि महम में तो खुद जाटों ने नरवाना से आरएसएस के भेजे गए गुर्गों को पीटा और इसीलिए महम में इतना भयंकर बवाल भी हुआ था। जाट एसडीएम लेडी वीणा हुड्डा की गाड़ी में आग लगाने वालों ने हाथों पर धागे और सर पर काले व् भगवा पट्टे बाँध रखे थे। और ऐसी ही हर दूसरे दंगाग्रस्त कस्बे-जिले से बहुत खबरें सामने आई थी।

2) जाटो, देखो आरएसएस जातिपाति से रहित संस्था है, इसमें जातिवाद के लिए कोई जगह नहीं। वाक्य सुनने को सम्मोहित करने वाला है परन्तु हकीकत नहीं। क्योंकि आरएसएस सिर्फ ब्राह्मण-राजपूत व् एक-दो और चुनिंदा जातियों की हस्तियों के जन्मोत्सव, बलिदान दिवस आदि मनाती है| या तो किसी का भी ना मनाये वर्ना महाराजा सूरजमल, गॉड गोकुला, राजा नाहर सिंह, सर छोटूराम, महाराजा रणजीत सिंह आदि जाट हस्तियों के भी मनाये? क्या सिर्फ कुछ चिन्हित जातियों के महापुरुषों के उत्सव मनाना और जाटों के नहीं मनाना, यह जातिवाद नहीं?

3) आरएसएस कहती है कि जाटो, हम महापुरुषों को जातिवाद के आधार पर नहीं देखते? गलत क्योंकि आरएसएस सिर्फ चुनिंदा जातियों के इतिहास-महापुरुषों पर पुस्तकें निकलवाती है, उन पर विचार-गोष्ठियां करवाती है; परन्तु जाट इतिहास पर इनसे कुछ पूछो तो इनके पास प्रमाणिकता से कहने को कुछ नहीं? आखिर ऐसा क्यों? क्या सिर्फ हम जातिवादी नहीं कहने भर से काम चल जायेगा और प्रैक्टिकल में शून्यता से अपनी दबी मंशाएं छुपा लेगी आरएसएस?

4) आरएसएस कहती है हम "हिन्दू धर्म की एकता और बराबरी" के लिए कार्य करते हैं? तो फिर यह स्टेट-सेंटर दोनों जगह आरएसएस की राजनैतिक इकाई बीजेपी की सरकार होने पर भी हरयाणा में "जाट बनाम नॉन-जाट" क्यों मचा हुआ है? मैं आरएसएस के जाटों से अपील करना चाहूंगा कि भाई एक बार मोहन भागवत जी से बयान जारी करवा दीजिये कि हरयाणा से "जाट बनाम नॉन-जाट" को खत्म किया जाए। ऐसा होता है तो मैं आपकी दलीलों से भी सहमत होऊंगा, और; मैं और मेरे जैसे भी आरएसएस ज्वाइन करने पर विचार करेंगे।

5) आरएसएस कहती है कि भारत में जहां-कहाँ भी दंगे-उत्पीड़न होता है हम वहाँ-वहाँ सहायता कैंप, मदद व् रशद मुहैया करवाते हैं। क्या किसी भाई ने देखी मुज़फ्फरनगर व् हरयाणा दंगों में जाटों की सहायता के लिए कहीं भी आरएसएस दौड़ती हुई? नहीं, बल्कि 'चोर की दाढ़ी में तिनका' की भांति अपनी शाखाओं से बाहर भी निकल के नहीं देखा कि कौन जिया, कौन मरा|

क्या इसके बाद भी मुझसे यही कहलवाना चाहोगे कि थ्योरी में खुद को जातिवाद से मुक्त बताने वाली आरएसएस, प्रैक्टिकल में भी जातिवाद से मुक्त है?

मेरा आरएसएस से जुड़े जाट भाईयों से इतना अनुग्रह है कि ब्राह्मण से कुछ सीखना है तो यह सीखो कि वह कैसे कांग्रेस-बीजेपी-लेफ्ट यहाँ तक कि बीएसपी में भी मिश्रा जैसे ब्राह्मणों को शिखर की पोस्ट पर घुसा के अपनी पैठ रखते हैं और अपनी बातें और सरोकार मनवाते हैं। मैं इस लेख के जरिए आपको आरएसएस से विमुख नहीं करना चाहता; वह तो आप खुद अपने विवेक से निर्धारित कर लेवें; परन्तु जब तक इनके साथ हैं तो इनसे इन ऊपर लिखित बिंदुओं पर भी तो कुछ करवाएं? वर्ना यूँ सिर्फ हांजी-हांजी करते हुए इनकी दरियां बिछानी हैं तो भाई, इससे अच्छा तो अपने किसान भाईयों के खेत-खलिहानों में खरड-तरपाल-पल्ली बिछ्वाओगे (और नहीं तो कारसेवा के तौर पर ही सही) तो बेहतर आत्मिक संतुष्टि और आत्मबल मिलेगा।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 21 June 2016

ग्रन्थ-शास्त्रों की क्रियान्वयन में लाने वाली एक ही बात तर्कसंगत है बस, "वसुधैव कुटुंबकम"!

संस्कृत सीखना, परन्तु इसके इस श्लोक को सबसे ऊपर रखना, "वसुधैव कुटुंबकम" यानि पूरी धरती आपका घर है, आपका परिवार है| इसलिए सिर्फ संस्कृत पढ़के शास्त्री टीचर इत्यादि लगने तक संतुष्ट मत रहना, अपितु आगे बढ़के ऐसे कोर्स और पढाई पढ़ना जो आपको पूरी दुनिया में अपनी जड़ों से जुड़े रहते हुए कहीं भी रहने, कार्य करने लायक बनाये|

वैसे मैं खुद 10 साल तक (पहली से दसवीं कक्षा) आर.एस.एस. के स्कूल में पढ़ा हूँ, रामायण-महाभारत-गीता सबको को रट्टा मारा है, परन्तु इनमें रोजगार नहीं है ना ही भविष्य सिवाय पुजारी-फेरे करवाने वाले पंडित और शास्त्री अध्यापक की पोस्टों को छोड़ के| और इन पोस्टों पर भी 99% एक विशेष वर्ग का आरक्षण है|

खुद मैंने छटी से आठवीं तक तीन साल संस्कृत पढ़ी, हर साल 100 में से 95 से ऊपर नंबर लिए; परन्तु संस्कृत मुझे खुद से कभी नहीं जोड़ पाई| क्योंकि समाज में जब रोजगार हेतु संस्कृत विद्वानों की हालत देखता था तो स्वत: विमुख हो जाता था|

दूसरी बात इनको पढ़ने से डरें भी नहीं, क्योंकि मैं आज इनके ऊपर इतना बेबाकी से लिख-बोल पाता हूँ तो सिर्फ यही वजह है कि मैंने इनको पढ़ा और जाना और पाया कि यह महज इंसान की काल्पनिक शक्ति की रचना से ज्यादा कुछ नहीं| व्यवहारिकता से इनका कोई लेना देना नहीं| इनको पढ़ पाया तो आज मुझे कोई भी बाबा व् तथाकथित गॉडमैन फद्दु नहीं खींच सकता|

तीसरी बात इन रचनाओं का मानव की कल्पना शक्ति के तौर पर आदर करें, ताकि आप आपकी कल्पना शक्ति का सदुपयोग कर सकें| इनसे नफरत ना करें, क्योंकि उससे आपकी जिंदगी और रचनात्मकता इनसे नफरत करने में ही निकल जाएगी और आप ना ही तो इनके मर्म को जान पाएंगे और ना अपने आध्यात्म को परख पाएंगे|

चौथा इन सबमें से घूम फिर के अंत में सवाल और निचोड़ यही निकलेगा कि, "जब पुराण महात्मा बुद्ध को हिन्दू धर्म का नौवां अवतार बताते हैं तो उस अवतार की उपासना क्यों नहीं करने देते?" यह सवाल मैंने अंतहीन शास्त्रार्थियों से किया, परन्तु किसी के पास जवाब नहीं| परन्तु बुद्ध तक पहुँचने और उस पर स्थिरता से जमने के लिए इन लोगों के इन काल्पनिक शक्ति से रचित ग्रंथों से निकलना जरूरी है| अन्यथा यह आपमें संशय बनाये रखने से बाज नहीं आएंगे और आप इन्हीं में आध्यात्म तलाशते-तलाशते मर जायेंगे, बुद्ध को तो छू भी नहीं पाएंगे| छोटी उम्र में निकल लीजिए, ताकि बड़ी उम्र में फिर वो कर सको जो मानवता के लिए सबसे सर्वोत्तम होता है|

और मेरे ख्याल से अब जो भाजपा और आरएसएस की सरकार है यह कार्य करके बड़ा बढ़िया कर रही है| हरयाणा सरकार इस बात के लिए बधाई की पात्र है कि एक ज़माने और पुरातन काल में शुद्र-दलित-ओबीसी के लिए प्रतिबंधित यह पुस्तकें अब सिलेबस में डाली जा रही हैं| इनको पढ़ें, आपको इनमें रोजगार का मौका मिले तो करें, अन्यथा अपने रोजगार संबंधी विषय पर केंद्रित जरूर रहें| क्योंकि एक विशेष वर्ग के अलावा अगर कल को इनको पढ़ के धर्म-गुरु भी बनना चाहोगे तो जैसे अभी हाल ही में एक शहर में स्वर्ण पुजारियों द्वारा दलितों को पुजारी बनने का विरोध किया गया, ऐसे ही पाबंदियों में डाल दिए जाओगे|

यह लोग आलोचना के मामले में बड़े डरपोक होते हैं, तर्क-वितर्क में शून्य होते हैं, इनकी सहनशक्ति तो हमेशा विस्फोटक मोड में रहती है; किसी ने इन चीजों की थोड़ी सी भी आलोचना करी नहीं कि यह थर-थर कांपने लग जाते हैं| वैसे आशाराम, रविशंकर, मुरारी बापू आदि-आदि का भी फूफा बनने का टैलेंट अपने में भी जन्मजात है| पर इनके रास्ते चल के किसान-दलित-पिछड़े का भला नहीं हो सकता, इसलिए यह राह नहीं चुनी| कल को इनके जैसी कोई राह चुननी भी पड़ी तो बुद्ध या यौद्धेयों वाली चुनेंगे|

अंत का सार यही है कि इन रचनाओं को ही आपको यह कह के "कुँए का मेंढक" बनाने की कोशिशें की जाएँगी कि यही संसार है, यह जीवन का सार है| नहीं संस्कृत मात्र और यह रचनाएँ मात्र संसार नहीं; संसार है "वसुधैव कुटुंबकम"। इनको भी पढ़ें परन्तु उसको तो शर्तिया पढ़ें जो आपको दुनियां में कहीं भी रहने लायक और रोजगार करने लायक बनाता हो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक