Saturday, 20 August 2016

जब बदनाम करने की वजह पूछने गए तो थर्र-थर्र काँपने लगे जागरण अख़बार के फरीदाबाद ऑफिस वाले!

मौका था भारत के लिए दो जाट गर्ल्स (साक्षी मलिक व् पीवी सिंधु) द्वारा रियो ओलिंपिक में मेडल्स जीतने पर, आदत से मजबूर और अपनी संकीर्ण सोच से ग्रस्त दैनिक जागरण अख़बार द्वारा ऐसे मौके पर खुलकर खाप या जाट समाज को बधाई देने की बजाये, उनके बारे ऐसे मौके पर भी भद्दा लिखना|

भाई किसी ने धक्का किया था क्या आपके साथ, या कोई मजबूरी थी जो तुम सिर्फ "देश की बेटीयों ने देश का गौरव ऊँचा किया" जैसे शीर्षक से जाति-पन्थ रहित शुद्ध बधाईयों की खबर निकाल देते तो? और फिर भी जाट और खाप इसमें भी घुसेड़ने ही लगे थे तो कम-से-कम इस मौके पर तो थोड़ा बड़ा दिल करके शालीनता बरतते हुए बधाई दे देते?

या तुमने यह सोच लिया है कि "सिंह ना सांड, और गादड़ गए हांड!" की भांति खुले चरोगे? चर लिए अब जितने दिन चरने थे, समझ आ गया है स्थानीय हरयाणवी को कि दलीलों-अपीलों से तुम नहीं मानने वाले; इसीलिए आज जो हरयाणा के युवकों ने इस फोटो में तुम्हारे दफ्तर के आगे तुम्हारे अख़बार की प्रतियां जला के यह जो विरोध प्रदर्शन किया, बहुत अच्छा किया|

हरयाणवी युवक को इस जागरूकता के लिए बधाई| बस अब बहुत हुआ, इनको यही भाषा समझ आती है| जिस मित्र ने यह फोटो भेजी वो बता रहा था कि "भाई, पूरा ऑफिस का स्टाफ थर्र-थर्र काँप रहा था|"

मैंने कहा किसी को असली हरयाणवी टशन में तो नहीं लपेट आये? तो बोला नहीं भाई जी, सब कुछ पूरा लीगल वे में करके आये हैं| अबकी बार तो सिर्फ शांतिपूर्ण विरोध जता के आये हैं, अगली बार बाज नहीं आये तो लीगल नोटिस थमा के आएंगे और पुलिस में एफआईआर दर्ज करवाएंगे इनकी|

और मखा किसी को भाषावाद और क्षेत्रवाद की तो घुड़की नहीं खिला दी? बोला नहीं भाई जी, हम हरयाणवी हैं, मुम्बईया नहीं; हमें उतने तक पहुँचने की नौबत नहीं आएगी| बस आज एक ज्ञान और रौशनी जरूर मिली कि अगर हर हरयाणवी आज की तरह इनके दफ्तरों के आगे प्रदर्शन भर भी कर आये तो इतने में यह ठीक रहें| मखा भाई, चलो देखते हैं कितना असर होता है इनपे, इसका|

विशेष: एक ऐसा ही प्रदर्शन रोहतक सिटी में भी हो जाए तो इनको आँखें हो जाएँ|

Thanks dear Nitin Seharawat

जय यौद्धेय! - फूल मलिक



 

Friday, 19 August 2016

दोस्तों, नरसिंह जाधव (यादव) मामले के चक्कर में जाट-यादव भाईचारे को संभालना मत भूल जाना!

भारत के लीचड़ राजनीतिज्ञों ने नरसिंह यादव को एक मोहरे की भांति इस्तेमाल किया है, वैसे तो हर भारतीय इस पोस्ट में दिए तर्कों पर गौर फरमाये परन्तु जाट और यादव तो अवश्य ही फरमाएं; इनमें भी जो जाट और यादव आत्मीयता से आपस में जुड़े हैं वो तो जरूर से जरूर गौर फरमाएं, क्योंकि आप ही लोगों की वजह से आगे जाट-यादव भाईचारा कायम रहने वाला है| बात तथ्यों के आधार पर रखूँगा, कहीं भी तथ्यहीन लागूं तो झिड़क दीजियेगा:

1) नर सिंह यादव रियो बर्थ के लिए क्वालीफाई करते हैं, कुश्ती फेडरेशन के अध्यक्ष खुद उसी वक्त कह देते हैं कि बर्थ फाइनल हुई है खिलाडी नहीं| रियो नरसिंह जायेगा या सुशिल इसका फैसला ट्रायल से होगा| टाइम्स ऑफ़ इंडिया की उस वक्त की न्यूज़ गूगल करके पढ़ सकते हैं|

2) भारतीय कुश्तिजगत, इसकी परम्परा और इतिहास की थोड़ी सी भी समझ रखने वाला अच्छे से जनता होगा कि अगर सुशिल ट्रायल के लिए नहीं बोलते तो लोग कहने लग जाते कि या तो दम नहीं बचा होगा या फिर तैयारी नहीं कर रखी होगी; इसीलिए ट्रायल के लिए सामने नहीं आया|

3) भारतीय कुश्तिजगत की परम्परा और इतिहास कहता है कि ट्रायल यानी चुनौती को अस्वीकार करना अस्वीकारने वाले खिलाडी की हार के समान देखा जाता है| नर सिंह को चाहिए था कि वो ट्रायल स्वीकार करते; नहीं स्वीकारी तो भी कोई बात नहीं थी|

4) अखबारों से विदित है कि नर सिंह के क्वालीफाई करने के बाद भी भारतीय कुश्ती संघ पहलवान सुशिल कुमार को ट्रेनिंग पर भेजता रहा, जॉर्जिया भेजा| तो जाहिर था कि ट्रायल हो के ही खिलाडी जाना था, इसलिए दूसरे खिलाडी की भी ट्रेनिंग करवाई गई| अन्यथा पहले खिलाडी के रियो में क्वालीफाई करते ही दूसरे की ट्रेनिंग रुकवा दी जाती| इसी वजह से सुशिल को इसमें अपने साथ अन्याय लगा और वो कोर्ट चले गए| कोर्ट में क्या हुआ इससे सब वाकिफ हैं| सुशिल कुमार प्रधानमंत्री ऑफिस और हाईकोर्ट का रूख देखते हुए, सुप्रीम कोर्ट में नर सिंह और अपना वक्त ज्याया करना ठीक नहीं समझे, इसलिए सुप्रीम कोर्ट नहीं गए|

5) फिर नर सिंह के डोप का जिन्न निकल आया, जिसको बीजेपी और आरएसएस ने वोट पॉलिटिक्स का मौका समझ, इस मामले को ऐसे प्रोजेक्ट करवाया गया जैसे यह दो जातियों (जाट और यादव) के स्वाभिमान की लड़ाई हो| खैर, यूपी इलेक्शन के मद्देनजर पीएम ने खुद अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए, नाडा से मनमाना निर्णय करवा के नरसिंह को रियो के लिए आगे बढ़वा दिया| यहां, गौर करने की बात थी कि नाडा चाहती तो नरसिंह को सिर्फ वार्निंग दे के छोड़ सकती थी और मामला रफा-दफा हो जाता; और नर सिंह चार साल के बैन से शायद बच जाता| जाहिर है पीएम जैसे पद वाले व्यक्ति को हर बात का पता होता है, परन्तु पीएम ने नर सिंह पर अँधेरे में तीर मारा कि चल गया तो नर सिंह को आगे अड़ा के यूपी में यादव वोट बटोरेंगे, नहीं चला तो भाड़ में जाए| और वाकई में हमारे देश की लीचड़ राजनीति ने हमारे एक महान खिलाडी को नाडा से क्लियर कर वाडा में भेज, भाड़ में भेज दिया|

6) वाडा की अपील पर CAS कोर्ट ने जाँच और सुनवाई की तो पाया कि नाडा के पास इसके कोई सबूत ही नहीं हैं कि खाने में मिलावट हुई है| जो साबित करता है कि कैसे कोरी सिर्फ पीएम की गलत दखलंदाजी और प्रभाव के चलते नर सिंह को आगे बढ़ाया गया| पीएम, एक जाति विशेष से नफरत के अतिरेक और दूसरी जाति के वोट लुभाने के लालच में इतना भी भूल गए कि यहां तो 'बेटी बाप के घर है", वार्निंग दे के उसको सुधारने का मौका दे दो; परन्तु नहीं चढ़ा दिया वाडा की बलि| जहां पर चार साल का बैन लगना ही लगना था|

इस तरह एक जातिगत नफरत में अंधे और जाति के आधार पर वोट पाने की फिरकापरस्ती वाले पीएम की अंधी मानसिकता ने भारत के एक स्वर्णिम खिलाडी से उसका कैरियर ही छीन लिया| इसलिए मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं कि देश की गन्दी पॉलिटिक्स ने नर सिंह का करियर लीला है ना कि ग्राउंड पर जीरो परन्तु इनके दिमाग में पुरजोर से चलने वाले किसी जातिवादी जहर ने|

इसलिए जाट और यादव समाज के बुद्धिजीवी भी इस मामले को नजदीक से विचार देवें और इसकी वजह से किसी भी प्रकार की बढ़ सकने वाली जातीय दीवारों को पाटने हेतु आगे आवें; और अगले चुनावों में ऐसी वर्ण व् जातिवाद से ग्रस्ति राजनीति को धूल चटावें| इसके साथ ही सोशल मीडिया पर बैठे हर समझदार जाट-यादव से गुजारिस है कि अपने-अपने समाज के बच्चों को गुस्से-नफरत या आपसी अलगाव की पोस्ट निकालने से ना सिर्फ रोकें, अपितु ऐसी पोस्टें ले के आवें जो दोनों कौमों को एक साथ बैठ के सोचने की ओर अग्रसर करें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 13 August 2016

राजकुमार सैनी के मामले में धैर्य से काम लेने वाला जाट समाज बधाई का पात्र है!

पिछले दो साल से आरएसएस/बीजेपी द्वारा (क्योंकि इनकी इजाजत या शय के बिना जो ऐसे कार्य करते हैं वो तुरन्त मोदी-शाह दरबार या आरएसएस के झण्डेवालां दरबार में हाजिर करके हड़का दिए जाते हैं) जाट बनाम नॉन-जाट की मंशा से समाज में जातिवाद का खुला जहर उगलने के लिए खुले छोड़े गए कुरुक्षेत्र सांसद राजकुमार सैनी को अब जनता ने खुद ही नकारना शुरू कर दिया है| कल कलायत में हुई बीजेपी की राज्य-स्तरीय रैली में जब महाशय बोलने के लिए उठे तो जनता ने इतनी हूटिंग करी कि बिना भाषण दिए ही सन्तोष करना पड़ा|

यह हरयाणा है बाबू, यहां काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ा करती| किसी सामाजिक या गैर-बीजेपी रैली में राजकुमार सैनी का विरोध होता तो कुछ भी बहाना मार के मामले को रफ-दफा किया जा सकता था| परन्तु बीजेपी की रैली में ही ऐसा होना, हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट की खाई पर सवार हो राज करने की आस पाली हुई भाजपा और आरएसएस को निसन्देह अब गहन चिंतन में डालने वाला है| क्योंकि इधर रोहतक में भी जाट बनाम नॉन-जाट के फार्मूला को भुनाने के उद्देश्य से 27 अगस्त को रखी गई रैली को जाटों द्वारा समर्थन मिलने से सैनी महाशय को रदद् करना पड़ा है| यानी एक के बाद एक दो सेट-बैक लगना कहीं राजकुमार सैनी को अब भाजपा और आरएसएस के लिए बुझे हुए कारतूस वाली श्रेणी में ना खड़ा कर दे|

खैर, बीजेपी, आरएसएस अब सैनी को ले के आगे क्या प्लान बनाएगी, इनको उलझा रहने देवें इसी में| काम की जो बात है वो यह कि जाट समाज के लिए अब और भी सावधान होने की आवश्यकता है; क्योंकि अगर राजकुमार सैनी को 2-4-5 रैलियों में और ऐसे ही जनता की हूटिंग या रैली रदद् करने जैसी परिस्तिथियों का सामना करना पड़ गया तो समझो सैनी बीजेपी/आरएसएस के लिए चला हुआ खस्ता कारतूस पक्के तौर से बन जायेंगे| और ऐसे में राजनीति का वो वाला घटिया स्तर देखने को मिल सकता है, जिसका मैं पीछे की पोस्टों में भी बहुत बार संशय जता चुका हूँ| यानी जाटों को जाट बनाम नॉन-जाट की बिसात पे अलग-थलग करने वाली बीजेपी/आरएसएस सैनी पर झूठ हमला करवाने या यहां तक कि महाशय को मरवा के उसका इल्जाम जाटों पर लगवाने तक का षड्यन्त्र खेल दे तो, मुझे तो कम-से-कम कोई ताज्जुब नहीं होगा| हाँ, यह यह हमला या मरवाने वाला काम हुआ भी तो 2019 चुनावों के अड़गड़े होगा, अभी तो सैनी को और चला के देखेंगे|

अंत में चलते-चलते जाट समाज को तहे दिल से धन्यवाद कि वो सैनी पर भड़का नहीं, वर्ना और निसन्देह बीजेपी/आरएसएस की जाट बनाम नॉन-जाट थ्योरी सफल हो जाती| अपने मूल डीएनए पर चलते हुए, इनकी इस चाल को इसकी गति (वो देखो उसके कर्मों की क्या गति हुई वाली गति) से मिलवाना; निसन्देह जाट समाज में स्थिरता, शांति और विश्वास को फिर से बहाल करेगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

रियो ओलिंपिक मैडल संख्या और धर्म की भीतरी स्थिरता का कनेक्शन!

सबसे ज्यादा मैडल ईसाईयों (अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, रूस आदि) के या बुद्दिस्म (चीन, जापान, कोरिया) को मानने वालों के आ रहे हैं| इनके बाद भीतरी अशांति से झूझते मुस्लिम देशो के मैडल आ रहे हैं| और सबसे बुरा हाल है हिन्दू धर्म (वैसे आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत अभी एक हफ्ते पहले ही लन्दन में कह चुके हैं कि हिन्दू नाम का कोई धर्म ही नहीं है| मीडिया में आया था कोई मित्र अगर इस न्यूज़ को मिस कर गया हो तो)।

हिन्दू धर्म में जरा सा भी आपसी सद्भाव नहीं, तभी तो सबसे ज्यादा कोरी राजनीति में वक्त गंवाते हैं| हमारे पास खेल तक भी ऐसा "नो-पॉलिटिक्स" जोन का कोई क्षेत्र ही नहीं है कि यहां तो सिर्फ देश को आगे रखना है, या ईसाई-बुद्ध वालों की तरह धर्म को आगे रखना है, देश-धर्म के लिए मैडल लाने हैं| इस तथ्य को अपने आपको नीचा देखने के लिए ना मानें, अपितु अपने अंदर झांकें और समझें कि धर्म के अंदर शांति, भाईचारा और सद्भाव कितना अहम् होता है और धर्म के अंदर वर्णवाद व् जातिवाद कितना घातक|

ईसाई-बुद्ध लोगों के यहां धर्म की मान्यताएं स्थिर हैं, कुछ हद तक सिया-सुन्नी के लफड़े को छोड़ दो तो मुस्लिम भी स्थिर हैं; सबसे बुरा हाल तो चार तो वर्ण, उसमें भी हर वर्ण में सैंकड़ों-हजारो जातियों वाले हिंदुत्व का है; जो वास्तव में है भी कि नहीं इसका खुद हिंदुत्व के रक्षक होने का दम भरने वाले सबसे बड़े संगठन आरएसएस प्रमुख तक को नहीं पता|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

ब्राह्मण का ओरिजिन यूरेसियन नहीं अपितु कम्बोडियन या इंडोनेशियन है!

क्या कभी देखा है ब्राह्मण को यूरेसियन ओरिजिन के किसी देश की यात्रा करते हुए? जबकि विदेश गए या जा के आ चुके लगभग हर दूसरे ब्राह्मण के पासपोर्ट में कम्बोडिया की स्टाम्प जरूर लगी मिलती है।

वो क्यों, क्योंकि जैसे मुस्लिम के लिए मक्का, ईसाई के लिए जेरुसलम, सिख के लिए अमृतसर सबसे बड़ा धाम है, ऐसे ही ब्राह्मण के लिए कम्बोडिया वाला अयोध्या सबसे बड़ा धाम है। इसीलिए हर सफल व् विदेश जा सकने लायक ब्राह्मण जीवन में कम-से-कम एक बार कम्बोडिया जरूर जा के आता है।

कुरुक्षेत्र और अयोध्या शब्द भी भारत में कम्बोडिया से ही लाये गए हैं। कुरुक्षेत्र तो आज के दिन भी कोई आधिकारिक शहर तक नहीं है, जिसको हम कुरुक्षेत्र बोलते हैं वो वास्तव में "थानेसर" है। जिस रिहायसी क्षेत्र को कुरुक्षेत्र बोला जाता है, जरा देखें तुलना करके, कुरुक्षेत्र से पुराने व् पुरातन अवशेष तो थानेसर के हैं।

क्या किसी ने यूरेसियन देश में हाथी व् नारियल का पेड़ देखा या सुना है? जबकि कम्बोडिया-इंडोनेशिया में यह दोनों प्रचूर मात्रा में पाए जाते हैं। और यह दोनों ब्राह्मण की लिखी माइथोलॉजी और पूजा-पाठ में सबसे ज्यादा लिखे मिलते हैं। इसीलिए ब्राह्मण का ओरिजिन यूरेसियन नहीं अपितु कम्बोडियन ज्यादा तार्किक बैठता है।
यूरेसियन ओरिजिन का फंडा तो इन्होनें अंग्रेजों से अपनी नजदीकियां बढ़ाने के लिए खुद ही डेवेलोप किया था। जिसके बारे विस्तार से आगे की पोस्टों में लिखूंगा।

फ़िलहाल इतना लिख के आपके तर्क-वितर्क के लिए छोड़ रहा हूँ कि क्योंकि अंग्रेजों के यहां गाय एक डोमेस्टिक एनिमल है जबकि भारत में गाय एक जंगली एनिमल व् भैंस डोमेस्टिक एनिमल है। जब ब्राह्मणों देखा कि गाय के जरिये अंग्रेजों से नजदीकी बढ़ाई जा सकती है तो इन्होनें गाय को क्लेम करना शुरू कर दिया। वर्ना क्या कारण है कि यूरोप की गाय का दूध निकालते वक्त आपको उसकी टाँगें नहीं बांधनी पड़ती और ना ही आपको भारतीय भैंस की टांगें बांधनी पड़ती; जबकि भारतीय गाय की बांधनी पड़ती हैं? वजह यह है कि सदियों से भारत में कृषकों ने भैंस को जंगली से डोमेस्टिक एनिमल में कन्वर्ट रखा है और अंग्रेजों ने उधर की गाय को। जबकि भारतीय गाय डोमेस्टिक बनाई गई ही अंग्रेजों के आने के बाद से है वो भी पूरी तरह नहीं बना पाए। और कोई रामायण या महाभारत में गाय पाने का हवाला देवे तो मुझे समझावे कि अगर यह सत्य है तो आखिर भारत की गाय में ही ऐसा क्या है कि उसको जंगली से पालतू बनाने के बाद भी उसकी टाँगे बाँध के दूध दोहना पड़ता है जबकि यूरोप के देशों वाली गाय के साथ ऐसा नहीं?

विशेष: इस लेख को अपनी आस्थाओं पर हमला ना मानते हुए पढ़ें और तर्क-वितर्क देने हेतु पढ़ें हेतु। निरी आस्था पे हमला मानने के उद्देश्य से पढेंगे तो निसन्देह लेखक को गालियां देने का मन करेगा। परन्तु लेखक आपको आश्वस्त करता है कि उसकी इस पोस्ट का उद्देश्य सिर्फ तर्क-वितर्क है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 10 August 2016

जाटों में शिक्षा का प्रचार आर्य-समाज ने किया, दयानंद ने जाट ऊपर उठा दिए; Oh please give me a break!

जिसका जितना क्रेडिट बनता हो उतना ही दिया जाए तो सभ्यता कहलाती है, हद से ज्यादा भावुक हो के सारा क्रेडिट उसी पे उड़ेल दो तो वह अंधभक्ति कहलाती है|

पहली तो बात जाट इतने ही अज्ञानी रहे होते तो सत्यार्थ प्रकाश में उनको "जाट जी" कह के नहीं लिखा गया होता| यह नहीं कहा गया होता कि "सारी दुनिया जाट जैसी हो जाए तो पण्डे भूखे मर जाएँ!" कुछ तो ज्ञान रखते होंगे हमारे पुरखे तभी उनकी एक ब्राह्मण की लिखी पुस्तक में स्तुति की गई| वरना हजारों-हजार जातियां हैं भारत में, हुई है आजतक किसी की किसी भी ब्राह्मण की पुस्तक-ग्रन्थ-शास्त्र में "जी" लगा के अनुशंषा,जाट को छोड़ के?

दूसरी बात जो अज्ञानी होता है उसको कोई जी लगा के नहीं बोलता, जो शिष्य होता है उसकी कोई जी लगा के स्तुति नहीं करता| सत्यार्थ प्रकाश लिखने से पहले जाटों के ज्ञान और मान्यताओं को भलीभांति पढ़ा और परखा गया था, तभी सत्यार्थ प्रकाश लिखा गया था| यह ठीक उसी तरह है जैसे कि आज कोई जाट की मान्यताओं पर जाट की स्तुति करते हुए पुस्तक निकाल दे|

मानता हूँ दयानंद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में काफी चीजें जाटों से सम्बन्धित डॉक्यूमेंट कर दी, परन्तु उसके साथ ही सड़ी-गली दुनिया की क्रूरतम मनुवाद की वर्णव्यस्था भी उसी पुस्तक में जाट के चिपका दी| सत्यार्थ प्रकाश में लिखा कि लड़की का सानिध्य लड़के के लिए आग में घी के समान होता है इसीलिए लड़के-लड़की को अलग-अलग जगह रख के पढ़ाया जाए; परन्तु दूसरी तरफ उसी आर्यसमाज के नाम से Co-education के DAV स्कूल/कॉलेज बनाये गए; किसी जाट ने प्रश्न किया इस बात पे? एक पल को एडजस्ट भी कर लूँ कि शहरों में इंग्लिश माध्यम के DAV बनाये और गाँव में संस्कृत के गुरुकुल; परन्तु जब दोनों ही संस्थाएं एक पुस्तक को मानती थी तो यह "लड़की लड़के के लिए अग्नि के समान होती है" वाली बात का अनुपालन DAV में क्यों नहीं किया गया?

इतना काफी होना चाहिए तार्किक जाट को समझने के लिए कि यह एक हांडी में दो पेट क्यों किये गए? उद्देश्य साफ़ था जाट को सिख धर्म में जाने से रोकना था और दूसरा जाट को ऐसी शिक्षा पद्दति थमानी थी जो दूसरे दर्जे की थी यानी संस्कृत माध्यम से पढाई| आर्य समाज को बराबरी के विचार से बनाया गया था तो क्यों नहीं दयानंद सरस्वती ने गांव में अंग्रेजी को पढ़ाने की वकालत करी? बताईये जरा कि जिस आदमी को जाट समाज इतना सर आँखों पर बैठा चुका था, वह अगर जाटों को अंग्रेजी पढ़ने की कहते तो क्या जाट समाज मना कर देता?

ऐसा जाट के इसी भोलेपन के चलते नहीं किया गया जिस वजह से आज जब मैं आर्य-समाज की कमियों की बात करता हूँ तो कई जाट भाई भावुक हो जाते हैं| सनद रहे भावुकता जाट का गहन नहीं| मैं वो इंसान हूँ जिसने बचपन में आर्य-समाज की प्रचार सभाओं में स्टेज के प्रभार भी संभाले और प्रबन्ध भी किये| मैं वो इंसान हूँ जिसने पहली से दसवीं तक आरएसएस के स्कूल में पढाई की है| तो इसका यह मतलब तो नहीं हो जाता है ना कि मैं आर्य-समाज या आरएसएस की कमियों पर बात ही नहीं करूँगा?

आर्य-समाज और आरएसएस तो छोडो लोग तो अभी ठीक से आधिकारिक तौर पर दो साल के भी नहीं हुए यूनियनिस्ट मिशन की ही कितनी आलोचना करने लगे हैं, यह जगजाहिर है| और हम तो इन आलोचनाओं का स्वागत करते हैं, क्योंकि हम आगे बढ़ना चाहते हैं, आगे बढ़ते हुए अपने में सुधार करते रहना चाहते हैं|

इसलिए जाट अपने इस भोलेपन में सुधार कर ले कि किसी ने उसके लिए कुछ कर दिया तो फिर उसके लिए बिलकुल ही भावभंगिम की भांति अंधे ही हो जाओ| अंधे हुए बैठे रहे और आर्य-समाज में समय रहते यह सुधार नहीं किये, इसलिए तो आज सुनने में आ रहा है कि आर्य-समाज पर मूर्तिपूजा करने वाले सनातनी कब्ज़ा करते जा रहे हैं,सही है ना? सुन रहे हैं ना आर्य-समाजी लोग, आपके मूर्तिपूजा के विरोध के सिद्धांत पर स्थापित समाज को मूर्तिपूजा करने वाले सनातनी कब्जाने की फिराक में हैं|

और इन कब्ज़ा करने की मंशा रखने वालों की बानगी भी भलीभांति जानते ही होंगे आप| जी, यह जैसे सिखों को हिन्दू-रक्षक बोल के असली हिन्दू बता के उनको कब्जाने की फिराक में रहते हैं; परन्तु सिख इनको दूर से ही दुत्कार देते हैं; ठीक ऐसे ही इनसे दूरी बना के रखिये; वर्ना ना घर के रहेंगे ना घाट के|

अत: समय रहते चेत जाईये और आर्य-समाज को सनातनियों से बचाईये, बचाईये अगर आज भी अपने को वाकई का आर्य-समाजी मानते हो तो|

और इसकी शुरुवात आपके घरों के पिछले दरवाजे से आपकी औरतों के जरिये दान-चढ़ावे-चन्दे के नाम पर पैठ लगाए ढोंगी-पाखंडियों से दूर रहने हेतु उनको समझाने से शुरू करें। औरत का हृदय कोमल होता है, वो अपने घर के भले के लिए कुछ भी कर गुजरती है; इसलिए आदमी की अपेक्षा औरत का इन ढोंगियों के बहकावे में आना आसान होता है| इसीलिए यह आपके घरों की औरतों को इनकी औरतों व् खुद के द्वारा निशाना बनाते हैं और अपने घर भरते हैं। अत: इस घर के पिछले दरवाजे से घर की कमाई में लगी सेंध को बन्द करवाने हेतु, अपने-अपने घर की औरतों से बैठ के मन्त्रणा कीजिये। आपकी औरतें जो अपनापन इन मोडडों-पाखण्डियों की चिकनी-चुपड़ी बातों में पाती हैं, वो आप खुद दो बोल प्यार से बोल के दोगे तो आपकी औरतें ही इनको आगे धका देंगी।

और इस तरह जाट का मूर्तिपूजा रहित समाज का वह मूल-सिद्धांत बचाने में आप कामयाब रहेंगे, जिससे कि जाट समाज पे लट्टू हो के दयानद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश लिख डाला था या इनसे लिखवाया गया था। सनद रहे यह "मूर्ती-पूजा" रहित समाज की थ्योरी दयानंद कहीं बाहर से कॉपी करके नहीं लाये थे, आपके अपने पुरखों के यहां से ही उठाई हुई है। जो जाट हो गया वो ज्ञानी तो जेनेटिकली ही होता है। कृपया यह अनजान और नादान बनने के स्वघाती स्वांग बन्द कीजिये और अपने डीएनए के अनुरूप अपनी उस कहावत को सहेजने में अपना सहयोग दीजिये कि "अनपढ़ जाट पढ़े जैसा, और पढ़ा जाट खुदा जैसा!"।

और अगर वहाँ असहाय प्रतीत हो रहा है इन चीजों की रक्षा करना तो यूनियनिस्ट मिशन ज्वाइन कर लीजिये, क्योंकि दलित-किसान-पिछड़े के आर्थिक व् सामाजिक हितों की रक्षा व् आवाज बनने के साथ-साथ, हम हमारी इन स्वर्णिम मान्यताओं को सहजने व् सँजोने हेतु भी कार्यरत हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 8 August 2016

जाट क्या थे क्या हो गए या होते जा रहे हैं को मापने का एक पैमाना यह भी!

आज से डेड-दो दशक पहले जाटों के यहां हर दूसरे ब्याह में जाट आर्य-समाजी फेरे करवाता था| जाटों की यह उन्मुक्तता, स्वच्छदंता और आज़ाद कौम होने का भाव देख के ब्राह्मण भी कहते थे कि एक इकलौते यह जाट ही हिम्मतदार हैं जो हमको काटने का दम्भ रखते हैं, वरना राजपूत तक हमारे आगे दुम हिलाते हैं और सारे ब्याहों के फेरे हमसे ही करवाते हैं|

यह पहलु जाट कौम के उन स्वर्णिम अध्यायों के पहलुओं में से एक अग्रणी पहलु है जिसके आधार पर E. Joseph (Rohtak DC 1905-1912) और R.C. Temple (1826-1902) जैसे Anthropologists (मानव विज्ञानियों) ने कहा था कि पूरे भारत में सिर्फ एक ब्राह्मण थ्योरी से समाज चलता है परन्तु जाट-बाहुल्य इलाके यानि जाटलैंड ऐसे क्षेत्र हैं जहां भारतीय समाज जाटिस्म की थ्योरियों से चलता है|

जाटों ने आज इतनी तरक्की कर ली है कि पूरे देश में इस तरह की इकलौती कौम होने का दम्भ खोती जा रही है, और अब हर दूसरे तो क्या तीसरे-चौथे-पांचवें-दसवें ब्याह तक में जा के कोई जाट आर्य समाजी फेरे करवाते हुए दीखता है|

और यही वो गुलामी और निर्भरता है जिसकी ओर जाट को धकेलने के लिए जाट बनाम नॉन-जाट, 35 बनाम 1 जैसे षडयन्त्रों के जरिये जाट की स्वच्छन्द छवि कुंद की जा रही है| इसमें ताज्जुब और दुर्भाग्य की बात तो यह है कि बहुत से जाट तो अपने ही पुरखों और बुजुर्गों की इस कालजयी अमर हैसियत को स्वीकारने तक को तैयार नहीं और उनको ऐसे सुनहरे कौम के अभिमान को याद भी दिलाओ तो काटने को दौड़ते हैं| अंधभक्त बने जाट तो इतने सठियाये और पठाये हुए बना दिए गए हैं कि उनको इन बातों में हिन्दू धर्म को तोड़ना नजर आता है, यहां तक कि ऐसी बातें करने वाले मेरे जैसे को पलक झपकते ही पाकिस्तानी तक बताने लग जाते हैं|

किसी विरले जाट को ही कौम पे मंडरा रहे इस आइडेंटिटी क्राइसिस का भान है, वरना जिसको देखो भंडेलों की भांति अपनों की ही टांग खींचने, पर कुतरने में मशगूल है| वाकई में जाट कौम बहुत बड़े आध्यात्मिक व् सामाजिक आइडेंटिटी क्राइसिस से गुजर रही है|

और जब तक इस भंडेलेपन से बाज नहीं आएंगे, इसको त्याग खुद से पहले कौम को ऊपर रख के नहीं सोचेंगे, यूँ ही बेवजह सॉफ्ट टारगेट बने रहेंगे| और मेरे जैसे जागृति फैलाने वाले यूँ ही गालियां खाएंगे| परन्तु गाली खाने से कहीं ज्यादा पवित्र कार्य है कौम को उसकी हैसियत और गौरवशाली विरासत से अवगत करवाते रहना| कहीं ना कहीं कभी ना कभी तो चौं फूटेगी कौम में अपने आप को फिर से पहचानने की|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 7 August 2016

हिन्दू नाम का कोई धर्म ही नहीं यह खुद आरएसएस प्रमुख के मुख से अब सत्यापित हो चुका है!

आरएसएस की कथनी और करनी में कितना अंतर और विरोधाभाष है, आरएसएस प्रमुख के लन्दन में दिए इन बयानों से सहजता से ही दिख जाता है:
 
1) यह खुद कह रहे हैं कि हिन्दू कोई धर्म नहीं, तो आशा करता हूँ कि आज के बाद जब मैं कहूँ कि हिन्दू कोई धर्म है ही नहीं तो कोई मेरी बात का बुरा नहीं मानेगा; या मानना है तो आरएसएस प्रमुख वाली का बुरा मानने से शुरुवात की जाए|
2) आरएसएस अब उस कदम तक आ गई है जहां इनके एजेंडे में "हिन्दू धर्म" शब्द को शुद्ध ब्राह्मण धर्म यानी "सनातन धर्म" से स्थानांतरित करना निर्धारित है|
3) मेरे ख्याल से आर्य-समाजी लोग तो सनातन धर्म के धुर-विपरीत हैं, क्योंकि सनातन मूर्ती पूजा करता है और आर्य समाज मूर्ती पूजा को नहीं मानता|
4) सनातनी और आर्य-समाजी दोनों को जो शब्द ढंके हुए था, वो था हिन्दू शब्द; जिससे आज आरएसएस प्रमुख ने ही खुद को अलग कर लिया है और हिन्दू शब्द को धर्म ना मानते हुए पद्दति बता दिया है|
5) जाट जैसा समाज जो कि मूर्ती-पूजा विहीन अपने पुरखों की शुद्ध दादा खेड़ा परम्परा पर चलता आया है, जिसको कि "जाटू सभ्यता" कहा जाता है, इससे उसका भी मार्ग अब प्रसस्त होता है|

महृषि दयानंद ने जाटों के दादा खेडों से ही जाट के मूर्ती पूजा नहीं करने के स्वभाव का पता लगाया था और उसको अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश का आधार बनाया था| यह बात वह नादान जरा गम्भीरता से जान लें, जो कहते हैं कि महर्षि दयानंद ने जाट या पूरे समाज को पाखण्डों से निकाला या बचाया| नहीं, बल्कि सच्चाई यह है कि उन्होंने जाट समाज से यह सिद्धांत उठाये और सत्यार्थ प्रकाश लिखा| इस पुस्तक में उन द्वारा "जाट जी" और "पांडा जी" का एकांकी उदाहरण रखना, जाट के यहां इन मान्यताओं का उन द्वारा "आर्य-समाज" स्थापित करने से पहले से होना और इसी से प्रभावित होकर एक ब्राह्मण महर्षि दयानंद द्वारा "जाट जी" कह के जाट की महानता की स्तुति करना; इस बात का साक्षी है कि जाट को महर्षि दयानंद ने नहीं जगाया था अपितु जाट के यहां की यह चीजें देख के उनको जाग्रति आई|

इसीलिए मुझे गर्व है कि भारतीय समाज में जाट ही एक ऐसी कौम रही है जिसको समझदार ब्राह्मणों ने "जी" लगा के मान दिया| अत: जाट अपने इस उच्च स्थान को समझें, और ब्राह्मण के मूर्ती पूजा आधारित इनके ब्राह्मण धर्म उर्फ़ सनातन धर्म के समान्तर युग-युगांतर से स्थापित "जाट-पुरख" धर्म पर चलते रहें| हाँ, हमें जाट-पुरख धर्म का आदर करवाना है इसलिए ब्राह्मण के सनातन धर्म का आदर करते हुए चलना सबसे उत्तम मार्ग है| वो हमारी मान्यताओं का आदर करें और हम उन्कियों का करें|

इन सबसे एक बात और स्थापित होती है कि यूनियनिस्ट मिशन जिस "जाट-पुरख" धर्म की राही अख्तियार किये हुए है, वह बिलकुल सही है| हिन्दू नाम का कोई धर्म ही नहीं यह खुद आरएसएस प्रमुख के मुख से अब सत्यापित हो चुका है| इसलिए इस शब्द को सिर्फ एक परम्परा के तहत ही देखा जाए और ब्राह्मण अपना सनातन धर्म धारे ही हुए है, दलित लगभग बुद्ध हो चुके हैं, जाट भी अपने "दादा खेड़ा" उर्फ़ "जाट पुरख" धर्म जिसपर कि महर्षि दयानंद का "सत्यार्थ प्रकाश" यानि "आर्य समाज" कांसेप्ट भी आधारित है, उन मूल जड़ों की और वापसी करें| कम से कम हर यूनियनिस्ट तो अब इसी राह पर अग्रसर है|

विशेष: यह विचार मेरे निजी हैं, मेरे विश्वास से कहे हैं; क्योंकि यूनियनिस्ट हूँ, युनियनिस्टों से मिलके काम करता हूँ तो इतना विश्वास से कह सकता हूँ कि यूनियनिस्ट इसी राह पर अग्रसर हैं| फिर भी किसी यूनियनिस्ट के इस पर विभिन्न मत होवें तो उनका स्वागत करूँगा और जानना भी चाहूंगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

News Source: महज एक परंपरा ही है हिंदुत्व, कोई धर्म नहीं: भागवत
http://www.24hindinews.com/hinduism-is-only-a-tradition-no-religion-bhagwat/

Thursday, 4 August 2016

‘तीज रंगीली री सासड़ पींग रंगीली’!

चन्दन की पाटड़ी
री सासड़,
रेशम की द्यई झूल।
...
खुसीए मनावैं
री सासड़ गाणे गांवैं,
मद जोबन की गाठड़ी
री सासड़,
ठेस लगै जा खूल।
तीज रंगीली
री सासड़ पींग रंगीली,
बनिए कैसी हाटड़ी
री सासड़
ब्याज मिल्या ना मूल।
पतिए मिल्या ना
री सासड़ च्यमन खिल्या ना,
खा कै त्यवाला जा पड़ी
री सासड़,
मुसग्या चमेली केसा फूल।
लखमीचंद न्यू गावै
री सासड़ साँग बनावै,
जिसका गाम सै जाटड़ी
री सासड़,
गाणै मैं रहा टूल|

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सावन गीत - हरियाणवी (खड़ी बोली)

"गळियों तो गळियों री बीबी मनरा फिरै"
हेरी बीबी मनरा को लेओ न बुलाय।
चूड़ा तो मेरी जान, चूड़ा तो हाथी दाँत का।
...
काळी रे जंगाळी मनरा ना पहरूँ
काळे म्हारे राजा जी के बाळ
चूड़ा तो हाथी दाँत का ।
हरी रे जंगाळी मनरा ना पहरूँ
हरे म्हारे राजा जी के बाग,
चूड़ा तो हाथी दाँत का ।
धौळी जंगाळी रे मनरा ना पहरूँ
धौळा म्हारे राजा जी का घोड़ा,
चूड़ा तो हाथी दाँत का ।
लाल जंगाळी रे मनरा ना पहरूँ
लाल म्हारे राजा जी के होंठ,
चूड़ा तो हाथी दाँत का ।
सासू नै सुसरा सै कह दिया –
ऐजी थारी बहू बड़ी चकचाळ
मनरा सै ल्याली दोस्ती,
चूड़ा तो हाथी दाँत का ।

"नन्हीं-नन्हीं बुँदियाँ रे"
सावण का मेरा झूलणा
एक सुख देखा मैंने अम्मा के राज में
हाथों में गुड़िया रे, सखियों का मेरा खेलणा
नन्हीं-नन्हीं बुँदियाँ रे…
एक सुख देखा मैंने, भाभी के राज में
गोद में भतीजा रे गळियों का मेरा घूमणा
नन्हीं-नन्हीं बुँदियाँ रे…
एक सुख देखा मैंने बहना के राज में
हाथों में कसीदा रे फूलों का मेरा काढ़णा
नन्हीं-नन्हीं बुँदियाँ रे…
एक दु:ख देखा मैंने सासू के राज में
धड़ी- धड़ी गेहूँ रे चक्की का मेरा पीसणा
नन्हीं-नन्हीं बुँदियाँ रे…
एक दुख देखा मैंने जिठाणी के राज में
धड़ी- धड़ी आट्टा रे चूल्हे का मेरा फूँकणा
नन्हीं-नन्हीं बुँदियाँ रे
सावण का मेरा झूलणा

सौजन्य: देवेन्द्र कुमार और फूल मलिक

साम्मण अर मींह की कहावतें:
1.आई तीज बोगी बीज!
2.सास्सु का नाक तोड़ ल्याणा! (इतनी ऊँची पींघ झूलने की हिम्मत की पींघ पेड़ की टहनियों में जा लगे|)
...
3.साढ़ सूखा ना सामण हरा!
4.जब स्यमाणा चौगरदे कै एक-सा निसर ज्या, मींह जोर का बरस ज्या!
5.मंद बूँदा की झड़ी, मरी खेती भी हो ज्या खड़ी!
6.जय्ब चींटी अंडा ले चलै, चिड़िया नहावे धूळ मैं,
कहें स्याणे सुण भाई, बरसें घाग जरूर! (When ants carry eggs, sparrows play in sand - then it should be presumed that rains are very near)
7.चैत चिरपड़ो और, सावन निर्मलो|
8.ज्यब चमकै पच्छम-उत्तर की ओर, तब जाणो पाणी का जोर|
9.बांदर नै सलाह दे, अर बैया आपणा ऐ घर खो ले! (बरसदे मींह म्ह अपणे घोंसले तैं बैये द्वारा बरसात म्ह बिझते बन्दर को घर बनाने की सलाह देने पे, बन्दर उसी का घोंसला तोड़ फेंकता है|)

साम्मण के दोहे:
1.होइ न्यम्बोली पाक कै, इबके मिट्ठी खूब,
मौसम कै स्यर पै धरी, साम्मण नै आ दूब|
2. पड्या साढ़ का दोंगड़ा, उट्ठी घणी सुगंध,
जोड़ घटा तै यू गया, साम्मण के संबंध।
3. मन का पंछी उड़ चल्या, बाबुल की दल्हीज़,
कितने सुख-दुख दे गई, या हरियाली तीज।
4. आ भैया बरसें नैन, बादल उठ्ठें झीम,
साम्मण में मीठा होया, फल कै कडुआ नीम।
5. जीवन भर इब तार ये राखणे पड़ें सहेज,
पाछले साम्मण चढ़ गई, बाहण अगन की सेज।
6. उडे हवा मैं चीर है, अर चढ़ी गगन तक पींग,
बाद्दल सा पिय का प्यार सै, तन-मन जावै भीग।
7. री ननदी तू ना सता रही घटा या छेड़,
बरस पड़े जै नैन ये कडै बचेगी मेड़|
8. घेवर देवर तै दिया साम्मण का उपहार,
पिया आपणे तै दिया रुक्खा-सुक्खा प्यार।
9. पा कै माँ की ‘कोथली’ भूल गई सब क्लेस,
मन पीहर में जा बस्या तन ही था इस देस।

Source: प्रोफेसर राजेंद्र गौतम और फूल मलिक

Jai Yauddhey! - Phool Malik

नानक देखा, महावीर देखा, बुद्ध देखा, दादा खेड़ा देखा, देखा ईसा और अल्लाह!

नानक देखा, महावीर देखा, बुद्ध देखा, दादा खेड़ा देखा, देखा ईसा और अल्लाह,
ना ये बहूबुझा हैं, ना कांधे कोई हथियार, ना ही किसी जानवर पे सवार!
ना यह अपने धर्म के अंदर जातिवाद और वर्णवाद बतलाते,
ना ही खुद कहीं जाट बनाम नॉन-जाट और 35 बनाम 1 रचवाते|
ना तू मुख से, तू भुजा से, तू उदर से और तू पैर से पैदा हुआ बताते,
धर्म के अंदर इनमें से कोई आपस में वर्गीकृत करते नहीं देखा|
यह दुश्मन भी बताते हैं, किसी को मरवाते-भिड़ाते भी हैं तो खुद के धर्म के बाहर वालों के साथ;
तो क्या जो जातिवाद और वर्णवाद फैलाते हैं, यह वाकई में धर्म जानते भी हैं या सिर्फ धर्म शब्द को हाईजैक कर रखा है?

आखिर पूरे विश्व में यही अनोखे ऐसे क्यों हैं कि यह विश्व के धर्मों की किसी परिभाषा के अनुरूप हैं ही नहीं?
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 2 August 2016

आज के जाट बनाम नॉन-जाट का ऐतिहासिक परिपेक्ष्य!

1905 से 1910 तक रोहतक के डीसी रहे मिस्टर ई. जोसफ लिखित "कस्टमरी लॉ ऑफ़ रोहतक" पुस्तक की रिफरेन्स से "Women and Social Reform in Modern India" किताब के पेज नंबर 147 (कटिंग सलंगित) में Sumit Sarkar, Tanika Sarkar, क्वोट करके सत्यापित करते हैं कि जाट और मनुवाद दोनों भिन्न विचारधाराएं रही हैं|

उन्नीसवीं सदी के आथ्रोपोलॉजिस्ट लेखक R. C. Temple के बाद E Joseph की यह रिकॉर्डिंग्स पुख्ता करती हैं कि उत्तर भारत यानी जाट बाहुल्य इलाकों में मनुवाद नहीं बल्कि जाटवाद चलता आया है|

और यही वो मुद्दा है जब आज के दिन हरयाणा में मनुवाद को मौका मिला है जाटवाद पर हावी होने का| यह जाट बनाम नॉन-जाट, 35 बनाम 1 इत्यादि कुछ नहीं सिवाय मनुवाद की जाटवाद पर विजय पाने की कोशिशों के|
अत: जाट युवा/युवती खासतौर पर समझें कि जाटलैंड पर मनुवाद नहीं अपितु जाटवाद से सभ्यता चली है| मनुवाद बाकी के भारत में हावी रहा है परन्तु जाट बाहुल्य इलाकों में नहीं|

और यह भी प्रमाणित बात है कि जाटवाद से मनुवाद कहीं ज्यादा गुना तुच्छ सोच, अमानवीय व् मानव सभ्यता का अहितकारी रहा है| इसीलिए जाट को चाहिए कि वह इस मनुवाद से हर सम्भव अपने जाटवाद की रक्षा करे|
जाटवाद एक गणतांत्रिक थ्योरी रही है जबकि मनुवाद एक अधिनायकवाद थ्योरी रही है| दोनों में आइडिओलोजिकली और जेनेटिकली दिन-रात का अंतर है| एक जाट मनुवादी बनने की कोशिश तो कर सकता है, परन्तु उसका जीन उसको ऐसा बनने नहीं देता| इसलिए बेकार की कोशिशें करने और अपने ऊपर किसी और थ्योरी को कॉपी-पेस्ट मारने की व्यर्थ कोशिशों को छोड़ के वही बने रहें जो हैं और उसी का संवर्धन करके उसको और ज्यादा विकसित करें|

मेरी निजी सोध और अनुभव दोनों यह सत्यापित करते हैं कि मनुवाद को भारत से बाहर किसी भी थ्योरी से तुलना तक में भी नहीं रख सकते, जबकि जाटवाद का खाप सिस्टम डेवलप्ड देशों के सोशल जूरी जस्टिस सिस्टम का रॉ रूप है, जाटों की फोर्ट्रेस रुपी चौपालें डेवलप्ड कन्ट्रीज के सेंट्रल हॉल्स, सिटी हॉल्स के समान्तर रखी जा सकती हैं| जाटों का एक ही गौत में विवाह ना करने की परम्परा, यूरोप के कई देशो में पाई जाने वाली इसी प्रकार की व्यवस्था के समांतर बैठती है| जाटों के यहां नौकर-मालिक की जगह सीरी-साझी का कांसेप्ट होना, गूगल जैसी कंपनी के वर्किंग कल्चर के समान्तर बैठता है|

इसीलिए अपने पुरखों के इस पहले से ही ग्लोबल सोच के कल्चर को दुत्कारें नहीं, छोड़ें नहीं अपितु इसको सुधारें और विकसित करके आगे बढ़ाएं| अगर जाटवाद को थोड़े-बहुत मूलभूत सुधारों के साथ अमेंड करके लागू किया जाए तो यही वो थ्योरी है जो भारत कहो या खासकर जाटलैंड के सोशल स्टेटस को वर्ल्डक्लास का बना सकती है| जबकि मनुवाद कोरा मानवता का दुश्मन, इंसान को इंसान से भिड़ाने वाला, उसमें ऊंच-नीचता की मानसिकता भरने वाला तन्त्र है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक



Source: https://books.google.fr/books?id=GEPYbuzOwcQC&pg=PA160&lpg=PA160&dq=E+joseph+dc+rohtak&source=bl&ots=MeeUj_j7kv&sig=VbFhpfLq3f7TCp2cNL41FFa1DSA&hl=en&sa=X&ved=0ahUKEwjizaul_6LOAhXJthoKHdIaB_0Q6AEIHDAA#v=onepage&q&f=false

शॉट-पुटर इंद्रजीत सिंह सैनी का दूसरा टेस्ट भी पॉजिटिव, रियो जाना लगभग नामुमकिन - एनडीटीवी इंडिया!

भाई इंद्रजीत जी अगर आपको भी फटाफट न्याय चाहिए तो अपनी ओलिंपिक बर्थ को किसी जाट खिलाडी से ट्रायल के लिए चैलेंज करवा लो और फिर देखो झटका कि कैसे पी.एम.ओ. से ले के खेल-मंत्रालय तक दिन-रात एक कर देता है आपको कम-से-कम "बेनिफिट ऑफ़ डाउट" (और कोई ऑप्शन ना भी बचे तो) दिलवाने के लिए| और थोड़ा सा आपके खिलाफ हुई साजिश में किसी जाट के हाथ होने के एंगल का तड़का और लगवा लेना, अन्यथा यूँ इतनी सहजता से बात ना बनने वाली।

फूटी किस्मत आपकी, कि आपको किसी जाट ने ट्रायल के लिए चैलेंज नहीं किया और उधर पिछड़ों का स्वघोषित मसीहा राजकुमार सैनी भी आपकी सपोर्ट में अभी तक नहीं आया। और तो और भाई जी आपकी कम्युनिटी के तो इतने वोट भी नहीं पंजाब और यूपी में जिससे कि आने वाले इलेक्शन्स में माइलेज लेने हेतु मोदी महाशय पर्सनल इंटरेस्ट दिखाएं। बैड लक भाईजान।

फिर भी दिल से उम्मीद है कि जैसे नर सिंह यादव को न्याय मिला, उसी स्तर, तवज्जो और तीव्रता के साथ आपको भी मिले।

विशेष: यह नोट लिखते वक्त मैं बेहद सीरियस हूँ, क्योंकि अगर पीएम मोदी और खेल मंत्रालय सब खिलाडियों को एक समान मानता है और खेलो में जातिवाद की राजनीति नहीं करता तो जाहिर सी बात है भाई इंद्रजीत सैनी को भी "बेनिफिट ऑफ़ डाउट" दे के उनका रियो का रास्ता साफ़ किया जाए।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 1 August 2016

12 साल में तो कुरड़ी के भी भाग बहोड़ आते हैं!

यह एक हरयाणवी कहावत है जिसका मतलब है कि 12 साल में तो निकम्मे से निकम्मे या कहो कि निठ्ठले से निठ्ठले दिखने वाले इंसान की बुद्धि भी चलने लग जाती है अगर वो एक परिवेश स्थिर रहा हो तो, ठीक वैसे ही जैसे एक कुरड़ी (कूड़े का ढेर) भी 10-12 साल या तर्कसंगत काल में हरीभरी हो जाती है यानी उस पर अंकुर फूट आते हैं| वैसे अंकुर और हरियाली तो साल-छह महीने में भी उग आती है, फिर इस कहावत के साथ 12 साल क्यों जोड़ा गया, यह मेरे लिए भी खोज का विषय है|

र यही वह थ्योरी है जिसकी तहत बाबा-साधु लोग इतने सिद्ध बन जाते हैं कि उनकी प्रसिद्धि फैलने लगती है| वजह है इस थ्योरी का ऑब्जरवेशन कांसेप्ट| स्थिरता में बैठे हुए साधु-ध्यानी या आमसमाज के ध्यानी में आसपास के वातावरण व् समाज के माहौल का ज्ञान उसी गहनता व् गहराई से उसमें उतरता है जैसे खेती पर धीमी बूंदाबांदी के तहत पड़ने वाली बूँदें, जो कि पौधे में गहराई तक समाती हैं| इसलिए एक कूड़े के ढेर यानी कुरड़ी की भांति एक जगह जमा साधू का ज्ञान भी उसी तरह उभर के आता है जैसे एक दिन लम्बे समय से एक जगह पड़े उस कूड़े के ढेर पर हरियाली उग आती है|

परन्तु दुविधा यह है कि इनमें से जो सिद्ध बनते हैं वो मात्र 1% होते हैं और जो 99% सिद्धि तक नहीं पहुँच पाते उन पर वो थ्योरी लागू होती है कि "अधूरा ज्ञान, जी-जान का झँझाल, समाज का काल"। और शुरू कर देते हैं अपने अधूरे ज्ञान के साथ समाज को ठगना-लूटना, समाज में वैमनस्यता फैलाना और समाज को छिनभिन्न करना या एक ऐसी दिशा में ले जाना जो यह खुद कभी हासिल ही नहीं किये होते हैं| और ऐसे यह 99% वजह बनते हैं समाज में पाखंड-आडम्बर-ढोंग फैलाने और रचने की|

परन्तु यहां जो काम की बात है वो यह है कि समाज को इनको मोड्डा-पाखंडी-आडम्बरी-ढोंगी बोलने के साथ-साथ निठ्ठला बोलने से पहले इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि "12 साल में तो कुरड़ी के भी भाग बहोड़ आते हैं"| इसलिए अगर यह निठ्ठले बैठे हुए से भी प्रतीत होते हैं तो इनको निठ्ठला मत बोलो क्योंकि उस दौरान इन पर प्रकृति वही कृपा कर रही होती है जो एक कुरड़ी पर कर रही होती है| तो क्या पता इनमें से कोई ऐसा भी हो जो 1% की राह की ओर अग्रसर हो| इसलिए इनको ढोंगी-पाखंडी-आडम्बरी बेशक बोलो परन्तु निठ्ठला-निकम्मा मत बोलो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक