Thursday, 15 September 2016

क्षीरसागर का पूरा कांसेप्ट जाटू-सभ्यता की आदर्श खानपान परम्परा से चुराया गया है!

वो कैसे, वो ऐसे; क्षीरसागर (असल में कोई सागर नहीं, अपितु एक पेय का नाम है) जिन पांच अमृत व्यंजनों से बना/बनाना बताया गया है वो हैं दूध, दही, घी, गुड़ और शहद|

अब कहने की जरूरत नहीं कि यह पाँचों व्यंजन खाने के लिए जाट व् इसकी मित्र जातियों के समूह (जो कि मिलके प्राचीन हरयाणा देश की धरती पर रहते हैं) ही सबसे ज्यादा जाने जाते हैं| और इसीलिए कहावत भी है कि "देशों में देश हरयाणा, जित दूध-दही का खाना|" हरयाणा देश यानी वर्तमान हरयाणा-दिल्ली-वेस्ट यूपी-उत्तरी राजस्थान व् दक्षिणी उत्तराखण्ड का क्षेत्र|

मेरी दादी बताया करती थी, कि हमारे यहां का खाना इतना मशहूर रहा है कि बनारस-पूना तक के बाबे-साधू यह क्षीरसागर छकने हमारी धरती तक उड़े चले आते हैं| परन्तु इनको ज्यादा वक्त अपने यहां रखना लाभकारी नहीं क्योंकि यह इनके इलाकों का मांसाहारी खाना और भांग-धतूरे का नशे का सामान भी साथ उठा लाते हैं|

तो अन्ना-रस्स्कला माइंड इट, यह जो जाटों के खाने को (खासकर चिकन-बीफ-मट्टन-मच्छी कल्चर वाले) कोसते रहते हैं, वो नोट करें कि जाटू-सभ्यता का तो खानपान भी ऐसा बाई-डिफ़ॉल्ट दैवीय है कि इसका गुणगान करने वालों तक को इसे छकने के लिए हरयाणे की धरती पर आ, यहां के घरों के आगे अलख जगानी पड़ती है|

लेकिन दुःख है कि इस खाने को अमृत बताने वाले इतने बेगैरत और साम्प्रदायिक हैं कि चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने थे तो इन्हीं में से बहुतों ने कहा था कि अब एक गुड़-घी खाने वाला देश का शासन चलाएगा|

विशेष: चुराया गया इसलिए कहा क्योंकि इसके लिखने वालों ने इसको बिना रिफरेन्स-क्रेडिट दिए लिखा; ठीक वैसे ही जैसे कोई अनाड़ी शोधकर्ता किसी की थीसिस चुरा ले और क्रेडिट भी ना दे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

धर्मकारी इंसान सिर्फ धर्म पाल सकता है, मानवता नहीं; खाप-चौधरी ना हटें अपने किरदार से दूर!

धर्मकारी, अपने धर्म को श्रेष्ठ बताने और बनाने के चक्कर में मानवता की सीमा लांघते हुए दूसरे धर्म की आलोचनाओं का सहारा लेने तक से नहीं चूकता| ऐसे में समाज का फर्ज बनता है कि वह इन धार्मिक से कभी-कभी धर्मांध बन जाने वाले धर्माधीशों को न्यायधीश बन इनकी सीमा में रहने हेतु याद दिलाता रहे और इनको ‘जियो और जीने दो’ सिखाता रहे|

अभी हाल तक खापें यह कार्य प्रभावशाली तरीके से करती रही हैं| परन्तु ज्यों-ज्यों खापें "सामाजिक न्याय मंच" कम और "पोलिटिकल लॉन्चिंग पैड" ज्यादा बनती जा रही हैं, त्यों-त्यों अपनी गरिमा धूमिल करती जा रही हैं| खाप चौधरियों को अपने टैलेंट के साथ न्याय करना होगा और समझना होगा कि मोहन भागवत, मोदी तो बना सकता है, परन्तु खुद मोदी नहीं बन सकता| कहने का तात्पर्य है कि आप खापों के जरिये समाज के न्यायधीश रहते हुए अगर नेता भी बनना चाहो तो ऐसा करके आप खुद के टैलेंट और ओहदे दोनों से अन्याय करते हैं| फिर भी नेता बनना है तो खाप के पद से इस्तीफा देवें और शुद्ध राजनीति करें, परन्तु कृपया खापों को समाज की ऐतिहासिक एनजीओ के रोल में ही रहने दें|

आदर-मान-सम्मान-चौधर खाप-चौधरी व् नेता दोनों किरदारों में हैं, परन्तु तब-तक जब तक इनको मिक्स नहीं करके, अलग-अलग रखा जाए| दो-दो नाव में खुद ही सवार होने से, अपनी तो टाँगे बीच से चिर जाती ही हैं, साथ ही समाज रुपी नाव भी डूबने लगती है, दिशाहीन हो जाती है| यानि खुद के व् समाज के साथ "ना घर के ना घाट के" वाली होने देने से बचें व् बचाएं|

और इन धर्मान्धता के पिशाचों को काबू में रखने के लिए, अपने पुरखों वाले ऐतिहासिक किरदार में चलें, व् इनकी अति से समाज को ठीक वैसे ही बचाएं जैसे आपके-हमारे पुरखे बचाते थे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Reviving/revamping oneself from nowhere zone to your existence!

Mind is dull/indecisive, heart enjoys testing/consuming your power reserves (heart is over promising and overloading), will power is missing/lost/faded; thus your guts, metal and zests struggle within to reach/find its zenith.

So if you by chance live in such an environment willfully or forcefully and if it is willfully then immediately act to come out of it or if it is forcefully then pray to God to get out of it asap! Asap before you become habitual of it or poured in it to such extent that it becomes your only happiness!

क्योंकि यह वो स्टेज/परिवेश होती/होता है जिसमें आपको अपने ही ऊपर बोझ बना दिया जाता है या बन जाते हैं| और अगर आप ऐसे किसी की परवरिश की वजह से बने हैं तो वही लोग ठहाके लगाते हैं, तंज कसते हैं कि तू पहले खुद को ही ढो ले| इसलिए सबसे पहले उन लोगों को खुद से दूर करो, चाहे कितना ही अकेलापन/मायूसी क्यों ना झेलनी पड़े और फिर जैसे भी हो वैसे ही इस अवस्था से बाहर आने के लिए खुद से लड़ो| बस उनको शिकायत मत करना, जिनकी वजह से ऐसे बने; वर्ना वो तुमको इसी सिचुएशन में बनाये रखने के लिए अपना गेम खेलते रहेंगे और व्यर्थ में तुम्हारी लड़ाई डबल हो जाएगी|

Just be alert about yourself, no need to crush anything inside rather observe and study every energy vibe, its consequences and at last where and which part to send/adjust or fit it within.

Stop testing yourself, just infuse yourself into your ever since dreamt contexts and rest all will get settled accordingly!

Jai Yauddhey! - Phool Kumar Malik

"आप" पार्टी को पंजाब में दिखा सर छोटूराम में उनकी पतवार का खेवनहार!


हम वैसे ही थोड़े सर छोटूराम को मसीहा कहते हैं| हरयाणा-देश यानी वर्तमान हरयाणा-दिल्ली-वेस्ट यूपी-उत्तरी राजस्थान में तो बहुत अलख जगा ही रहे हैं उनके नाम का, साथ ही विदेशों में बसे हरयाणवी-डायस्पोरा (Haryanvi Diaspora) में उनको ले जा रहे हैं और क्यों ले जा रहे हैं; समझिये उसका माद्दा, आप वालों के इस टवीट और उनके मेनिफेस्टो में आये सर छोटूराम के जिक्रे से|

अब आपियों के बहाने ही सही; पंजाब वाले किसान भी यादें ताजा कर लें कि कितना बड़ा महामानव अवतार रहा होगा वो युगपुरुष कि "आप" पार्टी वालों को उनको पंजाब में फिर से उठाना ही उनकी नैया का खेवनहार लग रहा है|

पंजाब चुनावों के मद्देनजर "आप पार्टी" वालों के मेनिफेस्टो में "सर छोटूराम एक्ट" का जिक्र देख के अहसास हुआ कि क्यों जाट की आज ऐसी दुर्गत हो रही है कि बेगाने तो उनके पुरखे के नाम पर चुनाव जीतने की सोचते हैं और खुद जाट अपने पुरखे को ढंग से अपना कहने से भी कतराने वाले हो चले हैं| किसी ने सही कहा है जो कौमें अपने पुरखों और अपने इतिहास को तवज्जो नहीं दे सकती, उनकी ऐसे ही रे-रे माटी हुआ करती है|

जाटों के पास तो महानता-जौहर-विरासत-संस्कृति व् हस्तियों के नाम की इतनी बड़ी धरोहर है कि वो ढंग से इसको ही संजों लें तो दूसरों के मुंह ताकने की जरूरत ही ना पड़े| सच कह रहा हूँ यही अपने पुरखों व् इतिहास को नकारने, "घर की मुर्गी, दाल बराबर" वाली तर्ज पर उनको दरकिनार करने का श्राप है कि जाट आज "जाट बनाम नॉन-जाट" झेल रहा है|

साथ ही हम युनियनिस्टों को यदाकदा एक सेंचुरी पुराने हो चुके उनके अवतार काल व् उनकी पॉलिटिक्स को आज के परिवेश में आउट ऑफ़ कॉन्टेक्स्ट बताने वाले भी देखें कि वो कोई साधारण मानव नहीं, वो साक्षात् बागबान व् भगवान था और भगवान् कभी आउट ऑफ़ कॉन्टेक्स्ट नहीं हुआ करते, वो सदाबहार हुआ करते हैं|
गर्व से कहता हूँ, मेरा राम, सर छोटूराम!

विशेष: मैं आप पार्टी से कोई सम्बन्ध नहीं रखता, यह पोस्ट सिर्फ इसलिए जारी की है ताकि उनके सदाबहार जादू का जलवा आप तक पहुँचाया जा सके|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक





जाट की अनख पे ना बैठे दुनिया, जाट ने आपका कुछ नहीं बिगाड़ा; दिया ही दिया है जाट ने आपको, लिया सिर्फ लेशमात्र!

बात-बात पर जाटों को जमीन की हूल देने वाले मत भूलें कि जाट को जमीन कोई आ के दान नहीं दे गया था या चंदा इकठ्ठा करके नहीं खरीदवा गया था| जमीन कोई दान दिया या जनता के चंदे से बनवाया मंदिर नहीं है कि जो पब्लिक प्रॉपर्टी कहलवाए, जिसपे सामूहिक सम्पत्ति बोल के हर कोई हक़ जताए| माँ कसम, हरयाणा-देश व् पंजाब की जमीन को समतल व् व्यवस्थित करने के लिए जाट पुरखों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी बहुत मरवाई है; तब जाकर ऐसी आँख-टिक जाने वाली सोना उगलने वाली जमीन बनाई है|

वर्ना यूँ खेत के डोलों पे खड़े हो के मालिकाना हक़ मात्र जताने भर से जमीनें हरयाणा-देश और पंजाब जैसी बन जाती तो बिहारी-बंगाली इधर मजदूरी व् अन्य रोजगार करने ना आते| बंगाल-बिहार में हरयाणा-देश व् पंजाब से कोई कम नदियां नहीं बहती, इधर से उधर की धरती पर कोई कम कम पानी नहीं लगता; परन्तु फिर भी वो धरती हरयाणा-देश व् पंजाब जैसी समतल व् व्यवस्थित क्यों नहीं है?:


1) क्योंकि उधर वो वाला फ्यूडलिज्म है जो हरयाणा-देश व् पंजाब पर सर छोटूराम एक सदी पहले निबटा गए थे|
2) क्योंकि उधर आज भी खेती, 'खेती खसम सेती' वाले सिद्धांत पर नहीं अपितु 'खेती मजदूर सेती' के सिद्धांत पर होती है| जहां हरयाणा देश की धरती पर मालिक खुद भी मजदूर बनके, मजदूर के बराबर जमीन पर खटता है; वहीँ बिहार-बंगाल की तरफ आज भी मालिक सिर्फ खेत के डोले यानी किनारे पर छतरी के नीचे खड़ा हो के मजदूर को आदेश दे के काम करवाने में विश्वास रखता है|
3) और यही वजह है कि उधर आज भी "नौकर-मालिक" की संस्कृति चलती है जबकि हरयाणा देश और पंजाब की धरती पर "सीरी-साझी" यानी पार्टनर्स वाली वर्किंग कल्चर चलती है; जो कि इंटरनेशनल स्टैण्डर्ड की संस्कृति है, क्योंकि गूगल जैसी कंपनी भी नौकर यानी एम्प्लोयी नहीं बल्कि साझी यानी पार्टनर्स हायर करती है|
4) हरयाणा देश व् पंजाब की जमीन ऐसी आँख-का-तारा इसलिए बन पाई क्योंकि प्रथम मालिक ने खुद इसपे पसीना बहा के इसको अपने सपनों सा संवारा व् सँवरवाया| जबकि बिहार-बंगाल साइड आज भी वही अव्यवथित सी पड़ी है क्योंकि प्रथम मालिक जमीन पे उतरता नहीं और सेकंड मालिक उतना ही करता है जितना उसको मजदूरी मिलती है या शायद बहुत बार तो बेगारी करनी पड़ती है|
5) एक गज़ब की वजह यही रही कि हरयाणा-देश व् पंजाब की धरती पर ऐतिहासिक तौर पर सबसे कम बेगारी की शिकायतें रही| और वो इसलिए रही क्योंकि यहां का समाज मनुवाद की थ्योरी से नहीं अपितु जाटू-सभ्यता से चला| जिसकी कि दूसरे-तो-दूसरे खुद बहुतेरे मन्दबुद्धि परन्तु पढ़े-लिखे अनपढ़ बने खड़े जाट तक भी सत्यापना करने को सजग नहीं| पता नहीं जाट को इस तरह की सेल्फ- रियलाइजेशन से इतना भय क्यों लगता है? प्रोफेशन के साथ जाट ने यह ऊपर बताई मानवता पाली और यही वजह है कि हरयाणा देश व् पंजाब की धरती पर सिर्फ दलित मिलता है महा-दलित नहीं| बेशक दलित के जाटों के साथ कितने ही झगड़े मिलें, परन्तु अगर कोई माई का लाल दिखा दे दलितों के ऐसे मकान-हवेलियां भारत के किसी और कोने में जैसे हरयाणा देश व् पंजाब की धरती पर मिल जाते हैं तो बेशक कान काट लियो मेरे कि अक क्या कह रहा था रै?


यह तो रही ऐसी वजहें जो वर्तमान में भी चल रही हैं| आएं अब कुछ ऐसी ऐतिहासिक वजहों पर भी नजर डाल लेते हैं जिनकी वजह से साबित होता है कि जाट ने इस जमीन को अपनी माँ बनाने के लिए कैसे-कैसे नहीं मरवाई:
1) अंग्रेजों व् भारतीय राजाओं के इतने भारी-भारी जमीनी टैक्स भी जाट-जमींदारों पे पूरी प्रतिबद्धता से चुकाए, जो कि जमीनों को पट्टे पर बोने-बुवाने वाले सेठ-साहूकार भी चुकाने में हाथ खड़े कर जाते थे और जमीनों को या तो सुन्नी (बेवारसी यानी बिना मालिक की) छोड़ दिया करते थे या जमीन को बोने वाले की बता कर , टैक्स भरने से पल्ला झाड़ जाया करते थे| परन्तु माँ कसम जाटों ने अपने घर-मकान-बैल-संसाधन तक गिरवी रखने के त्याग और तप इस हरयाणा देश व् पंजाब की जमीन के लिए किये हैं, जो आज सबकी यानी जिसको देखो उसकी आँखों का तारा बनी हुई है| इस जमीन को ऐसे ट्रीट कर रहे हैं जैसे सदा से यह जमीन ऐसी ही थी|
2) एक वक्त में यह सिर्फ और सिर्फ हरा-भरा आरण्य यानी जंगल होती थी और जांगला-देश भी कहलाती थी| ऐतिहासिक हरा-भरा आरण्य होने की वजह से ही इसका नाम हरयाणा पड़ा है| डंके की चोट पर कहता हूँ नहीं पड़ा इसका नाम हरयाणा किसी हरि के यहां आने की वजह से, यह पड़ा सिर्फ इसलिए क्योंकि यह हरा-भरा आरण्य था, उस वक्त जंगल था आज जाटों के पुरखों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने हाड-तोड़ पसीने से इसको समतल बना दिया है, परन्तु रखा हरा-भरा ही है| फर्क सिर्फ इतना है कि पहले जब जंगल था तो नजर दो-चार सौ मीटर तक जा कर ठहर जाती थी; अब नजारा यह है कि इसको देख के अंतर्मन स्वत: कह उठता है कि "तेरे चेहरे से नजर नहीं हटती, नजारे हम क्या देखें "|

अत: इन चौतरफा हमलों के बीच भी मैथोलोजिकल व् काल्पनिक चरित्र कुम्भकरण की भांति तुंगभद्रा में पड़े जाट, उठ खड़ा हो ले, वर्ना तेरा ऊत-मटीला उठने वाला है| और वो कैसे वो ऐसे कि मुझे यह सवाल रात को तीन बजे उठा के कंप्यूटर पर लिखने को बैठा देते हैं| मैं ऐसा जता के कोई अहसान नहीं जता रहा हूँ बस सिर्फ अपनी मनोस्थिति का तड़का इस लेख में लगा रहा हूँ| बाबु कहवे बेटे ब्याह करवा ले, नहीं तो घर से निकाल दूंगा, मैं कहूँ बाबु मेरा तो हो लिया इन चिंताओं के साथ ब्याह| क्या हैं यह सवाल,यह चिंताएं:
1) आखिर क्यों पूरे हरयाणा-देश की सिर्फ 55% जमीन जाट के अधिपत्य में होने पर भी, जाट को ऐसे प्रचारित किया जा रहा है कि जैसे हरयाणा तो सारा ही जाटों का है? हाँ, एक बात तो है कि हरयाणा का सबसे उपजाऊ हिस्सा जाटों के पास है, वर्ना तो रेवाड़ी-गुड़गावं के पत्थर आज भी जंगल ही पड़े हैं|
2) आखिर क्यों राजपूत-अहीर-गुज्जर-सैनी जैसी किसानी जातियां होने पर भी सिर्फ और सिर्फ जाट को ही निशाना बनाया जा रहा है? क्योंकि इन निशाना बनाने वालों ने आपके पुरखों का वो इतिहास अच्छे से पढ़ा है, जिसको पढ़ना आप इतना मुश्किल समझते हो जैसे एक बेहद आलसी द्वारा अपने मुंह से मक्खी हटाते हुए भी क्लेश करना| यह जानते हैं कि राजपूत-गुज्जर-सैनी-अहीर को उनकी जमीनों से हटाना इतनी बड़ी तौब नहीं; परन्तु जाट को हटाना है|
3) क्योंकि आपने "सीरी-साझी" का वो वर्किंग कल्चर अपने यहां पाला, जो कि मनुवाद की "नौकर-मालिक" संस्कृति में कतई फिट नहीं बैठता| बल्कि आँख में कंकर की भांति रड़कता है|
4) क्योंकि आप इन चीजों के प्रचार बारे, दलित-पिछड़े को वर्कशॉप्स-सेमिनार्स के जरिये यह दिखाने बारे कभी सीरियस ही नहीं हुए कि यह देखें कैसे जाट ने जमीन के साथ-साथ मानवता पाली|
5) क्योंकि आपको "मनुवाद" से प्यार हो गया है; उस मनुवाद से जिसको सर छोटूराम जड़ समेत उखाड़ गए थे| उनके जाने के बाद आप तो खरपतवार की भांति उस जड़ समेत उखाड़े "मनुवाद" को खेत की डोल से उठा के आगभर तक नहीं लगा पाए और इस बीच उस उखड़े हुए ने वहीँ-की-वहीँ पड़े-पड़े फिर से जड़ें पकड़ ली|
6) क्योंकि आपने आगन्तुकों की संस्कृति व् तीज-त्यौहार अपनाने से पहले उन पर ऐसी कोई कंडीशन ही नहीं लगाई कि हम आपके मनाएंगे और आप हमारे मनाओ| इसी का तो नतीजा है कि आपने "करवा-चौथ", "नवरात्रे", छट-पूजा", "दुर्गा-पूजा", "वैष्णों-देवी", "धनतेरस" जैसे अनगिनत उनके त्यौहार अपने यहां इम्पोर्ट तो कर लिए, परन्तु वह आपका "तीज" और "बसन्त-पंचमी यानि सर छोटूराम जयंती" भी ढंग से मनाते हुए रोते हैं|

अब बात-बात और हर मौके पे इत-उत जाटों की जमीन-सम्पदा-संसाधन पर गीदड़ों/गिद्धों सी दृष्टि ज़माने वाले और बात-बात पर जमीनों के मालिक होने का तंज देने वाले सुनें और जाट भी इन तथ्यों को पढ़ कर आगे बढ़ाने हेतु सोचें:
1) कुछ तो हस्ती है जाट तेरी, वर्ना यूँ ही नहीं कोई "जाट बनाम नॉन-जाट" सजा दिया करते हैं| सोच कि यह जाट बनाम नॉन-जाट ही क्यों हुआ, ब्राह्मण बनाम नॉन-ब्राह्मण, बनिया बनाम नॉन-बनिया, राजपूत-बनाम नॉन-राजपूत या सैनी बनाम नॉन-सैनी या और कितनी जातियां हैं उनमें से किसी एक के बनाम बाकियों के क्यों ना हुआ?
2) बहुत आएंगे तुझे इस सवाल के जवाब में हतोत्साहित (डिमोटिवेट) से करने वाले उत्तर तेरे मुंह पर चिपकाने वाले जो कहेंगे कि:
2.1. तेरा दबंग रवैया इसकी वजह रहा| ऐसों को उत्तर देना और पूछना कि क्या मन्दिरों में दलित-ओबीसी की बेटियों को देवदासी बना के बैठाने वालों से भी दबंग हैं जाट? क्या विधवाओं को विधवा होते ही उनके पति की सम्पत्ति पर सुख से जीवन काटने देने की बजाये उनको उससे बेदखल कर विधवा आश्रमों में सड़वाने वालों से भी दबंग हैं जाट?
2.2. तेरा अखड़पन इसकी वजह रहा| ऐसों को उत्तर देना और पूछना कि क्या किसी अडानी-अम्बानी-कॉरपोरेट से भी दबंग हो गया जाट; जो कि जाट जैसी तमाम किसानी जातियों की जमीन अधिग्रहित करते वक्त मार्किट रेट भी नहीं देते? या जाट कोई रिलायंस वाला जियो हो गया कि जिसकी ऐडवर्टाइजमेंट खुद देश का पीएम करता है?
2.3. तेरा दलितों से जातीय-उच्चता वाला द्वेष इसकी वजह रहा| ऐसों को उत्तर देना और पूछना कि क्या जातिवाद और वर्णवाद घड़ने वालों से भी ज्यादा द्वेष कर दिया जाट ने? जाट-बाहुल्य इलाकों में तो फिर भी सिर्फ दलित है, जो इस वर्ण-जाति के रचयिताओं का इलाका है वहाँ तो महादलित से ले के पता नहीं और कौनसी-कौनसी राक्षस नाम की असुर जातियों में दलितों का वर्गीकरण किया हुआ है| क्या यहाँ का दलित जाट ने इतना सता दिया कि वो नक्सली बन गया? ……….. इस बिंदु पर यह तो थी जाट को डिफेंड करने की बात, परन्तु साथ ही यह भी कह दूँ कि “जाट सुधर जा”, तेरा डीएनए दलित से वास्तविकता में इतना भी नफरतवादी नहीं है जितना कि तू "कव्वा चला हंस की चाल, अपनी ही चाल भूल बैठा" की लाइन पे चल के कई बार दलित के साथ इस मनुवाद को पालने के चक्कर में कर जाता है| यह वर्णवाद व् जातिवाद के ढोंग-पाखंड-आडम्बर करने जब तेरे डीएनए में ही नहीं तो मत नकल करने की कोशिश किया कर| सच कहूँ तो यही तेरा कमजोर बिंदु है जिसकी वजह से तू सॉफ्ट-टारगेट बनता है, इसको छोड़ के सर छोटूराम की भांति उखाड़ दे इस जाति व् वर्णवाद की जड़ों को और अबकी बार इसको आग लगाना मत भूलना|
3) जाटों के लिए सबसे सुकून की बात यह है कि जाटों व् जाटों के पुरखों ने जमीन अपने-खून पसीने से समतल बनाई है| इस पर मजदूर तो बहुत बाद में आ के काम करने लगे| मजदूर जब जाट के साथ मिलके जमीन को समतल करने पे काम कर रहे होते और जमीन ज्यादा पथरीली होती तो बीच में काम छोड़कर भाग जाया करते थे; परन्तु जाट के पुरखे पीछे नहीं हटे| इसलिए कहा गया है कि जाट वो है जो धरती को भी पलट दे; जाट की अस्मत को ललकारने हेतु उतारू हुए पड़े लोग, समझें यह वास्तविकता|
4) दूसरी बड़ी सुकून की बात यह है कि जमीन कोई दान में मिला/बना मन्दिर नहीं है कि हर कोई मुंह उठा के "प्राकृतिक सम्पदा" का बहाना बना के अधिकार जमाने चला आये| इस जमीन को अपनी बनाये रखने हेतु अपने खून-पसीने के साथ-साथ जाट ने लगातार टैक्स भी भरे हैं यानी लगान चुकाए हैं| इसलिए यूँ ही थोड़े कोई ऐरा- गैरा नत्थू-खैरा ख्याली ख्वाबों की दुल्हन को क्लेम करने की भांति आ के जमीन क्लेम कर लेगा या ऐसे अहसान जता देगा जैसे जमीन खैरात में बाँट के गया हो|

निचोड़ की बात: फिर भी किसी को प्राकृतिक सम्पदाओं का हवाला देते हुए यह ठहाके लगाने ही हैं तो यही ठहाके पहले आपके ही दिए दान-चन्दे से बने कृत्रिम धर्म व् सार्वजनिक स्थलों की आमदनी में अपना हक़ जताने हेतु लगा के दिखाओ और उनकी आमदनी का हिस्सा ले के भी दिखाओ| क्योंकि जमीनों के मालिकों के पास तो इसके सबूत भी हैं कि वो सिर्फ और सिर्फ उनके खून-पसीने की कमाई से कमाई गई हैं; इन कृत्रिम सार्वजनिक स्थल बना के उनके जरिये आपसे दान-चन्दा उगाहने वालों का तो ऐसा भी कोई रिकॉर्ड नहीं कि उन्होंने पूरी नियत से टैक्स भरे हों या उस सबके दिए दान-चन्दे को आपसे बराबर का बाँटा हो| जबकि जाट के तो फसल घर में बाद में पड़ती थी, उससे पहले खलिहान से ही बाल काटने वाले का हिस्सा अलग, कृषि औजार बनाने वाले का अलग, लकड़ी के औजार बनाने वाले का अलग, गाने-बजाने वाले डूम का अलग, मिटटी के बर्तन बनाने वाले का अलग, धर्म-कर्म के नाम पर मांग के खाने वालों का अलग और तब कहीं जा के बचा-खुचा जाट अपने घर ले जाता आया है|और इसी बचे खुचे से जाट को अपने घर भी चलाने होते थे और सरकारों-राजाओं के टैक्स यानि लगान भी भरने होते थे| जाट ने कभी नहीं मुड़ के बाल काटने वाले, औजार बनाने वाले, मिटटी के बर्तन बनाने वाले से, गाने-बजाने वाले से, धर्म-कर्म के नाम पर ले जाने वाले से गुहार लगाई कि भाई लगान या कर्ज चुकाने में कम पड़ रहा है थोड़ा वापिस दे दो या मदद कर दो| इसलिए जाट ने तो अपनी कष्ट-कमाई से भी सबको बराबर का बाँट के खिलाया है, तो जाट पर यह दाड़-पिसाई किस बात की? पीसनी है तो उनपर पीसो जिन्होनें आजतक इतने दान-चंदे डकारे, परन्तु कभी ना तो उसके हिसाब दिए और ना ही उसको आपकी आबादी के अनुपात में बंटवाया|

विशेष: लेखक सम्पूर्णतः जातिवाद व् वर्णवाद के दम्भ से रहित इंसान है| इस लेख को जाट पर केंद्रित करके इसलिए लिखना पड़ा क्योंकि इसका शीर्षक ही इस प्रकार का था| वरना लेखक हर जाति-धर्म-सम्प्रदाय के इंसान का बराबरी का आदर-सम्मान करता है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

दो विषम मान्यताओं का मिश्रण बनाया गया था "सत्यार्थ-प्रकाश"!

दयानंद ऋषि ने सत्यार्थ प्रकाश में एक बहुत बड़ी चालाकी खेली थी|

1) एक तरफ तो जाटू-सभ्यता की मान्यताओं को डॉक्यूमेंट किया, जैसे कि जाटों की "मूर्तिपूजा विरोधी" मान्यता को प्रमुख आधार बनाया| परन्तु दूसरी तरफ उसी में पुराण-ग्रन्थ इत्यादि की "मूर्ती-पूजा" को मानने वाली माइथोलॉजी भी घुसा दी|
2) एक तरफ जाटू-सभ्यता की एक गौत से बाहर ब्याह व् माता-पिता की उपस्थिति के बिना प्रेम-विवाह तक नहीं करने की कही, परन्तु दूसरी तरफ हर आर्यसमाजी मन्दिर बिना माता-पिता की उपस्थिति के मनुवादी परम्परा वाले प्रेम-विवाही फेरे पढ़ देते हैं|
3) सत्यार्थ प्रकाश में जाट को "जाट जी" व् "जाट-देवता" कह के जाट की स्तुति करी, परन्तु दूसरी तरफ उसी स्तुति की आड़ में जाट को चुपके से मनुवादी चतुर-वर्णव्यवस्था भी इसी पुस्तक के जरिये चिपका दी|

और जाटों ने देखो इससे क्या सीखा?
1) मूर्तिपूजा के विरोधी से मूर्तिपूजा करने लगे| क्या आर्य-समाज का अंत उद्देश्य जाट को मूर्तिपूजा विरोधी से मूर्तिपूजा प्रेमी बनाना तो नहीं था? यदि नहीं था तो क्या वजह है कि जाट मूर्तिपूजा में घुसता चला जा रहा है?
2) आर्यसमाज मन्दिरों की मनमानी पर सत्यार्थ प्रकाश का हवाला देते हुए भी रोक लगवाने हेतु जाट कोई कदम नहीं उठा पाए?
3) "जाट-देवता" और "जाट-जी" के चरित्र को छोड़कर शुद्ध मनुवादी व्यवस्था में रमते चले गए और इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि मनुवादी ही दलितों-गरीबों पर जाटों द्वारा मनुवादी रवैया अपनाने पर मीडिया में इनकी सबसे ज्यादा बैंड बजाते हैं| यानि जाट मनुवाद को आगे बढ़ा रहे हैं परन्तु फिर भी जाट को दलित का दुश्मन दिखाने हेतु, मनुवादी ही जाट के जुल्म को "सत्यार्थ-प्रकाश" के जरिये जाट में घुसेड़ी मनुवादी मानसिकता का परिणाम बताने की बजाये इसको जाट की मानसिकता बता के उछालते हैं|
तो ऐसे में हल क्या हो?


ऋषि दयानंद को जाटू-सभ्यता की शुद्ध मान्यताओं को डॉक्यूमेंट करने हेतु धन्यवाद देते हुए, इस मिश्रण को अलग-अलग करना चाहिए| सत्यार्थ-प्रकाश में जो जाटों के यहां से लिया गया था उसको ले के आगे बढ़ें और जो मनुवादियों का इसमें मिश्रित कर दिया गया था, वो मनुवादियों को वापिस लौटा देवें| और ऐसा करना इसलिए अत्यंत आवश्यक है क्योंकि जाट को इस लेख के "और जाटों ने देखो इससे क्या सीखा?" भाग के बिंदु 3 से अपने आपको सॉफ्ट-टारगेट होने से बचाना है|

जब दयानंद ऋषि ने जाटू-सभ्यता के यह पहलु डॉक्यूमेंट किये, उससे पहले जाटों के यहां एकछत्र "खाप-परम्परा" की "यौद्धेय-सभ्यता" चलती थी; जिसमें वर्ण व् जातिवाद का कोई स्थान नहीं था| इसीलिए तो खाप इतिहास दलित-ओबीसी-जाट-गुज्जर-यादव-राजपूत-मुस्लिम-सिख चाहे किसी भी समुदाय का सूरमा यौद्धेय/यौद्धेया रहा/रही हो; बिना लाग-लपेट के बराबरी से लिखा और गाया है| मनुवाद व् आरएसएस की तरह थोड़े ही होता था खाप-परम्परा में कि सिर्फ 2-3 जाती-समुदाय के हीरो लोगों को ही गाएंगे, उन्हीं की जयंती व् मरण दिवस मनाएंगे|

इसलिए आर्य-समाज को इतने तक लाभकारी-अलाभकारी जैसा भी साथ देने हेतु धन्यवाद देते हुए, आगे बढ़ें और शुद्ध खाप-परम्परा के जातिवाद और वर्णवाद रहित "खापदवारे" (गुरुद्वारों की तर्ज पर) बनाने हेतु जाट व् साथी कौमें अग्रसर होवें| अन्यथा मनुवाद तो आपको तब तक छोड़ेगा नहीं जब तक आपको वास्तव के चांडाल, अछूत व् अस्पृश्य नहीं बना देंगे| अभी आज जो हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट के जरिये चल रहा है यह तो आपको आर्थिक आधार से कंगाल व् संसाधन रहित बनाने के उस प्लान का हिस्सा मात्र है जिसकी आखिरी मंजिल आपको चांडाल, अछूत व् अस्पृश्य बनाना है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जेनयू में बापसा की जीत से हरयाणा के उन कम्युनिस्टों को अपनी आँखें जरूर खोलनी चाहियें!

जो बंगाल-बिहार की मनुवादी सोच वाला कम्युनिज्म हरयाणा में चलाने की नाकाम कोशिश करते रहे हैं और बाल्टियों में चून मांगने तक की पहचान बनाने से ज्यादा कुछ नहीं कर पाए|

मनुवादी चाशनी में डूबा लेफ्ट आपको जो दिखाता आ रहा है उसको तो सर छोटूराम एक शताब्दी पहले ही उखाड़ के जा चुके| आखिर क्यों नहीं लेफ्ट के आकाओं ने कभी सर छोटूराम की लिगेसी को उठाने दिया, क्योंकि सर छोटूराम जाट थे| और उनकी आइडियोलॉजी का मूल ही मनुवाद की जड़ों पे चोट करना था, जो भारतीय लेफ्ट विंग पर कब्ज़ा जमाये मनुवादी कभी होने नहीं देना चाहते थे|

समय रहते पुनर्विचार कीजिये अपनी स्ट्रेटेजी पर, वर्ना अभी तो लेफ्ट आइडियोलॉजी की स्टूडेंट विंग में "बापसा" बना है, आने वाले वक्त में पोलिटिकल विंग में भी बनेगा|

इसीलिए मैं मनुवादी-लेफ्ट नहीं, छोटूरामवादी हूँ; मैं कम्युनिस्ट नहीं, यूनियनिस्ट हूँ|

हरयाणा से फ्यूडलिज्म का खात्मा बरकरार रखना है तो सर छोटूराम को उठाये रखना ही होगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

HPSC की जनरल केटेगरी में 50% सिलेक्शन होने पर भी जाट जनसँख्या के अनुपात से 12% कम सिलेक्शन!

हरयाणा में General Category नौकरी हैं 53% (20% SC/ST + 27% OBC),


जाटों की जनसँख्या 33% (Jat, Jatt, Jutt),


33% कुल जनरल के 53% का हुआ 62%?

फिर भी राजकुमार सैनी किलकी मार रहा है कि हरयाणा HPSC की जनरल केटेगरी में 50% जाटों का सिलेक्शन हुआ है? जनाब यह तो जाटों की जनसख्या के अनुपात से 12% कम हुआ?

जाटों को इस सच्चाई से अपनी कौम को अवगत करवाना चाहिए, ताकि कहीं कौम किसी बहम में ना बैठ जाए| अवगत करवाना चाहिए कि 50% के बावजूद भी जाटों की जनसँख्या के बराबर सिलेक्शन तो अब भी नहीं हुआ, फिर भी 12% कम रह गया है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

मुस्लिम तुम्हें मार देंगे, मुस्लिम तुम्हें खा जाएंगे, मुस्लिम तुम्हें दबा देंगे ...

आखिर कौन हैं यह लोग, जो आपको मुस्लिमों का भय दिखाते हैं?

1) यह उन्हीं लोगों के वंशज हैं जिनके पुरखों ने मुस्लिमों के दरबारों में मंत्री-सन्तरी बनके गुलामीकाल में भी खूब मलाइयां खाई|  

2) कल को एक पल के लिए मुस्लिमों ने हमला कर भी दिया तो यह वही लोग हैं जो सबसे पहले आपके पीछे आ के छुपेंगे|

3) यह वही लोग हैं जिनको भय खुद लगता है परन्तु उस भय को "राष्ट्रवाद" का नाम देकर आप पर थोंप देते हैं| और आप बनके अंधभक्त, उठा के इनके झंडे गलियों-चौराहों में गले फाड़ते फिरते हैं और यह चैन से अपने घरों में बैठ के आपकी मूर्खता पर हंस रहे होते हैं|
4) यह वही लोग हैं जिनके पुरखों का मुस्लिम भय आपके पुरखों ने निकाला| जो इतिहास जानता है वो बखूबी जानता है कि कौनसा भय और कैसे निकाला|
5) नहीं कुरान ऐसा कहता कि जो मुस्लिम ना हो उसको जीने का हक नहीं; अरे तो ऐसा तो आपकी रामायण और मनुस्मृति भी कहती है कि दलित-ओबीसी को शास्त्रार्थ करने का कोई हक़ नहीं? वो ऐसा करता है तो उसकी जिह्वा कटवा दो, कानों में खोलता हुआ तेल-मोम डलवा दो| महर्षि सम्भूक को राम द्वारा सिर्फ शास्त्रार्थ करने के जुर्म में इन द्वारा मरवाये जाने का सबसे बड़ा उदाहरण आपके सामने है; तो इनका कितना पुन्जड उखाड़ लिया आपने आजतक?


अन्तोत्गत्वा इनके इंजेक्ट किये इस ख्याली भय को तिलांजलि दे दो, सब ठीक हो जायेगा| अपने पुरखों के गौरवशाली जौहरों को याद करो, जब उनको कोई नहीं डरा पाया तो आप क्यों डर रहे हो? वैसे भी ऐसे भय की वो चिंता करे जो समर्थ ना हो, आप समर्थ होते हुए भी इनके भय में पड़ के भयभीत होने का स्वांग करते अच्छे नहीं लगते|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

वक्त का तकाजा है कि जाट को फ़िलहाल आंतरिक भाईचारे पर ध्यान देना चाहिए!

"भाईचारा" नाम की क़्वालिटी ने जाटों के बाकी सारे गुण ऐसे ढाँप दिए हैं जैसे माइथोलोजी की पुस्तक रामायण के चरित्र हनुमान को अपने "भक्ति" के गुण की अति के कारण बाकी सब गुणों और ताकतों की भूल पड़ गई थी| जाटों को इस वक्त चाहिए काल्पनिक चरित्र जाम्बवन्त जैसा वास्तविक किरदार; वास्तिक कैसा जो सर छोटूराम की आइडियोलॉजी का जाटों में वापिस संचार कर सके|

अति हर चीज की बुरी होती है, फिर वो भाईचारा हो या भक्ति| बैलेंस बना के रखना जरूरी होता है| भाईचारा चाहिए परन्तु बाहरी भाईचारे से पहले भीतरी भाईचारे को वापिस लाना होगा| और वैसे भी जब तक आर. के. सैनी, अश्वनी चोपड़ा, मनीष ग्रोवर आदि जैसे बाहरी भाईचारे की खुद ही धज्जियाँ उड़ाते फिर रहे हैं तो वक्त की पुकार है कि जाट अपने यहां के भीतरी भाईचारे पर ध्यान देवे| इनसे भाईचारा संभालने की अति हो चुकी है, जाट जितना कर सकता था कर चुका है; अब अपने भीतरी की ओर लौटना चाहिए| हो सकता है तब तक इनको भी अक्ल लग जाए और यह वापिस लौट आएं|

अति हर चीज की बुरी होती है, "भक्ति" की अति अंधभक्त बना देती है तो बाह्य भाईचारे की अति आपको सॉफ्ट-टारगेट बना देती है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

आओ समझें कि अंधभक्त असल में है क्या!

हमारे देश में राष्ट्रभक्ति और अंधभक्ति के नाम पर एक अजीब ड्रामा चल रहा है; ऐसे लोग आ के वो भी उनको माइनॉरिटी का भय दिखाते हैं जिनके पुरखों ने इन भय दिखाने वालों के भय दूर करे थे| और ताज्जुब की बात है कि भय निकालने वालों के सपूत इनके डरावे के झांसे में आ भी रहे हैं|

मैं एक जाट हूँ, मुझे किसी दूसरे धर्म वाला डरा सकता है क्या? परन्तु बहुत से तो जाट भी इनकी बातों में आ के डर का स्वांग कर रहे हैं| और इसी स्वांग की कीमत है जो जाटों ने फरवरी जाट आंदोलन पर हुए गोलीकांड के माध्यम से चुकाई|

मत स्वांग करो और मत भूलो कि यह जो तुम्हें माइनॉरिटी का भय दिखाते हैं, अगर बाई-चांस एक पल को माइनॉरिटी ने अटैक भी कर दिया तो कल को सबसे पहले तुम्हारे पीछे आ के यही छुपेंगे|

मेरी दादी एक किस्सा सुनाती थी कि एक बार दो जाट और एक बनिया, काली-घनी-बरसाती-अँधेरी रात में एक गाँव से दूसरे गाँव कच्चे रास्तों से पैदल जा रहे थे| जाट का कदम लम्बा होता है तो थोड़ी ही देर में दोनों जाट बनिए से काफी आगे निकल गए| बनिए को डर लगा तो सोचा इनको सच्चाई बताऊंगा कि मुझे डर लग रहा है तो यह मेरी हंसी उड़ाएंगे, तो बनिए ने आवाज लगाई, "आ भाई चौधरियो, दिखे तुम में से किसी को भय लगता हो तो एक मेरे आगे हो लो और एक मेरे पीछे!" जाट समझ गए कि भाई को भय लग रहा है, तीनों मित्र थे तो जाट बोले कि भाई तुझे भय लग रहा है तो साफ़ बोल ना; आ जा हमारे बीच|

तो यह माइनॉरिटी तुम्हें खा जाएगी, मार देगी का असल भय लगता तो इनको है, परन्तु ऊपर दादी के बताये किस्से वाले स्टाइल में "राष्ट्रवाद का नाम दे के" यह इसको ट्रांसफर कर देते हैं औरों पे| और इन औरों की जोरों पे चल रही एक केटेगरी का नाम है "अंधभक्त"। यह बावली-बूच भ्रम में टूल रहे होते हैं कि हम राष्ट्रहित में काम कर रहे हैं, जबकि यह सिर्फ भय दिखाने वालों का भय ढो रहे होते हैं|

और यही है इनकी आपको "लुगाई किसी की, उठाई किसी ने, पूंछ जलवाई किसी ने" स्टाइल वाली बेकार की जिम्मेदारियों में उलझा के खुद निष्कण्टक मौज मारते रहने की नीति|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

सर छोटूराम जी ने दिया था ताऊ देवीलाल को उनकी लिगेसी संभालने का अवसर, परन्तु उस वक्त ताऊ इसको भांपने से चूक गए!

अगस्त, 1944 में सर छोटूराम व् अलखपुरा से चौधरी लाजपत राय, चौटाला गाँव में ताऊ देवीलाल और उनके बड़े भाई साहिबरामजी को कांग्रेस छोड़ उनकी यूनियनिस्ट पार्टी उर्फ़ जमींदारा लीग में शामिल करने पहुंचे थे; परन्तु ताऊ ने सादर इंकार कर दिया था|

सर छोटूराम जो बात ताऊ जी को 1944 में समझाना चाह रहे थे, वो समझते-समझते ताऊ जी को 1971 आ गया, जब उन्होंने कांग्रेस छोड़ी|

शायद विधाता ही नहीं चाहता था, वर्ना अगर ताऊ ने सर छोटूराम जी की समय रहते सुन ली होती तो क्या पता यूनियनिस्ट पार्टी उर्फ़ जमींदारा लीग को इसका उत्तराधिकारी आसानी से प्राप्त हो जाता| और जो कार्य सर छोटूराम के जाने के बाद अधूरे छूट गए व् खासकर यूनाइटेड पंजाब और देश के टुकड़े हो गए, यह भी ना हुए होते|

हालाँकि कांग्रेस से अलग होने के बाद ताऊ जी ने किसानों-दलितों के लिए बहुत सारे कार्य किये, लुटेरों को ताक पर रखते हुए कमेरों के लिए बहुत सारे कानून व् योजनाएं बनवाई और देश के राष्ट्रीय ताऊ कहलाये|

जय यौधेय! - फूल मलिक

Tuesday, 6 September 2016

मुझे यह जाति और वर्ण की बातें करना कब से आ गया?

LKG से 3rd standard तक डेस्क मिले, फिर चौथी से सातवीं तक तप्पड़ पर बैठते थे| आठवीं में जा के फिर डेस्क मिले| एक डेस्क पे तीन बैठते थे| आठवीं-नौवीं-दसवीं तीनों क्लासों में, मैं एक जाट, एक दोस्त सुनार, दूसरा दोस्त चमार हम तीनों तीन साल एक डेस्क पर बैठे| कितनी ही बार ना सिर्फ इन दोनों के घर बल्कि कभी बनिए दोस्तों के घर, कभी अरोड़ा/खत्री दोस्तों के घर, कभी ब्राह्मण दोस्तों के घर, आंटीज ने बड़े प्यार से खाने खिलाये; कभी यह नहीं सोचा कि मैं ऊँची जाति के यहां खा रहा हूँ या नीची जाति के यहां; कभी अहसास ही नहीं हुआ कि सवर्ण-दलित, एससी/एसटी/ओबीसी, छूत-अछूत, ऊंच-नीच, गरीब-पिछड़ा क्या होता है|

यहां तक कि मेरे घर में काम करने वाले सीरियों (हरयाणा से बाहर वालों की भाषा में नौकर, हमारी हरयाणवी संस्कृति में नौकर को पार्टनर यानि सीरी बोलते हैं, you know the working culture of google, उन्होंने हमारे यहां से ही adopt किया है) जो कि अक्सर दलित जातियां जैसे कि धानक-चमार-हेड़ी (कश्यप राजपूत) व् इनके अलावा रोड़ आदि होते थे और आज भी हैं; उनके घरों में जा-जा के भी खूब खाने खाये| घर-कारोबार के औजार कभी खातियों के यहां तो कभी मुस्लिम लुहारों के यहां, मिटटी के बर्तन कभी मुस्लिम कुम्हारों के यहां, गाँव में बड़ी ही आदरणीय डूमणी (मिरासन) दादी सुरजे की माँ होती थी, उनके यहां बनने वाली सिलबट्टे की चटनी का स्वाद तो जैसे आज भी जिह्वा पे धरा है; सब कुछ तो इतना विहंगम, मनमोहक, बलिहारी होता था|

परन्तु जब से मोदी ने पीएम कैंडिडेट के भाषण देने शुरू किये, जैसे सब कुछ ढकता सा चला गया| मित्रों मैं पिछड़ा हूँ, मैं चाय बेच के बड़ा हुआ हूँ, मित्रों मैं वंचित वर्ग से आता हूँ; कान पका डाले और जातिवाद और वर्णवाद के जहर का प्र्थमया शरीर में संचार सा होता दिखा| फिर लगा कि अपनी लाचारी और गरीबी बता रहा है, कोई बात नहीं|

पर फिर आये यह हरयाणा की सत्ता में| पिछले दो साल से बीजेपी और आरएसएस ने ऐसा जाट बनाम नॉन-जाट और 35 बनाम 1 चलाया; कि यह भी अहसास हो गया कि मैं जाट भी हूँ, जाट| भाई हुआ होगा आपका आर्थिक या किसी और तरीके का "सबका साथ, सबका विकास" वाला विकास, मेरा तो सिर्फ इतना विकास हुआ कि मोदी-बीजेपी-आरएसएस ने मिलके ठीक वैसे ही मेरी सोई हुई आइडेंटिटी "जाट" को ठीक उसी तरीके से याद दिला दिया, जैसे माइथोलॉजी की पुस्तक यानि काल्पनिक शक्ति से लिखी गई रचना रामायण के चरित्र जाम्बवन्त, हनुमान को समुन्दर पार करने के वक्त उनको उनकी सोई हुई शक्तियों बारे बताते हैं|

मुझे ज्यादा पता नहीं है कि मुझे इस मेरी "जाट" आइडेंटिटी के साथ क्या करना है, परन्तु फिर भी कोशिश यही कर रहा हूँ कि अपने उसी स्टाइल में मगन रहूँ, जैसे इन जातिवाद और वर्णवाद से ग्रसित मानसकिता वालों की सरकार आने से पहले रहता था|

और मित्रो रहना भी इसी तरीके से, इन मोदी-बीजेपी-आरएसएस के आपको आइसोलेट करने के मनसूबों को मत कामयाब होने देना| फिर भले ही इस नए बदले परिवेश में बेशक कोई राजकुमार सैनी आपको रावण बोले, भले कोई अश्वनी अरोड़ा आपके खिलाफ 35 बिरादरी को लामबंद करता फिरे, भले कोई मोदी आप पर दूसरा जलियावालां काण्ड (फरवरी माह का जाटों पे हुआ गोलीकांड) करवाये, भले कोई खट्टर हरयाणवियों को कन्धे से नीचे मजबूत और ऊपर कमजोर बताये (वैसे यह खट्टर महाशय ने हरयाणवियों की कन्धे से नीचे की मजबूती का टेस्ट कब किया, नामालूम)।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक