Saturday, 1 October 2016

नवरात्रों के चक्कर में, मैं क्यों गिरूँ अपनी 'जाट-देवता' की उपाधि से?

वो कहते हैं नवरात्रे मनाओ, मैं मना तो लूँ पर उस उपाधि को कैसे छोड़ दूँ जो खुद ब्राह्मण ने मुझे दी है| ब्राह्मण मुझे कहीं "जाट देवता" लिखता है कहीं "जाट जी" तो मैं इस श्रेणी से कैसे गिरा लूँ अपने-आपको? एक देवता होते हुए एक देवी को कैसे पूजूँ? यह तो वही बात हो गई कि मैं अपने ऑफिस की कलीग यानी सहकर्मी महिला को बॉस कहूँ? यह कैसे सम्भव है?

निसन्देह, लोगों की भावना का आदर-मान करते हैं परन्तु माफ़ करना दोस्तों नवरात्रे मेरी संस्कृति नहीं|

मेरी तो पड़दादी ने मनाये ना, दादी ने मनाये ना और ना माँ ने मनाये ना आज के दिन मेरे घर की बहुएं यानी मेरी भाभी और बौड़िया मनाती; आप मनाओ आपको सपोर्ट करते हैं, परन्तु सविनय बता देता हूँ यह 'जाट-देवता' की मान्यता नहीं| बताओ मैं एक जाट जो खुद देवता कहलाता हूँ, वो एक देवी को किसलिए पूजेगा? जाट तो पहले से ही देवता श्रेणी में काउंट होते हैं तो मैं क्यों गिरूँ अपनी श्रेणी से?

सीधा सिंपल वास्तविकता पर आधारित म्हारा "दादा खेड़ा" बना रहो बस वही बहुत है, मेरा आध्यात्म उससे ही सन्तुष्ट है|

सर्वखाप पंचायतें, डंके की चोट पर और आज भी बहुत रेसोलुशन निकालती हैं व्यर्थ खर्ची के आडम्बरों के खिलाफ| लेटेस्ट महापंचायत अभी हांसी में हो के हटी है, इन्हीं मसलों पर| राजनीति के चक्कर में अगर कोई खाप-पंचायती इनमें जा धंसा है तो उनसे सविनय निवेदन है कि आपको नवरात्रे मनाने के लिए खाप का नाम प्रयोग करने की जरूरत नहीं| वैसे भी खाप के नाम से सामाजिक वोट मिलते आये हैं, राजनैतिक वोट नहीं; सो इस नाम को अपनी बधाइयों में ना खींच के खाप पम्परा भी निभाएं और जनता की भावनाओं का आदर-मान रखने की राजनैतिक जरूरत भी निभा लें|

एक और पहलु है जो आर्य-समाजी परिवार हैं, वो तो पहले से ही मूर्ती-पूजा से दूर होंगे? आखिर इनसे दूर रहते थे, इतने सभ्य ज्ञानी थे तभी तो ऋषि दयानंद जैसे बाह्मण ने 'सत्यार्थ प्रकाश' में 'जाट-देवता' व् 'जाट जी' कह के गुणगान किया था| वही ऊपर लिखी बात, मैं क्यों गिरूँ अपनी 'जाट-देवता' की उपाधि से| या तो घर में ऋषि दयानंद की फोटो टांग लो, या इनकी, या दो नावों में एक साथ सवार होवोगे? कोई राजनीति, कोई मान्यता आपको इतना मजबूर नहीं कर सकती कि आप अध्यात्म तौर पर भी दो नावों में एक साथ सवार होवो| अगर ऐसा करना पड़ रहा है तो निसन्देह आप भर्मित प्रवृति के हैं और आपकी मानसिकता अनिश्चित है सुनिश्चित नहीं|

फिर भी फैसला आपका, परन्तु मैं निर्धारति हूँ; ना मेरी सर्वखाप इसकी इजाजत देती, ना मेरे परिवार-पुरखों के सिद्धांत, ना आर्य-समाज, ना मेरा मूर्ती पूजा रहित दादा खेड़ा और इन सबसे बड़ी बात ना मेरी "जाट देवता" और "जाट जी" की छवि; सो मैं नवरात्रे मानने-मनाने वालों को बधाई देते हुए, परन्तु साथ ही अपनी छवि बरकरार रखने हेतु, इनसे तथष्ट रहने की राह पर चलता हूँ| और आशा करता हूँ कि देश-समाज-मीडिया-ब्राह्मण भी मेरे इस फैलसे का सम्मान करेंगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जींद-नाभा-पटियाला की जट्ट सिख रियासतें ही क्यों बदनाम की गई, जबकि ......


1857 की क्रांति में इनके अलावा जयपुर-ग्वालियर-जोधपुर-चित्तोड़ आदि दर्जनों रियासतों ने भी अंग्रेजों का साथ दिया था? क्यों सिर्फ जींद-नाभा-पटियाला को तो हाई स्कूल की किताबों तक में अंग्रेजों के साथी बना के पढ़ाया जाता है|

 जो इतिहास और सिख सिद्धांत जानता होगा वह अच्छे से जानता होगा कि सिखों ने रातों के 12 बजे कितने मुग़ल पीटे थे| महाराज रणजीत सिंह का नाम सुनके तो मुस्लिम, धर्म और वेश तक बदल लिया करते थे| इसलिए सिखों के लिए किसी भी सूरत में मुस्लिमों का साथ तक गंवारा नहीं था, फिर 1857 की क्रांति एक मुग़ल बादशाह के नेतृत्व में लड़ने की बात तो ठहरी ही सपनों की|

और यही वजह थी कि यह जट्ट सिख रियासतें, 1857 की मुग़ल बादशाह के नेतृत्व वाली क्रांति में मुग़लों के विरुद्ध ही खड़ी रही और मुग़लों को हराने हेतु ही अंग्रेजों के साथ रही| क्योंकि वो नहीं चाहते थे कि जिनको इतनी जद्दोजहद के बाद पंजाब से दूर किया है उनको फिर से कोई वजह मिले यहां वापिस पैर जमाने की|

दूसरी वजह यह भी थी कि सिख पानीपत की तीसरी लड़ाई में यह सुन-देख चुके थे कि महाराजा सूरजमल के लाख कहने पर भी पूना पेशवा इस जिद्द पर अड़े रहे कि अगर पानीपत में हमारे अलायन्स की जीत होती है तो दिल्ली मुग़लों की ही रहेगी| जबकि महाराजा सूरजमल अड़े रहे कि दिल्ली जाटों की थी और जाटों की रहेगी; जो कि बाद में महाराजा सूरजमल के सुपुत्र भारतेंदु महाराज जवाहर सिंह ने अकेले जाट सेना के बलबूते, अहमदशाह अब्दाली के सिपहसालारों की दिल्ली में घेरेबंदी करके उनपर जीत कर दिखा दी थी| इस पूना पेशवाओं और जाटों की बीच, पेशवाओं की जिद्द की वजह से यह अलायन्स सिरे नहीं चढ़ पाने के वाकये ने भी सिखों में 1857 की क्रांति वालों के प्रति विश्वास नहीं आने दिया|

इसलिए जींद-नाभा-पटियाला की रियासतों से लगाव रखने वाले या इन इलाकों में रहने वाली प्रजा को इस बात पर मन मायूस नहीं करना चाहिए कि उनकी रियासतों के बारे क्या पढ़ाया जाता है; अपितु इस पढाये जाने को किताबों से हटवाने बारे अभियान चलाया जाना चाहिए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 27 September 2016

यदि हरियाणा में हिन्दू अरोड़ा/खत्री उर्फ़ पंजाबी एक हो जाये तो हम हरियाणा में सांसदों की एक की बजाय पांच सीट जीत सकते है। - अश्वनी चोपड़ा, करनाल बीजेपी सांसद|

बावली खिल्लो, इनेलो खामखा ही दस साल से अशोक अरोड़ा को स्टेट प्रेजिडेंट बनाये बैठी है?

खट्टर बाबू, "हरयाणा एक, हरयाणवी एक" के यह कैसे हरयाणवी हैं; जो आपके ही इस नारे की धज्जियां उड़ा के हरयाणवी को हरयाणवी-हिंदी-पंजाबी में बाँट रहे हैं? चलो कम-से-कम खट्टर बाबु के इस जुमले की पोल तो खोली सांसद महाशय ने|

अब कुछ काम की तथ्यपरक बात हो जाए:

चोपड़ा बाबू, आपकी इन्हीं जैसी हरकतों के चलते आपके पुरखों ने पंजाब में आतंकवाद सुलगाया, वही आतंकवाद जिसका सर्वप्रथम ग्रास बनने वालों में आपके पिता श्री जगतनारायण थे| इसी भड़काऊ और समाज को फाड़-खाऊ रवैये से आप लोगों ने आज़ाद पंजाब के पहले किसान सीएम सरदार प्रताप सिंह कैरों की हत्या करवाई| वहाँ के सिखों ने आपकी असलियत पहचानी और आपके पिता को गोलियों से भून बगाया, और ऐसे आपके पुरखों की बदलौत पंजाब में आतंकवाद की नींव पड़ी|

आप लोगों ने संघियों के साथ मिलके वहाँ हिंदी आंदोलन चलाया और आज जो खुद को आप पंजाबी-पंजाबी कहते नहीं थकते आपने ही वहाँ अपनी मातृभाषा हिंदी लिखवाई? इससे द्वेष बढ़े और बढ़ते-बढ़ते इतने बढ़े कि आपके समुदाय को सिखों ने पंजाब से खदेड़ दिया| आपके हिंदी आंदोलन की तो हवा निकली ही निकली, साथ ही अपनी पूँजी और सम्पत्ति बेच या छोड़छाड़ सिखों के वहाँ से चल के हिन्दू बाहुल्य हरयाणा में पनाह लेनी पड़ी| भाईचारे और मानवता के पालक हरयाणा ने तो यह तक नहीं पूछा कि वहाँ से क्यों भागे, बल्कि सौहार्द के साथ स्वागत किया|

ओह इस बीच याद आया, सांसद महोदय के इस बयान की निंदा करने हेतु जातिवाद के विरोधी दिखाई नहीं दिए कहीं भी, कि महोदय क्यों जातिवाद फैला रहे हो? बैड-लक सांसद महोदय, इस न्यूज़ पे हाईलाइट पाने हेतु आपका जाट होना जरूरी है| परन्तु साथ ही यह भी है कि जाट हो जाओगे तो फिर ऐसा बयान ही नहीं दोगे| आपका दोष नहीं है दिनरात बिज़नस में चार-सौ-बीसी के पैंतरे चलाते-चलाते आपने जो डिफाल्टर बन बैंकों के 20 करोड़ डकारे हुए हैं ना, उससे लगता है आपने जनता को भी बैंक ही समझ लिया है; कि जितना चाहो उतना वोट रुपी कैश निकालो, वापिस मांगने पे ठेंगा दिखा दोगे?

देखो महाशय, ऐसा तो हो नहीं सकता कि पूरी अरोरा/खत्री जमात आप जैसी बददिमाग व् समाज को फाड़-खाऊ प्रवृति की हो| परन्तु क्या है कि इतिहास में तीन बार आप जैसों की समाज की गणतांत्रिक शक्तियों से कांफ्रण्टेशन हो चुकी|

पहली हुई थी जब सरदार भगत सिंह की फांसी बारे शादीलाल व् शोभा सिंह ने अंग्रेज अदालत में गवाही दी थी| आप लोगों ने सोचा कि भगत सिंह का किस्सा ही खत्म करवा दो, परन्तु उल्टा आज वो हुतात्मा देशभक्ति के नभ का ध्रुव तारा बनके जगमगा रहा है|

दूसरी हुई सर छोटूराम के साथ, उन्होंने तो जो मरोड़-मरोड़ के कलम तोड़-तोड़ के आपके तोड़ और बट निकाले थे, उसकी कसक तो आप लोगों ने अपनी औलादों में भी पूरी भर दी, ऐसी दिखती है, क्योंकि इसीलिए तो फरवरी जाट आंदोलन में आप लोग प्रथम दृष्टया रोहतक में सर छोटूराम की मूर्ती की ओर लपके थे|

तीसरी कांफ्रण्टेशन हुई सरदार प्रताप सिंह कैरों के साथ| नतीजा आपने पिता खोया, आपके समुदाय ने वही पंजाब खोया, जिसके नाम से आप आज भी अपनी आइडेंटिटी जिन्दा रखना चाहते हो?

सांसद महोदय कोई जेनेटिक लोचा है क्या आपके भीतर? नहीं मतलब वो कहावत क्यों कर रहे हो कि "कुल्हड़ में दाने, और कूद-कूद खाने?" अर्थात जब पैसा-संसाधन नहीं होते हैं तो मजदूर बनके भी पैसा जोड़ लेते हो यानि इतनी तन्मयता रखते हो ऊपर उठने की| परन्तु जब पैसा-संसाधन हाथ आ जाते हैं तो लगते हो बेलगाम होने?
भारत विभाजन के वक्त वहाँ से मुस्लिमों ने उजाड़े तो, भारत के पंजाब में आशियाने बनाये| वहाँ गूँज के बसने का दो पैसे का बयोंत बनाया तो उत्तर-कातर करके पंजाब आतंकवाद में सुलगा दिया? जिससे सिखों ने आपको वहाँ से खदेड़ भगाया|

अब इधर हरयाणा में आ के फिर से दो पैसे का बयोंत बनाया तो अब फिर वही हरकतें आपकी? क्या मतलब आपके जीन्स को सफलता और मेहनत संभाल के रखनी नहीं आती क्या?

मुझे लगता है कि वो "जाटड़ा और काटडा, अपने को ही मारे" की कहावत आप जैसों पर कुछ ऐसे ज्यादा सटीक बैठती है कि "अरोड़ा और फोड़ा खुद को खुद ही मारे|" फोड़े का समय रहते इलाज ना करो तो वो एक परिपक्व समय पर खुद ही फट पड़ता है| और क्योंकि पैसा और ताकत सँभलती दिख नहीं रही आपसे, इसलिए कहीं खुद ही फट के खुद को ही उजाड़ने तो नहीं चल पड़े हो?

आप हरयाणा में खुद को स्वघोषित पंजाबी कहलाना चाहते हो; जबकि 1966 से पहले हरयाणा पंजाब का ही हिस्सा होने की वजह से आधा-पंजाबी तो मैं भी हूँ| तो ऐसे तो 10 की 10 सीटें पूरे हरयाणवी पंजाबी की हैं? और वैसे भी आप तो पंजाबी कहलाने का मोरल ग्राउंड ही नहीं रखते महाशय; पंजाब में आतंकवाद फैलाया आपके पुरखों ने, पंजाब में रहते हुए अपनी मातृभाषा हिंदी लिखवाई आपके पुरखों ने, आतंकवाद के चलते पंजाब से खदेड़ा गया इकलौता हिन्दू समुदाय है कोई तो वो आपका? असल मर्म की बात तो यह है जनाब कि आपमें पंजाबीपणे का रत्तीभर भी गुण होता तो आप आज भी पंजाब में ही बस रहे होते|

अब एक अपील: अंत में हरयाणवी जनता से अपील है कि इस सांसद की बयानबाजियों का देशहित में तुरन्त संज्ञान लिया जावे| क्योंकि यह बिलकुल वही बयानबाजियां कर रहे हैं, जैसी इनके पिताजी पंजाब में किया करते थे और जिनका अंत नतीजा पंजाब ने आतंकवाद भुगता था| अब भोले-भाले भाईचारे में गूंथे हरयाणवी हिन्दू समाज में यह महाशय उथल-पुथल मचाने पर आमादा प्रतीत होते हैं| इनको तुरन्त प्रभाव से समाज से अलग-थलग कर आईसोलेट करने का अभियान चलाया जाए, इनकी निंदा की जाए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

रुस्तम मूवी - अक्षय पा जी की एक और लैंडमार्क मूवी, परन्तु मुझे सिस्टम और जातिवाद से सम्बन्धित कई सवालों में छोड़ गई!

1) सबसे बड़ा सवाल, इस मूवी में भारतीय कोर्ट प्रोसीडिंग्स में "सोशल जूरी" का कांसेप्ट देखा| समझ नहीं आया कि अगर यह कांसेप्ट भारतीय कानून में मौजूद है तो आज से पहले देखने सुनने को क्यों नहीं मिला? या फिर फिल्म को विदेशों में हिट करवाने हेतु इस फार्मूला को एक "शो-ऑफ" की तरह प्रयोग किया गया? वैसे भी जहां कानून में सोशल जूरी होती है वहाँ तीन करोड़ से ज्यादा मुकदमे अदालतों में लटके हुए नहीं हो सकते, जैसे कि भारत की स्थिति है|

2) सिंधी और पारसी समुदायों में कट्टरता की हद तक नफरत यानि साम्प्रदायिकता यानि जातिवाद दिखाया गया है| अगर यह इन दोनों समुदायों में धरातल पर भी इसी स्तर का है तो फिर इस बिंदु को सामाजिक हिस्से की सामान्य बात के तौर पर स्वीकार क्यों नहीं किया जाता? क्यों कुछ चुनिंदा जातियों के लोग जब अपनी जाति पर गर्व करते हैं तो उनको फटाक से जातिवादी ठहरा दिया जाता है जबकि इस मूवी वाले केस में इसको बड़ी सहजता से सामान्य बात के तौर पर दिखाया गया है|

3) क्या मीडिया, क्या वकील, क्या रिश्तेदार, सब अपनी-पानी बिरादरी वाले की साइड ऐसे सपोर्ट में लग जाते हैं, जैसे यह पावरी बनाम मखीजा केस ना हो के पारसी बनाम सिंधी युद्ध चल रहा हो| अगर वाकई में इन समाजों में अपने समाज के बन्दे को बचाने हेतु इतनी कौमी-स्पिरिट होती है तो यह वाकई सीखने लायक चीज है|

4) क्या अल्ट्रा-मोडर्न दिखने वाली औरतें वास्तव में इतना बड़ा डिब्बा अक्ल होती हैं कि उनको थोड़ी सी पैसे की चकाचौंध दिखा के कोई भी उल्लू बना सकता है? हर समाज-वर्ग में एक टशन-अदा-सैटायर और स्वाभिमान होता है, जो इस फिल्म की नायिका में रत्ती-भर भी नहीं दिखा| बस ऐसे दिखती रही कि जैसे शो-पीस बना के दिखाने के ऐवज में उससे कोई कुछ भी करवा ले| आखिर इस औरत में इस बात का स्वाभिमान क्यों नहीं दिखाया गया कि वो इतने बड़े डेकोरेटेड नेवी अफसर की पत्नी है| शायद फिर फिल्म की स्क्रिप्ट ही आगे ना बढ़ पाती|

5) सबसे बड़ा लूप-होल लगा कि अक्षय कुमार को नेवी का इतना बड़ा डेकोरेटेड अफसर होते हुए भी मिनिस्ट्री को ट्रंक-कॉल करते हुए इस बात का पता ना होना कि उसकी कॉल रिकॉर्ड की जाएगी| शायद पटकथा को विस्तृत प्लाट व् ड्रामेटिक एंगल देने के लिए स्क्रिप्ट राइटर ने ही यह लूप-होल जानबूझकर डाला होगा|

बाकी कुल मिला के अक्षय पा जी की एक्टिंग छाई रहती है| अक्षय पा जी की पारसी कम्युनिटी वाले न्यूज़ पेपर एडिटर की कॉमेडी मस्त लगी| जज उसको हर बार जेल में डालता रहा और वो बाहर आकर फिर से न्यूज़ छापता रहा; ऐसा लगा कि जैसे उसको जेल प्यारी लगती थी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

2019 में बीजेपी ने सीएम कैंडिडेट नहीं बनाया तो अलग पार्टी बना लूंगा? - राजकुमार सैनी

यह बयान भाजपा द्वारा सैनी के हाथों ओबीसी वोटों को 2019 में फिर से धोखे से हड़पने की लॉन्ग-टर्म कहो या नेक्स्ट टर्म प्लानिंग का हिस्सा है; आईये वस्तुस्थिति से समझें कि कैसे?

2019 के आसपास आ के बीजेपी का जाट-प्रेम जागेगा, और जाटों को खुश करने के लिए सैनी को पार्टी से बाहर करेंगे| या उसको सीएम कैंडिडेट नहीं बनाने का स्वांग करेंगे और इससे सैनी अपनी आज की यह कही हुई बात उस वक्त रखने का नाटक करते हुए, खुद बीजेपी छोड़ के अलग पार्टी बनाएगा| कुल मिला के बीजेपी के ही प्रीप्लानड एजेंडा के तहत सैनी खुद की पार्टी बनाएगा, ताकि बीजेपी से नाराज (नाराज क्यों वो अगले पहरा में पढ़ें) ओबीसी वोट सैनी की बनाई ताजी-ताजी पार्टी के पास बना रहे| भाजपा सपने ले रही है कि एक तरफ जाट को यह दिखा देंगे कि सैनी पर कार्यवाही करदी, दूसरी तरफ सैनी से ही नीचे-नीचे अलायन्स करके सैनी की नई पार्टी प्लस बीजेपी के जरिये बीजेपी फिर से सेकंड टर्म सरकार बना लेगी|

पर इन मुंगेरीलालों से सवाल यह है कि हरयाणा में आते ही बीजेपी ने फसलों के दाम गिरा दिए, छोटे व्यापारियों के पर क़तर दिए, ओबीसी नौकरियों के प्रमोशन में रोक व् ओबीसी मेरिट केस को जनरल केटेगरी से बाहर किये जाने के सगूफे चला दिए| गुड़गांव-फरीदाबाद-कुरुक्षेत्र में दलितों पर यादव-राजपूत जातियों के हमले हुए, उनको रोका नहीं| रही सही कसर मोदी ने अब पाकिस्तान के मामले में लीद करके पूरी कर दी, जिससे कि इनका तुरुप का इक्का राष्टवाद ढकोसला साबित हुआ| उससे पहले जाटों पर फरवरी में दूसरा जलियावाला बाग़ रच के थोड़े-बहुत बीजेपी-आरएसएस से जुड़े जाट भी रुष्ट कर लिए| जाट बनाम नॉन-जाट रचा के खुद ही अपने दूसरे तुरुप के इक्के "हिन्दू एकता और बराबरी" के नारे की बैंड बजा ली| अंत नतीजा और हालात यह बन रहे हैं कि बीजेपी का जनाधार दिन-प्रति-दिन घटता जा रहा है| ना इनसे किसान खुश है, ना दलित, ना मजदूर ना कर्मचारी, ना छोटा व्यापारी; सब रो रहे हैं|

उधर मनीष ग्रोवर और अश्वनी चोपड़ा, राजकुमार सैनी के सामानांतर अभी भी बयान देने में जुटे हैं कि हरयाणा में अगला सीएम भी नॉन-जाट ही बनाएंगे| तो फिर ऐसे में कौनसी कम्युनिटी को और कैसे आसानी से फददु व् बुध्धु बना के वोट हड़पे जा सकते हैं? दलित इनसे सवर्ण-दलित पहलु पे पहले से ही बिदक चुका, जाटों को इन्होनें जाटों से पंगा ले के खुद विरोधी बना लिया, माइनॉरिटी इनको कोई ख़ास वोट देने वाली नहीं (मुस्लिम माइनॉरिटी तो बिलकुल ही नहीं)| तो ऐसे में बचे कौन? बीजेपी के ट्रेडिशनल वोट्स और ओबीसी वोट|

तो क्या ओबीसी, अभी पहली योजना में ही ओबीसी आरक्षण पर कैंची पे कैंची चला रही बीजेपी और उधर फसलों के दाम कोड़ी के बराबर बनाने पे ओबीसी का किसान वर्ग सिर्फ एक जाट नफरत के कार्ड पर इनको फिर से वोट दे के, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेगा? प्रथम दृष्टया तो नहीं लगता, फिर भी अगर ऐसा होने वाला है तो गणतांत्रिक ताकतें अभी से चेत जाएँ|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

हरयाणा-एनसीआर-वेस्ट यूपी में जाट बनाम नॉन -जाट के ड्रामे को जातिवाद का नहीं अपितु आइडियोलॉजिकल जंग का नाम दीजिये!

वो कैसे और किन-किन आइडियोलॉजी की जंग है यह? आईये देखते और समझते हैं|

क्योंकि जाट ने जातिवाद इतना ही बर्ता होता तो एक जाट ताऊ देवीलाल, हरयाणा में पहली दफा पाकिस्तानी मूल के भाजपा के दो लोगों (सुषमा स्वराज, पाकिस्तानी मूल की ब्राह्मण व् संघी मंगलसेन, पाकिस्तानी मूल के अरोरा/खत्री; कोई बताये यह तथ्य करनाल के एमपी अश्वनी चोपड़ा को) को अपनी सरकार में मंत्री ना बनाते| वही ताऊ देवीलाल लालू यादव को बिहार की कमांड ना सौंपते और मुलायम सिंह यादव को यूपी की कमांड ना सौंपते| खुद प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़, दो-दो राजपूतों वीपी सिंह व् चंद्रेशखर को प्रधानमंत्री बनाने की बजाये खुद प्रधानमंत्री बनते| भैरों सिंह शेखावत एक राजपूत को जाट की जगह राजस्थान का मुख्यमंत्री बनाने की तरजीह ना देते| और ऐसे वह राष्ट्रीय ताऊ नहीं कहलाते|

यह तो इनेलो की बुद्धिजीवी सेल को ताऊ देवीलाल की परिभाषा में लुटेरे वर्ग ने हाईजैक कर रखा है, वर्ना 2014 के हरयाणा विधानसभा इलेक्शन के प्रचार में जब पीएम मोदी ने इनेलो के नाम पर यह कहा कि इस एक जाति डोमिनेंट की पार्टी से स्टेट को निजात दिलाओ तो जरूर कोई इनेलो का बुद्धिजीवी तुरन्त यह ऊपर बताये उदाहरण देते हुए मोदी का मुंह थोब देता यानि उसका मुंह बन्द कर देता|

क्योंकि जाट ने जातिवाद इतना बर्ता होता तो एक सर छोटूराम दलितों का दीनबंधु ना कहलाता| जब 1934 में अंग्रेजों ने सैनी-खाती (बढ़ई) व् धोबी जातियों को जमीनों की मलकियत देने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि तुम्हारे पास किसानी स्टेटस नहीं है तो तुम जमीनों के मालिक नहीं बन सकते, तो वह छोटूराम लाहौर विधानसभा का इमरजेंसी सेशन बुलवा इन जातियों के फेवर में "मनसुखी" बिल पास ना करवाता और ना ही उनकी पार्टी के 100% जाट एमएलसी उस बिल पर अपनी मोहर लगाते| और ना ही यह जातियां आज किसान कहलाती, जमीनों की मालिक होती|

क्योंकि जाट ने जातिवाद बरता होता तो चौधरी चरण सिंह दलित-पिछड़े को आरक्षण दिलवाने बारे सर्वप्रथम अपने प्रधानमंत्री काल के दौरान मंडल कमिशन गठित नहीं करते, वही मंडल कमिशन जिसकी रिपोर्ट के आधार पर भारत में आरक्षण लागु हुआ|

क्योंकि जाट ने जातिवाद बरता होता तो चौधरी अजित सिंह ने 1990 में जाट के साथ-साथ गुजर-यादव व् सैनी बिरादरी को ओबीसी में शामिल करने हेतु उस वक्त के प्रधानमंत्री को खत ना लिखा होता, वो सिर्फ जाट के लिए लिखते|

क्योंकि जाट ने जातिवाद बरता होता तो चौधरी सज्जन कुमार, शीला दीक्षित को दिल्ली की मुख्यमंत्री रिकमेंड नहीं करते|

तो फिर आखिर यह जाट बनाम नॉन-जाट की लड़ाई है किस बात की? यह लड़ाई है सीधी-सीधी उन दो आइडियोलोजियों की, जिसके एक सिरे पर जाट डोमिनेंट गणतांत्रिक प्रणाली रही है और दूसरी तरफ जातिवाद के रचयिताओं की सामंतवादी प्रणाली रही है|

तो प्रथम दृष्टया जाट इस बात को अच्छे से समझ लें और अपने आपको इस मानसिकता से उभारे रखें कि आप घोर जातिवादी हैं| हाँ कुछ जातिवादी आइडियोलॉजी को फॉलो करने वाले बेशक हो सकते हैं, परन्तु अधिकतर जाट जातिवादी नहीं है| और इस जाट बनाम नॉन-जाट की एंटी-जाट ताकतों द्वारा ड्राफ्ट व् थोंपी गई जंग को जातिवाद की जंग ना समझें; क्योंकि जातिवाद की यह जंग होती तो एंटी-जाट ताकतें इसको राजकुमार सैनी जैसों के जरिये ना लड़ रही होती; सीधा हमला करती| अत: यह जंग है दो आइडियॉलजियों की|

यह महाराजा सूरजमल की उस आइडियोलॉजी को हराने की जंग है जिसने सामंतवादी आइडियोलॉजी के पूना पेशवाओं को बिना खड्ग-तलवार उठाये, पानीपत के तीसरे युद्ध में बाकायदा फर्स्ट-एड कर वापिस महाराष्ट्र छुड़वा दिया था|

यह जाट समाज की उस गणतांत्रिक आइडियोलॉजी को हराने की जंग है जिससे प्रभावित हो कर एक ब्राह्मण दयानद ऋषि, जाट को उनकी अक्षत लेखनी की पूँजी 'सत्यार्थ प्रकाश' में "जाट जी" व् "जाट-देवता" कह कर स्तुति करते नहीं थकते|

यह सर छोटूराम की उस आइडियोलॉजी को हराने की जंग है जिसने जब कलम चलाई तो सूदखोरी करने वाली एक पूरी कौम को बिना आँख और माथे पर त्योड़ी लाये हरयाणा के गाँवों से गायब कर दिया था|

यानि सूदखोर रहा हो या सामंतवाद, जब जाट का गणत्रंत्र चला तो इसके आगे कोई नहीं डट सका और यही वो फड़का है जिसको यह लोग जाट बनाम नॉन-जाट के जरिये मिटा के सदा के लिए अपनी आइडियोलॉजी को हरयाणा वेस्ट यूपी में निष्कण्टक बनाने को उतारू हैं|

इसलिए "पगड़ी सम्भाल जट्टा, दुश्मन पहचान जट्टा!"

राजकुमार सैनी जैसे मन्दबुद्धि में इतनी अक्ल होती कि उसके समाज को जमीनों के मालिक बनने में मदद करने वाली व् ओबीसी में उनका फेवर करने वाली जाट कौम के खिलाफ वो क्यों प्यादा बन रहा है तो आज यह लड़ाई परोक्ष ना हो के इन दोनों आइडियोलोजियों में सीधे-सीधे हो रही होती और इतिहास गवाह है कि जब-जब सामन्तवाद-सूदखोरवाद जाट के गणतंत्रवाद से सीधा आ टकराया है तब-तब मुंह की खाया है| इसलिए असली दुश्मन सैनी नहीं, सैनी के कन्धे पे तीर रख के चलाने वाले हैं| वो आइडियोलॉजी वाले हैं जो जाट की गणतांत्रिक आइडियोलॉजी को अपनी सामंतवादी व् सूदखोरी की आइडियोलॉजी से रिप्लेस करना चाहते हैं| इसलिए सबसे पहले हर जाट को चाहिए कि जाट बनाम नॉन-जाट के इस ड्रामे के पर्दे के पीछे छुपे इन सामन्तवादियों व् सूदखोरवादियों को समाज के सामने लावें| बस आप इनको सामने लाने का काम कर देवें, बाकी तो फिर जनता खुद ही धूल चटा देगी इनको|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 26 September 2016

यह दलित-पिछड़े-महादलित मजदूरों की ट्रेनें भर-भर के बिहार-बंगाल-उड़ीसा-आसाम-ईस्ट यूपी टू हरयाणा-पंजाब-वेस्ट यूपी क्यों चलती हैं?

अगर हरयाणा-पंजाब-वेस्ट यूपी (इन शार्ट जाटलैंड) पर इतना ही दलित उत्पीड़न है जितना कि एंटी हरयाणा मीडिया लॉबी, गोल बिंदी गैंग और भारत का लेफ्ट वर्जन व् सम्बन्धित एनजीओज वाले लिखते, भांडते, चिल्लाते और दिखाते रहते हैं, तो इस हिसाब से तो यह ट्रेनें बिहार-बंगाल-उड़ीसा-ईस्ट यूपी-आसाम से हरयाणा-पंजाब-वेस्ट यूपी की ओर की बजाये हरयाणा-पंजाब-वेस्ट यूपी से इन राज्यों की ओर जानी चाहियें थी, नहीं?
भारत का कानून इनको सिर्फ इस बात की इजाजत देता है कि यह भारत के किसी भी कोने में जा के सद्भावना व् सौहार्द के साथ रोजगार कर सकें, ना कि रोजगार के नाम पर यह भारत के किसी भी कोने में बैठ के वहाँ की संस्कृति-सभ्यता-भाषा व् स्थानीय जातियों पर चुनिंदा वार करें|

इसलिए हर हरयाणवी व् पंजाबी समझ ले अपने इस अधिकार को कि सिस्टर स्टेटस से आये भारतीय भाईयों को हमारे यहां रोजगार करते हुए सद्भावना और सौहार्द से बसने की इजाजत तो भारतीय कानून देता है, परन्तु इस बात की नहीं कि यह यहां रोजगार कमाने की आड़ में हमारी सभ्यता-संस्कृति-भाषा के सर पे बैठेंगे और हर उल-जुलूल तरीके से हमारी उपेक्षा व् अपमान करेंगे|

इनके इन वारों पे चुप रहना बन्द करो, बहुत हो चुका इनका स्वागत और इनसे मेल-मिलाप का हनीमून दौर| अब इनको इनके द्वारा अपनाये गए लेखनी के हथियार के जरिये ही प्रतिउत्तर देने शुरू करें| वर्ना इनमें से आपके ऊपर जहर उगलने वाले कुछ तो ऐसी कुत्ता प्रवृति के हैं कि अगर आपने सामने से आँख नहीं दिखाई तो आपके मुंह तक नोंच खाएंगे|

इसलिए इनमें से हर एक से पूछा जाए, साथ ही दो-तीन पीढ़ियों पहले से आन बसे हरयाणा के नॉन-हरयाणवी से पूछा जाए कि जहां से तुम उठ के आते हो उधर के तो तुम कभी कोई दोष-द्वेष नहीं दिखाते; उधर की व्यवस्था पर तो कभी नहीं सुने ऊँगली तानते? अगर वहाँ इतना ही सब कुछ ठीक है तो फिर क्यों यह दलित-पिछड़े-महादलित मजदूरों की ट्रेनें भर-भर के बिहार-बंगाल-उड़ीसा-आसाम-ईस्ट यूपी टू हरयाणा-पंजाब की ओर चलती हैं? यह नजारा इसके विपरीत दिशा में देखने को क्यों नहीं मिलता?

यह सवाल हरयाणा-पंजाब का वह दलित भी उन लेफ्टिस्ट व् गोल बिंदी गैंग वालियों से करे कि माना यहां जाट-दलित के झगड़े हैं, परन्तु इतने भी बड़े नहीं कि यहां के दलित को रोजगार-मजदूरी करने के लिए अपनी इच्छा के विरुद्ध यूँ ट्रेनें भर-भर के दूसरे राज्यों में जाना पड़े|

सनद रहे यह मीडिया में बैठी एंटी-जाट, एंटी-हरयाणवी लॉबी, यह गोल बिंदी गैंग और यह भारत की जो लेफिटिस्ट आइडियोलॉजी है, यह विश्व के सबसे बड़े घोर जातिवादी लोग हैं; जो बिहार-बंगाल को इस तरीके का बनाने की बजाये कि वहाँ के दलित-मजदूर-महादलित को वहीँ रोजगार मिल सके, चले आते हैं हमारे यहां "चूचियों में हाड ढूंढने!" अर्थात बाल की खाल उतारने|

उठ खड़े हो जाओ अब, वरना आपकी शांति-शौहार्द व् भाईचारे से लबालब भरी इस हरयाणवी-पंजाबी संस्कृति की सुनहरी भोर पर यह लोग ऐसा स्थाई ग्रहण लगाने वाले हैं कि अगर इनके वहाँ का सामंतवाद यहां ना उतर आया तो कहना| हमें नहीं चाहिए इनके यहां का सामंतवाद, जिस घोर जातिवाद से भरपूर सामंतवाद से ग्रसित होकर बिहार-बंगाल-उड़ीसा-आसाम-ईस्ट यूपी का दलित पंजाब-हरयाणा-वेस्ट यूपी आता है उस सामंतवाद को तो सम्पूर्ण हरयाणा-पंजाब-हिमाचल से तो सर छोटूराम जी एक सदी पहले उखाड़ के जा चुके, आधी सदी पहले चौधरी चरण सिंह जी वेस्ट यूपी से उखाड़ के जा चुके, सरदार प्रताप सिंह कैरों, ताऊ देवीलाल, मान्यवर कांशीराम और बाबा महेंद्र सिंह टिकैत हमारे दोनों बड़े चौधरियों के कार्यों को आगे बढ़ा के जा चुके|

इसलिए खड़े होईये और सोशल मीडिया व् कानूनी प्रक्रिया के जरिये टूट पड़िये इनपर एक आवाज बनकर कि रोजगार करने आये हो, सुख-सुविधा पाने आये हो, वो पाओ और "जियो और जीने दो"; वर्ना भारत का जो कानून देश के नागरिक को देश के किसी भी कोने में जा के रोजगार करने की अधिकार/इजाजत देता है, वही कानून एक राज्य-सम्प्रदाय की सभ्यता-संस्कृति-भाषा की रक्षा हेतु तुम्हारे में से जो उन्मादी और स्थानीय सभ्यता-संरकृति-भाषा पर सर चढ़ के बैठने की दूषित मानसिकता के हैं, उनको सर से उतार के फेंकने का अधिकार भी देता है|

एक कड़वी सच्चाई कहते हुए इस लेख को विराम दूंगा| दर्जन भर लेफ्टिस्टों से पूछा कि आप हरयाणा-पंजाब में वह सामंतवाद क्यों ढूंढते हो जो सर छोटूराम एक सदी पहले उखाड़ के जा चुके, आप वहाँ से कार्य को आगे क्यों नहीं उठाते जहां वह हुतात्मा छोड़ के गया था; तो सबके के मुंह सिल जाते हैं| जब गहराई में उतर कर खुद कारण जानने बढ़ता हूँ तो बार-बार भारतीय जातिवाद का वही घोर व् कट्टर साम्प्रदायिक चेहरा नजर आता है जो आज हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट मचाये हुए है| इन ताकतों को हर हरयाणवी-पंजाबी को मिलके कुचलना होगा| अगर नहीं चाहते हो बिहार-बंगाल का सामंतवाद अपने यहां देखना तो कलम उठा लो; एक-एक एंटी-जाट, एंटी-हरयाणा-पंजाब लेखक-पत्रकार-गोल बिंदी वाली व् खादी-खद्दर के लंबी बाधी के झोलों वालों की क्लास लेना और लगाना शुरू करो| कुछ नहीं है ये, सिर्फ पेड़ की डालियों पर उछल-कूद करने वाले बन्दरों से ज्यादा| पेड़ के पास आ के इनको भगाओगे तो यह ढूंढें नहीं मिलेंगे| वर्ना अगर चुपचाप टुकुर-टुकुर हरयाणा-पंजाब-वेस्ट यूपी रुपी आपके ही पुरखों के खून-पसीने से सींचे इस पेड़ पर इन बन्दरों को यूँ ही उछल-कूद मचाते रहने दोगे तो पेड़ तो रहेगा परन्तु यह उस पर फल नहीं पकने देंगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

व्यापारियों से कहो चीन-पाकिस्तान से सामान लाना बन्द करें, भारतीय जनता को खरीदने की नौबत ही नहीं आएगी!

1920 के असहयोग आंदोलन में सर छोटूराम जी का रोहतक कांग्रेस का प्रभारी होते हुए, गाँधी जी से कांफ्रण्टेशन होता है कि विदेशी सामान को खरीदने का बायकाट सिर्फ दलित-पिछड़ा व् किसान वर्ग ही क्यों करे; व्यापारी और पुजारी वर्ग भी तो करें? और यह मामला इतना बढा था कि नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की भांति सर छोटूराम कांग्रेस से गाँधी जी को थप्पड़ मार के तो अलग नहीं हुए परन्तु आपसी मर्यादा रखते हुए चुपचाप अलग यूनियनिस्ट पार्टी बना ली थी।

ठीक यही सवाल मैं आज के उन आडुओं से करता हूँ जो सोशल मीडिया पर चीन-पाकिस्तान आदि का सामान ना खरीदने की पोस्टें लिख के खुद को ना जाने कितना बड़ा देशभक्त साबित करने पे लगे रहते हैं ........ वो यह बताएं कि सामान ना खरीदने के यह ललित-निबन्ध टाइप उपदेश उन्हें क्यों देते हो, यह उम्मीद उनसे क्यों बांधते हो जो ग्राहक है; उनसे बांधों ना जो ग्राहक तक चीन का सामान लाता है, यानी व्यापारी वर्ग? उनसे क्यों नहीं कहते कि चीन-पाकिस्तान से बिज़नस बन्द करो| जब ऑटोमेटिकली व्यापारी चीन-पाकिस्तान का सामान भारत लाएगा ही नहीं तो भारतीय ग्राहक खरीदेगा कैसे?

इस कहते हैं कि असली मुद्दे से लेना-देना कुछ नहीं, परन्तु उपदेश देने को कुशल-उपदेशक बहुतेरे!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 15 September 2016

क्षीरसागर का पूरा कांसेप्ट जाटू-सभ्यता की आदर्श खानपान परम्परा से चुराया गया है!

वो कैसे, वो ऐसे; क्षीरसागर (असल में कोई सागर नहीं, अपितु एक पेय का नाम है) जिन पांच अमृत व्यंजनों से बना/बनाना बताया गया है वो हैं दूध, दही, घी, गुड़ और शहद|

अब कहने की जरूरत नहीं कि यह पाँचों व्यंजन खाने के लिए जाट व् इसकी मित्र जातियों के समूह (जो कि मिलके प्राचीन हरयाणा देश की धरती पर रहते हैं) ही सबसे ज्यादा जाने जाते हैं| और इसीलिए कहावत भी है कि "देशों में देश हरयाणा, जित दूध-दही का खाना|" हरयाणा देश यानी वर्तमान हरयाणा-दिल्ली-वेस्ट यूपी-उत्तरी राजस्थान व् दक्षिणी उत्तराखण्ड का क्षेत्र|

मेरी दादी बताया करती थी, कि हमारे यहां का खाना इतना मशहूर रहा है कि बनारस-पूना तक के बाबे-साधू यह क्षीरसागर छकने हमारी धरती तक उड़े चले आते हैं| परन्तु इनको ज्यादा वक्त अपने यहां रखना लाभकारी नहीं क्योंकि यह इनके इलाकों का मांसाहारी खाना और भांग-धतूरे का नशे का सामान भी साथ उठा लाते हैं|

तो अन्ना-रस्स्कला माइंड इट, यह जो जाटों के खाने को (खासकर चिकन-बीफ-मट्टन-मच्छी कल्चर वाले) कोसते रहते हैं, वो नोट करें कि जाटू-सभ्यता का तो खानपान भी ऐसा बाई-डिफ़ॉल्ट दैवीय है कि इसका गुणगान करने वालों तक को इसे छकने के लिए हरयाणे की धरती पर आ, यहां के घरों के आगे अलख जगानी पड़ती है|

लेकिन दुःख है कि इस खाने को अमृत बताने वाले इतने बेगैरत और साम्प्रदायिक हैं कि चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने थे तो इन्हीं में से बहुतों ने कहा था कि अब एक गुड़-घी खाने वाला देश का शासन चलाएगा|

विशेष: चुराया गया इसलिए कहा क्योंकि इसके लिखने वालों ने इसको बिना रिफरेन्स-क्रेडिट दिए लिखा; ठीक वैसे ही जैसे कोई अनाड़ी शोधकर्ता किसी की थीसिस चुरा ले और क्रेडिट भी ना दे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

धर्मकारी इंसान सिर्फ धर्म पाल सकता है, मानवता नहीं; खाप-चौधरी ना हटें अपने किरदार से दूर!

धर्मकारी, अपने धर्म को श्रेष्ठ बताने और बनाने के चक्कर में मानवता की सीमा लांघते हुए दूसरे धर्म की आलोचनाओं का सहारा लेने तक से नहीं चूकता| ऐसे में समाज का फर्ज बनता है कि वह इन धार्मिक से कभी-कभी धर्मांध बन जाने वाले धर्माधीशों को न्यायधीश बन इनकी सीमा में रहने हेतु याद दिलाता रहे और इनको ‘जियो और जीने दो’ सिखाता रहे|

अभी हाल तक खापें यह कार्य प्रभावशाली तरीके से करती रही हैं| परन्तु ज्यों-ज्यों खापें "सामाजिक न्याय मंच" कम और "पोलिटिकल लॉन्चिंग पैड" ज्यादा बनती जा रही हैं, त्यों-त्यों अपनी गरिमा धूमिल करती जा रही हैं| खाप चौधरियों को अपने टैलेंट के साथ न्याय करना होगा और समझना होगा कि मोहन भागवत, मोदी तो बना सकता है, परन्तु खुद मोदी नहीं बन सकता| कहने का तात्पर्य है कि आप खापों के जरिये समाज के न्यायधीश रहते हुए अगर नेता भी बनना चाहो तो ऐसा करके आप खुद के टैलेंट और ओहदे दोनों से अन्याय करते हैं| फिर भी नेता बनना है तो खाप के पद से इस्तीफा देवें और शुद्ध राजनीति करें, परन्तु कृपया खापों को समाज की ऐतिहासिक एनजीओ के रोल में ही रहने दें|

आदर-मान-सम्मान-चौधर खाप-चौधरी व् नेता दोनों किरदारों में हैं, परन्तु तब-तक जब तक इनको मिक्स नहीं करके, अलग-अलग रखा जाए| दो-दो नाव में खुद ही सवार होने से, अपनी तो टाँगे बीच से चिर जाती ही हैं, साथ ही समाज रुपी नाव भी डूबने लगती है, दिशाहीन हो जाती है| यानि खुद के व् समाज के साथ "ना घर के ना घाट के" वाली होने देने से बचें व् बचाएं|

और इन धर्मान्धता के पिशाचों को काबू में रखने के लिए, अपने पुरखों वाले ऐतिहासिक किरदार में चलें, व् इनकी अति से समाज को ठीक वैसे ही बचाएं जैसे आपके-हमारे पुरखे बचाते थे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Reviving/revamping oneself from nowhere zone to your existence!

Mind is dull/indecisive, heart enjoys testing/consuming your power reserves (heart is over promising and overloading), will power is missing/lost/faded; thus your guts, metal and zests struggle within to reach/find its zenith.

So if you by chance live in such an environment willfully or forcefully and if it is willfully then immediately act to come out of it or if it is forcefully then pray to God to get out of it asap! Asap before you become habitual of it or poured in it to such extent that it becomes your only happiness!

क्योंकि यह वो स्टेज/परिवेश होती/होता है जिसमें आपको अपने ही ऊपर बोझ बना दिया जाता है या बन जाते हैं| और अगर आप ऐसे किसी की परवरिश की वजह से बने हैं तो वही लोग ठहाके लगाते हैं, तंज कसते हैं कि तू पहले खुद को ही ढो ले| इसलिए सबसे पहले उन लोगों को खुद से दूर करो, चाहे कितना ही अकेलापन/मायूसी क्यों ना झेलनी पड़े और फिर जैसे भी हो वैसे ही इस अवस्था से बाहर आने के लिए खुद से लड़ो| बस उनको शिकायत मत करना, जिनकी वजह से ऐसे बने; वर्ना वो तुमको इसी सिचुएशन में बनाये रखने के लिए अपना गेम खेलते रहेंगे और व्यर्थ में तुम्हारी लड़ाई डबल हो जाएगी|

Just be alert about yourself, no need to crush anything inside rather observe and study every energy vibe, its consequences and at last where and which part to send/adjust or fit it within.

Stop testing yourself, just infuse yourself into your ever since dreamt contexts and rest all will get settled accordingly!

Jai Yauddhey! - Phool Kumar Malik

"आप" पार्टी को पंजाब में दिखा सर छोटूराम में उनकी पतवार का खेवनहार!


हम वैसे ही थोड़े सर छोटूराम को मसीहा कहते हैं| हरयाणा-देश यानी वर्तमान हरयाणा-दिल्ली-वेस्ट यूपी-उत्तरी राजस्थान में तो बहुत अलख जगा ही रहे हैं उनके नाम का, साथ ही विदेशों में बसे हरयाणवी-डायस्पोरा (Haryanvi Diaspora) में उनको ले जा रहे हैं और क्यों ले जा रहे हैं; समझिये उसका माद्दा, आप वालों के इस टवीट और उनके मेनिफेस्टो में आये सर छोटूराम के जिक्रे से|

अब आपियों के बहाने ही सही; पंजाब वाले किसान भी यादें ताजा कर लें कि कितना बड़ा महामानव अवतार रहा होगा वो युगपुरुष कि "आप" पार्टी वालों को उनको पंजाब में फिर से उठाना ही उनकी नैया का खेवनहार लग रहा है|

पंजाब चुनावों के मद्देनजर "आप पार्टी" वालों के मेनिफेस्टो में "सर छोटूराम एक्ट" का जिक्र देख के अहसास हुआ कि क्यों जाट की आज ऐसी दुर्गत हो रही है कि बेगाने तो उनके पुरखे के नाम पर चुनाव जीतने की सोचते हैं और खुद जाट अपने पुरखे को ढंग से अपना कहने से भी कतराने वाले हो चले हैं| किसी ने सही कहा है जो कौमें अपने पुरखों और अपने इतिहास को तवज्जो नहीं दे सकती, उनकी ऐसे ही रे-रे माटी हुआ करती है|

जाटों के पास तो महानता-जौहर-विरासत-संस्कृति व् हस्तियों के नाम की इतनी बड़ी धरोहर है कि वो ढंग से इसको ही संजों लें तो दूसरों के मुंह ताकने की जरूरत ही ना पड़े| सच कह रहा हूँ यही अपने पुरखों व् इतिहास को नकारने, "घर की मुर्गी, दाल बराबर" वाली तर्ज पर उनको दरकिनार करने का श्राप है कि जाट आज "जाट बनाम नॉन-जाट" झेल रहा है|

साथ ही हम युनियनिस्टों को यदाकदा एक सेंचुरी पुराने हो चुके उनके अवतार काल व् उनकी पॉलिटिक्स को आज के परिवेश में आउट ऑफ़ कॉन्टेक्स्ट बताने वाले भी देखें कि वो कोई साधारण मानव नहीं, वो साक्षात् बागबान व् भगवान था और भगवान् कभी आउट ऑफ़ कॉन्टेक्स्ट नहीं हुआ करते, वो सदाबहार हुआ करते हैं|
गर्व से कहता हूँ, मेरा राम, सर छोटूराम!

विशेष: मैं आप पार्टी से कोई सम्बन्ध नहीं रखता, यह पोस्ट सिर्फ इसलिए जारी की है ताकि उनके सदाबहार जादू का जलवा आप तक पहुँचाया जा सके|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक





जाट की अनख पे ना बैठे दुनिया, जाट ने आपका कुछ नहीं बिगाड़ा; दिया ही दिया है जाट ने आपको, लिया सिर्फ लेशमात्र!

बात-बात पर जाटों को जमीन की हूल देने वाले मत भूलें कि जाट को जमीन कोई आ के दान नहीं दे गया था या चंदा इकठ्ठा करके नहीं खरीदवा गया था| जमीन कोई दान दिया या जनता के चंदे से बनवाया मंदिर नहीं है कि जो पब्लिक प्रॉपर्टी कहलवाए, जिसपे सामूहिक सम्पत्ति बोल के हर कोई हक़ जताए| माँ कसम, हरयाणा-देश व् पंजाब की जमीन को समतल व् व्यवस्थित करने के लिए जाट पुरखों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी बहुत मरवाई है; तब जाकर ऐसी आँख-टिक जाने वाली सोना उगलने वाली जमीन बनाई है|

वर्ना यूँ खेत के डोलों पे खड़े हो के मालिकाना हक़ मात्र जताने भर से जमीनें हरयाणा-देश और पंजाब जैसी बन जाती तो बिहारी-बंगाली इधर मजदूरी व् अन्य रोजगार करने ना आते| बंगाल-बिहार में हरयाणा-देश व् पंजाब से कोई कम नदियां नहीं बहती, इधर से उधर की धरती पर कोई कम कम पानी नहीं लगता; परन्तु फिर भी वो धरती हरयाणा-देश व् पंजाब जैसी समतल व् व्यवस्थित क्यों नहीं है?:


1) क्योंकि उधर वो वाला फ्यूडलिज्म है जो हरयाणा-देश व् पंजाब पर सर छोटूराम एक सदी पहले निबटा गए थे|
2) क्योंकि उधर आज भी खेती, 'खेती खसम सेती' वाले सिद्धांत पर नहीं अपितु 'खेती मजदूर सेती' के सिद्धांत पर होती है| जहां हरयाणा देश की धरती पर मालिक खुद भी मजदूर बनके, मजदूर के बराबर जमीन पर खटता है; वहीँ बिहार-बंगाल की तरफ आज भी मालिक सिर्फ खेत के डोले यानी किनारे पर छतरी के नीचे खड़ा हो के मजदूर को आदेश दे के काम करवाने में विश्वास रखता है|
3) और यही वजह है कि उधर आज भी "नौकर-मालिक" की संस्कृति चलती है जबकि हरयाणा देश और पंजाब की धरती पर "सीरी-साझी" यानी पार्टनर्स वाली वर्किंग कल्चर चलती है; जो कि इंटरनेशनल स्टैण्डर्ड की संस्कृति है, क्योंकि गूगल जैसी कंपनी भी नौकर यानी एम्प्लोयी नहीं बल्कि साझी यानी पार्टनर्स हायर करती है|
4) हरयाणा देश व् पंजाब की जमीन ऐसी आँख-का-तारा इसलिए बन पाई क्योंकि प्रथम मालिक ने खुद इसपे पसीना बहा के इसको अपने सपनों सा संवारा व् सँवरवाया| जबकि बिहार-बंगाल साइड आज भी वही अव्यवथित सी पड़ी है क्योंकि प्रथम मालिक जमीन पे उतरता नहीं और सेकंड मालिक उतना ही करता है जितना उसको मजदूरी मिलती है या शायद बहुत बार तो बेगारी करनी पड़ती है|
5) एक गज़ब की वजह यही रही कि हरयाणा-देश व् पंजाब की धरती पर ऐतिहासिक तौर पर सबसे कम बेगारी की शिकायतें रही| और वो इसलिए रही क्योंकि यहां का समाज मनुवाद की थ्योरी से नहीं अपितु जाटू-सभ्यता से चला| जिसकी कि दूसरे-तो-दूसरे खुद बहुतेरे मन्दबुद्धि परन्तु पढ़े-लिखे अनपढ़ बने खड़े जाट तक भी सत्यापना करने को सजग नहीं| पता नहीं जाट को इस तरह की सेल्फ- रियलाइजेशन से इतना भय क्यों लगता है? प्रोफेशन के साथ जाट ने यह ऊपर बताई मानवता पाली और यही वजह है कि हरयाणा देश व् पंजाब की धरती पर सिर्फ दलित मिलता है महा-दलित नहीं| बेशक दलित के जाटों के साथ कितने ही झगड़े मिलें, परन्तु अगर कोई माई का लाल दिखा दे दलितों के ऐसे मकान-हवेलियां भारत के किसी और कोने में जैसे हरयाणा देश व् पंजाब की धरती पर मिल जाते हैं तो बेशक कान काट लियो मेरे कि अक क्या कह रहा था रै?


यह तो रही ऐसी वजहें जो वर्तमान में भी चल रही हैं| आएं अब कुछ ऐसी ऐतिहासिक वजहों पर भी नजर डाल लेते हैं जिनकी वजह से साबित होता है कि जाट ने इस जमीन को अपनी माँ बनाने के लिए कैसे-कैसे नहीं मरवाई:
1) अंग्रेजों व् भारतीय राजाओं के इतने भारी-भारी जमीनी टैक्स भी जाट-जमींदारों पे पूरी प्रतिबद्धता से चुकाए, जो कि जमीनों को पट्टे पर बोने-बुवाने वाले सेठ-साहूकार भी चुकाने में हाथ खड़े कर जाते थे और जमीनों को या तो सुन्नी (बेवारसी यानी बिना मालिक की) छोड़ दिया करते थे या जमीन को बोने वाले की बता कर , टैक्स भरने से पल्ला झाड़ जाया करते थे| परन्तु माँ कसम जाटों ने अपने घर-मकान-बैल-संसाधन तक गिरवी रखने के त्याग और तप इस हरयाणा देश व् पंजाब की जमीन के लिए किये हैं, जो आज सबकी यानी जिसको देखो उसकी आँखों का तारा बनी हुई है| इस जमीन को ऐसे ट्रीट कर रहे हैं जैसे सदा से यह जमीन ऐसी ही थी|
2) एक वक्त में यह सिर्फ और सिर्फ हरा-भरा आरण्य यानी जंगल होती थी और जांगला-देश भी कहलाती थी| ऐतिहासिक हरा-भरा आरण्य होने की वजह से ही इसका नाम हरयाणा पड़ा है| डंके की चोट पर कहता हूँ नहीं पड़ा इसका नाम हरयाणा किसी हरि के यहां आने की वजह से, यह पड़ा सिर्फ इसलिए क्योंकि यह हरा-भरा आरण्य था, उस वक्त जंगल था आज जाटों के पुरखों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने हाड-तोड़ पसीने से इसको समतल बना दिया है, परन्तु रखा हरा-भरा ही है| फर्क सिर्फ इतना है कि पहले जब जंगल था तो नजर दो-चार सौ मीटर तक जा कर ठहर जाती थी; अब नजारा यह है कि इसको देख के अंतर्मन स्वत: कह उठता है कि "तेरे चेहरे से नजर नहीं हटती, नजारे हम क्या देखें "|

अत: इन चौतरफा हमलों के बीच भी मैथोलोजिकल व् काल्पनिक चरित्र कुम्भकरण की भांति तुंगभद्रा में पड़े जाट, उठ खड़ा हो ले, वर्ना तेरा ऊत-मटीला उठने वाला है| और वो कैसे वो ऐसे कि मुझे यह सवाल रात को तीन बजे उठा के कंप्यूटर पर लिखने को बैठा देते हैं| मैं ऐसा जता के कोई अहसान नहीं जता रहा हूँ बस सिर्फ अपनी मनोस्थिति का तड़का इस लेख में लगा रहा हूँ| बाबु कहवे बेटे ब्याह करवा ले, नहीं तो घर से निकाल दूंगा, मैं कहूँ बाबु मेरा तो हो लिया इन चिंताओं के साथ ब्याह| क्या हैं यह सवाल,यह चिंताएं:
1) आखिर क्यों पूरे हरयाणा-देश की सिर्फ 55% जमीन जाट के अधिपत्य में होने पर भी, जाट को ऐसे प्रचारित किया जा रहा है कि जैसे हरयाणा तो सारा ही जाटों का है? हाँ, एक बात तो है कि हरयाणा का सबसे उपजाऊ हिस्सा जाटों के पास है, वर्ना तो रेवाड़ी-गुड़गावं के पत्थर आज भी जंगल ही पड़े हैं|
2) आखिर क्यों राजपूत-अहीर-गुज्जर-सैनी जैसी किसानी जातियां होने पर भी सिर्फ और सिर्फ जाट को ही निशाना बनाया जा रहा है? क्योंकि इन निशाना बनाने वालों ने आपके पुरखों का वो इतिहास अच्छे से पढ़ा है, जिसको पढ़ना आप इतना मुश्किल समझते हो जैसे एक बेहद आलसी द्वारा अपने मुंह से मक्खी हटाते हुए भी क्लेश करना| यह जानते हैं कि राजपूत-गुज्जर-सैनी-अहीर को उनकी जमीनों से हटाना इतनी बड़ी तौब नहीं; परन्तु जाट को हटाना है|
3) क्योंकि आपने "सीरी-साझी" का वो वर्किंग कल्चर अपने यहां पाला, जो कि मनुवाद की "नौकर-मालिक" संस्कृति में कतई फिट नहीं बैठता| बल्कि आँख में कंकर की भांति रड़कता है|
4) क्योंकि आप इन चीजों के प्रचार बारे, दलित-पिछड़े को वर्कशॉप्स-सेमिनार्स के जरिये यह दिखाने बारे कभी सीरियस ही नहीं हुए कि यह देखें कैसे जाट ने जमीन के साथ-साथ मानवता पाली|
5) क्योंकि आपको "मनुवाद" से प्यार हो गया है; उस मनुवाद से जिसको सर छोटूराम जड़ समेत उखाड़ गए थे| उनके जाने के बाद आप तो खरपतवार की भांति उस जड़ समेत उखाड़े "मनुवाद" को खेत की डोल से उठा के आगभर तक नहीं लगा पाए और इस बीच उस उखड़े हुए ने वहीँ-की-वहीँ पड़े-पड़े फिर से जड़ें पकड़ ली|
6) क्योंकि आपने आगन्तुकों की संस्कृति व् तीज-त्यौहार अपनाने से पहले उन पर ऐसी कोई कंडीशन ही नहीं लगाई कि हम आपके मनाएंगे और आप हमारे मनाओ| इसी का तो नतीजा है कि आपने "करवा-चौथ", "नवरात्रे", छट-पूजा", "दुर्गा-पूजा", "वैष्णों-देवी", "धनतेरस" जैसे अनगिनत उनके त्यौहार अपने यहां इम्पोर्ट तो कर लिए, परन्तु वह आपका "तीज" और "बसन्त-पंचमी यानि सर छोटूराम जयंती" भी ढंग से मनाते हुए रोते हैं|

अब बात-बात और हर मौके पे इत-उत जाटों की जमीन-सम्पदा-संसाधन पर गीदड़ों/गिद्धों सी दृष्टि ज़माने वाले और बात-बात पर जमीनों के मालिक होने का तंज देने वाले सुनें और जाट भी इन तथ्यों को पढ़ कर आगे बढ़ाने हेतु सोचें:
1) कुछ तो हस्ती है जाट तेरी, वर्ना यूँ ही नहीं कोई "जाट बनाम नॉन-जाट" सजा दिया करते हैं| सोच कि यह जाट बनाम नॉन-जाट ही क्यों हुआ, ब्राह्मण बनाम नॉन-ब्राह्मण, बनिया बनाम नॉन-बनिया, राजपूत-बनाम नॉन-राजपूत या सैनी बनाम नॉन-सैनी या और कितनी जातियां हैं उनमें से किसी एक के बनाम बाकियों के क्यों ना हुआ?
2) बहुत आएंगे तुझे इस सवाल के जवाब में हतोत्साहित (डिमोटिवेट) से करने वाले उत्तर तेरे मुंह पर चिपकाने वाले जो कहेंगे कि:
2.1. तेरा दबंग रवैया इसकी वजह रहा| ऐसों को उत्तर देना और पूछना कि क्या मन्दिरों में दलित-ओबीसी की बेटियों को देवदासी बना के बैठाने वालों से भी दबंग हैं जाट? क्या विधवाओं को विधवा होते ही उनके पति की सम्पत्ति पर सुख से जीवन काटने देने की बजाये उनको उससे बेदखल कर विधवा आश्रमों में सड़वाने वालों से भी दबंग हैं जाट?
2.2. तेरा अखड़पन इसकी वजह रहा| ऐसों को उत्तर देना और पूछना कि क्या किसी अडानी-अम्बानी-कॉरपोरेट से भी दबंग हो गया जाट; जो कि जाट जैसी तमाम किसानी जातियों की जमीन अधिग्रहित करते वक्त मार्किट रेट भी नहीं देते? या जाट कोई रिलायंस वाला जियो हो गया कि जिसकी ऐडवर्टाइजमेंट खुद देश का पीएम करता है?
2.3. तेरा दलितों से जातीय-उच्चता वाला द्वेष इसकी वजह रहा| ऐसों को उत्तर देना और पूछना कि क्या जातिवाद और वर्णवाद घड़ने वालों से भी ज्यादा द्वेष कर दिया जाट ने? जाट-बाहुल्य इलाकों में तो फिर भी सिर्फ दलित है, जो इस वर्ण-जाति के रचयिताओं का इलाका है वहाँ तो महादलित से ले के पता नहीं और कौनसी-कौनसी राक्षस नाम की असुर जातियों में दलितों का वर्गीकरण किया हुआ है| क्या यहाँ का दलित जाट ने इतना सता दिया कि वो नक्सली बन गया? ……….. इस बिंदु पर यह तो थी जाट को डिफेंड करने की बात, परन्तु साथ ही यह भी कह दूँ कि “जाट सुधर जा”, तेरा डीएनए दलित से वास्तविकता में इतना भी नफरतवादी नहीं है जितना कि तू "कव्वा चला हंस की चाल, अपनी ही चाल भूल बैठा" की लाइन पे चल के कई बार दलित के साथ इस मनुवाद को पालने के चक्कर में कर जाता है| यह वर्णवाद व् जातिवाद के ढोंग-पाखंड-आडम्बर करने जब तेरे डीएनए में ही नहीं तो मत नकल करने की कोशिश किया कर| सच कहूँ तो यही तेरा कमजोर बिंदु है जिसकी वजह से तू सॉफ्ट-टारगेट बनता है, इसको छोड़ के सर छोटूराम की भांति उखाड़ दे इस जाति व् वर्णवाद की जड़ों को और अबकी बार इसको आग लगाना मत भूलना|
3) जाटों के लिए सबसे सुकून की बात यह है कि जाटों व् जाटों के पुरखों ने जमीन अपने-खून पसीने से समतल बनाई है| इस पर मजदूर तो बहुत बाद में आ के काम करने लगे| मजदूर जब जाट के साथ मिलके जमीन को समतल करने पे काम कर रहे होते और जमीन ज्यादा पथरीली होती तो बीच में काम छोड़कर भाग जाया करते थे; परन्तु जाट के पुरखे पीछे नहीं हटे| इसलिए कहा गया है कि जाट वो है जो धरती को भी पलट दे; जाट की अस्मत को ललकारने हेतु उतारू हुए पड़े लोग, समझें यह वास्तविकता|
4) दूसरी बड़ी सुकून की बात यह है कि जमीन कोई दान में मिला/बना मन्दिर नहीं है कि हर कोई मुंह उठा के "प्राकृतिक सम्पदा" का बहाना बना के अधिकार जमाने चला आये| इस जमीन को अपनी बनाये रखने हेतु अपने खून-पसीने के साथ-साथ जाट ने लगातार टैक्स भी भरे हैं यानी लगान चुकाए हैं| इसलिए यूँ ही थोड़े कोई ऐरा- गैरा नत्थू-खैरा ख्याली ख्वाबों की दुल्हन को क्लेम करने की भांति आ के जमीन क्लेम कर लेगा या ऐसे अहसान जता देगा जैसे जमीन खैरात में बाँट के गया हो|

निचोड़ की बात: फिर भी किसी को प्राकृतिक सम्पदाओं का हवाला देते हुए यह ठहाके लगाने ही हैं तो यही ठहाके पहले आपके ही दिए दान-चन्दे से बने कृत्रिम धर्म व् सार्वजनिक स्थलों की आमदनी में अपना हक़ जताने हेतु लगा के दिखाओ और उनकी आमदनी का हिस्सा ले के भी दिखाओ| क्योंकि जमीनों के मालिकों के पास तो इसके सबूत भी हैं कि वो सिर्फ और सिर्फ उनके खून-पसीने की कमाई से कमाई गई हैं; इन कृत्रिम सार्वजनिक स्थल बना के उनके जरिये आपसे दान-चन्दा उगाहने वालों का तो ऐसा भी कोई रिकॉर्ड नहीं कि उन्होंने पूरी नियत से टैक्स भरे हों या उस सबके दिए दान-चन्दे को आपसे बराबर का बाँटा हो| जबकि जाट के तो फसल घर में बाद में पड़ती थी, उससे पहले खलिहान से ही बाल काटने वाले का हिस्सा अलग, कृषि औजार बनाने वाले का अलग, लकड़ी के औजार बनाने वाले का अलग, गाने-बजाने वाले डूम का अलग, मिटटी के बर्तन बनाने वाले का अलग, धर्म-कर्म के नाम पर मांग के खाने वालों का अलग और तब कहीं जा के बचा-खुचा जाट अपने घर ले जाता आया है|और इसी बचे खुचे से जाट को अपने घर भी चलाने होते थे और सरकारों-राजाओं के टैक्स यानि लगान भी भरने होते थे| जाट ने कभी नहीं मुड़ के बाल काटने वाले, औजार बनाने वाले, मिटटी के बर्तन बनाने वाले से, गाने-बजाने वाले से, धर्म-कर्म के नाम पर ले जाने वाले से गुहार लगाई कि भाई लगान या कर्ज चुकाने में कम पड़ रहा है थोड़ा वापिस दे दो या मदद कर दो| इसलिए जाट ने तो अपनी कष्ट-कमाई से भी सबको बराबर का बाँट के खिलाया है, तो जाट पर यह दाड़-पिसाई किस बात की? पीसनी है तो उनपर पीसो जिन्होनें आजतक इतने दान-चंदे डकारे, परन्तु कभी ना तो उसके हिसाब दिए और ना ही उसको आपकी आबादी के अनुपात में बंटवाया|

विशेष: लेखक सम्पूर्णतः जातिवाद व् वर्णवाद के दम्भ से रहित इंसान है| इस लेख को जाट पर केंद्रित करके इसलिए लिखना पड़ा क्योंकि इसका शीर्षक ही इस प्रकार का था| वरना लेखक हर जाति-धर्म-सम्प्रदाय के इंसान का बराबरी का आदर-सम्मान करता है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक