Thursday, 7 November 2019

सिर्फ दिल्ली ही क्यों पूरे प्राचीन विशाल हरयाणा-पंजाब के प्रदूषण की बात होनी चाहिए!

इससे पहले दिल्ली पॉल्यूशन का इलाज यह हो कि इसके पॉपुलेशन बोझ को कम करने हेतु इसको हरयाणा-वेस्ट यूपी के अन्य जिलों में फैलवाया जाए; स्थानीय हरयाणवी-पंजाबी आवाज उठानी शुरू कर लें कि "पूरा देश यही ला के बसाओगे क्या? यह फैक्टरीज-डेवलपमेंट उन राज्यों-जिलों में भी ले जाओ जहाँ इनकी सबसे ज्यादा जरूरत है और जहाँ लोगों को रोजगार नहीं|" माना एक देश एक कानून के तहत कोई कहीं भी रह कर रोजगार कर सकता है, बस सकता है; परन्तु कहीं तो कोई लिमिट होगी जो पूरे देश की निर्भरता पंजाब-हरयाणा-एनसीआर पर ही लादे जा रहे हो?

पता नहीं किस सनक व् संवेदनहीनता से भरे लोग हैं इस देश की सत्ता को चलाने वाले कि चाहे यह पूरा क्षेत्र प्रदूषण का डस्टबिन बन जाए परन्तु यह इसकी वजह से स्थानीय लोगों पर पड़ने वाली ना सिर्फ वायु प्रदूषण की मार वरन अन्य 70 तरह के प्रदूषण और जैसे कि कल्चरल प्रदूषण, हेल्थ-प्रदूषण, मानसिक तनाव, धरती-दोहन, जल-प्रदूषण, ध्वनि-प्रदूषण, स्थानीय युवाओं की नौकरियाँ जाना या मिलना ही नहीं आदि-आदि जो यहाँ लोग झेल रहे हैं; वह ना इनको दीखता और ना उसकी चिंता|

हरयाणा के एक-एक गाम-मोहल्ले-शहर में दर्जनों-सैंकड़ों-हजारों कैंसर से ले पता नहीं कौनसी-कौनसी गंभीर बिमारियों के बचपन से शिकार हो गए हैं, इसकी तरफ कौन ध्यान देगा? और स्थानीय लोगों को तो इनमें नौकरियाँ भी नहीं मिल रही तो क्या यह तथाकथित फैक्टरीज आदि हमारी छाती पर हमारे फेफड़े-गुर्दे-किडनी आदि खराब करने मात्र को आन धरी हैं बस?

ऊपर से हरयाणवी ऐसे, हरयाणा ऐसा, इनकी बोली लठमार, इनका व्यवहार तालिबानी आदि के तान्ने झेल-झेल मानसिक तनाव बढ़ावें हरयाणवियों का वह अलग से| ना कोई श्यान ना गुण|

अत: तमाम हरयाणवी व् पंजाबी सावधान हो जावें, यह दिल्ली का प्रदूषण का शोर यूँ ही नहीं है, इसके जरिये दिल्ली से निकाल आपके शहरो-गामों की ओर इस बोझ को टालने की तैयारी भी है| इससे पहले यह सब होवे, हर जिला-तहसील आदि में ज्ञापन-पे-ज्ञापन भर दो कि हमारे ऊपर से यह तमाम तरह के तनाव कम करने हेतु; नई फैक्ट्रियों को उन जिलों-राज्यों में ले जाया जाए जहाँ इनकी वाकई जरूरत है| जानता हूँ कि इन ज्ञापनों से भी इनके कानों पर शायद ही जूँ रेंगें परन्तु जब मामले कोर्टों में पहुंचेंगे तो यह ज्ञापन की कॉपीज ही काम आएँगी|

नोट: हरयाणा एनसीआर में दूसरे राज्यों से बसने वाले मित्र माफ़ करें; परन्तु मुझे विश्वास है कि इस जानलेवा प्रदूषण में रह के नौकरी करके तो आप भी ज्यादा से खुश नहीं ही होंगे| आपके पास तो इस से ब्रेक पा लेने को आपके गृहराज्य घूम आने का ऑप्शन है परन्तु आम हरयाणवी-पंजाबी क्या करे जिसके पास यह ऑप्शन भी नहीं| या फिर आप ही ऐसे उपाय बताएं, जिम्मेदारी लेने को आगे आवें जिससे यह तमाम प्रकार के प्रदूषण कम किये जा सकें|   

जय यौद्धेय! - फूल कुमार

Thursday, 31 October 2019

प्यौध!

साह ही सैय्याद थे, अन्यथा पैदा तो वो आबाद थे,
शाहों की शाहकारी, बिखेर गई प्यौध की क्यारी!

वहाँ प्यौध ही ना जमने दी गई बेचारी,
वरना फसल होनी थी भर-भर क्यारी;

सैय्याद का ही हिया ना जमा,
प्यौध को ही इधर-उधर घुमाये फिरा!

जमा देता वो प्यौध जो एक ठिकाने,
फसल ने भर देने थे, चौक-चौखाने!

प्यौध से तो अस्तित्व की ही लड़ाई ना सम्भली,
फसल कब बनी कब खिली, ना जान सकी कमली!

वो हाथ अनाड़ी ना कीज्यो हे बेमाता,
कि उगावनियो ही रहा, जगह-जगह जमा के आजमाता!

इधर जमे तो उखाड़ के उधर जमाने लग जाई,
क्यारी-क्यारी ऐसी घुमाई, कि फसल कब-क्या बनी समझ ना आई!

बंदर की बंदूक बनी, अनकहे भी टेक गए लाखों श्यान,
फुल्ले भगत, जगत का पानी, बहता जा लिखे की ताण!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 22 October 2019

और कितना चूँट-चूँट खाओगे जाट को ओ भाँडो; बस लेने दो? रै जाट तू क्यों इतना नरम है मानवता व् सामाजिकता के आगे?

Please see the attached screenshot to understand the context of this post!

1947 में पाकिस्तान से लूटी-पिटी हिन्दू कम्युनिटीज आई, जाट ने सबसे ज्यादा अपनी दरियादिली व् पुरुषार्थ से अपनी छाती पर बसाई, इतनी बसाई कि न्यूनतम समय में यह कम्युनिटीज बहाल हो गई| 1984 में पंजाब में आतंकवाद हुआ तो 1986 से 1992 तक कुछ कम्युनिटी विशेष हिन्दू (5%), का पंजाबी सिखों ने मार-मार भूत उतारा व् वहां से भगाया, वह भी  जाट ने सबसे ज्यादा अपनी छाती पर बसाया| 1990 के आसपास बाल ठाकरे ने मुंबई-महाराष्ट्र में उत्तर-पूर्व भारतीय के नाम पर बिहारी-बंगालियों को पीटना शुरू किया, साथ में मोदी-शाह के गुजरातियों ने यही गुजरात में किया तो उनको भी यही जाट-बाहुल्य धरती ने अपनाया| 1993 में कश्मीरी पंडित जब भागे तो उनको देख लो सबसे ज्यादा कहाँ शरण मिली हुई है, इसी जाट बाहुल्य धरा पर| सभी को ऐसा अपनाया कि आज तक धर्म-भाषा-क्षेत्रवाद की ऐसी कोई बड़ी चिंगारी नहीं भड़की, जैसे 1947, 1984, 1990, 1993 में भड़की|

तो मीडिया वालो मत डंडा दो, जाट है यह; "जितना बढ़िया फसल बोना जानता है, उससे अच्छे से काटना जानता है"| यूँ ही नहीं कहा जाता कि 'जाट को सताया को ब्राह्मण भी पछताया"| सन 1761 में पुणे के ब्राह्मण पेशवाओं ने पानीपत की तीसरी लड़ाई के वक्त जाट महाराजा सूरजमल का अपमान किया था, यह तंज मारते हुए कि, "दोशालो पाटो भलो, साबूत भलो ना टाट; राजा भयो तो का भयो रह्यो जाट-को-जाट| ऐसी हाय लगी थी पेशवाओं को उस जाट को सताये की कि 1761 की पानीपत की तीसरी लड़ाई के मैदान में दिन-धौळी हार गए थे| और फिर उन अब्दाली से लूटे-पिटे-छिते पेशवाओं को इसी जाट के यहाँ मरहम-पट्टियाँ मिली थी| तो कोई ना जाट तो ऐसा ही नरम है उसके तो अपमान के बदले भी कुदरत अपने ढंग से ले लिया करे| तुम्हें किस बळ सेधेगी इसका पानीपत की तीसरी लड़ाई वाले सदाशिवराव भाऊ की भाँति तब पता चलेगा जब वह हार चुका था और हरयाणे की लुगाईयों ने भाऊ की जगह 'हाऊ' कहना शुरू कर दिया था| और हाऊ बोल के बच्चों को डराबा बालकों को सुलाने का प्रतीक बना दिया था| तुम क्यों बदनाम करो, यह बदनामी करना जाट और उसकी जाटनी तुमसे बेहतर जानती हैं| जब आएंगे इस नेगेटिव मार्केटिंग पर तुम्हारी तो तुम भाऊ से हाऊ बना दिए जाओगे|

या फिर सिर्फ जाट का ही क्यों, बाकी सबका भी बता दो कि किस जात-बिरादरी ने किसको वोट दिया?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Thursday, 17 October 2019

इंडिया में जो बढ़ रहा है या युगों से रहा है इसको पूंजीवाद नहीं कहते, इसको वर्णवाद की लक्ज़री कहते हैं!

वही वर्णवाद जिसके बारे ग्रंथों के हवाले से सुनते हैं कि उच्च वर्ण कोई अपराध भी कर दे तो वह दंड का भागी नहीं| तभी तो जितने भी उच्च वर्ण वाले करोड़ों-अरबों के घोटाले कर देश छोड़ जो चले गए जैसे कि माल्या-मोदी-चौकसी आदि-आदि एक की भी धर-पकड़ नहीं की गई आज तक| जितने भी कॉर्पोरेट वालों ने कर्जे लिए एक से भी उगाही नहीं; बल्कि सुनते हैं कि लाखों-करोड़ों के एनपीए और माफ़ कर दिए इनके; क्या यह स्टेट-सिस्टम के मामा के लड़के हैं या बुआ के? यह इसलिए हुआ है क्योंकि इनमें 99% तथाकथित उच्च वर्ण के हैं|

पूंजीवाद तो अमेरिका-यूरोप में भी है, परन्तु ऐसी खुली छूट थोड़े ही कि आप बैंक से ले कस्टमर तक से फ्रॉड करो और आपको सिस्टम-स्टेट कुछ ना कहे? यहाँ फेसबुक वाले जुकरबर्ग की कंपनी के हाथों कस्टमर का डाटा लीक हो जाता है तो तुरताफुर्ति में ट्रिब्यूनल्स हाजिर कर लेते हैं जुकरबर्ग को; वह भी सीधी एक-दो तारीख में ही एक-दो महीने में ही फैसला सुना दिया जाता है; कोई तारीख-पे-तारीख नहीं चलती| मामला जितना पब्लिक सेन्सिटिवटी का उतना ताबतोड़ सुनवाई और फैसला|

सच्ची नियत व् नियमों से पूँजी बना पूंजीवादी कहलाना कोई अपराध नहीं, जैसे बिलगेट्स-जुकरबर्ग आदि| परन्तु आपराधिक-फ्रॉड तरीकों से पूँजी बना के हड़प कर जाना और सिस्टम-स्टेट का उनको धरपक़डने की बजाये हाथों-पर-हाथ धरे रहना; यह पूंजीवाद नहीं अपितु वर्णवाद की लक्सरी है| ध्यान रखियेगा यह आपको इसको पूंजीवाद बता के परोसते हैं परन्तु यह है वर्णवाद की लक्सरी|

और यह वर्णवाद की लक्सरी, दुनिया में जाने जाने वाले तमाम तरह के भ्र्ष्टाचारों की नानी है|

अत: यह जो कहते हैं ना कि जातिवाद को खत्म करो; इनको बोलो कि पहले वर्णवाद को खत्म करो| करवाओ खत्म इससे पहले कि यह तुम्हारी नशों में नियत-नियम बन के उतर जाए या उतार दिया जाए और तुम इसको ही एथिक्स समझने लग जाओ| साइंस उलटी प्रयोग हो तो विनाश लाती है और सोशियोलॉजी उलटी प्रयोग हो तो नश्लें व् एथिक्स सब तबाह कर देती है| यह वर्णवाद यही है जो आपकी-हमारी नश्लें व् एथिक्स ही नहीं अपितु विश्व पट्टल पर देश की छवि तक को तबाह कर रहा है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

बेबे हे ले-ले फेरे, यू मरग्या तो और भतेरे!

एक दोस्त बोला कि तुम्हारे हरयाणवी कल्चर में पति की लम्बी उम्र का कोई त्यौहार नहीं है क्या?

पहले इस लेख के टाइटल की व्याख्या कर दूँ| शुद्ध उदारवादी जमींदारी के हरयाणवी कल्चर में जब शादी होती है तो दुल्हन को पति की मौत या लम्बी उम्र के भय से यह कहते हुए बेफिक्र कर दिया जाता है कि चिंता करने की जरूरत नहीं, बेफिक्र फेरे ले, यह मर भी गया तो और भतेरे|

इस कल्चर में कहावत है कि, "रांड कौन, रांड वो जिसके मर जाएँ भाई"| इस कल्चर में पति मरे पे औरत राँड यानि विधवा नहीं मानी जाती| उसको विधवा-विवाह के तहत पुनर्विवाह का ऑप्शन रहता है अन्यथा नहीं करना चाहे तो भी विधवा-आश्रमों में नहीं फेंकी जाती; अपने दिवंगत पति की प्रॉपर्टी पर शान से बसती है| और इसमें उसके भाई उसकी मदद करते हैं| इसीलिए कहा गया कि, "रांड वह जिसके मर जाएँ भाई, खसम तो और भी कर ले; पर भाई कहाँ से लाये?"

ऊपर बताई व्याख्या से भाई को समझ आ गया होगा कि क्यों नहीं होता; हरयाणवी कल्चर में पति की लम्बी उम्र का कोई त्यौहार? फिर भी और ज्यादा जानकारी चाहिए तो नीचे पढ़ते चलिए|

जनाब यह बड़ा बेबाक, स्पष्ट व् जेंडर सेंसिटिव कल्चर (वह सेंसिटिविटी जो एंटी-हरयाणवी मीडिया ने कभी दिखाई नहीं और एडवांस्ड हरयाणवी ने फैलाई नहीं; फैलाये तो जब जब समझने तक की नौबत उठाई हो) है| इसमें शादी के वक्त फेरे लेते वक्त ही लड़की को इन पति की मौत और उसकी लम्बी उम्र के इमोशनल पहलुओं से यह गीत गा-गा भयमुक्त कर दिया जाता है कि "बेबे हे लेले फेरे, यु मरग्या तै और भतेरे"| फंडा बड़ा रेयर और फेयर है कि घना मुँह लाण की जरूरत ना सै| वो मर्द सै तो तू भी लुगाई सै|

मस्ताया और हड़खायापन देखो आज की इन घणखरी हरयाणवी औरतों का कि जिसने "बेबे हे लेले फेरे, यु मरग्या तै और भतेरे" वाले लोकगीत सुनती हुईयों ने फेरे लिए थे, वह भी पति की लम्बी उम्र के व्रत रख रही हैं| यही होता है जब अपनी जड़ों से कट जाते हो तो| जड़ों से तुम कट चुके, शहरों में आइसोलेट हुए बैठे और फिर पूछते हो दोष किधर है? 35 बनाम 1 के टारगेट पर हम ही क्यों हैं?

मैं यह भी नहीं कहता कि जिन कल्चर्स में पति की उम्र के व्रत रखे जाते हैं वह गंदे हैं या गलत हैं| ना-ना उनके अपने वाजिब तर्क व् नियम हैं| इसलिए मैं उनको इस त्यौहार पर बधाई भी दिया करता हूँ| उनका आदर करूँगा तभी तो मेरा आदर होगा| परन्तु तुम क्या कर रही हो? ना अपने का आदर करवा पा रही हो ना उसका स्थान बना पा रही? वजह बताऊँ? 'काका कहें काकड़ी कोई ना दिया करता"| खुद का मान-सम्मान चाहिए तो उन बातों पे आओ जिनपे चलके तुम्हारे पुरखे देवता कहला गए|

अरे एक ऐसा कल्चर जो फेरों के वक्त ही औरत को आस्वश्त कर देता है कि इसके मरने की चिंता ना करिये, यु मर गया तो और भतेरे; वह इन मर्द की मीमांसाओं व् मर्दवादी सोच को बढ़ावा देने वाले सिस्टम में चली हुई हैं? रोना तो यह है कि फिर यही पूछेंगी कि समाज में इतना मर्दवाद क्यों है?

हिम्मत है तो अपने दो त्यौहार औरों से मनवा के दिखा दो और वह तुमसे हर दूसरे त्यौहार मनवा रहे हैं| बिना पते की चिठ्ठियों कित जा के पड़ोगी; उड़ ली हो भतेरी तो आ जाओ अपने कल्चर के ठोर-ठिकाने|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

Saturday, 31 August 2019

कहाँ था हरयाणवी कल्चर और कहाँ जा रहा है, जरा एक झलक देखिये!

जेंडर सेंसिटिविटी, जेंडर इक्वलिटी, औरत के सम्मान व् फेमिनिज्म तक की बातें करने वाले तो ख़ासा ध्यान देना!

"हो बाबा जी तेरी श्यान पै 'बेमाता' चाळा करगी,
कलम तोड़गी लिख दी पूँजी रात-दिवाळा करगी!"


बचपन से यह रागनी सुनके बड़ा हुआ हूँ, जिसको जब भी सुनता था तो हरयाणवी कल्चर में फीमेल का क्या ओहदा है स्वत: ही समझ आती थी| वह 'बेमाता' शब्द के जरिये इंसान को घड़ने वाली कही जाती थी, वह एक औरत बताई गई| परन्तु अब बदल रहा है कुछ, कैसे:

"बटुआ सा मुंह लेरी, पतली कमर,
आम जी नैं छोड़ी कोन्या किते रै कसर"

'आम', की जगह असल में क्या है इस गाने को सुनने वाले समझ ही गए होंगे| मैं इस जगह जो असल है उसका एक मैथोलॉजिकल अवतार के तौर पर बहुत सम्मान करता हूँ और यह दुर्भाग्य ही है कि इस मुद्दे पर ध्यान दिलवाने हेतु इस बात को इस तरीके से रख रहा हूँ| क्योंकि सीधा नाम ले के इनसे जुडी लोगों की भावना नहीं दुखाना चाहता परन्तु बात रखनी भी जरूरी थी तो राखी|

आदरणीय लेखकों और गायकों; अगर आप वाकई हरयाणवी कल्चर के पैरोकार हैं तो क्या बेमाता का ओहदा 'आम' को शिफ्ट करना, एक कल्चर में औरत के सम्मान का जो ओहदा है वह मर्द पर शिफ्ट कर देना नहीं है?
एक तो नेशनल से ले स्टेट मीडिया तक वैसे ही हरयाणवी कल्चर को घोर मर्दवादी बताने पर दिन-रात पिला रहता है तो ऐसे में किस से उम्मीद करूँ इसमें औरत के सम्मान की जो धारणाएं-मान-मान्यताएं हैं उनको बचाने की?

फ्रांस में रहता हूँ, औरत को सम्मान देने के मामले में इनसे बेहतर कल्चर आजतक नहीं देखा| भारतीय परिवेश में इस तरह का इसके नजदीक लगता कोई कल्चर है तो उसमें मैं सिखिज्म व् हरयाणवी को बहुत आगे काउंट करता हूँ| इतना आगे तो जरूर कि अगर कोई कम्पेरेटिव स्टडी खोल के बैठे तो उनको इतना तो जरूर साबित कर दूँ कि हरयाणवी कल्चर औरत को सम्मान देने में अन्य किसी भारतीय कल्चर से इतना ज्यादा तो जरूर है कि वह 19 की बजाये 21 साबित होवे|

अत: इन कलाकारों, लेखकों से इतना अनुरोध करूँगा कि एक ऐसे वक्त में जब सामाजिक संस्थाओं से ले समाज के जागरूक लोग तक इन चीजों की बजाये घोर राजनीति में ही उलझे पड़े हैं तो ऐसे में इन चीजों को मेन्टेन रखने की आपकी जिम्मेदारी सबसे बड़ी है| कृपया इसको सिद्द्त व् जिम्मेदारी से निभाएं| हो सके तो इस नए गाने के लेखकों गायकों तक जरूर यह बात पहुंचाएं और बताएं कि ठीक है धन कमाना भी जरूरी है परन्तु जहाँ कल्चर की कात्तर-कात्तर बिखरती दिखें उस राह जाना पड़े, आप इतने भी कम टैलेंट के साथ नहीं ज्वाजे हो बेमाता ने|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

कल्चर बनाम संस्कृति!

वेस्टर्न वर्ल्ड में "कल्चर" शब्द "कल्ट" यानि "खेती" से बना है और हमारे यहाँ यह शब्द एक भाषा संस्कृत पर बना है जिसको बोलते ही मुश्किल से 1% लोग हैं| तो व्यापक स्तर पर जनसंख्या "कल्चर" शब्द में कवर हुई या एक सिमित दायरे में बोले जाने वाली भाषा वाले शब्द से? यह सवाल उन ज्ञानियों से है जो यह कहते हैं कि हमारी शब्दवाली ज्यादा उत्तम व् व्यापक है? इसका एक अर्थ यह भी है कि एक भाषा से इस शब्द को बनाने वालों के लिए बस उस भाषा को बोलने वाले ही कल्चर्ड हैं बाकी सब नगण्य| यह है वेस्टर्न वर्ल्ड के शब्दों की व्यापकता जो मेजोरिटी को कवर करते हैं, मात्र 1-2% को नहीं, फिर चाहे वह मेजोरिटी खेती करने वालों की हो या इससे उतपन्न अन्न से पेट भरने वालों की यानि 100% वह भी 100% दिन ऑफ़ लाइफटाइम| वह कल्चर शब्द से उस कृषक को भी आभार व्यक्त करते हैं जो ना हो तो जीवन में अन्न खाने को ना मिले जो कि हर जीवन का आधार है यानि पूर्णतया कृतज्ञ लोग व् कृतज्ञ सोच वाला कल्चर| भाषा तो वेस्ट वाले भी बोलते हैं परन्तु उन्होंने "कल्चर" के लिए "खेती से जुड़ा शब्द क्यों चुना", इनकी भाषा से ही जुड़ा चुन लेते? दोनों ही शब्दों से कोई बैर या हेय नहीं है, बस सवाल उठा तो पूछा; जिस महाज्ञानी के पास जवाब हो तो जरूर देवे| अन्यथा सोचिये इस पर, क्योंकि आपकी मानसिक गुलामी यहीं पर बंधी प्रतीत होती है|

बचपन से सुनते आये थे और तथाकथित हरयाणवी-कल्चर को कम जानने वाले व् इसका उपहास उड़ाने वाले पत्रकार अक्सर जब ताऊ देवीलाल से यह पूछते थे कि, 'बाकी सब तो ठीक है, पर आपका कल्चर क्या है?" तो वो म्हारा बुड्ढा, म्हारा पुरख इनको सही इंटरनेशनल स्टैण्डर्ड का जवाब दिया करता था कि, "म्हारा कल्चर सै एग्रीकल्चर"| और जो कोई भी हरयाणवी, हरयाणे के ग्राउंड जीरो से बाहर देश-स्टेटों के शहरों या विदेशों में आन पहुंचा है वह सहज ही उस म्हारे पुरखे की इस बात को समझेगा, इसके मर्म को समझेगा|

ईबी खुद को खेती से जोड़ने से शर्म आती हो जिसने, उसको यह लेख पढ़वा दियो|

विशेष: संस्कृत तीन साल पढ़ी है, 95-97/100 नंबर से कभी कम ना आये, संस्कृति शब्द भी सुनहरा है, इसका मान-सम्मान-ओहदा सब कायम है मेरी नजरों में और रहेगा; परन्तु बात वह होनी चाहिए जो व्यापकता को समाहित करती हो, तभी तो असली "वसुधैव कुटुंभ्कम" चरितार्थ होवेगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 17 August 2019

ओहो तो "नरसी के भात" वाला किस्सा यह है!

जिसको अक्सर ऑडियो केसेट्स के जरिये बचपन से कृष्ण से जुड़ा हुआ बता के फैलवाया गया है? यह फंडी भी ना मेरे बटे कति तैयार बैठे रह सैं कि समाज में आर्गेनिक तरीके से कुछ फेमस हुआ नहीं और इन्होनें जुट जाना उसपे अपनी स्टाम्प लगा के गाना-बगाना|


ऐसे ही "बाला जी जट्ट" जिन्होनें महमूद ग़ज़नवी से सोमनाथ मंदिर का लुटा हुआ खजाना वापिस लूट लिया था, उनको उठा के हनुमान जी से जोड़ दिया और "बाला जी" टेम्पल्स सीरीज ही चला दी| तो भाई "बाला जी जट्ट" कह के पुजवाने में क्या ऐतराज था आपको, फिर कहोगे कि जाट खार क्यों खाता है| तुम तथ्यों को ज्यों-का-त्यों बना के प्रचारित क्यों नहीं रखते हो, क्या कोई दान-चढ़ावे के जरिये धन की कमी रखता है जाट तुम्हें सही-सही प्रचार करने हेतु?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

My challenge to you: मुझे मेरी 17 पीढ़ियों के नाम पता हैं, आपको कितनियों के पता हैं?


1) फूल मलिक पुत्र 2) (राममेहर मलिक + माँ दर्शना प्रेमकौर) पुत्र 3) (स्व. फतेह सिंह + दादी खुजानी धनकौर) पुत्र 4) स्व. लछमन सिंह पुत्र 5) स्व. शादी सिंह पुत्र 6) स्व. गुरुदयाल (गरध्याला) सिंह पुत्र 7) स्व. बख्श सिंह पुत्र 8) स्व. दशोधिया सिंह पुत्र 9) स्व. थाम्बु सिंह पुत्र 10) स्व. शमाकौर सिंह पुत्र 11) स्व. डोडा सिंह पुत्र 12) स्व. इंदराज सिंह पुत्र 13) स्व. राहताश सिंह पुत्र 14) स्व. सांजरण सिंह पुत्र 15) स्व. करारा सिंह पुत्र 16) स्व. रायचंद पुत्र 17) स्व. मंगोल सिंह

Note: तीसरी पीढ़ी के बाद की दादियों के नाम और पता लगाने हैं|

दादा चौधरी मंगोल जी महाराज ने अपने सीरी भाई दादा श्री मिल्ला कबीरपंथी के साथ सन 1600 में मोखरा, महम रोहतक से आकर अपना "दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर, निडाना" बसाया था| दादा मंगोल जी के नाम पर ही निडाना के "मंगोल वाला जोहड़" का नाम है|

मोखरा से पहले गठवालों की लेन जाती है गढ़-ग़ज़नी से आ कासण्डा, गोहाना में "दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर" स्थापित करने वाले दादा मोमराज जी महाराज से| क्योंकि वह गढ़ ग़ज़नी की बेगम से लव-मैरिज करके लाये थे इसलिए कटटर टाइप हिन्दू, गठवालों को एक मुस्लिम लड़की से ब्याह करने के कारण "महाहिंदु" भी बोलते हैं| और इसी के चलते मुग़लों ने कभी गठवाले जाटों की बारातों में धौंसा बजते नहीं रोका, ना उनकी बारात रोकी| हाँ, एक बार सन 1620 में गठवालों की छोरी का डीघल, 'रोहतक गाम में दिया कलानौर से गुजरता डोला रांघड़ों (हिन्दू राजपूत से कन्वर्टड मुस्लिम को रांघड़ बोलते थे) ने रोकने की कोशिश जरूर की थी जिसका अंजाम सर्वखाप के झंडे तले "कलानौर रियासत को मलियामेट' करने के स्वर्णिम इतिहास के रूप में दर्ज है|

इस हमले को लीड किया था सर्वखाप सेनापति स्व. दादा धोला सिंह सांगवान (age 19 years) ने| जिसकी कि कलानौर रियासत तोड़ने के बाद में गलतफमियों के चलते हत्या कर दी गई थी व् इस पर गठवालों ने अफ़सोस जताते हुए यह फैसला लिया था कि जिस जगह सर्वखाप ने कलानौर रियासत तोड़ने हेतु पड़ाव डाल लड़ाई के लिए "गढ़ियाँ" (मॉडर्न भाषा में फौजी बंकर बनाये थे, वहां "गढ़ी टेकना मुरादपुर" नाम (मुरादपुर इसलिए क्योंकि यहाँ कलानौर रियासत तोड़ने रुपी मुराद पूरी हुई थी, टेकना इसलिए क्योंकि सर्वखाप ने यहाँ अपना पड़ाव टेका था रखा था और गढ़ी क्यों वह आप समझ ही गए होंगे ऊपर पढ़ के) से गाम बसेगा और इस गाम में अन्य बिरादरियों के साथ सांगवान गौत के जाटों का खेड़ा होगा (पहले जबकि प्रस्ताव मलिक जाटों के खेड़े का हुआ था क्योंकि इस लड़ाई का आयोजन मलिक जाटों के आहवान पर ही हुआ था) और गठवाले यानि मलिक जाट इस गाम को अन्य मलिक गांव की तरह भाईचारे के तहत मानेंगे व् इसलिए इस गाम से रिश्ते नहीं बल्कि भाईचारे निभाएगे; जो वीरवर दादा स्व. धोला सिंह सांगवान जी को श्रद्धांजलि स्वरूप आज तलक भी कायम हैं| इसलिए इस आदर-सम्मान स्वरूप इस गाम में मलिक ना छोरी ब्याहते और ना छोरा, बल्कि भाईचारा चलता है| जबकि अन्य गाम के सांगवान जाटों के यहाँ मलिक जाटों के ब्याह-शादी के रिश्ते ज्यों-के-त्यों चलते हैं| यह बात ख़ास तीन दिन पहले ही मुझे पता लगी है, घर से|

गाम के बालक दो-तीन दिन से गाम के ओरिजिन बारे जानकारी चाह रहे थे तो सोचा यह जानकारी देने के साथ-साथ, बाकी साथियों को अपनी पीढ़ियों के नाम गिनवाने का चैलेंज भी दे दूँ| तो दोस्तों बताओ आप आपकी कितनी पीढ़ी गिना/गिन सकते हो?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 16 August 2019

भारत में शिक्षा-स्वास्थ्य को लेकर ग्राउंड जीरो वाले भारतीय तो क्या 90% एनआरआई इंडियंस तक सेंसिटिव नहीं जबकि!


कोई गोरा ना पढ़ ले इसलिए हिंदी में लिख रहा हूँ| सोचा अमेरिका-यूरोप वाली शिक्षा-स्वास्थ्य की सुविधाएँ भी ग्राउंड जीरो पर पहुँचें इस बारे भी बतला लेना चाहिए| वरना पीढ़ियां पेट-भर ठहराएंगी तुमको-हमको|

यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि कभी शिक्षा-स्वास्थ्य पर वर्ल्ड इंडेक्स उठा के देखो तो ऐसे-ऐसे कंट्री हमसे ऊपर हैं कि देख के शर्म आ जाए, तुमको-हमको| नहीं यकीन हो तो WTO व् UNSC की रिपोर्ट्स निकाल के पढ़िए|

खैर, इस विषय पर लेख लिखने का मन इसलिए हुआ कि आजकल इंडिया में डॉक्टर्स की सिक्योरिटी पर एक कानून लाये जाने बारे चर्चा हो रही है जिसमें अगर डॉक्टर से मारपीट की तो 10 साल के लिए अंदर जाओगे|

सरकार कानून ला रही है कि डॉक्टर्स से मारपीट की तो 10 साल की सजा तो सरकार जी अगला कानून क्या होगा आपका कि बैंक-जनता के पैसे लूटने वाले मोदी-माल्या-चौकसियों को गाली भी दी तो 10 साल की सजा?

यार पूंजीवाद तो अमरीका-यूरोप में भी है परन्तु किसी को खुल्ला सांड छूटने जैसी आज़ादी देने वाले कानून तो यहाँ भी नहीं| मतलब एक ऐसे माहौल में जहाँ लगभग हर दूसरा इंसान डॉक्टर्स की फीस की मनमर्जी, इलाज में लापरवाही का भुक्तभोगी है वहाँ डॉक्टर्स को ऐसा कानून और बना देना यानि इनको खुल्ला सांड बना देना| यह तो कुछ-कुछ उस रूढ़िवादी वर्णवाद जैसा हो गया कि डॉक्टर की लापरवाही से कोई मरीज का केस बिगड़ गया या मर गया तो बस खामोश रहो, विरोध या आक्रोश अंदर-ही-अंदर पी जाओ| क्या हम कभी इस वर्णवादी, गोबर से भी सड़ी विश्व की सबसे अमानवीय व्यवस्था से उभर भी पाएंगे या कोशिश भी करेंगे?

अरे छोडो यार, ग्राउंड जीरो पर बैठे इंडियंस तो क्या ही कोशिश करेंगे यहाँ तो 90% एनआरआई जो अमेरिका-यूरोप में बैठे हैं यही इस गोबर साइकोलॉजी को नहीं छोड़ पाते| और वह भी वर्ल्ड की बेस्ट हेल्थ एंड एजुकेशन सिस्टम्स में रहते हुए| उदाहरण के तौर पर फ्रांस की बताता हूँ| यहीं का हेल्थ सिस्टम अमेरिका तक में कॉपी हुआ है|

यहाँ एजुकेशन का मतलब है इंसान का उतना ही ज्यादा ह्यूमन ग्राउंड्स पर सेंसिटिव होना, जिम्मेदार होना जितना ज्यादा वह एडुकेटेड है; खासकर अपने देश-कौम की जनता के प्रति या अपने देश में रहने-बसने वालों के प्रति कहिये| जबकि हमारे यहाँ का वर्णवाद इसका बिलकुल विपरीत है, हमारे यहाँ एडुकेटेड होना मतलब सोसाइटी का बटेऊ/जमाई कहलाने जैसा होना, सोसाइटी पर एडुकेटेड होने का अहसान धर हर चीज पर "बाप का राज" टाइप की मेंटालिटी रखना|

पूंजीवाद अमेरिका-यूरोप में भी है परन्तु यहाँ का सिस्टम फेसबुक वाले जुकरबर्ग तक को कोर्ट के कठघरे में खींच लाता है जब बात पब्लिक की प्राइवेसी व् असिमता (dignity) की आती है| ऐसे नहीं कि कितने ही मोदी-माल्या-चौकसी बैंक-जनता के पैसे पर हाथ फेर, जनता की असिमता को ठेंगा दिखाएं परन्तु सरकार-सिस्टम उनका कुछ ना बिगाड़ पाए|

खैर बात फ्रांस के हेल्थ सिस्टम की: 0 से 25 साल तक हर प्रकार का इलाज फ्री (स्कूल के बाद वाले बच्चों पर 200 यूरो सालाना हेल्थ बीमा चार्ज), 26 से 55 साल तक हर प्रकार के इलाज की न्यूनतम 70 से 100% कॉस्ट सरकार भरेगी (इलाज-इलाज पर निर्भर है कि 70% या 100%), बाकी 30% का आपको इंसोरेंस लेना होगा, 55 साल से ऊपर जाते ही फिर इलाज फ्री|

डॉक्टर्स की फीस फिक्स है यूरो 25 डॉक्टर से एक मीटिंग के; चाहे आप सिंपल बीमार पड़ने से ले कैंसर-किडनी-पथरी जिस चीज का इलाज करवाओ, हर डॉक्टर पर सरकार की नकेल है; कोई भी इस फिक्स अमाउंट से ज्यादा चार्ज नहीं कर सकता चाहे 2 साल के अनुभव वाला डॉक्टर हो या 20 साल के अनुभव वाला| मेडिकल स्टोर्स पर बिना डॉक्टर की रिसीप्ट के आप सिर्फ ओटीसी मेडिसिन्स ही ले सकते हो वह भी तब जब आपकी मेडिकल स्टोर वाले से जानकारी हो जाए, अनजान स्टोर वाला आपको ओटीसी भी बड़ी मशक्क्त यानि 70 तरह के सवाल-जवाब के बाद देगा या नहीं ही देगा| झाड़-फूंक-टूना-टोटका-गृह-नक्षत्र देख-बता कर इलाज करने वाले तो यहाँ नाम सुनने तक को भी नहीं मिलते|

यही सिस्टम एजुकेशन का है, एजुकेशन में तो सरकार ने मोबाइल फ़ोन्स का इस्तेमाल तक बंद कर रखा है; वही इस्तेमाल जिसको कभी इंडिया में कोई सामाजिक संस्थाएँ बंद कर देती हैं तो सब तालिबान-तालिबान चिल्लाने लगते हैं| अरे जिन इंडियंस के खुद के बच्चे फ्रांस के मोबाइल यूज़ बंद स्कूलों में पढ़ते हैं, वह तक तालिबानी फैसला कह कर कोसते देखे हैं| किसी में इतनी सेंसिटिविटी नहीं कि अगर उस सामाजिक संस्था का बच्चों के फोन बंद करने का सलीका गलत है तो उनको सही सलीका सुझा सके, क्योंकि फैसला तो सही है| जब फ्रांस में सही है तो इंडिया में कैसे गलत हो जायेगा? परन्तु नहीं, सामाजिक सौहार्द और मेलजोल के नाम पर बस इतने ही सेंसिटिव हैं लोग कि चिल्ला लेंगे परन्तु किसी को फ़ोन करके यह नहीं बोलेंगे कि इस फैसले का टेक्स्ट चेंज करवाना चाहिए|

अब लेख हिंदी में लिखा है तो किसी गोरे के पढ़ लेने का तो भय है नहीं सिवाए अगर कोई इसका ट्रांसलेट मार के पढ़ने तक की जेहमत उठाये तो| दरअसल पेटभर कल्चर है यह वर्णवादी व्यवस्था वाला, जब तक इसको तिलांजलि नहीं दी जाएगी, तब तक ग्राउंड जीरो वाला इंडियन तो क्या 90% एनआरआई इंडियन तक भी ह्यूमन सेंसिटिव नहीं हो सकता|

बिना डॉक्टर्स की फीस व् इलाज में लापरवाहियों बारे सख्त कानून यथास्थान होने के साथ-साथ उनकी इम्प्लीमेंटेशन के ऐसे कानून लाने का पुरजोर विरोध होना चाहिए| यह सीधा-सीधा घिसा-पिटा वर्णवाद, लोगों की छाती पर बिठाने का नया खोल है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 25 July 2019

पाश्चात्य सभ्यता इतनी समृद्ध-संम्पन-खुशहाल-विकसित क्यों है?

क्योंकि यह उन बातों के प्रैक्टिकल करते हैं, जिन पर हमारे समाज या कहिये देश में सिर्फ थ्योरी चल रही हैं वह भी आज भी| हमारे वालों को यह कथावाचकों-जागरण आदि वालों के मुख से थ्योरी ही पसंद हैं, प्रैक्टिकल की बात करो तो औकात एक झटके में "सांप की केंचुली" की भांति धरा पर| क्या प्रक्टिकल्स हैं जो पाश्चात्य सभ्यता को इतना खुशहाल बनाते हैं, कुछेक इस तरह:

1) कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता, सब समान होते हैं - यहाँ पुजारी से ले व्यापारी, कर्मचारी से ले जमींदारी, मजदूरी से ले जमादारी; सबकी न्यूनतम आय वह भी बराबर अनुपात में ही फिक्स है| हम इंडिया में कितना देते हैं काम वाली बाई को? पूरे दिन का 5 से ले 10 हजार हद मार के? कोई 40-50 हजार भी कमाता हो तो काम वाली बाई आराम से अफ़्फोर्ड कर ले| लेकिन यहाँ, न्यूनतम शुरुवात ही 1500 यूरो यानि लगभग 1 लाख 10 हजार से शुरुवात होती है, यानि अगर आप 3000-4000 यूरो भी महीने के कमाते हो तो दस बार सोचना पड़ता है बाई रखने से पहले| इसको बोलते हैं वाकई में काम-छोटा बड़ा नहीं होना| प्लम्बर हो या कोई एमबीए किया हुआ प्रोफेशनल, शुरुवाती स्टार्ट सबका लगभग एक अनुपात का, यह नहीं कि प्लम्बर करियर शुरू कर रहा है 4000-5000 से और एमबीए वाला 60-70 हजार या लाखों से| वैसे इंडिया में आज के दिन सबसे कम कमाने वाला किसान है, मजदूर जितनी दिहाड़ी बराबर बचत नहीं उसको, खासकर अगर 2-4 एकड़ की जोत वाला है तो| नए जमाने के दलित तैयार हो रहे इंडिया में जिनका नाम है "किसान"| पता नहीं यह लोग बने किस मिटटी के हैं कि इतने घाटे सह के भी खेत जोतते ही जाते हैं| बड़ी जोत ना हो तो खेती करना सबसे बड़ा अभिशाप आज के दिन इंडिया में| परन्तु इसकी सरकारी व् किसान की खुद की भी, दोनों तरह की वजहें हैं, उस बारे फिर कभी|

2) पुलिस-एडमिनिस्ट्रेशन की है सर्विस की जॉब एंट्री लेवल यानि कांस्टेबल लेवल से शुरू होती है| कोई भी डायरेक्ट एसपी/डीसी नहीं बन सकता यहाँ| चौक-चौहारों पर कांस्टेबल वाला डंडा सबको लहराना पड़ता है पहले|

3) पादरी की पोस्ट्स पर कोई जातीय-वर्णीय बैरियर प्रैक्टिकल में ही नहीं है| असल तो यहाँ वर्ण सिस्टम ही नहीं तो वर्णवाद आना ही कहाँ से था| यह है प्रैक्टिकल बराबरी|

4) जेंडर सेंसिटिविटी में तो फ्रांस जैसे देश को पूरे विश्व की सभ्यता की माँ बोला जाता है| सबसे ज्यादा जीती हैं यहाँ की औरतें| सबसे ज्यादा हक व् खुलापन है औरत को यहाँ| इसके कहीं आधे-पद्धे भी मैंने ऐसा प्रैक्टिकल में देखा है तो इंडिया की "उदारवादी जमींदारी" जातियों के यहाँ देखा है, अन्यथा पूरे इंडिया में औरतों को यहाँ की अपेक्षा 10% भी आज़ादी नहीं 99% औरतों को|

अब कम-से-कम वह लोग यहाँ के प्यार के इजहार में इस्तेमाल होने वाले खुलेपन पर ही सारी तोहमत चेप कर पल्ला ना झाड़ लेना कि तुम ही इनसे श्रेष्ठ हो| ऐसे-ऐसे चिकलाते चिघनान काटते हमने ओटडे कूद, उन्हीं रिश्ते-मर्यादाओं में मुंह मारते देखे जिनको समाज के आधार-स्तम्भ बताया| और यहाँ वालों में आपस   में इतना संयम व् डिसिप्लिन है कि कोई जोड़ा किस कर रहा हो तो सबको अपने काम से काम है, कोई ध्यान भी नहीं देता कि कौन जोड़ा गले मिला या किसने किस किया|
 
कमाल की बात तो यह देखी कि एनआरआईयों को सुविधाएँ को यूरोप की ही चाहियें, परन्तु दिमाग में वर्णवाद का कचरा वही रखना जो हमारे समाज का सबसे बड़ा कलंक है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

Tuesday, 4 June 2019

सीएम खटटर खुद को जाट बोल/बुलवा रहे हैं तो आप क्यों बौरा रहे हैं?

ऐसी कुछ रिएक्शंस आई हैं मेरे पर्सनल बॉक्स में मेरी कल वाली इस विषय पर लिखी पोस्ट को लेकर, जिसमें मैंने कही है कि अगर सीएम वाकई जाट हैं और वह राजनीति से परे सच्ची नियत रखते हुए खुद को लोकल जाट जाति में शामिल करना चाहते हैं तो इस पर जाट को भी विचार करके, बड़ी पंचायत कर लेनी चाहिए|

जैसा कि मैंने उस पोस्ट में कही यह दूसरी बार है जब सीएम जैसा यह प्रयास हो रहा है| पहला प्रयास जब 1947 में आये थे तब भी हुआ था| इस पर सीएम की बात को आगे रखते हुए, एक बार बैठ कर ऑफिसियल स्तर पर विचार कर लेना चाहिए| अगर सिर्फ पोलिटिकल स्टंट होगा तो वह भी पता चल जायेगा और अगर वाकई में वह जाट हैं वह भी सामने आ जायेगा| और ऐसे ही यह तमाम जातियां डिकोड होकर अपनी-अपनी स्थानीय जातियों में मर्ज हो जाती हैं तो इसके फायदे बहुत हैं:

1) 35 बनाम 1 का मुद्दा अपनी मौत खुद मर जायेगा|
2) इस 35 बनाम 1 के चलते आज हरयाणा, पंजाब के 1984 जैसे हालातों से गुजर रहा है और एक ऐसी भट्टी पर धधक रहा है कि एक छोटी सी करेली (छड़ी से दबी आग को उभारना) भी पूरी स्टेट को लपेटे में ले सकती है और अगर ऐसा हुआ तो सब ओर अव्यवस्था व् अराजकता फ़ैल जाएगी| और कहीं ना कहीं सीएम को इस बात का भान है शायद इसलिए वह ऐसा प्रयास करते होते हो सकते हैं; वही बात जो बार-बार दोहरा रहा हूँ कि क्या पता उनकी मंशा सच्ची हो| कम-से-कम इस पर एक पंचायत बुलाने में क्या हर्ज है? वरना कल को प्रदेश 1984 वाले आतंकवाद वाली मारकाट में उलझ गया तो कौन जिम्मेदार होगा?
3) कई कह रहे हैं कि फिर सर छोटूराम ने जिन सूदखोरों व् ढोंगी-पाखंडी फंडियों के खिलाफ किसान-मजदूरों-व्यापारियों के हकों बाबत आंदोलन किया था उनका क्या? उनसे इसी शैली में सवाल है कि जिन किसान-मजदूरों-व्यापारियों के लिए आंदोलन किया था क्या वह उधर वाले पंजाब में नहीं थे? थे ना, तो किधर हैं वो आज? कुछ मुठ्ठीभर की वजह से अलगाव रख के रहना कहाँ तक जायज है? वही सर छोटूराम वाली बात, उनको पहचानों और उनसे बचो; बाकियों को क्यों एक ही लपेटे में ले रहे हो? और ऐसे लोग क्या तब के इधर वाले पंजाब में नहीं थे या आज नहीं हैं?

मेरा तो अनुरोध रहेगा अगर कोई सामाजिक-पंचायती आदमी इस पोस्ट को पढ़ रहा हो तो बेशक इस लेख को किसी भी आम या खास पंचायत को पहुंचवा दीजिये और कहिये कि सीएम की इस एप्रोच पर एक बार बैठकर विचार जरूर करें| इससे दोनों ही बातें हो जाएँगी, अगर यह मिथ्या प्रचार होगा तो यहीं के यहीं थम जायेगा अन्यथा वही बात हरयाणा में नए सामाजिक समीकरण उभरेंगे जो 35 बनाम 1 के मुद्दे को तो बैठे-बिठाये निगल जायेंगे| और वैसे भी यह प्रयास सीएम की तरफ से है वह भी दूसरा ऐसा प्रयास; तो एक बार बैठ के बतलाने में क्या हर्ज?

मैं तो पूरा सहयोग करने को तैयार हूँ इस मुद्दे पर| जो शोध या स्ट्रेटेजी बनानी हो इस पहलु की सत्यता हेतु उस पर विचार को भी तैयार व् योगदान को भी| बाकी जिनको नाज के बहल की मारणी है, वह मारते रहें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

अगर जैसा फैलाया जा रहा है वैसे मनोहरलाल खट्टर वाकई में जाट हैं तो!

बात थोड़ी मेरे बचपन से: हमारे गाम में एक दुकान को "पाकिस्तानी की दुकान" बोला जाता था| मेरी दादी जी जब भी मेरे से कुछ सामान मंगवाती तो कहती कि "पाकिस्तानी वाली दुकान" से लाना, ताकि उसकी कुछ आमदन हो जाए और उसका घर ठीक से चलता रहे| इसको दादी जी की मानवता ही कहूंगा| जात-बिरादरी समझने की जब तक अक्ल ना आई तो यही समझता रहा कि जाट-बाह्मण-कुम्हार आदि की तरह पाकिस्तानी भी कोई जाति ही होगी| परन्तु जब जानने लगा कि पाकिस्तान एक देश है तो एक दिन दादी से ही पूछा कि ऐसा है तो फिर उस दुकान वाले पाकिस्तानी ताऊ की बिरादरी क्या है?

तो दादी ने बताया कि जातियां तो इनकी भी हमारी तरह ही हैं, अन्यथा कौनसा पाकिस्तान बॉर्डर के उधर जातियाँ नहीं थी; परन्तु क्योंकि जब यह आये-आये थे तब इनके प्रयासों के बावजूद यहाँ लोगों ने इनको अपनी-अपनी बिरादरियों में जाति बताने के बाद भी स्वीकार नहीं किया तो यही इनकी पहचान बन गई|
दादी से पूछा कैसे प्रयास?

तो दादी बोली कि जब यह लोग वहां से आये थे तो यहाँ अपनी-अपनी जातियों के लोकल लोगों के साथ रिश्ते चाहते थे और अपनी-अपनी जाति में मिक्स होना चाहते थे| परन्तु स्थानीय लोगों ने उस वक्त के अविश्वसनीय माहौल को देखते हुए, इनको मिक्स करने में झिझक दिखाई| अन्यथा हिन्दू समाज के वर्णों के अनुसार चार वर्ण व् एक अवर्ण इनमें भी हैं| मैंने कहा चार वर्ण तो हुए बाह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व् शूद्र, यह अवर्ण कौन हैं? दादी बोली कि जाट अवर्ण हैं यानि हम, हमारे पुरखे इस चतुर्वर्णीय व्यवस्था को नहीं मानने वाले रहे हैं| और इसी वजह से ऋषि दयानन्द जैसे समझदार बाहमण हमें "जाट जी" व् "जाट देवता" कहते-लिखते-बोलते आये हैं|

खैर, यह तो है इस पहलु का वह इतिहास जो मेरी दादी जी से सुना-जाना| अब बात, फ़िलहाल चल रही सोशल मीडिया पर इस बात कि "हरयाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर खुद को जाट प्रचारित करवा रहे हैं" की|
इसके दो हवाले खुद सीएम के मुख से सुनने को आये हैं|

एक अभी निबटे लोकसभा चुनाव-प्रचार के दौरान उन्होनें रोहतक के निंदाना गाम की सभा में वहां के जाटों को यह कहा है कि, "हूँ तो मैं भी जाट ही, परन्तु पाकिस्तान से आया होने की वजह से आप लोग नहीं मानते वह अलग बात है"|

दूसरा वाकया रोहतक के ही मदीना गाम के सरपंच के साथ उनके सामाजिक संबंधों से निकल कर आता है, जहाँ इनके दूर के मामा भी रहते हैं जो कि ढिल्लो गौती जाट हैं|

खैर, मेरे लिए यह अचरज की बात नहीं क्योंकि चौधरी भजनलाल भी गैर-जाट की राजनीति करते-करते अंत में जाट ही निकले जो कि वह हैं भी| बस जाति छुपाकर गैर-जाट राजनीति करते रहे|

अब ऐसे मौके पर जबकि चार महीने बाद हरयाणा में विधानसभा चुनाव सामने खड़े हैं, उस वक्त पर सीएम खट्टर का यह जाट-प्रेम किन मंशाओं के चलते है बारीकी से समझने की बात है|

अगर यह सिर्फ जाट वोट लेने के चक्कर में है तो फिर जाट बनाम नॉन-जाट व् 35 बनाम 1 क्यों होने दिया हरयाणा में? होने दिया सो होने दिया, इसको अब खत्म करवाने हेतु क्या प्रयास रहेंगे सीएम के? और क्या यह सिर्फ आगामी विधानसभा में वांछित बहुमत के लिए जाट वोट कितना अहम् है यह भान के हो रहा है, प्रचारित करवाया जा रहा है?

राजनीति के परे अगर यह वाकई में सामाजिक स्तर पर मिक्स होने की दूसरी कोशिश (पहली कैसे हुई थी उस बारे ऊपर बताया) है तो सीएम को इसके लिए बाकायदा एक समिति बना के इस पर पूरी शोध करवानी चाहिए व् उन परिवारों से इसकी सत्यापना करवानी चाहिए जो आज के इंडिया-पाक बॉर्डर के दोनों तरफ के 100-50 किलोमीटर के दायरे में रहते थे व् आपस में वैवाहिक रिश्ते थे| यही वह परिवार हैं जो इस बात को सही से हल करवा सकते हैं| उस वक्त वाले प्रयास सिरे ना चढ़े हों परन्तु क्या पता अब वाले चढ़ जाएँ अगर वाकई में इसको लेकर सीएम की सोच व् नियत सूची है तो|

परन्तु कहीं यह इलेक्शन के वक्त का सीएम का जाट प्रेम इनकी पार्टी की पॉलिटिक्स तो नहीं ले डूबेगा? पता लगा जाट बनने के चक्कर में जाट बनाम नॉन-जाट हुआ पड़ा सारा माहौल ही पलटी मार गया और सब बीजेपी को छोड़ अन्यत्र चले गए? कितने जाट फेस सीएम नहीं चाहने वाले लोगों को झटके लगेंगे यह जानने पर कि भजनलाल की तरह यह भी जाट निकले?

अगर यह प्रचार कोरी राजनीति से प्रेरित है तो नहीं ही हो तो बेहतर अन्यथा अगर सीएम इसको सामाजिक बँटवारा पाटने हेतु कर रहे हैं तो यह विचारणीय कदम है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक