Thursday, 21 November 2019

बीएचयू में मुस्लिम प्रोफेसर को संस्कृत पढ़ाने नहीं देने का एपिसोड!

जिस तरीके से बीएचयू में एक मुस्लिम प्रोफेसर को संस्कृत नहीं पढ़ाने दी जा रही, इसको देखते हुए तो ऐसा लग रहा है कि धीरे-धीरे वह युग वापिस आ रहा है जिसके बारे बताते हैं कि संस्कृत पढ़ने-पढ़ाने का हक एक धर्म के अंदर भी एक जाति-नश्ल-वर्ण विशेष को ही होता था या ऐसा उनके द्वारा स्वघोषित था? तो क्या अब अगला कदम यह होगा कि गैर-धर्मी के बाद दलित-ओबीसी प्रोफेसरस को भी संस्कृत पढ़ने-पढ़ाने से रुकवा दिया जायेगा?

इसको देखते हुए तो फिर नंबर आर्यसमाजी जाटों का भी आएगा, जो ब्याह-शादियों में फेरे तक अपने बच्चों के खुद करते-करवाते हैं? अपनी जाति से बाहर वाले से फेरे करवाना तो बहुत से गाम-कुनबों में आज भी अशुभ भी माना जाता है और स्वीकार्य भी नहीं है| मेरे तो खानदान-कुनबे-ठोले तक में पीढ़ियों से चला यह दस्तूर आज भी कायम है कि ब्याह फेरे हों या मरगत-उद्घाटन के हवन, हमेशा घर बड़ा बुड्ढा जानता हो तो उससे अन्यथा जाट शास्त्री से ही फेरे-हवन आदि करवाते हैं| मेरे बड़े भाई-भाभी के फेरे, भाभी जी के दादा जी ने करवाए, मेरे बाप-दादा-पड़दादा के फेरे जाट-बडेरों ने करवाए, छोटे भाई के फेरे जाट आर्यसमाजी ने करवाए| अभी 2018 में जब इंडिया गया था तो मेरी चचेरी दादी की मरगत का हवन तक जाट आर्यसमाजी से ही करवाया था फिर भले ही उसके लिए स्पेशल 2 घंटे इंतज़ार करना पड़ा सबको|

भाई, इन हालातों तो एक सलाह है कि जल्दी-जल्दी इन फेरों के मंत्रों को अपनी हरयाणवी में ट्रांसलेट मार लो और संस्कृत के साथ-साथ हरयाणवी में फेरे करवाने शुरू कर लो| क्या पता कब फरमान आ जाये कि संस्कृत पे तो हमारा कॉपीराइट है तुम प्रयोग नहीं कर सकते| साथ-साथ अग्नि के साथ-साथ सिख धर्म में जैसे "उनके धर्मग्रंथ" के राउंड्स काट के फेरे लेते हैं ऐसे ही "दादा नगर खेड़ों" के राउंड्स काट के फेरे लेने भी शुरू कर लो वरना पता लगा कि अग्नि वाले फेरों पे भी कॉपीराइट लागू हो गया कि यह वाले तो विशेष वर्ण-समूह वाले ही कर-करवा सकते हैं बस|

जुनसे ने हरयाणवी में फेरे करवाने की बढ़िया फीस चाहिए बेशक इब से ही हरयाणवी में ट्रांसलेट करके और सुर-ताल-लय ज्यों-की-त्यों संस्कृत वालों के तर्ज पे बिठाना शुरू कर लो| क्योंकि चिंता ना मानियो, इतनी जागरूकता फैला दी है साथियों ने हरयाणवी को ले के कि आने वाले वक्त में थम बेरोजगार भूखे नहीं मरोगे, इतनी डिमांड बढ़वा देंगे थारी|

फेर चाहे सर पे धर के नाच लियो इस संस्कृत ने और संदूकों में बंद करके रख लियो यह बीएचयू वाले| हद होती है जाहिलता-गंवारपणे और नस्लीय नफरत व् भेदभाव की भी| मेरे हैं मेरा धर्म है तो क्या मैं इसमें इतनी हद से ज्यादा की नस्लीय नफरत व् घमंड को भी पी जाऊँ? यहाँ फ्रांस की यूनिवर्सिटीज-स्कूल-कॉलेज तो क्या पूरे यूरोप-अमेरिका का दिखाओ इनको, इतने ईसाई टीचर बाइबिल ना पढ़ाते गोरों को जितने कई-कई इंस्टीटूशन्स में तो अरबी व् अफ्रीकन मूल के मुस्लिम पढ़ाते हैं| समझ ना आती देश इन गँवारों को झेल क्यों रहा है आखिर|

जो चीज इतनी बड़ी नफरत का पर्याय बनती हो वह किसी भी सभ्य धर्म का अंग तो कतई नहीं ही हो सकता; फिर किसी को इस लेख में लिखी बातें पसंद आवें या ना आवें| हम तो औरों के ही धर्म की वाहियात बातें नहीं सुनते तो अपने में कैसे सहन कर लें?

इनको दण्ड़काना शुरू करो कि, "या तो तुम सुधरो वरना अपनी पदवी से उतरो"

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

ए री दादी, ए री माँ; सुनती जाईए री!

हरयाणवी अणख, हरयाणवी किनशिप का चलता-फिरता इनसाइक्लोपीडिया थी मेरी दादी! आज दादी की 17वीं मरगत-तिथि सै!

16 साल हो गए तुझे हमको छोड़ के गए हुए और मेरे से बिछड़े हुए तो 18 साल| तेरी वह बुझी सी सूरत आज भी जेहन में तरोताजा है जब मेरी फ्रांस जाने की बात सुनके सब खुश थे परन्तु तू जैसे शॉक में पलंग पे ही जमी रही 3 दिन, और मेरे फ्रांस आने की तैयारियां तेरे इर्द-गिर्द तेरे ही दिशा-निर्देश अनुसार चलती रही थी| आते हुए तुझे झकझोरा परन्तु तू बुत बनी बैठी थी| परन्तु यह इंस्ट्रक्शन देनी फिर भी नहीं भूली कि, "आपणे रीत-रवाज-पच्छोका सदा गेल राखिए"|

छह दिन का था जब जामण आळी चली गई थी, तेरे में ही माँ अर दादी दोनों रूप मिले| वो जो दुनियाँ को कई बार कहता हूँ ना कि, "पोतड़ों में पॉलिटिक्स सीख के बड़ा हुआ हूँ"| वह सबसे ज्यादा तुझसे ही तो सीखी थी|

जब तू सर धुवा कें चुण्डा करवाती थी और फिर सर पे लत्ता धरती थी तो तेरे चेहरे व् माथे का ललाट ऐसी आभा बिखेरता था कि महारानी भी फेल होती थी तेरे उस डठोरे के आगे|

जब तू मरी थी तो कईयों की जुबानों से कहते सुना था कि "गाम का मोड़ गया", "मैदान का बड़ गया"|

खैर तू जानती है फंडी-पाखंडियों वाले पुनर्जन्म-मरण-पितृ आदि से तेरे जैसे पुरखों ने दूर रहना ही सिखाया; थमनै इतना जरूर बताया कि अगले-पिछले जन्म का नहीं पर अगली-पाछली पीढ़ी का करया होया, उसतैं आगली पै जरूर चढ़या करै; तो इसे खातर इतना जरूर कर दिया था अक तेरी चिता की राख उठा के उसकी एक-एक मुट्ठी अपने सारे खेतों-रजबाहों में बहा दी थी, बिखेर दी थी| वहीँ होगी ना तू अपने खेतों में? कभी उनमें काम करती हुई, कभी उनकी डोल पे बैठ के तेरे बेटे यानि मेरे बाप की बाड़ बनी उसकी रूखाळी करती हुई? घर-कुणबे पै आई मुसीबतों में मेरे बाप-दादे से पहले उठा जेली हाथ में अपना धड़ उनसे आगे अड़ाते हुई, आज भी खड़ी है ना तू गाम के मैदान पे गरजती हुई कि, "आ जाओ मेरे तल्लाकियो, जमा-ए-सुन्ने ला लिए"? तुझसे ही सीखा है कि जाटणियां, हमले होते देख; "आग के कुंड सजा के उनमें कूदने की बजाए; जेळी से बैरी के मुंड छेद लिया करती हैं"| 

चिंता ना कर उधम के डब्बी आज भी कई बार कह देते हैं कि भाई दादी को देख उसके भय से हम जब गाल छोड़ दिया करते थे, वह गालें आज भी छोड़ने का जी करता है बस काश दादी फिर से मैदान-चौराहे पे पीढ़ा घालें बैठी दिख जाए तो|

तेरे छींट आळे दामण की झाल, तेरी छींट-चित्ते वाली चूंडे पे धरी चुन्दड़ियाँ, चर-चर करती तेरी जूती, चिंता ना करिये सब घर की बाहण-बेटी-बहुओं को भी पास कर रहा हूँ| सबसे ज्यादा दबाव मैं ही दिए रहता हूँ सब बुआ-बाहण-भाभियों को कि यही चीजें ही नहीं छोड़नी बस| सुलोचना की होक्के गेल आळी हरयाणवी ड्रेस की फोटो दिखाते तुझे जिन्दा होती तो|

तेरी वह रेहड़ी पर से बिना तुलवाए चीज नहीं खाने की सीख आज भी फ्रांस के शॉपिंग-माल्स तक में साथ ले के चलता हूँ और चीज को चखता भी तभी हूँ जब तुलवा लेता हूँ| वह तेरी "भूखा-माडा-नंगा भूखा नहीं जाने देने की और फंडी मुंह नहीं लाने की "दादा नगर खेड़े वाली सीख" भी साथ लिए हुए हूँ| सीरी-साझी को कुनबे शामल खाना खिलाने की सीख म्हारी माँ यानि तेरी बहु आज भी यूँ की यूँ चलाये हुए है|

एक वो तेरा जो तेरी गाम-गुहांड की अपने घर आई डब्बणों (म्हारी दादियों से) से तीन बार गाल-से-गाल मिला के गाफी भर-भर मिलना होया करता ना (के कह के मिला करती जो घनी प्यारी होया करती उससे कि "हे आ जा मेरी तल्लाकण, काळजे के लाग जा"; वो यहाँ फ्रांस के कल्चर में भी यूँ का यूँ ही है| यहाँ देखता हूँ तो सुखद अनुभूति लेता हूँ कि क्या ग्लोबल स्टैण्डर्ड का कल्चर विरासत में मिला; थारे बरगे पुरखों के जरिए| 

और कितने किस्से गाऊं तेरे आ के बता जा तू ही|

आज तक भी जितना रोमांचित मुझे मोहळे व् ज्याब की (तेरे पीहरों की यानि मेरे दोनों दादकों की) यादें करती हैं इतना रोमांचित बाकी यादों में होता तो हूँ परन्तु इन जितना नहीं| मोहळा (हिसार) की गलियों के तब के वेस्ट-मैनेजमेंट के सिस्टम, साफ़-सफाई इतनी कि आज की मोदी की सफाई अभियान फेल हो जाए, इतनी चमचमाती गलियां और वो रूख, वो परस, वो काका रमेश के ब्याह में केसूहड़े आगे नाचती घुंघरुओं वाली घोड़ी, घोड़ी के आगे बजता धौंसा और तेरा दामण पकड़ें उनको देखता मैं; सब यूँ के यूँ धरे दिमाग में कि जी में आवै उठा के गूंची सब उतार दूँ पेंटिंग में|

जब तू मरी थी तो उस वक्त गया था तेरे दोनों पीहर, अब भी जाता रहता हूँ| उस वक्त मोहळा में दादा होशियारा बड़ी नदी के पार वाले खेतों वाली वह पाळ दिखा के लाया था जहाँ बालकपन में तुम भाई-बहन इकट्ठे डांगर चराया करते| दादा रोने लग गया था तुझे याद करता-करता| बहुत किस्से सुनाएँ थारे बचपन के, क्यूकर तुझे भुळा के बड़ी बहन का हवाला दे, अधिकतर वक्त तेरे से ही डांगर हिरयवाया करते और फिर जब तुझे उनकी स्यानपत पता लगती तो तू कैसे उन सारों की कुटाई किया करती| जितना तेरे से डरते थे तेरे भाई उससे कई गुणा ज्यादा प्यार करते थे तुझसे; उस दिन खेत की डोल पे दादा होशियारे को बैठ के तेरी याद में रोते देख इस बात का अहसास हुआ मुझे| दादा बोला पोता तेरा बाप आ लिया, तेरा दादा आ लिया तेरे भाई-बाहण भी आ लिए पर जो हरक तेरी दादी के नाम का तैने ठुवा दिया इसकी टीस ही न्यारी सै| और इसकी वजह बताई कि जो छड़दम तू तारया करता मोहळा आ के वें सबतैं न्यारे होया करते और सबतैं निश्छल व् प्यारे भी; इसीलिए तुझे आता देख के तो न्यू लगया जानूं खुद धूळा  चाली आवै सै|

तेरे दूसरे पीहर ज्याब (रोहतक) भी गया था| वहां सारे दादी-काके-ताऊ-भाईयों में तेरे नाम की, तेरी याद की चमक-धमक दोनों उतने ही वेग की ताजा हैं; जैसे कभी तेरे साथ हमें आते देख; भाजड़ पड़ ज्याया करती; "बुआ आ गई, बुआ आ गई" करते हुओं की| ज्याब जित थम मैंने घाल्या करते या छोड़ के आया करते 2-4 दिन के लिए और मैं मोरा मार के 20-20 दिन सारी छुटियाँ वहीँ काट आया करता| क्योंकि मुझे वहां कोई रोक-टोक नहीं होती थी; आइशर-मेसी-फोर्ड-HMT चारों ट्रेक्टर चलाने मुझे ज्याबियों ने ही तो सिखाए थे| वो कलानौर में ताऊ आळे घर में बेबे के फेरों के वक्त, मिठाई के कोठे पे डिठोरे से एक हाथ चौखट पर व् एक हाथ में मुझे पकड़े; आज भी खड़ी दिखती है तू| दोनों दादकों में ब्याह-वाणो में मिठाई के कोठों का चार्ज तुझे मिलता, आज भी देखना चाहूँ सूं| ईबी भी म्हारे में तें कोई सा चला जाओ, सबकी निगाह तैने टण्डवालती पावें म्हारे म|  

इब बता कित-तैं-ल्या कैं द्यूं तैने इन ताहिं| ज्याबियों की खजानी तू और मोह ळी यों की धनकौर उर्फ़ धूळा तू, बता कित तैं ल्या कें दयूं तैने इन ताहीं? अर और के-के तो लिखूं और के-के छोडूं? कदे जिंदगी ने फुरसत दी तो किताब ही लखूँगा तेरे पे|

सलंगित फोटो में हैं मेरी दादी, बाबू, बाबू की गोदी में मैं और दादी के बगल में बड़ा भाई मनोज| 

जय यौधेय! - फूल मलिक









ज्यादा जायदाद प्रॉपर्टी पर कण्ट्रोल के नाम पर परिसीमन होवे तो जमीन-दुकान-फैक्ट्री-मठ-मंदिर-मस्जिद हर किसी की प्रॉपर्टी का बराबर से होवे अन्यथा अकेले किसान-जमींदार का ना होवे!


भजनलाल सरकार के वक्त एक बात आई थी कि ज्यादा लैंड प्रॉपर्टी का परिसीमन यानि कण्ट्रोल किया जाए और जमींदारों के यहाँ एक जमींदार के नाम 12-15 एकड़ से ज्यादा लैंड नहीं होनी चाहिए?

आगे का रास्ता: आवाज उठाये रखनी होंगी कि ज्यादा प्रॉपर्टी तो दुकान-फैक्ट्री-इंडस्ट्री-कॉर्पोरेट वालों की भी होती है, मठ-मंदिर-अखाड़े-चर्च-मस्जिद आदि वालों की भी होती है; कभी इनका भी परिसीमन करे गवर्नमेंट| यह भी एक हद से ज्यादा किसी के पास हों तो हद तक की छोड़ के बाकी दूसरों में बाँट दे|

जैसे दुकान-फैक्ट्री व्यापारी का कारोबार है, मठ-मंदिर-मस्जिद धर्म के झण्डाबदारों का कारोबार है; ऐसे ही लैंड किसान-जमींदार की फैक्ट्री होती है| इसलिए या तो हर प्रकार की प्रॉपर्टी का परिसीमन होवे अन्यथा अकेले किसान-जमींदार पर इसकी मार क्यों?

यह आवाजें अभी से उठानी शुरू कर दीजिये सोशल मीडिया व् ग्राउंड दोनों पर अन्यथा किसान-जमींदार तैयार रहे अपने हाथों से जमीनें जाती देखने को| क्योंकि जिस तरीके से यह सरकार हर सरकारी संस्था-कंपनी बेच रही है प्राइवेट के हाथों, अचरज मत मानना अगर भजनलाल के ज़माने वाला दूसरा परिसीमन ना थोंप देवें तो आप पर|

इसलिए यह अंधभक्ति और धर्मभक्ति उतनी ही करो जितने से तुम्हारे घर-कारोबार-पुरखों की खून-पसीनों की बनाई जमीन-जायदादें बची रहें उनको छूने तक से यह डरते रहें| तुम्हारी अंधभक्ति इनको तुम्हारे घरों-प्रॉपर्टी तक की नीलामी करने की गुस्ताखी करने की ताकत देती हैं|

और एक ख़ास बात, किसान-जमींदार के तो अकबर के ज़माने से पहले व् उसके बाद के तो निरंतर अपनी प्रॉपर्टी के टैक्स वगैरह भरने के रिकार्ड्स तक हैं और जो टैक्स भरते हों उनको सरकार ऐसे परिसमनों के बहाने नीलाम नहीं कर सकती| और बावजूद इसके यह चीजें होने की दस्तक है| बावजूद इसके कि व्यापारी और पुजारी सबसे ज्यादा टैक्स चोर, सबसे ज्यादा लोन-फ्रॉड्स करते हैं वह भी करोड़ों-करोंड़ के, किसान की तरह एक-दो लाख के नहीं और फिर भी इनकी प्रॉपर्टीज को कोई नहीं छूता पता है क्यों? क्योंकि यह धर्म को धंधे वाली वेश्या की तरह धन कमाने को प्रयोग करते हैं और तुम अंधभक्त बनके इस धंधे को पोसते हो अपने घर धो के पोसते हो| या तो इतने बड़े उस्ताद बनो की इनकी तरह धर्म को धंधा बना के पैसा बना सको वरना मेरे दादा वाली भाषा वाली "घर फूंक तमाशा देख वाली बोली-ख्यल्लो" बनने में कुछ ना धरा|

बैलेंस में आ जाओ और सुधर जाओ, वरना अपनी बर्बादी की इबारत अपने हाथों लिख रहे हो ध्यान रखना; कल को किसी और के सर कम व् तुम्हारे सर सबसे ज्यादा उलाहना होगा| और इसमें दोनों ही आ गए, क्या शहरी क्या ग्रामीण| वर्ण के भी चारों आ गए क्या ब्राह्मण, क्या क्षत्रिय, क्या वैश्य, क्या शूद्र व् पाँचवा आवरण जाट भी आ गया| और के धर्म भी सारे आ गए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 12 November 2019

जब सर छोटूराम के आगे गाँधी-नेहरू-जिन्नाह फ़ैल हुए तो सरदार पटेल को लांच कर सर छोटूराम के प्रभाव को काउंटर करने की कोशिश की गई!

आज़ादी से पहले के यूनाइटेड पंजाब में जिन्नाह को सर छोटूराम का अल्टरनेटिव बनाने की गाँधी-नेहरू से ले हिन्दू महासभा (आज की आरएसएस) व् मुस्लिम लीग की सारी कोशिशें नाकामयाब हो चुकी थी| तीनों यानि कांग्रेस, हिन्दू महासभा व् मुस्लिम लीग सर छोटूराम को पंजाब से खत्म करना चाहते थे| तो कांग्रेस के सरदार पटेल पर ट्राई करने की सोची|

बात 1943 की है लायलपुर (आज का फैसलाबाद) कॉलेज, पाकिस्तान की| जिस दिन, तारीख व् स्थान यानि लायलपुर कॉलेज में सर छोटूराम का झलसा था, कांग्रेस ने वहीँ उसी समय-स्थान पर सरदार पटेल की रैली रखवा दी| यूनियनिस्ट पार्टी ने प्रशासन से आग्रह भी किया कि यह स्थान व् समय जब हमारी रैली के लिए बुक था तो कांग्रेस को कैसे दिया गया? तो प्रसाशन ने आधा घंटा का वक्त आगे करके कांग्रेस की रैली पहले रखवा दी, ताकि सर छोटूराम को सुनने आने वाली भीड़ पहले पटेल को सुने और उन पर पटेल का प्रभाव बढ़े| योजनाबद्ध तरीके से पटेल का भाषण शुरू हुआ, रैली लम्बी खिंचनी थी इतनी कि यूनियनिस्टों की रैली का वक्त हो जाए; तो ऐसा होते देख अंग्रेजों की लंदन रिपोर्टिंगस की भाषा में "अक्खड़ जिद्दी जाट सर छोटूराम" ने ठीक अपना वक्त होते ही दूसरी तरफ अपना स्टेज संभाल बोलना शुरू किया तो सरदार पटेल के पंडाल की सारी भीड़ सर छोटूराम ने ठीक वैसे ही खींच ली, जैसे गढ़ी सांपला में जब कवि दादा लख्मीचंद का कवि दादा फौजी मेहर सिंह से आमने-सामने का मुकाबला हुआ तो देखते-देखते दादा लख्मीचंद के मंच की सारी भीड़ दादा मेहर सिंह के मंच पर जा जुटी थी| यानि सरदार पटेल का पंडाल खाली| बताते हैं कि सर छोटूराम ने एक ही बड़ी बात कही कि पहले वह वोहरा मुस्लिम जिन्नाह आया था गुजरात से अब पटेल को लाये हैं, बताओ यह गुजराती, पंजाबियों के हक-हलूल ठीक से समझेंगे या मैं तुम्हारे अपने बीच का?

बताते हैं कि इसके बाद सरदार पटेल को गाँधी-नेहरू-जिन्नाह द्वारा उनको सर छोटूराम के आगे प्रयोग करने की चाल समझ आई व् शर्मिंदा महसूस किये और उसके बाद कभी सर छोटूराम के आगे रैली नहीं की|

Source: Prof. Divyajyoti Singh, author of "mera ram sir chhoturam" book

जय यौद्धेय! - फूल मलिक     

तुम्हारी सांस नहीं निकल रही जबसे मोदी ने राम-मंदिर पर फैसला करवाया है?

कुछ भक्त दोस्त बोल रहे हैं कि तुम्हारी सांस नहीं निकल रही जबसे मोदी ने राम-मंदिर पर फैसला करवाया है? तो सुन भाई मेरी साँस की बात, तूने बिलबिलाना तो फिर भी है; फिर भी सुन ही ले:

राम मंदिर इतना बड़ा मुद्दा होना ही नहीं था अगर राजीव गाँधी थोड़ा और जी जाते और एक योजना और पीएम रह जाते| वो इन लोगों को 30 साल राजनैतिक रोटियाँ सेकनें का मौका ही नहीं देते इस मुद्दे पर| मंदिर की निर्माण स्थापना तो उन्होंने उनके प्रधानमंत्री रहते हुए 9 नवंबर 1989 को ही ना करवा दी थी| यह तो अब तब जा के चेते हैं जब 30 साल इस मुद्दे पे जनता का वक्त-ऊर्जा-संसाधन-दिमाग सब चूस छोड़ा, ताकि देश में हर तरफ पसरी पड़ी मंदी-बेरोजगारी-आरजकता से जनता का ध्यान कुछ और समय के लिए भटकाए रखा जा सके| नहीं तो स्पेशल 30 साल लगाने से कौनसा हिन्दुओं का मक्का हरिद्वार से अयोध्या शिफ्ट किया जाना था या है?


बाकि मेरे जैसों के लिए तो राम हो या श्याम, शिवजी हो या हनुमान, संतोषी हो या काली, अल्लाह हो या वाहेगुरु; मेरे पुरखों के सिद्धांत वाले "दादा नगर खेड़े" में मेरे ज्ञात पुरखों समेत यह सब भी ऑटोमेटिकली समाहित हैं अगर जैसे कि दावे किये जाते हैं कि यह हमारे असली वाले पुरखे थे तो| पुरखे थे तो पुरखों का तो हमारे यहाँ एक ही सर्वधाम है और उसमें यह सब व् अन्य जो भी गाम-खेड़े में आम हो या ख़ास हो के गए, मरने के बाद सब बराबर तुलते हैं| अब इस बहस में तो मुझे घसीटना मत कि नहीं राम सबसे बड़ा या शिवजी या कृष्ण या कोई और; इतनी ऊर्जा ना है मेरे में| इन पर गुटबाजी ना होवे, या तेरे जैसे कौनसा बड़ा कौनसा छोटा की तुलना ना करे, इसलिए पुरखों ने खेड़ो में मूर्ती ही ना रखी कोई से की भी| न बिठाया मर्द-पुजारी, दे के 100% पूजा-धोक का इंचार्ज अपनी औरतों को; सारे क्लेश एक ठोड ही काट राखे सदियों से|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 11 November 2019

जब मेरे दादा व् उनके दोस्तों की मंडली ने भिक्षा मांगने आये बाबा जी से अपनी ही सेवा करवा ली!

सार: वह किस्सा जो बताता है कि कैसे मेरे दादा और उनके दोस्त बाबे-मोड्डों से अपनी सेवा करवा लिया करते थे| यह उनके समझने के लिए है जो आज इनके आगे साष्टांग पड़े रहते हैं| समझें कि तुम्हारे पुरखे बुद्धि-बल से कितने स्वछंद हुआ करते थे वह भी ग्रामीण होते हुए; ग्रामीण होते हुए वह देवते कहलवा लिया करते थे और एक आप कितने स्वछंद बचे हो वह भी तथाकथित आधुनिक यहाँ तक कि बहुत से तो शहरी होते हुए भी; कितने स्वछंद बचे हो कि 35 बनाम 1 झेलने को मजबूर हो|

लेख पे बढ़ने से पहले एक ख़ास बात: मैं शहर-अन्य स्टेट-विदेश तक में पढ़ा, जब भी घर फ़ोन करता दादा से बात होती तो मेरे बोलने से पहले दादा बोलते थे, "नमस्ते फूल, कैसे हो बेटा"| यह राम-राम में नमस्ते समझने का चलन अभी 10-20 साल का है, कम-से-कम मैं तो मेरे बाप-दादाओं को नमस्ते बोलते-कहते ही सुना| हाँ, राम शब्द का हरयाणवी भाषा के दो अर्थों में प्रयोग खूब सुना, एक अर्थ होता है राम यानि आराम और एक होता है राम यानि आकाश| अक्सर कहते हैं ना कि आज तो राम खूब बरसया, इसका हिंदी में मतलब है कि आज तो आकाश खूब बरसा| दूसरा कहते हैं राम-राम, यानि आराम से तो हो; या कहेंगे बहुत काम करे सै राम कर ले यानि आराम कर ले| अपनी मातृ भाषा हरयाणवी का ज्ञान सहेज के रखिये| बाकी भगवान के तौर पर जो जाना जाता है उस राम की भी जय|

अब दादाओं द्वारा बाबा जी से सेवा करवाने का किस्सा:

हुआ यूँ कि एक भगवाधारी मोड्डा निडाना नगरी में चढ़ आया| गाम के मर्दों से आगा-पाछा कर लुगाईयों को डरा-चुपला डेड किलो साइज का कमंडल, घी का इतना पूरा भर लिया मांग-मांग कि घी छलक-छलक कमंडल से बाहर को गिरने को आवै|

उधर दादा बेद (मंगोल वाले जोहड़ के सामने घर है, हमारे गाम को बसाने वाले प्रथम पुरखे दादा चौधरी मंगोल सिंह जी महाराज के पर नाम है इस जोहड़ का) की बैठक में मेरे दादा फतेह सिंह व् उनके दो-चार साथी बैठे फुरसत में हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे| मोड्डे का उधर से निकलना हुआ और ये करी गलती और दादा बेद के घर के आगे खड़ा हो के हलकारा दे दिया कि, "अल्ख माई, राम थारे सब दुःख-दर्द दूर करै, घर के क्लेश मिटावै, सब भय भगावै; लगा झलकारा"| अब उसको आईडिया नहीं था ना कि इस घर में आगे मर्दों की बैठक और औरतों का जनाना पीछे है| फंस गया मोड्डा|

दादा होर बोले कि बाबा बड़ा पहुँचा हुआ है तुझे कैसे पता कि इस घर में दुःख-दर्द हैं, क्लेश हैं, भय हैं?
बाबा सकपका गया कि चढ़ गया हत्थे, दे जवाब इब? बाबा बोला कि बच्चा यह तो अमूमन सबकी जिंदगी में होते ही हैं|

मेरे वाले दादा फतेह सिंह बोले कि होते हैं या तुक्का मारता है औरतों को इमोशनली डराने को? पहले झटके औरतों को यह दुःख-दर्द-भय होने के तान्ने मार के डराओगे, अपना सा बन के दिखाओगे और फिर वह घर के कुशल-मंगल की मारी तुम्हारी झोली भर देंगी? बाबा जी ये फंड करने ही थे तो दुनियादारी क्यों छोड़ी? इतने अपनेपन बरसाने थे तो अपना ही घर क्यों ना बसा लिया था? और थमनें तो न्यूं भी ना देखी कि आगे मर्द बैठे हैं, इनमें माई तो एक भी कोनी? बाकी म्हारे ऊपर म्हारे असली राम यानि म्हारे पुरखों का हाथ है, तुमने क्यों चिंता उठाई हमारे दुखों की और वाकई चिंता है तो छोड़ इस भगवे छलावे को और आ के समाज में मिटा समाज के दुःख-दर्द?

दादा बेद बोल्या, "माई की छोड़, माई के खसम से दक्षिणा-भिक्षा कैसे लेते हैं यह बोल के दिखा; फिर सोचते हैं कुछ"|

बाबा - "बच्चा थम तो जन्मजात देवते हो, थारै भय-क्लेश-दुःख-दर्द के मांगै; थारै कारण तो दुनिया चाल री"|

दादा फतेह सिंह - तो दुनियाँ चलाने वालों से दान लेना चाहिए या उनको देना चाहिए? और इतनी जल्दी एक झटके में समझ भी आई गई कि दुनिया किसके कारण चल री?

बाबा - चौधरियो, क्यों मजाक करो सो, गरीब सा माणस सूं, बस थारै बरगे रहम-कर्म वालों से जो मिले गेल-की-गेल खा, पेट पाल लिया करूँ| बाकी थम बताओ के सेवा-बाड़ी ठाउँ थारी, हुक्का भर ल्याऊं थारा?

दादा फतेह सिंह - पेट तो तेरा भूखा कोनी मरने दें, हम खेत के जानवर को पेटभर चरने से ना रोकते तू तो इंसान हो गया तो इतनी तो चिंता दिखा मत; हम खेत से ले खेड़े तक मानवता ही पालें हैं| परन्तु यह बता खाने जितना तो तू पहले से ही लिए हुए है, शायद उससे भी ज्यादा; देख यु डेड किल्लो पक्का तेरा कमंडल घी इतना भरा हुआ है कि छलक के बाहर गिर रहा है और गेल-की-गेल कितना खा लिया करै? चल तू इसने गेल-की-गेल यानि अभी की अभी हमारे सामने पूरा कमंडल घी का पी के दिखा, नहीं तो यु बेद पी के दिखायेगा, क्यों रै बेद कितने दिन होये घी पियें?

दादा बेद - नंबरदार न्यूं तो थारी बौड़िया रोज ए प्या दे सै, पर कोई ना जै मोड्डे नैं नहीं पिया तो कमंडल की बेइज्जती थोड़ी होने देंगे|

दादा फतेह सिंह - हाँ भाई बाबा जी, ले तेरा कॉम्पिटिटर भी तैयार बैठा सै| पी ठोड-की-ठोड|

बाबा फंस गया बोला यु तो मैं हवन खात्तर ल्याया सूं मांग के|

तीसरा दादा अचरज करते हुए, "इतना डेड किल्लो पक्के में हवन होवै तेरा? हवन का तो पाईया-छटाँक ओड भी कोनी"| मोड्डे दिखै घणी दुनियादारी की याद आ री, तू मोडपणा छोड़ उल्टा समाज में ही क्यों ना आ जाता?

बाबा - मैंने समाज ए शामिल समझो चौधरियो| ल्यो थम ए पी ल्यो| जैसे मोड्डा समझ गया था कि पैंडा छुड़ाना भारी है यहाँ तो| और दादा बेद को घी का कमंडल दे देता है|

और दादा बेद लगा के मुंह के सारा कमंडल खाली कर देते हैं|

अब दादा फतेह सिंह - के कहवै था बाबा जी कि के सेवा-बाड़ी ठाउँ थारी? रै इतने बड़े बोल मत बोल, सेवा-बाड़ी करणिया होता तो घर-संसार छोड़ मोड्डा ना बनता| मोड्डा तुम लोग बनते ही इसलिए हो कि घर-बारियों से फ्रीफंड की सेवा बाड़ी करवा सको; नहीं तो समाज में रह के समाज के साथ-साथ माँ-बाप-कुणबे की ही सेवा ना करता मिलता| और एक बात बता क्या फायदा हुआ तेरा बाबा बनने का अगर लालच-बदनीयत ही नहीं छोड़ पाया तो, पेट भरने जितना तुझे जब मिल ही गया था तो टुर क्यों नहीं गया था?

बाबा - मैंने तो पहले ही कह दी थी कि थम देवतों के ज्ञान आगै हम बाबाओं के ज्ञान की के औकात? मति मारी गई थी, थारी इजाजत हो तो जाऊं इब?

दादा बेद, "सेवा करने की कही थी तैने, तो तेरी सेवा तो लेंगे ना; जा यु हुक्का भर के ला"|

बाबा के जच ली कि असली पहुंचे हुए जाट-जमींदारों के हत्थे चढ़ गया, जितने ज्ञान का तुझे बहम है उसका डबल प्रैक्टिकल ज्ञान तो यह हुक्का गुड़गुड़ाते-गुड़गुड़ाते ही सुना दिए| अत: फटाफट हुक्का भरा और इजाजत मांगी|
तीसरा दादा - नंबरदार, अपने स्टाइल का स्वागत तो बनै सै इसका|

यह सुन के बाबा की पिंडी कांप गई| और अभी तक जो मोड्डा हाँजी-हाँजी करके, हुक्का भर के पिंड छुड़वाना चाह था, बिना बोले चुपचाप एड़ियाँ थूक लगा, काक्कर काढ़ गया यानी लांडा ला गया यानि फुल स्पीड भाग लिया|

शिक्षा: हालंकि कि यह किस्सा दादा की बजाये काका सुरेंद्र से पता लगा था परन्तु दादा अक्सर बता देते थे कि ऐसा नहीं है कि हमें मोड्डों से कोई जन्मजात बैर है; हम क्या दान देते नहीं, देखो आर्यसमाज के मठ-धाम-गुरुकुल सब हमारे ही पुरखों की दी जमीनों पर उन्हीं के दिए पैसे से बने हैं| परन्तु हम भय-लालच-द्वेष-डर में आ के नहीं अपितु ख़ुशी-सद्भाव बढ़े वहां दान देते हैं| भय-लालच-द्वेष दिखा के मांगने वालों को तो धिक्कारते हैं हम| हम उनको दान नहीं देते जो दरवाजे आगे खड़ा होते ही हमारी दुवाएं मांगने लग जाए, दुःख-दर्द दूर करने-होने की प्रार्थनाएं करने लग जाये; अपितु वहां दान देते हैं जो कि शिक्षा के लिए स्कूल-गुरुकुल खोलूंगा या समाज के काम आने की परस-चौपाल आदि बनाएंगे की कहे| अपनी निजी व् सामाजिक अर्थव्यस्था की बढ़ोतरी व् सद्भाव-शांति को फोकस में रख के दान दो, इसके अन्य कहीं भी दान मत दो| अन्यथा दान दिया तो वह उस पैसे से पहले तुम्हारी अर्थव्यवस्था को तहस-नहस करने के षड्यंत्र रचते हैं| और ऐसों को तो दो ही मत जो तुम्हारे मानसिक भय जगावें, तुम में डर-लालच-द्वेष भर के माँगते हों, उसको माँगना नहीं फंड व् छलावा कहते हैं| और फंडी को कभी मुंह मत लगाना जिंदगी में|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

नानक नाम चढ़दी कला, तेरे भाणे सरबत दा भला! सतनाम वाहेगुरु!

इस धर्म की महानता का अंदाजा इसी से लगा लीजिये कि 1850 के आसपास हिन्दू जाट लगभग इसकी तरफ झुक गया था| तब हिन्दू जाट को सिखिज्म में जाने से रोकने के लिए, "जाट जी" व् "जाट देवता" लिख-लिख जाट की स्तुति भरा "सत्यार्थ-प्रकाश" लाया गया, जाट की मान-मान्यताओं को पहली बार ऑफिशियली स्वीकार कर, जाट के "दादा नगर खेड़ों" के "मूर्ती-पूजा" नहीं करने के कांसेप्ट पर आधारति "आर्य-समाज" 1875 में स्थापित करवाया गया व् इस तरह से सनातनियों के प्रति भरे पड़े जाट के गुस्से को शांत करते हुए जाट को सिखिज्म में नहीं जाने से मनाने में कुछ हद तक बात बनी| कुछ हद तक इसलिए क्योंकि करनाल-थानेसर-कैथल तक सिखिज्म फ़ैल चुका था, बस "आर्य-समाज" की वजह से यह आगे फैलने से रुका|

और यह बात 35 बनाम 1 रचने वाले आज फिर से भूले लगते हैं कि जाट तुम्हारे साथ है तो तुम्हारी अपनी बुद्धि की इसमें किसी करामात के चलते नहीं अपितु जाट को यथोचित "जाट जी" व् "जाट देवता" वाला सम्मान देने व् उसके "मूर्ती पूजा" नहीं करने जैसे बसिक सिद्धांतों को ग्रंथों में अंगीकार करने की वजह से| इसलिए यह 35 बनाम 1 के षड्यंत्र बंद ही कर दें तो अच्छा होगा अन्यथा जाट फिर से विमुख हुआ तो अबकी बार शायद ही रुके| यह 35 बनाम 1 रचने वाले वे लोग हैं जिनको जाट को सिखिज्म में जाते देख सबसे ज्यादा बेचैनी-छटपटाहट हुई थी कि हाय-हाय जाट ही चला गया तो हमारी दान-दक्षिणा रुपी इनकम कहाँ से आएगी| 

बाबा नानक के प्रकाश पर्व की सबनू वधाईयाँ जी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

Saturday, 9 November 2019

"दादा नगर खेड़ों" में क्यों तो मूर्ती नहीं होती, क्यों मर्द पुजारी नहीं होते और क्यों इनमे धोक-ज्योत की मास्टर-इंचार्ज औरते हैं?

आज दादा जी का बताया वह जवाब सबसे तर्कशील व्यवहारिक लगा, जिसमें मैं उनसे अक्सर पूछा करता था कि हमारे "दादा नगर खेड़ों" में क्यों तो मूर्ती नहीं होती, क्यों मर्द पुजारी नहीं होते और क्यों इनमे धोक-ज्योत की इंचार्ज औरते हैं; जबकि अन्य चाहे मंदिर देखो, मस्जिद या चर्च; मर्द ही कर्ताधर्ता, उसी का आधिपत्य है? मर्द ही भगवान के विराजमान होने का स्थान निर्धारित करता है जैसे इंसान का बाप भगवान ना हो अपितु इंसान, भगवान का बाप हो?

दादा यही जवाब दिया करते कि हमारे पुरखे इंसान की मंदबुद्धि, लालची प्रवृति व् नस्लीय द्वेष को बहुत गहनता से समझते थे| वह जानते थे कि भगवान/खुदा इंसान के दिमाग की उपज है और इंसानों के एक समूह को उससे लाभ नहीं होगा तो वह दूसरा घड़ लेगा, कल तीसरा, परसों चौथा और यह गिनती अनंत चलती जाएगी उदाहरणार्थ जिसको राम पसंद नहीं आया वह श्याम ले आया, जिसको दोनों ही पसंद नहीं आये वह शिवजी ले आया, जिनको शिवजी पसंद नहीं आया वह विष्णु-ब्रह्मा-हनुमान आदि ले आया| जिनको यह भी नहीं जमे वह विभिन्न प्रकार की माताएं ले आये| और सबके दावे यह कि अजी यह वाला ज्यादा महान, इसकी शक्तियां ज्यादा, यह आपका अपना वंशबेल का आदि-आदि| और इतिहास से वर्तमान तक में शैव-वैष्णव-ब्रह्मी-नाथ-दास आदि-आदि अनंत धड़े बने व् आपस में लड़े भी बहुत, आज भी मनभेद से ले मतभेद हैं इन धड़ों में|

तो पुरखों ने यह रोज-रोज के क्लेश खत्म करने को निर्धारित किया कि एक ऐसा कांसेप्ट लाया जाए जिसके अंदर यह सब समाहित हों; और विचार हुआ कि एक गाम-नगर को बसाना सृष्टि के नवनिर्माण जैसा होता है और इसको बसाने वाले प्रथम पुरुष-महिला साक्षात् भगवान का रूप| अब रोज-रोज ढोंग-पाखंडियों के नए-नए भगवानों-देवताओं-गुरुओं को कौन धोकता फिरेगा इसलिए हर गाम अपने गाम के प्रथम पुरखों समेत आपके वंश-इतिहास (जैसे गाम के प्रथम पुरखे कहाँ से आये थे, किस खानदान-वंश के थे; उन लेनों तक के पुरखे-महापुरुष आदि सब)में हुए तमाम अच्छे-बुरे सब पुरखों को एकमत समाहित कर धोकते चले जाओ, तब कांसेप्ट निकल कर आया "दादा नगर खेड़े" का|

इसीलिए मरने के बाद 13 दिन लोग बैठते हैं मरे हुए इंसान की अच्छाइयाँ ऊपर चर्चा करवा उसको पुरखों-शामिल करवाने को और संकेत देते हैं कि मरने वाला अच्छा था या बुरा था, हमारा अपना था, उसकी बुराइयाँ भुलाई जाएँ व् उसको पुरखों-शामिल माना जाए|

तब बात आई कि इनका कोई आकार रखा जाए? तो पुरखे बोले कि इनको निराकार रखो, ताकि इंसानों में इनके नाम के धड़े ही ना बंटे| इसलिए इनमें कोई आकार यानि मूर्ती ना रखी जाए| और देखो पोता इसीलिए इन खेड़ों में हर भगवान के मंदिर में जाने वाला एक-सहमति से ज्योत लगाने आता है; चाहे वह राम के मंदिर जाता हो, शिव के, कृष्ण के, हनुमान के या किसी अन्य के| यही इस कांसेप्ट की महानता है, कि यह अलग-अलग मंदिर जाने वाले भी "दादा नगर खेड़ों" में ज्योत के वक्त एकमत रहते हैं क्योंकि इनका आधार बिंदु यह है कि इनमें सब पुरखे समाहित हैं, भले ही "धर्म-आध्यात्म को धंधा बनाने वालों ने इनके अलग-अलग मंदिर बना लिए हों" तो भी वह सब अंत में इनमें आकर एक-शामिल हो जाते हैं|

फिर दादा से पूछा कि मर्द पुजारी क्यों नहीं बैठाये? दादा बोले कि इंसान की नस्लीय द्वेष जैसे कि वर्णवाद की प्रवृति व् औरत के प्रति उसकी मर्दवादी सोच से इनको मुक्त रखने हेतु ऐसा नहीं किया जाता| विरला ही मर्द होता है जो गैर-बीर को मर्जी-बेमर्जी पाप की दृष्टि से ना देखे, उसको भोग्य वस्तु ना देखे| यह खेड़े विलासिता-भोग्यता के अड्डे ना बनें, देवदासी-बांदी टाइप चीजें दिमाग में ही ना आवें; इसलिए इनमें मर्द पुजारी नहीं बैठाये जाते|

तो औरतों को इनमें धोक-ज्योत का मास्टर-चार्ज क्यों है? क्योंकि औरत मर्द से ज्यादा सेंसिटिव, भावुक व् आध्यात्मिक होती है| वह परिवार की आध्यात्मिक सोच व् दिशा को मर्द से जल्दी भांप लेती है| वह अपनी कौम-बिरादरी-समाज पर पड़ने वाली बाह्य मुसीबतों को मर्द से ज्यादा संजीदगी से पकड़ लेती है| और इसी वजह से वह विचिलित भी बहुतायत होती है; क्योंकि यह सब विषमताएं उसको उसके परिवार-कौम-समाज पर खतरे नजर आती हैं| ऐसे में उसको कोई मार्गदर्शक छवि का ध्यान होने का मन होता है और वह इस मामले में अपने वंश-पुरखों से बड़ा स्मरण किसी का नहीं मानती| और उसका यह स्मरण सबसे प्रबल तरीके से उसके पुरखों के सानिध्य में बैठ पूर्ण होता है| इसीलिए वही "दादा नगर खेड़ों" में ज्योत-धोक की मास्टर-इंचार्ज हैं| मर्द सिर्फ उसको इसकी व्यवस्था करके देते हैं, इसकी सुरक्षा-निरंतरता कायम रखते हैं|


"दादा नगर खेड़ों" में क्यों तो मूर्ती नहीं होती, क्यों मर्द पुजारी नहीं होते और क्यों इनमे धोक-ज्योत की मास्टर-इंचार्ज औरते हैं?:

आज दादा जी का बताया वह जवाब सबसे तर्कशील व्यवहारिक लगा, जिसमें मैं उनसे अक्सर पूछा करता था कि हमारे "दादा नगर खेड़ों" में क्यों तो मूर्ती नहीं होती, क्यों मर्द पुजारी नहीं होते और क्यों इनमे धोक-ज्योत की इंचार्ज औरते हैं; जबकि अन्य चाहे मंदिर देखो, मस्जिद या चर्च; मर्द ही कर्ताधर्ता, उसी का आधिपत्य है? मर्द ही भगवान के विराजमान होने का स्थान निर्धारित करता है जैसे इंसान का बाप भगवान ना हो अपितु इंसान, भगवान का बाप हो?

दादा यही जवाब दिया करते कि हमारे पुरखे इंसान की मंदबुद्धि, लालची प्रवृति व् नस्लीय द्वेष को बहुत गहनता से समझते थे| वह जानते थे कि भगवान/खुदा इंसान के दिमाग की उपज है और इंसानों के एक समूह को उससे लाभ नहीं होगा तो वह दूसरा घड़ लेगा, कल तीसरा, परसों चौथा और यह गिनती अनंत चलती जाएगी| उदाहरणार्थ जिसको राम पसंद नहीं आया वह श्याम ले आया, जिसको दोनों ही पसंद नहीं आये वह शिवजी ले आया, जिनको शिवजी पसंद नहीं आया वह विष्णु-ब्रह्मा-हनुमान आदि ले आया| जिनको यह भी नहीं जमे वह विभिन्न प्रकार की माताएं ले आये| और सबके दावे यह कि अजी यह वाला ज्यादा महान, इसकी शक्तियां ज्यादा, यह आपका अपना वंशबेल का आदि-आदि| और इतिहास से वर्तमान तक में शैव-वैष्णव-ब्रह्मी-नाथ-दास आदि-आदि अनंत धड़े बने व् आपस में लड़े भी बहुत, आज भी मनभेद से ले मतभेद हैं इन धड़ों में|

तो पुरखों ने यह रोज-रोज के क्लेश खत्म करने को निर्धारित किया कि एक ऐसा कांसेप्ट लाया जाए जिसके अंदर यह सब समाहित हों; और विचार हुआ कि एक गाम-नगर को बसाना सृष्टि के नवनिर्माण जैसा होता है और इसको बसाने वाले प्रथम पुरुष-महिला साक्षात् भगवान का रूप| अब रोज-रोज ढोंग-पाखंडियों के नए-नए भगवानों-देवताओं-गुरुओं को कौन धोकता फिरेगा इसलिए हर गाम अपने गाम के प्रथम पुरखों समेत आपके वंश-इतिहास (जैसे गाम के प्रथम पुरखे कहाँ से आये थे, किस खानदान-वंश के थे; उन लेनों तक के पुरखे-महापुरुष आदि सब)में हुए तमाम अच्छे-बुरे सब पुरखों को एकमत समाहित कर धोकते चले जाओ, तब कांसेप्ट निकल कर आया "दादा नगर खेड़े" का|

इसीलिए मरने के बाद 13 दिन लोग बैठते हैं मरे हुए इंसान की अच्छाइयाँ ऊपर चर्चा करवा उसको पुरखों-शामिल करवाने को और संकेत देते हैं कि मरने वाला अच्छा था या बुरा था, हमारा अपना था, उसकी बुराइयाँ भुलाई जाएँ व् उसको पुरखों-शामिल माना जाए|

तब बात आई कि इनका कोई आकार रखा जाए? तो पुरखे बोले कि इनको निराकार रखो, ताकि इंसानों में इनके नाम के धड़े ही ना बंटे| इसलिए इनमें कोई आकार यानि मूर्ती ना रखी जाए| और देखो पोता इसीलिए इन खेड़ों में हर भगवान के मंदिर में जाने वाला एक-सहमति से ज्योत लगाने आता है; चाहे वह राम के मंदिर जाता हो, शिव के, कृष्ण के, हनुमान के या किसी अन्य के| यही इस कांसेप्ट की महानता है, कि यह अलग-अलग मंदिर जाने वाले भी "दादा नगर खेड़ों" में ज्योत के वक्त एकमत रहते हैं क्योंकि इनका आधार बिंदु यह है कि इनमें सब पुरखे समाहित हैं, भले ही "धर्म-आध्यात्म को धंधा बनाने वालों ने इनके अलग-अलग मंदिर बना लिए हों" तो भी वह सब अंत में इनमें आकर एक-शामिल हो जाते हैं |

फिर दादा से पूछा कि मर्द पुजारी क्यों नहीं बैठाये? दादा बोले कि इंसान की नस्लीय द्वेष जैसे कि वर्णवाद की प्रवृति व् औरत के प्रति उसकी मर्दवादी सोच से इनको मुक्त रखने हेतु ऐसा नहीं किया जाता| विरला ही मर्द होता है जो गैर-बीर को मर्जी-बेमर्जी पाप की दृष्टि से ना देखे, उसको भोग्य वस्तु ना देखे| यह खेड़े विलासिता-भोग्यता के अड्डे ना बनें, देवदासी-बांदी टाइप चीजें दिमाग में ही ना आवें; इसलिए इनमें मर्द पुजारी नहीं बैठाये जाते|

तो औरतों को इनमें धोक-ज्योत का मास्टर-चार्ज क्यों है? क्योंकि औरत मर्द से ज्यादा सेंसिटिव, भावुक व् आध्यात्मिक होती है| वह परिवार की आध्यात्मिक सोच व् दिशा को मर्द से जल्दी भांप लेती है| वह अपनी कौम-बिरादरी-समाज पर पड़ने वाली बाह्य मुसीबतों को मर्द से ज्यादा संजीदगी से पकड़ लेती है| और इसी वजह से वह विचिलित भी बहुतायत होती है; क्योंकि यह सब विषमताएं उसको उसके परिवार-कौम-समाज पर खतरे नजर आती हैं| ऐसे में उसको कोई मार्गदर्शक छवि का ध्यान होने का मन होता है और वह इस मामले में अपने वंश-पुरखों से बड़ा स्मरण किसी का नहीं मानती| और उसका यह स्मरण सबसे प्रबल तरीके से उसके पुरखों के सानिध्य में बैठ पूर्ण होता है| इसीलिए वही "दादा नगर खेड़ों" में ज्योत-धोक की मास्टर-इंचार्ज हैं| मर्द सिर्फ उसको इसकी व्यवस्था करके देते हैं, इसकी सुरक्षा-निरंतरता कायम रखते हैं|

और पोता यही "मूर्ती-पूजा" नहीं करने का कांसेप्ट आर्य-समाज में लिया गया है; यही तो वजह है सबसे बड़ी कि क्यों हरयाण की उदारवादी जमींदारी व् सहयोगी जातियों में आर्य-समाज इतने कम समय में इतने व्यापक स्तर पर स्वीकार्य हुआ|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 7 November 2019

पानीपत फिल्म का ट्रेलर!

"पानीपत की तीसरी लड़ाई" एक ऐसा ऐतिहासिक पहलु जिसके साथ कई ऐतिहासिक किस्से जुड़े हैं जो इस फिल्म में शायद ही देखने सुनने को मिलें:

1) भाऊ से उपजा शब्द हाऊ: आज भी ग्रेटर हरयाणा की औरतें बच्चों को बोलती हैं कि सो जाओ, वरना हाऊ आ ज्यांगे या गैर-बख़्त बाहर मत जाओ हाऊ खा लेंगे| यह सम्बोधन हरयाणा की औरतों ने निकाल दिया था, भाऊओं को बच्चों को डराने वाले हाऊ बना के; क्योंकि यह इतने ही क्रूर-निर्दयी बताये जाते थे कि इनसे अब्दाली डरा या नहीं पंरतु हरयाणा में औरतें बच्चों को आज भी डराने-धमकाने के लिए इस शब्द का प्रयोग करती हैं| किसी का भी चरित्र-हनन करने व् नेगेटिव मार्केटिंग का खुद को उस्ताद समझने वाला मीडिया जान ले कि जिस दिन हरयाणवी लुगाईयों के हत्थे चढ़ गए ना थारी सारी उल्टी-सीधी मार्केटिंग धो के धर देंगी| और तुम कब भाऊ से हाऊ बना दिए पता भी ना लगेगा|

2) बिन जाट्टां किसनै पानीपत जीते - काफी मशहूर कहावत है डिटेल्स जानते ही होंगे, इसका ओरिजिन इसी लड़ाई से हुआ था|

3) जाट दर पे आये के घर बसा दे, जख्म सुखा दे - अहम् में भरे पेशवे, जाटों के सहयोग का अपमान करते हुए जब अकेले पानीपत लड़ने चढ़े और अब्दाली ने हराये तो रण के थके-हारे-घायल पेशवाओं को अब्दाली के डर से कोई राजा-समाज शरण नहीं दे रहा था, तब महाराजा सूरजमल के आदेश पर जाटों ने इनकी मरहम पट्टियाँ कर जाट सेना की सुरक्षा में वापिस महाराष्ट्र छुड़वाए थे| तब जाकर ब्राह्मण पेशवाओं को जाटों का जिगरा और दरियादिली समझ आई थी| और पेशवाओं को महाराष्ट्र छोड़ने गई जाट सेना के सैनिकों संग अपनी बेटियाँ ब्याह उनको वापिस नहीं आने दिया अपितु वहीँ बसा लिया| नासिक के पास बसते हैं जाट, करीब 40 गाँव में, इनकी वहां की खाप को "खाप बाईसी" बोला जाता है| जाट कहीं भी जाए खाप साथ जरूर ले जाता है|

4) जाट को सताया तो ब्राह्मण भी पछताया - तीसरा पॉइंट में जो अपमान कर जाट का दिल दुखाया तो पानीपत की हार के बाद ब्राह्मण पेशवा बहुत पछताए थे|

यही वह लड़ाई है जिसके चलते फिर पेशवाओं-मराठों ने "जय हरयाणा" उछाला तो जाटों ने बदले में "जय महाराष्ट्र" उछाला| एलओसी जैसी फिल्म में यह पंच सुना ही होगा|

परन्तु जब इस फिल्म का ट्रेलर देखा तो काफी नीरस तो लगा ही वरन इन बिंदुओं को छुआ ही नहीं गया है| लगता है कि शायद फिल्म में भी ना छुए होंगे| संशय है कि कहीं फिल्म में इनके विपरीत या इनकी आदतानुसार कुछ ना कुछ निम्न करके ही दिखाया हुआ ना आये| खैर चलो देखते हैं फिल्म आने पर|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

हरयाणा विधानसभा चुनाव नतीजे, सर्वखाप व् आर्यसमाज के फ्यूचर कोर्सस!

जनादेश का संकेत साफ़ है कि हिन्दोस्तां में कहीं भी अधिनायकवाद चल सकता होगा परन्तु हरयाणा में नहीं चल सकता| यहाँ उदारवादी जमींदारी की सर्वखाप की "खापोलॉजी" व् "दादानगर खेड़ों" और आर्य समाज की "मूर्तिपूजा व् फंड-पाखंड से रहित" थ्योरियों पर अपने इनके दादाओं की पीढ़ी के वक्त तक कन्फर्म तौर पर कायम रहे पुरखे, बाप वाली पीढ़ी के वक्त कन्फ्यूज्ड हुए (टीवी के जरिये दिमाग में माइथोलॉजी फ़िल्में व् सीरियल्स के जरिये) समूहों की आज की पीढ़ी ने अपने दादाओं वाली चेतना में आते हुए वोट के जनादेश से हरयाणवी स्टाइल में सत्ता वालों को "पैंडा छोड़ो" कह दी है|

लेकिन इसके बावजूद इन्होने जेजेपी व् निर्दलीयों के समर्थन से सरकार बना ली है तो ऐसे में इस फ़िलहाल हुई वोटिंग के जरिये आये इस "पैंडा छोड़" संदेश के मतन को कायम व् और दुरुस्त रखने हेतु क्या कदम इन तबकों को उठाने होंगे? जैसे कि:

1) सर्वधर्म सर्वजातीय सर्वखाप द्वारा "खापलीला थिएटर ग्रुप" गठित कर, खापों के इतिहास को प्रचारित करने हेतु खाप-प्रचार मंडलियां बना "खापरात्रे" आयोजित करने का वक्त है|
2) आर्यसमाज संस्थाओं में घुस आई माइथोलॉजी व् ढोंग-फंड-पाखंड व् इनको घुसाने को घुसे हुए फंडियों को इन संस्थाओं से बाहर करने का वक्त है|
3) अपने समाज से बाहर से ना दान लेंगे और 100% फाइनेंसियल ट्रांसपेरेंसी के सर्वसमाज के हित के कार्यक्रमों के अलावा किसी को कहीं भी फूटी कोड़ी नहीं देंगे के विचार फ़ैलाने होंगे| और उनको तो कन्फर्म नहीं देंगे जो समाज को दान देने के नाम पर एक धेला नहीं देते जबकि लेने के नाम पर 90-99% खुद डकार जाते हैं| स्याने लोग कह कर गए हैं कि कोई दुश्मन बनाना हो तो फ्री का दे के बना लो; यह वही फ्री वाले दुश्मन बनाते हो ऐसे लोगों को दान देकर जिनकी ना समाज के प्रति कोई जवाबदेही है और ना दान के हिसाबकिताब की| और फिर ऐसे ही दानों से फरवरी 2016 जैसे जाट बनाम नॉन-जाट दंगे फाइनेंस होते हैं; जिसको इसका संज्ञान ना हो अच्छे से यह बात संज्ञान में ले लेवे|

अब प्रथम दो बिंदुओं पर थोड़ा विस्तार से:

"खापलीला थिएटर ग्रुप" क्या करे: सर्वखाप के वह गैर-राजनैतिक लोग, जो इस ग्रुप की संवेदना व् उद्देश्य के प्रति कटिबद्द हों, इस समूह में होवें| दिवाली-दशहरे के वक्त यह प्रचार 10-15 दिन का होवे| और खापलैंड के गाम-खेड़ों-शहरों में हर रोज खाप के इतिहास के एक अध्याय पर तारीखों के कर्म में थिएटर परफॉरमेंस होवें; कुछ-एक थिएटर प्ले इस तरह हो सकते हैं:
1. 1 - थिएटर प्ले नंबर एक: सर्वखाप द्वारा महाराजा हर्षवर्धन बैंस की बहन को दुश्मन की कैद से छुड़वाना व् उस राज में खापों को सवैंधानिक संस्थाओं का दर्जा मिलना| छटी सदी का अध्याय|
1.2 - थिएटर प्ले नंबर दो: सर्वखाप द्वारा पुष्यमित्र सुंग की बौद्ध जाटों को मारने आई 1 लाख की आर्मी को मात्र 9000 जाट यौद्धेयों द्वारा 1500 शहीदी देते हुए पछाड़ना व् "मार दिया मठ", "कर दिया मठ", "हो गया मठ" जैसी कहावतों की गिनती में इजाफे को वहीँ विराम लगाना| - इसका संदर्भ सर के. सी. यादव की पुस्तक "हरयाणा का इतिहास" में विस्तार से दिया गया है|
1.3 - थिएटर प्ले नंबर तीन: सर्वखाप द्वारा महमूद गजनी को लूटना| ग्यारहवीं सदी का अध्याय|
1.4 - थिएटर प्ले नंबर चार: सर्वखाप द्वारा पृथ्वीराज चौहान के कातिल मोहमद गौरी को मारना| बारहवीं सदी का अध्याय|
1.5 - थिएटर प्ले नंबर पांच: सर्वखाप आर्मी की गौरी के दिल्ली में रिप्रेजेन्टेटिव कुत्तबुद्दीन ऐबक से चौधरी जाटवान जी गठवाला के नेतृत्व में हांसी-हिसार के देपल के मैदानों में हुई भिंड़त और कैसे जीत कर भी ऐबक रोया| बारहवीं सदी का अध्याय|
1.6 - थियटर प्ले छह: जिंद की दादिरानी भागीरथी द्वारा चुगताई वंश के चार सेनापतियों समेत उनकी सेना को गोहाना से बरवाला तक दौड़ा-दौड़ा मारना|
1.7 - थियटर प्ले सात: सर्वखाप द्वारा राजा चौधरी देवपाल राणा जी के नेतृव्त में सेनापति दादा चौधरी हरवीर सिंह गुलिया बादली वाले द्वारा तैमूरलंग की टांग तोडने व् हिन्दोस्तां से भगाने का सन 1398 का किस्सा|
1.8 - थिएटर प्ले आठ: सर्वखाप द्वारा बाबर के खिलाफ राणा सांगा की मदद करने का किस्सा|
1.9 - थिएटर प्ले नौ: दादिरानी समाकौर के अपमान व् आक्रोश पर सर्वखाप द्वारा कलानौर रियासत को तोड़ डालना| सन 1620 का अध्याय|
1.10 - थिएटर प्ले दस: सर्वखाप द्वारा गॉड गोकुला के नेतृत्व में औरंगजेब के विरुद्ध हुई किसान विद्रोह की क्रांति| सन 1669 का अध्याय|
1.11 - थिएटर प्ले ग्यारह: 1761 में ब्राह्मण पेशवा सदाशिवराव द्वारा सर्वखाप को पत्र लिख पानीपत की तीसरी लड़ाई में मदद माँगना| देखना अभी जो पानीपत मूवी आ रही है उसमें इस किस्से का जिक्र तक भी आएगा या नहीं; यह जिक्र नहीं कर रहे इसीलिए तो खुद करने होंगे|
1.12 - थिएटर प्ले बारह: सर्वखाप द्वारा 1857 में हुई विशाल किसान क्रांति का नेतृत्व, जिसको प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का नाम दे दिया गया| इसमें दिखाया गया हो कि कैसे अंग्रेजों ने सर्वखाप के दो टुकड़े कर इसको 'यमुना आर' व् 'यमुना पार' में विभाजित कर दिया था|
1.13 - थिएटर प्ले तेरह: सर्वखाप द्वारा वक्त-वक्त पर की महापंचायतों के नियम-कायदों की पंचायत के विस्तार समेत फेहरिस्तों के अध्याय|
1.14 - थिएटर प्ले चौदह: सर्वखाप द्वारा वक्त-वक्त पर किये वह सामाजिक न्याय के अध्याय जिनकी वजह से गाम के गाम उजड़ने से बसे, भाईचारे बिछड़ने से बचे|
1.15 - थिएटर प्ले पंद्रह: सर्वखाप की अन्य नामीगिरामी हस्तियों, यौद्धेयों, मुख्यालयों, खाप-सरंचना व् इन द्वारा बनाये गए चौपाल-परस-एजुकेशन संस्थान व् गुरुकुलों की स्थापना के किस्से व् जानकारी इसमें हो|
जानता हूँ कि यह सब एक स्वपन जैसा है, खाप के अन्य तो क्या शायद खुद खाप वाले व् खाप मानने वाले ही इस पर यकीन ना कर पाएं| परन्तु इस बारे प्रचुर जागरूकता भी फैला दी जाए तो इन थिएटर प्लेज का होना मुश्किल या नामुमकिन भी नहीं| अभी फ़िलहाल तो लोगों में इन थिएटर प्लेज की जरूरत बारे प्रचार ही जोरो-शोरों से हो जायेगा तो करिश्मा हो जायेगा|

अब चलते-चलते आर्यसमाज के संभावित फ्यूचर कोर्स पर:

करतारपुर साहिब का खुलना आर्यसमाज को बहुत बड़ा संदेश देता है| संदेश देता है कि किन वजहों-मंशाओं से आर्यसमाज बना, वह सब चर्चित होता रहेगा, इसमें आई या शुरू दिन से रही या जानबूझकर डाली गई कुरीति व् बुराईयों को दूर कर लिया जायेगा पंरतु सबसे पहले इसको फंडी के ढोंग-पाखंड से मुक्त कर पुनः बहाल करवाया जाए| ताकि एक ऐसा प्लेटफार्म आर्यसमाजियों के हाथ में जरूर रहे जिसमें उनके पुरखों के खून पसीने से बनी इमारतें-जमीनें-संस्थाएं हैं, वह निरंतर इनके ही नियंत्रण में रहें| इन्हीं इमारतों-जमीनों पर कब्जा करने को फंडियों की निगाह गड़ी हुई है|

मूर्ती-पूजा नहीं करने का कांसेप्ट जो कि मूर्ती-रहित दादा नगर खेड़ों के आध्यात्म से उठाकर बिना इन खेड़ों को इसका क्रेडिट दिए आर्यसमाज में डाला गया था यह हर किसी को स्पष्ट किया जाए| सिखिज्म जैसे अपने पुरखों को ही अपना भगवान् मानता है ऐसे ही आर्य समाज भी अपने पुरखों को ही अपना भगवान मानता है; और इस आस्था की जड़ें जाती हैं पुरखों के स्थापित किये दादा नगर खेड़ों में, उदारवादी जमींदारी की थ्योरियों में| सिखिज्म जैसे माइथोलॉजी से दूर रहा है ऐसे ही आर्यसमाज भी माइथोलॉजी से दूर वैज्ञानिक तर्कों पर खड़ा है|
इनको खड़ा कर लीजिये, दुरुस्त कर लीजिये वरना आने वाली पीढ़ियाँ धिक्कारेंगी|

जिनको कीचड़ में खिलने वाले फूल चाहियें उनको कहिये कि अपने घरों-समाजों-वर्णों में भाई से भाई, वर्ण से वर्ण, जाति से जाति, इस बनाम उस आदि वाली द्वेष-नफरत-ईर्ष्या आदि वाला फैला के कीचड़ जितने चाहें उतने ऐसे फूल उगा लें; परन्तु हमसे यह उम्मीद ना रखें कि उनके ऐसे फूलों के लिए अपने घर-समाज-सम्प्रदायों में कीचड़ फैलाएंगे या फैलने देंगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

सिर्फ दिल्ली ही क्यों पूरे प्राचीन विशाल हरयाणा-पंजाब के प्रदूषण की बात होनी चाहिए!

इससे पहले दिल्ली पॉल्यूशन का इलाज यह हो कि इसके पॉपुलेशन बोझ को कम करने हेतु इसको हरयाणा-वेस्ट यूपी के अन्य जिलों में फैलवाया जाए; स्थानीय हरयाणवी-पंजाबी आवाज उठानी शुरू कर लें कि "पूरा देश यही ला के बसाओगे क्या? यह फैक्टरीज-डेवलपमेंट उन राज्यों-जिलों में भी ले जाओ जहाँ इनकी सबसे ज्यादा जरूरत है और जहाँ लोगों को रोजगार नहीं|" माना एक देश एक कानून के तहत कोई कहीं भी रह कर रोजगार कर सकता है, बस सकता है; परन्तु कहीं तो कोई लिमिट होगी जो पूरे देश की निर्भरता पंजाब-हरयाणा-एनसीआर पर ही लादे जा रहे हो?

पता नहीं किस सनक व् संवेदनहीनता से भरे लोग हैं इस देश की सत्ता को चलाने वाले कि चाहे यह पूरा क्षेत्र प्रदूषण का डस्टबिन बन जाए परन्तु यह इसकी वजह से स्थानीय लोगों पर पड़ने वाली ना सिर्फ वायु प्रदूषण की मार वरन अन्य 70 तरह के प्रदूषण और जैसे कि कल्चरल प्रदूषण, हेल्थ-प्रदूषण, मानसिक तनाव, धरती-दोहन, जल-प्रदूषण, ध्वनि-प्रदूषण, स्थानीय युवाओं की नौकरियाँ जाना या मिलना ही नहीं आदि-आदि जो यहाँ लोग झेल रहे हैं; वह ना इनको दीखता और ना उसकी चिंता|

हरयाणा के एक-एक गाम-मोहल्ले-शहर में दर्जनों-सैंकड़ों-हजारों कैंसर से ले पता नहीं कौनसी-कौनसी गंभीर बिमारियों के बचपन से शिकार हो गए हैं, इसकी तरफ कौन ध्यान देगा? और स्थानीय लोगों को तो इनमें नौकरियाँ भी नहीं मिल रही तो क्या यह तथाकथित फैक्टरीज आदि हमारी छाती पर हमारे फेफड़े-गुर्दे-किडनी आदि खराब करने मात्र को आन धरी हैं बस?

ऊपर से हरयाणवी ऐसे, हरयाणा ऐसा, इनकी बोली लठमार, इनका व्यवहार तालिबानी आदि के तान्ने झेल-झेल मानसिक तनाव बढ़ावें हरयाणवियों का वह अलग से| ना कोई श्यान ना गुण|

अत: तमाम हरयाणवी व् पंजाबी सावधान हो जावें, यह दिल्ली का प्रदूषण का शोर यूँ ही नहीं है, इसके जरिये दिल्ली से निकाल आपके शहरो-गामों की ओर इस बोझ को टालने की तैयारी भी है| इससे पहले यह सब होवे, हर जिला-तहसील आदि में ज्ञापन-पे-ज्ञापन भर दो कि हमारे ऊपर से यह तमाम तरह के तनाव कम करने हेतु; नई फैक्ट्रियों को उन जिलों-राज्यों में ले जाया जाए जहाँ इनकी वाकई जरूरत है| जानता हूँ कि इन ज्ञापनों से भी इनके कानों पर शायद ही जूँ रेंगें परन्तु जब मामले कोर्टों में पहुंचेंगे तो यह ज्ञापन की कॉपीज ही काम आएँगी|

नोट: हरयाणा एनसीआर में दूसरे राज्यों से बसने वाले मित्र माफ़ करें; परन्तु मुझे विश्वास है कि इस जानलेवा प्रदूषण में रह के नौकरी करके तो आप भी ज्यादा से खुश नहीं ही होंगे| आपके पास तो इस से ब्रेक पा लेने को आपके गृहराज्य घूम आने का ऑप्शन है परन्तु आम हरयाणवी-पंजाबी क्या करे जिसके पास यह ऑप्शन भी नहीं| या फिर आप ही ऐसे उपाय बताएं, जिम्मेदारी लेने को आगे आवें जिससे यह तमाम प्रकार के प्रदूषण कम किये जा सकें|   

जय यौद्धेय! - फूल कुमार

Thursday, 31 October 2019

प्यौध!

साह ही सैय्याद थे, अन्यथा पैदा तो वो आबाद थे,
शाहों की शाहकारी, बिखेर गई प्यौध की क्यारी!

वहाँ प्यौध ही ना जमने दी गई बेचारी,
वरना फसल होनी थी भर-भर क्यारी;

सैय्याद का ही हिया ना जमा,
प्यौध को ही इधर-उधर घुमाये फिरा!

जमा देता वो प्यौध जो एक ठिकाने,
फसल ने भर देने थे, चौक-चौखाने!

प्यौध से तो अस्तित्व की ही लड़ाई ना सम्भली,
फसल कब बनी कब खिली, ना जान सकी कमली!

वो हाथ अनाड़ी ना कीज्यो हे बेमाता,
कि उगावनियो ही रहा, जगह-जगह जमा के आजमाता!

इधर जमे तो उखाड़ के उधर जमाने लग जाई,
क्यारी-क्यारी ऐसी घुमाई, कि फसल कब-क्या बनी समझ ना आई!

बंदर की बंदूक बनी, अनकहे भी टेक गए लाखों श्यान,
फुल्ले भगत, जगत का पानी, बहता जा लिखे की ताण!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 22 October 2019

और कितना चूँट-चूँट खाओगे जाट को ओ भाँडो; बस लेने दो? रै जाट तू क्यों इतना नरम है मानवता व् सामाजिकता के आगे?

Please see the attached screenshot to understand the context of this post!

1947 में पाकिस्तान से लूटी-पिटी हिन्दू कम्युनिटीज आई, जाट ने सबसे ज्यादा अपनी दरियादिली व् पुरुषार्थ से अपनी छाती पर बसाई, इतनी बसाई कि न्यूनतम समय में यह कम्युनिटीज बहाल हो गई| 1984 में पंजाब में आतंकवाद हुआ तो 1986 से 1992 तक कुछ कम्युनिटी विशेष हिन्दू (5%), का पंजाबी सिखों ने मार-मार भूत उतारा व् वहां से भगाया, वह भी  जाट ने सबसे ज्यादा अपनी छाती पर बसाया| 1990 के आसपास बाल ठाकरे ने मुंबई-महाराष्ट्र में उत्तर-पूर्व भारतीय के नाम पर बिहारी-बंगालियों को पीटना शुरू किया, साथ में मोदी-शाह के गुजरातियों ने यही गुजरात में किया तो उनको भी यही जाट-बाहुल्य धरती ने अपनाया| 1993 में कश्मीरी पंडित जब भागे तो उनको देख लो सबसे ज्यादा कहाँ शरण मिली हुई है, इसी जाट बाहुल्य धरा पर| सभी को ऐसा अपनाया कि आज तक धर्म-भाषा-क्षेत्रवाद की ऐसी कोई बड़ी चिंगारी नहीं भड़की, जैसे 1947, 1984, 1990, 1993 में भड़की|

तो मीडिया वालो मत डंडा दो, जाट है यह; "जितना बढ़िया फसल बोना जानता है, उससे अच्छे से काटना जानता है"| यूँ ही नहीं कहा जाता कि 'जाट को सताया को ब्राह्मण भी पछताया"| सन 1761 में पुणे के ब्राह्मण पेशवाओं ने पानीपत की तीसरी लड़ाई के वक्त जाट महाराजा सूरजमल का अपमान किया था, यह तंज मारते हुए कि, "दोशालो पाटो भलो, साबूत भलो ना टाट; राजा भयो तो का भयो रह्यो जाट-को-जाट| ऐसी हाय लगी थी पेशवाओं को उस जाट को सताये की कि 1761 की पानीपत की तीसरी लड़ाई के मैदान में दिन-धौळी हार गए थे| और फिर उन अब्दाली से लूटे-पिटे-छिते पेशवाओं को इसी जाट के यहाँ मरहम-पट्टियाँ मिली थी| तो कोई ना जाट तो ऐसा ही नरम है उसके तो अपमान के बदले भी कुदरत अपने ढंग से ले लिया करे| तुम्हें किस बळ सेधेगी इसका पानीपत की तीसरी लड़ाई वाले सदाशिवराव भाऊ की भाँति तब पता चलेगा जब वह हार चुका था और हरयाणे की लुगाईयों ने भाऊ की जगह 'हाऊ' कहना शुरू कर दिया था| और हाऊ बोल के बच्चों को डराबा बालकों को सुलाने का प्रतीक बना दिया था| तुम क्यों बदनाम करो, यह बदनामी करना जाट और उसकी जाटनी तुमसे बेहतर जानती हैं| जब आएंगे इस नेगेटिव मार्केटिंग पर तुम्हारी तो तुम भाऊ से हाऊ बना दिए जाओगे|

या फिर सिर्फ जाट का ही क्यों, बाकी सबका भी बता दो कि किस जात-बिरादरी ने किसको वोट दिया?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक