Tuesday, 5 May 2020

क्षत्रिय शब्द की परिभाषा: एक वर्ग विशेष का पठाया हुआ बेगार-बधिर-मूक मात्र बॉडीगॉर्ड विद एक्स्ट्रा प्रिविलिज!


कई दिन से कैडर के कई साथी पीछे पड़े हुए थे कि आपको क्षत्रिय की आपकी एनालाइज़ की हुई परिभाषा बतानी ही पड़ेगी, अन्यथा हम इन बावले उदारवादी जमींदारों और उनमें भी खासकर जाटों को इस क्षत्रिय शब्द के फितूर से बाहर कैसे ला पाएंगे? मखा यार रहने दो, तम खामखा बवाल करवाओगे, जाटों की नाराजगी तो मैं झेल लूंगा परन्तु खामखा राजपूत साथियों को खासकर बिदकवाओगे तुम मेरे से| बोले, बिदकाने नहीं उनकी भी आँखें खोलनी हैं| मैंने कहा हम-तुम कौन होते हैं किसी की आँखें खोलने वाले? तुम्हारी खुल गई, इतना बहुत, तुम खुश रहो| वह इस परिभाषा के साथ खुश हैं, उनको उधर रहने दो ना? क्यों जूत बजवा रहे हो? बोले, राजपूत व् अन्य क्षत्रिय गीता बहुत पढ़ते हैं, कृष्ण द्वारा करण वाला ज्ञान पढ़ के खुद को उस "लग्जीरियस गुलामी" में पड़े रहने हेतु आश्वस्त कर लेंगे| परन्तु इस क्षत्रिय शब्द के चक्कर में जाट ज्यादा बावले हुए घूम रहे हैं, साथ ही बहुतेरे राजपूत तक जाटों को क्षत्रिय शब्द में स्वीकार नहीं करते| आप बताओ बस| अरे तो तुम जाट भी इसी तरीके के कोई करार कर लो ना यार, जैसे क्षत्रिय शब्द ओढ़ने वालों ने कर रखे| बोले धौळी की जमीनें तक फ्री में इनमें बाँट रखी, धर्म-कर्म के नाम पर सबसे ज्यादा इनको हम देवें और के अपने घर भी गिरवी रख देवें इनके; तब जा के इनको दिखेगा कि इनका वास्तविक हितैषी कौन है? मखा ये यूँ चाहवें से कि थम इनके साथ क्षत्रिय टाइप वाले करार में जाओ, तो ये तुम्हारी ना तो बदनामी फैलवायेंगे और ना ही 35 बनाम 1 रचवायेंगे तुम्हारे खिलाफ| अरे तो गुरु जी, इसीलिए तो यह क्षत्रिय वाला करार समझना है, इसको समझाओ तो पहले सही से| इसके pros एंड cons दिखाओ तो पहले| कुछ जचेगा तो कर लेंगे हम भी यह या इसी टाइप का कोई करार| मखा जिन जाटों को जंच चुका वो सदियों पहले ही राजपूत बन, क्षत्रिय का टाइटल ले चुके| बाकी थारै-म्हारै रास आवै कोनी यो करार| बोले वो बाद में देखेंगे पहले आप इसकी परिभाषा की व्याख्या बताओ| मखा थम मुझे सूली पे चढ़ा दो, लो सुनो क्यों है, "क्षत्रिय बेगार-बधिर-मूक मात्र बॉडीगॉर्ड विद एक्स्ट्रा प्रिविलिज"|

दो किस्सों के जरिये बताऊंगा:

महारानी पद्मावत का किस्सा: बेगार-मूक-बधिर इसलिए कि जब चित्तोड़ की महारानी पद्मावत को एक दरबारी राघव चेतन गलत तकता है तो, उसको क्या सजा दी जाती है? सिर्फ इतनी कि जैसे एक शरारती बालक को एक टीचर क्लॉस से निकाल देती हो, ऐसे दरबार से निकाल दिया? उसके बाद वो डाकी का चेला इसमें भी अपनी गलती मान, खुद को पछतावे की राह पर ले जाने की बजाये कहाँ ले गया? अलाउद्दीन के पास दिल्ली? किसलिए? अल्लाउद्दीन को पद्मावत के रूप के किस्से सुना, उसको पाने की लालसा जगाने के लिए? देख लो यहाँ भी उसकी वासना ही उसपे हावी चली| ले आया अल्लाउद्दीन को चित्तौड़गढ़? किसी क्षत्रिय ने उसको दूसरा जयचंद कहने की हिम्मत जुटाई? तो हुए ना मूक-बधिर? इस करार के अंदर कौन जयचंद कहलायेगा और कौन नहीं, यह भी क्षत्रिय निर्धारित नहीं करेगा, बल्कि उसको पठाने वाले करेंगे| अब इसके आगे देखो, अल्लाउद्दीन को लाया कौन? राघव चेतन? दोषी किसको मशहूर करना था, राघव चेतन को? फांसी किसको तोडना था, राघव चेतन को? परन्तु सारा किस्सा ड्रामा बना के, दोष की सुई किसपे डाल दी, अल्लाउद्दीन पे? वह भी क्या लेप-पलोथन लगा के कि यह देश-धर्म पर मुल्लों हमला था? क्यों भाई जितने उछाले जाते हो क्षत्रिय के नाम पर न्यायकारी बना के, उसके नाते राघव चेतन की गर्दन, वहीँ पहले झटके दरबार में ही तलवार से उड़ानी बनती थी या नहीं? वह कोई आम दासी या औरत नहीं थी जिसपे गलत नजर डाली गई थी, महारानी थी वो महारानी वो भी एक क्षत्राणी| अब बताओ, जब इस करार में खुद क्षत्रियों की औरतों को गलत तकने तक पे क्षत्री इनको पठाये हुओं को जो सजा बनती थी, वह नहीं दे सकते तो न्यायकारी होने की बजाये बेगार बॉडीगार्ड हुए या नहीं? फांसी, गर्दन वगैरह नहीं काटनी थी तो जेल में सड़ा देते, उसकी आँखें फोड़ देते, जिह्वा काट देते, कानों में उबलता तेल डाल देते, हाथ या ऊँगली काट देते, हुआ ऐसा कुछ? तो इनके करार में पड़ के तुम चित्तौड़गढ़ बना भी लोगे तो अंत दिन उजड़वा तो इन्होनें अपने हाथों ही देने हैं और तुम इन पर दोष तक भी नहीं धर पाओगे, जायज सजा देनी तो सपनों की बात ठहरी|

जयचंद राठौड़ का किस्सा: पृथ्वीराज चौहान और जयचंद दो सगी बहनों के बेटे थे, तो आपस में क्या हुए? मौसेरे भाई ना? ऐसे मौसेरे भाई, जिनकी माओं का गौत एक था? जिनकी औलादों के आपस में ब्याह नहीं हो सकते थे? और यहाँ तो पृथ्वीराज चौहान खुद ही, अपने सगे मौसेरे भाई जयचंद की बेटी संयोगिता को वह भी स्वयंवर से अगवा कर लाता है? आखिर किसकी शिक्षा, बहकावे या उकसावे पे? ब्याह-शादी के मामले में जाट ही क्या, सुनी है राजपूत भी न्यूनतम 3 से ले 7 गौत तक छोड़ते हैं? तो क्या यह शिक्षा पृथ्वीराज चौहान को नहीं दी गई होगी, वह भी इस बात के मद्देनजर तो दी जानी और भी लाजिमी बनती है कि आगे चल के उसको राजा बनना था, उसके दरबार में ब्याह-शादी के मसले भी आने थे, या नहीं? तो कल्चरल-कस्टम जैसी चीज को जो छिनभिन्न करता हो, उसको सजा देने हेतु कोई दरबार या पंचायत सजी/बैठी? नहीं? क्यों? इनका समझौता करवाना व् संयोगिता को वापिस जयचंद को सौंपवाना किसका फर्ज बनता था? दोनों तरफ के दरबारियों का, या नहीं? परन्तु उन दरबारियों ने क्या किया? जब जयचंद को कोई न्याय नहीं मिला तो वह मोहम्मद गौरी को ले आया| भाई अगले की बेटी उठाई गई थी, वह भी भरे दरबार से; उसको भी अपनी जनता में अपना सामंजस्य-विश्वास कायम रखना था, और वैसे भी गीता ज्ञान वाले ही कहते हैं कि अपने धर्म की पालना हेतु, आपको अधर्म का सहारा लेना पड़े तो वह जायज है| तो जयचंद ने वह लिया, वह किया| परन्तु इन राजदरबारियों के क्या किया? दोनों को भिड़ाया, फिर जिसने गलत किया, उसको धर्म-रक्षक व् जिसके साथ अन्याय हुआ उसके तो नाम को ही गद्दारी का पर्याय बना दिया यानि "जयचंद"? जबकि इस मामले में सबसे पहले दोषी कौन बनते हैं? नंबर एक ब्याह के गौत-नियम-रिश्तों की पृथ्वीराज को सही-सही शिक्षा नहीं देने वाले| दूसरे दोषी, जयचंद को न्याय नहीं दे पाने वाले|

तो बन लो इनके क्षत्रिय, तुमको एक सर्किल के अंदर बाँध देंगे, उसमें न्याय भी इनका और अन्याय भी इनका| यह चाहे तुम्हारी महारानी तक को छेड़ें या सगे मौसेरे भाई की रिश्ते में भतीजी लगने वाली राजकुमारी को अगवा करवाएं/होने दें, नचाएंगे तुमको अपने अनुसार| तो हुए ना, "क्षत्रिय, बेगार-बधिर-मूक मात्र बॉडीगॉर्ड विद एक्स्ट्रा प्रिविलिज"?

अभी तो इन दोनों किस्सों से भी हद दर्जे तक अपमानित कर देने वाला किस्सा, यहाँ नहीं डाल रहा हूँ, क्षत्रियों को 21 बार धरती से मिटा देने वाला| एक साथ पाठक इतना डाइजेस्ट नहीं कर पाएंगे| पोस्ट भारी-भरकम हो जाएगी, अन्यथा वास्तव में क्षत्रिय बेगार-बधिर-मूक मात्र बॉडीगॉर्ड मात्र से ज्यादा कुछ नहीं तो यही वाला किस्सा साबित करता है|

परन्तु तुम्हारी सोच सही दिशा में जा रही है कि क्षत्रिय टाइप का करार हमें यानि जाटों को भी कर लेना चाहिए| किया तो था यार पुरखों ने 1875 में आर्य समाज के माध्यम से जब इन द्वारा "जाट जी" बोल के जाट की स्तुति की गई थी| परन्तु अब देख लो फरवरी 2016 आते ही खुद ही तोड़ दिया ना करार इन्होनें ही? जाट-खाप-हरयाणा पर सबसे ज्यादा दुष्प्रचार करने वाले मीडिया में बैठे सबसे ज्यादा कौन बिरादरी के हैं? कहने की जरूरत है क्या? आर्य-समाज को खुद ही निगल गए, वाले कौन लोग हैं? यह खुद ही ना? तो क्या-कैसा-करार किया जाए, मंथन करो| परन्तु इतना जरूर है कि जाट इनसे क्षत्रिय टाइप करार तो करेंगे नहीं| हाँ "जाट जी" टाइप वाला जिसमें स्टेटस बराबरी स्वछंदता का हो, ऐसा कुछ हो तो लाओ, विचार करने को|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 4 May 2020

कैसे आर्य प्रतिनिधि सभा, अपने मूल उद्देश्य व् समाज से खुद को छिंटक चुकी है?

मेरे निडाणे में दूसरे पान्ने से मेरा एक भतीजा एक दिन व्हाट्स-एप्प परमुझे मैसेज भेजता है कि काका, मुझे अपने "दादा नगर खेड़े बड़े बीर" बारे कुछ सवालों के जवाब चाहियें| मैंने कहा हाँ, पूछो क्या बात हुई? वार्तालाप कुछ यूँ चली:

भतीजा: काका, हमारे स्कूल में आर्य प्रतिनिधि सभा वाले आये थे और कह रहे थे कि तुमको दादा नगर खेड़े की सच्चाई बता दी तो तुम इसको उखाड़ के फेंक दोगे?

सुन के मैं अचिंभित कि जिस आर्य समाज की मूर्ती पूजा नहीं करने के कांसेप्ट का आधार ही ये "दादा नगर खेड़े" रहे हों, उसी की आर्य प्रतिनिधि सभा ऐसे क्यों बोलेगी? आखिर किसके इशारों पे चलने लगे हैं ये आर्य प्रतिनिधि सभा वाले आजकल? मैंने मेरे बचपन से ले और कॉलेज टाइम लग दर्जनों कार्यक्रम करवाए इनके गाम में, पहले तो इनका कभी यह रूप नहीं देखा था, अब कौन फंडी घुस आया है इनमें जो यह लगे यूँ खुद को ही भुलाने की राह चलने? मैंने भतीजे से पूछा ऐसा क्यों, कहा उन्होंने?

भतीजा: काका, यह तो पता नहीं परन्तु उन्होंने "खेड़ों" बाबत बहुत अशोभनीय बोला?
मैं: हम्म, क्या कह रहे थे?
भतीजा: कह रहे थे कि "खेड़े" तो मुस्लिमों की निशानी हैं| देखो मुस्लिम भी मूर्ती नहीं पूजते, खेड़ों में भी मूर्ती नहीं होती| देखो, निडाना के खेड़े का मुंह पश्चिम की तरफ है, और पश्चिम में ही मक्का-मदीना है| यह तो मुस्लिमों के "कोला-पूजन" की निशानी हैं, इनको तो तोड़ देना चाहिए|

सुन के पहले तो बहुत परेशान हुआ, फिर मन में टीस उठी कि इन आर्य समाजियों को क्या हुआ जो यह इतनी उल्टी राह चलने लगे? ऐसा, सोच ही रहा था कि

भतीजा बोला: काका जवाब नहीं हैं क्या? क्या वह वाकई में सच कह रहे हैं? मैंने कई जगह पूछा परन्तु संतुष्टिजनक जवाब नहीं मिले| फिर कई दादा-ताऊओं ने आपका नाम लिया कि तेरे फ्रांस वाले काका फूल से पूछ, उसने गाम के बड़े बूढ़ों से बहुत शिक्षा और नॉलेज ली है इन चीजों पे|

मैं, भतीजे को उसके सवालों के जवाब देने से पहले सोचता रहा कि एक तो मुझे समझ यह नहीं आती कि अगर मुझे, मेरे कल्चर की बैटन को संभालने वाले लोग ग्राउंड पर ही नहीं दिख रहे हैं और बच्चों को मुझ तक पहुंचना पड़ता है इन जानकारियों के लिए तो यह गाम वाले क्या सिर्फ ताश खेलने, हुक्के पाड़ने औरआपस में बैर-बिसाहणे को गाम की गलियों में भटकने हेतु जन्म ले के आते हैं? आखिर क्यों नहीं है ऐसा सिस्टम जो इन बच्चों को वहीँ की वहीँ, सटीक बचपन में इन चीजों की सही-सही जानकारियां पास कर सकें? और फंडी दुश्मनों से आगाह रहना सीखा सकें? मैं खेतों में या अन्य प्रोफेशनल काम में व्यतीत होने वाले वक्त की नहीं कहता, परन्तु ताश खेलने या हुक्के पाड़ने के वक्त में से कम-से-कम 1-2 घंटा तो अपनी कल्चरल-कस्टमरी विरासत अपनी पीढ़ियों को पास करने में लगा ही सकते हैं? खैर, मन मायूस सा मसोस के भतीजे के सवालों के जवाब देने शुरू किये|

मैं: अपने जिंद के भूतेश्वर मंदिर का मुंह मक्का-मदीना की ही तरफ है तो क्या इससे वो मंदिर मुसलमान हो गया? दिल्ली की जामा मस्जिद का मुंह दक्षिण में है, वह क्या हुई फिर इन फंडियों के लॉजिक से? और तो और जिंद के एसडी स्कूल के बगल वाले खुद आर्य समाज मंदिर का मुंह पश्चिम में हैं, तो क्या यह खुद भी मुस्लिम हो गए? इनके अनुसार मंदिर का मुंह पूर्व में होना चाहिए या पश्चिम में? पहले तो इनको बोलो कि अपने सारे मंदिरों का मुंह इनकी एक निर्धारित दिशा में करें और फिर यह वाहियात काटें| तो "दादा नगर खेड़े" का मुंह पश्चिम दिशा में क्यों है का जवाब क्लियर हुआ?
भतीजा: हाँ, काका बिल्कुल हुआ| मुझे मिलने दो उस प्रतिनिधि सभा वाले को अगली बार, उसकी तो|
मैं: "खेड़ों में मूर्ती नहीं होती और मुस्लिम भी मूर्ती पूजा नहीं करता, इसलिए खेड़े मुस्लिमों की निशानी हैं", उसने ऐसा बोला ना?
भतीजा: हाँ!
मैं: उसको बोल कि अबे गधे जिस आर्य समाज का तू प्रतिनिधि है, उसका तो पूरा कांसेप्ट ही मूर्ती पूजा नहीं करने पे टिका हुआ है, तो फिर तेरे ही इस वाहियात लॉजिक से तू कितना बड़ा मुसलमान होना चाहिए?
भतीजा, जवाब सुन के हँसता ही जा रहा| और बोला: यार काका, मुझे यह जवाब उस वक्त क्यों नहीं सूझा?
मैं: एक तू स्कूल में था, ऊपर से उसने यह चीजें बताने से पहले, निष्ठा-आस्था-श्रद्धा के कैप्सूल गिटका के फिर तुझे अपनी वाहियात सुनाई होंगी| बस इसीलिए|
मैं: तेरा अगला सवाल, खेड़े 'कोला पूजन' की निशानी हैं| सन 1620 में दादीराणी समां कौर गठवाळी की प्रेरणा पर मलिक गठवाला खाप ने सर्वखाप का आह्वान कर कलानौर रियासत का कौला तोड़ दिया था, तो बताओ जब सर्वखाप ने पूरी रियासत ही नहीं छोड़ी, तो यह खेड़े, जो अगर कोले होते तो इनको छोड़ते वो?
भतीजा: बिल्कुल नहीं छोड़ते|
मैं: तो मिल गए उत्तर, तेरे सवालों के?
भतीजा: काका मिल भी गए और ऐसे मिल गए कि मुझे वो प्रतिनिधि सभा वाला कहीं मिल गया अगली बार तो खरी-खरी सुनाऊंगा|
मैं: खरी-खरी ही सुनाना, उसका खोपर मत खोल देना| और उसको कहना, कहना क्या बल्कि पूछना कि कौन फंडी तेरे पीछे लगे हुए हैं, जिनके दबाव या भय में तू आर्य समाज को उसके पथ से ही भटका ले चला है? हमें बता उन शक्तियों बारे, मिलके उनसे तेरी भी रक्षा करेंगे और आर्य समाज में आई कमियों को भी दूर करेंगे|

विवेचना: कमियां तो आई हैं आर्य समाज में तभी तो फरवरी 2016 हो गया हरयाणा में| इनमें कमियां ना आई होती, फंडी घुसपैठियों ने इनकी विचारधारा (जैसे भतीजे वाला ऊपर बताया एपिसोड) से ले इनके संस्थानों-मठों तक में सेंधमारी ना की होती तो फरवरी 2016 बिल्कुल ना होता| जिनको फरवरी 2016 नहीं चाहिए, उनको हर एक को आर्य समाज को सुधारना होगा| मूर्ती पूजा नहीं करने की जड़ें अब, इस कांसेप्ट के आध्यात्म के सुप्रीम सेंटर्स दादा नगर खेड़ों से जोड़नी होंगी और दोनों को आपस में एक दूसरे को प्रोटेक्ट करना होगा व् इनमें घुस आये फंडियों व् मूर्ती पूजा के फंडों को वापिस बाहर खदेड़ना ही खदेड़ा ही खदेड़ना होगा अन्यथा गुजारा नहीं है| और सारे आर्य समाजी लिटरेचर को संस्कृत के साथ-साथ हरयाणवी में ट्रांसलेट करके के इसका हरयाणवी वर्जन समानांतर रूप से आर्य समाज को चलाना होगा| सारे आयुर्वेद का पूरा क्रेडिट जहाँ से इसके कॉन्सेप्ट्स उठा-उठा यह लिखा गया, यानी खेत-जमींदार को देना होगा कि हमने यह ज्ञान किसान-जमींदार-मजदूरों के खेतों-क्रियाओं से कॉपी किये और आयुर्वेद की किताब बना डाली, उनको रिफरेन्स दिए बिना, क्रेडिट दिए बिना| या तो यह काम आर्य प्रतिनिधि सभा, दादा नगर खेड़ों के साथ मिलके करे अन्यथा उदारवादी जमींदार तो अब आ ही रहे हैं इस मिशन के साथ अपनी पीढ़ियों के बीच| सब कुछ छीनेंगे फंडियों से इन्होनें हमारे खेत-खलीहानों से कॉपी-पेस्ट मार के बिना प्रॉपर क्रेडिट दिए लिख के अपना क्लेम किया हुआ है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 29 April 2020

दादा नगर खेड़ों पर कोई मूर्ती कोई क्यों नहीं होती, यह मर्द पुजारी रहित क्यों होते हैं और इनमें धोक-ज्योत में औरत को 100% लीडरशिप क्यों दी गई है?

यह तीन सवाल अक्सर मुझसे कई युवा साथी उत्सुकता में पूछते हैं| जवाब इस प्रकार हैं:

1 ) दादा नगर खेड़ों में मूर्ती क्यों नहीं रखी जाती: यह एक निराकार प्रकृति स्वरूप पुरख धाम हैं, जिनके भगवान धरती पर वास्तव में हो कर गए, पुरखे होते हैं| इसलिए हमारे यहाँ 13 दिन बैठ कर मरने वाले की अच्छी-बुराई सब जिक्र कर, उसके प्रति सबका मन साफ़ किया जाता है, व् उसको भी पुरखों शामिल करवाया जाता है| मूर्ती इसलिए नहीं होती कि हमें पुरखों का धंधा करने/बनाने की मनाही है| मूर्ती नहीं होने की अगली वजह यह है कि फंडी रोज-रोज नए-नए भगवान घड़ के धर्म मार्किट में उतारते रहते हैं| और कमाई कायम रहे इसलिए ये कोशिश करते हैं कि इनको किसी के वंश से जोड़ के उसके वंश का पुरखा घोषित कर दें| तो ऐसे में पुरखों का चिंतन-मनन रहा कि इनका तो रोज का काम है, नए-नए भगवान घड के ले आना तो क्या हमें यही काम और हमारी कमाई इसीलिए के लिए रह गई कि यह रोज-रोज नया भगवान लावें और हम इनके नए-नए घर बना के देते जावें? तो अंत मंथन यह दिया पुरखों ने कि इनसे कौन बहस में पड़े, तुम हमारी औलादो ऐसा करना कि यह अगर कोई नया भगवान घड़े के लावें और तुम्हारे वंशों से जोड़ पुरखा बताने भी लगें तो कह देना कि अगर यह भगवान हमारा पुरखा था भी तो यह हमारे दादा नगर खेड़ों में स्वत: निहीत हो जाता है क्योंकि दादा नगर खेड़े पुरखों का ही तो धाम हैं और बात खत्म| वरना यह तब तक तुमको इन फंडों के नाम पर निचोड़ते रहेंगे जब तक तुमको खाने के लाले तक ना पड़ जाएं| इनसे "पैंडा छूटा रहे", इसीलिए पुरखों ने दादा नगर खेड़े मूर्ती रहित ही रखे| अगली मुख्य वजह इसकी यह है कि मूर्ती-पूजा से इंसान की सोच में जड़त्व पैदा होता है| वह अगर मूर्तिपूजा का व्यापार नहीं करना जानता है तो वह मूढ़मति बनता जाता है| इंसान में चढ़ावे के जरिये रिश्वतखोरी की प्रवृति पड़ने के चांसेज बढ़ते हैं व् वह करप्शन को भी सही मानने की प्रवृति की ओर बढ़ने लगता है| इसलिए इन वजहों से दादा नगर खेड़ों में मूर्ती नहीं रखी जाती|

2) दादा नगर खेड़े मर्द-पुजारी रहित क्यों होते हैं?: पुरखों ने इसकी दो मुख्य वजहें बताई| नंबर एक: धर्म के स्थल पर बैठे 99% मर्द साधु-बाबा-पुजारी चिलमधारी-नशेड़ी-अफीमची पाए जाते हैं| और इनके सानिध्य में नौजवान बालक का जाना बेहद खतरनाक होता है| यह लोग नौजवानों को नशे-पते की बुरी लत्त लगा देते हैं जो आज के दिन चिट्टे तक पहुँच गई है| इसलिए पुरखों ने मर्द पुजारी सिस्टम नहीं रखा| नंबर दो: 99% साधू-पुजारी-बाबा चरित्रहीन होते हैं, वासनायुक्त पाए जाते हैं; जिनको ऐसे स्थलों की चाबी सौंपना जहाँ औरतें धोक-ज्योत करती हों, समाज के चाल-चलन का सत्यानाश करना है| यह गाम की बहु-बेटियों पर गंदी नजरें रखते हैं और बच्चों को भी उसी राह पर डालते पाए जाते हैं| जहाँ मर्द-पुजारी सिस्टम के तहत इनको ज्यादा छूट व् एकाधिकार मिल जाता है वहां तो यह इतने निर्भय हो जाते हैं कि अपनी वासनापूर्ति के लिए मंदिरों में दलित-ओबीसी की लड़कियों को खुल्लेआम देवदासियां रखने लगते हैं| साउथ इंडिया में बहुत टेम्पल्स इसके साक्षी हैं| यह यहीं तक नहीं रुकते अपितु औरत पर मंदिर में चढ़ने बारे भी व्रजसला होने या नहीं होने की तालिबानी शर्तें तक थोंपने लगते हैं| इसलिए पुरखों ने इन दो वजहों से दादा नगर खेड़ों में मर्द पुजारी का कांसेप्ट ही नहीं रखा| औरत व्रजसला हो या ना हो, सधवा हो या विधवा हो, अच्छे से नहा-धो के जाओ और अपने हाथों से अपने तरीके से धोक-ज्योत करो, अपनी मर्जी से प्रसाद बाँट के आ जाओ|

3) दादा नगर खेड़ों में औरत को धोक-ज्योत में 100% लीडरशिप क्यों है?: कई बार जब एंटी-हरयाणा, एंटी-खाप मीडिया ने इनको मर्दवाद का निशाना बनाया तो यह लोग खुद को डिफेंड करने में फ़ैल रहे क्योंकि इन लोगों ने पुरखों की तरह एक तो मंथन-चिंतन करने छोड़ दिए और दूसरा अपने कल्चर-कस्टम-आध्यात्म के अतिरिक्त सबके देई-दयोते जैसे माथे गधी बैठा ली हो ऐसे बैठा लिए| अब जिसने धक्के माथे गधी धार रखी हो, उसको खुद के कल्चर का इतना उम्दा जेंडर सेन्सिटिवटी का ऐसा पहलु दिख भी भला कहाँ से जायेगा जो हमारे खेड़ों के अतिरिक्त कहीं और किसी भी धर्म-पंथ में पाया ही नहीं जाता| और वह है कि हमारा आध्यात्म औरत को धर्म-धोक-ज्योत में ही 100% लीडरशिप दिए हुए है| हमारे समाज के मर्द सिर्फ इन खेड़ों की मेंटेनेंस और दिशा-दशा सही रखते हैं, अन्यथा ब्याहँदड़ तक की उम्र पहुँचने तक मर्द को धोक भी खुद औरत मरवाती है इन खेड़ों पर| सनातनी-मुस्लिम-ईसाई किसी में आपको औरत को इतनी स्वायत्ता देखने को नहीं मिलेगी जितनी हमारे खेड़ों पर है| और इसकी वजह पुरखों ने दी कि औरत अपने परिवार-कौम के प्रति सबसे सेंसिटिव होती है| मुसीबत की घड़ियों में वो सबसे पहले अपने पुरखों का स्मरण करती है| बस औरत का यही स्मरण व् सम्पर्ण इसकी सबसे बड़ी वजह है कि क्यों औरत को 100% लीडरशिप है दादा नगर खेड़ों में|

विशेष: दादा नगर खेड़ा का कांसेप्ट उदारवादी जमींदारी के प्राकृतिक आध्यात्म का आधार बिंदु है| यह पंजाब, हरयाणा, दिल्ली, वैस्ट यूपी, उत्तरी राजस्थान व् तमाम उदारवादी जमींदारी जहाँ तक फैली है वहां-वहां तक पाए जाते हैं| इस धरा पर क्षेत्र के हिसाब से दादा नगर खेड़े के पर्यायवाची हैं जैसे बाबा भूमिया, दादा भैया, गाम खेड़ा, नगर खेड़ा, पट्टी खेड़ा, भूमिया खेड़ा, जठेरा, बड़ा बीर व् एक-दो नाम और हैं जो अभी कन्फर्म करने बाकी हैं|

बोल नगर खेड़े की जय!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 25 April 2020

आज रमादान मुबारक है!


देखना आज कैसे-कैसे फंडी (जो मुस्लिमों को रोज दफना के सोते है) मुस्लिमों पर प्यार बरसाते मिलेंगे, इनका यही नहीं पता कि यह कितने मुंहें सांप हैं| खैर इन मानवता के कलंकों को साइड में रखते हुए विश्व की तमाम मुस्लिम बिरादरी को रमादान मुबारक|

और मेरे गाम निडाना की उन चारों बिरादरियों कुम्हार-लुहार-तेली-मिरासी के मुस्लिम मेरे काके-दादे-भाई-भतीजों को खासकर मुबारक, जिनकी वजह से मेरे जैसों के घरों में मिटटी के बर्तन आते रहे, खेती के औजार आते रहे, तेली का निकाला तेल आता रहा| और वो दादी डूमणी जिसको हम आदर से "दादी सुरजे की डूमणी" कहा करते थे उस दादी को खासतौर से मुबारक| शायद वह दादी आज जिन्दा नहीं परन्तु जब भी आती थी तो जो आल्हे का झलकारा सा लगाती थी वो कच्चा-पक्का आज भी याद है| दादी कहती थी कि, "हो दादा घासी के पोते, हो गठवाले राजाओं के खूम, हो राजा, हो जजमान, थारे खेत-खेड़े बसदे लिकड़ो| बने रहो जजमान, खब्बीखान"| और मैं दादी को बार-बार कहता कि दादी तेरा तो पोता हूँ मैं, मुझे शर्मिंदा ना किया कर| तू हक से बोल क्या चाहिए|

गेहूं के पैर पड़ते ही मिरासी आया करते| कुछ-एक के तो नाम भी याद हैं मुझे, परन्तु लिखूंगा नहीं| उन्होंने मेरी खास पहचान की हुई थी| जिस खेत में गेहूं निकलवाने में मेरा डेरा होता था, वहां उनको पक्का आना होता था| क्योंकि मैं उनको तसले भर-भर अनाज डाल देता था| परन्तु उनके मांगने में फंडियों वाला छलावा नहीं होता था कि तुमसे ही लिया और तुम पे घुर्राया| कृतज्ञता होती थी हर एक में| और ये फंडी, इनके कितने ही हांडे से पेट भर देना, मौका लगते ही तुम्हारी पीठ पे वार करें ही करें|

मिरासियों के साथ विश्वास इतना बंधता है कि इतना तो महर्षि दयानन्द के लिखे-बोले "जाट जी" और "जाट देवता" शब्दों में नहीं बंधता| आदर में कम और छल में ज्यादा लिखे प्रतीत होते हैं ये शब्द| अब मैं क्या करूँ, तुम्हारी मार्किट वैल्यू ही तुमने यह बनाई है सदा से तो, और दूसरी तरफ देखो एक मुस्लिम दादी जाटों के आल्हे गाती थी तो वास्तविक प्रतीत होती थी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 24 April 2020

निडाना हाइट्स की वेबसाइट की 8वीं वर्षगांठ 19 अप्रैल 2020!

1 हफ्ता लेट हो गया: अभी निडाना हाइट्स की वेबसाइट की 8वीं वर्षगांठ थी 19 अप्रैल 2020 को|

एक ऐसा प्रोजेक्ट, एक ऐसी वेबसाइट जिस पर आपको हरयाणा-हरयाणवी-हरयाणत का लगभग तमाम पहलू पूरा-आधा-पद्धा परन्तु कवर मिलता है, वह भी हिंदी-इंग्लिश-हरयाणवी तीनों भाषाओं में| बाकी इस वेबसाइट बारे मेरी मोटिवेशन-विज़न इस पोस्टर में लिखा हुआ है, पढ़ लीजिएगा|

www.nidanaheights.com

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

तुम्हारे पुरखे वो थे जिनके खूँटों पर सारे धर्म चरते आये|

तुम्हारे पुरखे वो थे जिनके खूँटों पर सारे धर्म चरते आये|
और तुम जातियों में घुसे पड़े हो, धर्मों को कण्ट्रोल करने वालों के वंशजो?

यह लाइन का लहजा मुझे एक खाप पंचायती ने दिया था| सोच के देख लेना कि उनका विज़न कितना बड़ा था और तुम्हारा कितना रह गया है|

जो धर्मों को कण्ट्रोल किया करते थे, वो आज धर्म के अंदर जातियों के फेर में उलझ के रह गए? क्या हुआ तुम्हारे डीएनए को, या फंडियों की नौसिखियों में बह गए?

सारे धर्म खूंटे चरते थे और फंडियों ने एक धर्म में ही इतना बोझ मार दिया कि कंधे टूटे जाते हैं तुम्हारे? इतिहास याद दिलाऊं या यूँ ही समझ जाओगे?

1947 के हिन्दू-मुस्लिम दंगे याद दिलाऊं, जिनको वेस्ट यूपी में रोकने वाली कोई और नहीं अपितु खाप पंचायतें थी? यह पैठ रही तुम्हारी कि कहाँ तो डंका तुम्हारा धर्मों के दोनों पासे बजता था और कहाँ आज अपने ही धर्म में सिकुड़े जाते हो? जब जाट चौधरी हुए थे खड़े लठ लेकर कांधला में , कोई हिंदुल्ला या मुल्ला पैर नहीं धमक सका था, 1947 में| सारे घरों में घुसेड़ दिए थे खापों ने|

और वो ऐसा कर पाते थे इसीलिए पूरे उत्तरी भारत की इकॉनमी की धुर्री होते थे| और इस औकात के लिए चाहिए होता है आत्मचिंतन, इतिहास-कस्टम-फिलॉसफी पर मनन| और तुम पता नहीं ऐसे कौनसे छदम छप्पन खां बने जाते हो कि तुम्हें हर किसी ऐरे-गैरे के कस्टम-कल्चर बिना-सोचे समझे छाती पे जमाने होते हैं और खुद का कल्चर और गौरव ऐसे बिलख रहा है जैसे माँ ने दूध ही पिलाने से मना कर दिया हो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 23 April 2020

फंडी की पीठ पर सवार जाट!

तुम कौनसे वाले जाट हो जी? फंडी जिसकी पीठ पे सवार है या जो फंडी की पीठ पे सवार है? फंडी के साथ तुम बराबर के दर्जे पर रह लोगे यह तुम चाहोगे तो भी फंडी देर-सवेर पिछने बिना नहीं रहेगा| फ्रांस में एक ऐसा ही दोस्त मिला था, इस लेख का आधार वही है नीचे बताऊंगा, इसलिए अंत तक पढ़ते जाना|

हालाँकि मैंने कभी क्लेम नहीं किया, परन्तु जब भी सोचता हूँ तो अचंभित हो जाता हूँ कि मैंने तो आज तक किसी फंडी को एक गाली तक नहीं दी, असभ्य नहीं बोला, उनका कभी जाम के बुरा नहीं किया, कोई बद्दुआ तक इनके लिए नहीं की आजतक; फिर भी मेरा नाम आते ही यह बिदकते पहलम झटके हैं| आखिर ऐसा क्यों है? क्या इनकी पोल खोलने का मेरा तरीका, लहजा ही इतना सटीक है कि यह मेरा नाम आते ही कोई प्रतिक्रिया या अटैक करने से बिदक लेना बेहतर समझते हैं? पता नहीं, इनको ये अहसास कहाँ से आता है कि "और किसी भी तुर्रम खाँ को तुम उलझा लोगे, डरा-झुका लोगे, छल लोगे" परन्तु यह वह वाला निगर जाट है जिसके बारे "सत्यार्थ प्रकाश" में महर्षि दयानन्द ब्राह्मण लिख गए कि, "सारा संसार जाट जी जैसा हो जाए, तो पंडे भूखे मर जाएँ"| अब महर्षि दयानन्द जी की यह बात तो गलत थी कि, "पंडे भूखे मर जाएँ" और उनके भूखे मरने का इल्जाम जाटों पे लगेगा? कितने जाट महर्षि की इस बात को पढ़ के भावुक हो जाते हैं? बताओ, जिस जाट के बाढ (खेत) में आवारा जानवर से ले आवारा पंछी तक छकता हो| जिस जाट के घर से दलित से ले हर ओबीसी कामगार भाई का वक्त पे हिस्सा जाता रहा हो, वह भला पंडों को क्यों भूखा मारेगा? महर्षि जी को शायद ज्यादा चाहिए, इसलिए जाट के पल्ले मढ़ गए कि जाटो तुमने हमसे मुंह मोड़ लिया तो हम भूखे मर जायेंगे| तो फिर महाराज सीधे-सीधे क्यों नहीं कहे? जाट तो दर पे आये कुत्ते तक को रोटी या लठ, दोनों में से एक दिए बिना वापिस नहीं मुड़ने देता, तुमसे सौतेला व्यवहार क्यों करेगा? इसलिए आपा ने तो दादा वाली बैलेंस्ड लाइन पकड़ रखी है कि, "पोता, धर्म इतना ही भतेरा कि कोई मंगता तेरे दर से भूखा-नंगा ना जाए और इससे ज्यादा जो मुंह बाए, उसको लठ प्याया जाए", ठीक वैसे ही जैसे हम कुत्ते के लिए करते हैं| कुत्ता जब तक रोटी के लिए बैठा है तो खिलाओ, उसके बाद ज्यादा कुन्ह-कुन्ह करे तो लठ प्याओ|

बात है 2012 की है, एक दोस्त था ईस्ट यूपी का यहाँ फ्रांस में, आज भी है| वह फंडी था या नहीं आप खुद ही निर्धारित कर लेना| हम साथ काम करते थे, एक ही कंपनी में| वह घर की रोटी-सब्जी बहुत मिस करता था| उसको बनानी नहीं आती थी| जबकि मैं सातवीं क्लास से ही एसडी स्कूल, जिंद के हॉस्टल में रहते हुए हलवा-पूरी-खीर-रोटी-सब्जी सब सीखा हुआ था| मैंने उससे कहा कोई नी, वीकेंड पे मेरे फ्लैट पे आ जाया कर, मैं सीखा दूंगा और तू एक प्योर इंडियन लंच मेरे साथ कर लिया करना| जब सीख जाए तो मुझे तेरे फ्लैट पे इन्वाइट करके बदला उतार देना| छह महीने तक हम वीकेंड पे ऐसे ही खाते रहे, किसी वीकेंड वो मेरे घर, किसी वीकेंड मैं उसके घर| भाई, आपा नी सरमाया करदे, आपा वो वाले जाट हैं जो फंडी के घर का फंस जाए तो पहले झटके खोसण उतारते हैं; वह भी इस खौफ से बेख़ौफ़ कि फंडी सबसे ज्यादा जहर में खाना दे के ही मारता है, बेख़ौफ़ इसलिए कि उसी बर्तन से लिया पहले वो खाता था और फिर मैं| इनके साथ तो दोस्ती ऐसे ही निभानी पड़ती है|
ऐसे ही एक दिन लंच करते-करते आमिर खान का सत्यमेव जयते शो लगा लिया| महम चौबीसी वाले पधारे हुए थे| दोस्त, को पता नहीं क्या धुन चढ़ी, वह यह भी भूल गया कि वह इस वक्त एक जाट के साथ बैठा है, और एक दम से उसके मुंह से फूटा कि, "यह खाप पंचायतें तो सबसे पहले खत्म कर देनी चाहियें"| मेरा निवाला जहाँ था वहीँ रुक गया, मैंने उसकी तरफ देखा तो पता नहीं मेरी आँखों में कुछ था या क्या, जब तक रहा खाप के गुण ही गाता रहा| और बीच-बीच मुझे टटोलता रहा कि क्या स्थिति है| परन्तु इस सबसे इतना प्रतीत हो गया था कि उसको उससे आज बहुत बड़ी गलती होने का अहसास हो रहा था|

उसके बाद, वह मुझसे ऐसा बिदका (जबकि मैंने उससे कभी यह प्रतिउत्तर भी आज तक भी नहीं माँगा है कि एक हिन्दू होते हुए भी तुझे हिन्दुओं की सबसे बड़ी सोशल इंजीनियरिंग व्यवस्था यानि खाप खत्म क्यों चाहिए) कि फिर कभी खाने पे नहीं आया (अपने आप आया करता था बिन बुलाये) और मुझे बुलाने की शायद हिम्मत नहीं कर पाया उसके यहाँ, उस इंसिडेंट के बाद| ऑफिस में भी डेस्क मेरे से दूर शिफ्ट कर लिया| एक बार परफैक्चर (कोर्ट) में (वीजा एक्सटेंशन हेतु गए हुए थे दोनों ही) मिला तो मेरे से 2 नंबर आगे था लाइन में| मेरे को देखा और अस्थिर आँखों व् मुस्कान के साथ हाय-हाय करता दिखा, ऐसे जैसे उसके चेहरे की हवाइयां उड़ रखी हों, परन्तु उस वीजा लाइन से 2 मिनट में गायब हो गया, जिसमें लोगों को घंटों खड़े हो अपने नंबर का वेट करना पड़ता है| सुबह 7 बजे आ के लाइन में लगे का दोपहर 2 बजे मेरा काम हुआ, परन्तु वो नहीं दिखा मुझे कहीं भी|

शायद समझ गया था कि तूने जिसके ऊपर सवाल किया था, उसके लिए यह जाट तुझे मार ना दे| परन्तु इतना खौफ तो नाजायज है ना, उसके मन में? मैंने तो उससे मुड़ के सवाल भी नहीं किया, आज तक नहीं किया|
जो भी कहो, फंडी की पीठ पे सवार होवो तो इसी हस्ती और रौब के साथ सवार होवो कि मुंह से उसको एक गाली नहीं दी, लठ उठा के मारना तो बहुत दूर की बात, बस आँखों-आँखों में इतना निचोड़ दिया उसको कि आज भी किसी गेट-टू-गैदर में दीखता है तो ऐसे भागता है जैसे शिकारी को देख तीतर| अब महर्षि दयानन्द जी, अगर ऐसे हमारा कोई दोष हुए बिना भी कोई फंडी भूखा मरे (खाने का भूखा हो या दोस्ती का) तो वो मेरी दादी वाली बात 14 बार मरे, इसमें मेरा क्या कसूर?

अब भी देख लो, ना उसकी जाति का जिक्र किया, ना उसके नाम का; परन्तु किस्सा पूरा कर दिया, वह भी एक सभ्य-शालीन तरीके से| और अच्छी खासी कंपनी में टीम लीडर है यहाँ पे वो|

पता है यह बिना गाली, बिना लाठी कैसे सम्भव होता है? क्योंकि मैं आज भी मेरे पुरखों के कल्चर-कस्टम-वैल्यू सिस्टम-एथिक्स-ह्यूमैनिटी-भाषा-जेंडर सेंसिटिविटी पर कायम हूँ इसलिए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"अश्वत्थामा हतो-हत:" - इस अफवाह ने ही द्रोणाचार्य को मरवाया था ना?


पालघर में यही तो हुआ है? अफवाह फ़ैलाने वाले अपने, मारने वाले अपने|

कब तक बचोगे तथाकथित कच्छाधारी देशभक्तो, सम्भल जाओ क्योंकि फंड-पाखंड-अफवाहों-अन्यायियों के सरताज बनोगे तो यह मत समझो कि आंच तुम तक नहीं आएगी| यह वह जहर है, देर-सवेर जिसके लपेटे में तुम भी आओगे जैसे द्रोणाचार्य आया था|

और ये द्रोणाचार्य टाइप सारे इन भक्तों के गुरु भी समझ लें, तुमको यह तुम्हारा डेढ़श्याणापन ही ले के डूबेगा अंत दिन| ठीक वैसे ही जैसे अर्जुन के लिए एकलव्य का अंगूठा तक मांगने वाले द्रोणचार्य को फिर अर्जुन व् तमाम पांडुओं की आँखों के आगे ही मार दिया गया था, वह भी निहत्थे को| क्योंकि द्रोणाचार्य कि विधा थी ही इतनी आधारहीन कि अर्जुन व् तमाम पांडुओं ने उसको मरते देख, यह हवाला देना तक उचित ना समझा कि वह निहत्था है, दुःख में लिप्त है, वह वो आदमी है जिसने अर्जुन के लिए एक दलित का अंगूठा मांग लिया था| कम-से-कम इतनी रियायत तो दी होती उस आदमी को, कि उसकी हस्ती-हैसियत के हिसाब की मौत नसीब करवाई होती? मारो-मारो रिवाज व् आदर्श है तुम्हारा तो अपने ही गुरुओं को मारने का| तुम्हारे आका ने मार रखा आडवाणी, जिन्दा लाश बना रखा|

यही गोबर-घूं-खाना-कुणबाघाणी की शिक्षा है तुम्हारी, खुद को विश्वगुरु क्लेम करने वालो| मरोगे इसी के लपेटे में आ के एक दिन, उदाहरण पालघर|

बताओ ऐसी-ऐसी कुणबाघाणी की कथाओं को यह आदर्श बनाए घूम रहे हैं| ऐसे-ऐसे जमीन-डोले के रोले हर दूसरे जाट-जमींदार के घर होते हैं, यूँ हर कोई दूसरे दिन महाभारत सजा के खड़ा होने लगा तो बस लिए जाट-जमींदार तो|

वैसे MBA टाइम में "अश्वत्थामा हतो-हत:" का नाटक मंचन किया था मैंने अपनी टीम के साथ| नाटक को बेस्ट नाटक और मुझे बेस्ट डायरेक्टर का अवार्ड जूरी हेड मिस्टर अतुल शर्मा ने यह अनाउंस करते हुए दिया था कि "There is no competition for the first position of Best Director Award in One Act Play category as it goes to one and only Mr. Phool Kumar, competition is for the second position in this category".

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 22 April 2020

बबिता पहलवान बेबे के जरिये आजमाई ट्रिक फ़ैल हो गई तो फंडी देखो क्या नई ट्रिक लेकर आये हैं!

ट्रिक की छोडो, पहले तुम मंडियों में हिन्दू जमींदार-किसान की हो रही बीरान-माटी को ठीक करो, ओ स्टेट-सेण्टर दोनों जगह बैठे हिंदुत्व के ठेकेदारों| तुम्हें जरा भी लिहाज शर्म हो तो जिस ट्रिक का नीचे जिक्र कर रहा हूँ, इसकी बजाये अपने धर्म के जमींदार-किसान की टाइम पे तो फसल उठाने पे ध्यान दो मंडियों में और वक्त पे उसकी पेमेंट करवाने पे|

ट्रिक कौनसी: व्हाट्स ऐप यूनिवर्सिटी के जरिये अभी एक पोस्ट मिली जिसमें लिखा है कि लाखनमाजरा व् दनोद में वहां के जाटों ने वहां के मुस्लिमों को वह भी वहां के मुस्लिमों की अपील पर हिन्दू बनाना स्वीकार किया?
ऐसा है फंडियों: यह दूसरों की पीठ पे सवार हो के चलना छोड़ दो| है औकात तो खुद जा के बना लो मुस्लिमों को हिन्दू| हमें मुस्लिम के साथ मुस्लिम रहते हुए एडजस्ट करने में कोई परेशानी नहीं| 70% उदारवादी जमींदार (जिसके बड़े धड़े यानि जाट को तुम बहकाने हेतु सबसे मुख्य निशाने पर रखते हो) ने तो तुम्हें पीठ पे लादा भी नहीं कभी| जो 20-30% ने लाद लिए थे उनमें से आधे से ज्यादा तुम्हें पीठ से उतार धरती पे पटक चुके| और बाकी भी जल्दी ही पटकेंगे| हम महाराजा सूरजमल और सर छोटूराम की राह पर चलते हुए आ रहे हैं, हमें वक्त कितना ही लग जाए परन्तु हम आ रहे हैं और याद रखना, कसम इन पुरखों की, इनसे भी बेहतर तरीके से ना सिर्फ तुमको बाकियों की पीठ से भी पटकवायेंगे अपितु महाराजा सूरजमल और सर छोटूराम की भांति तुम्हारी पीठ पर सवार होने हम आ रहे हैं| और यह दोनों पुरखे व् इनके जैसे अनगिनत पुरखे गवाह हैं इस बात के कि जब-जब उदारवादी जमींदार फंडी की पीठ पे सवार हुआ है फिर तुम सिवाए देखते रह जाने के कुछ नहीं कर पाए हो, जैसे महाराजा सूरजमल और सर छोटूराम के उदाहरण|

हिन्दू धर्म के जमींदार-किसान को वक्त पर व् न्यायकारी तरीके से उसकी फसल के दाम देने तक की शर्म-लिहाज-जिम्मेदारी-नैतिकता नहीं तुम में, और पालोगे अन्य धर्म वालों को हिन्दू धर्म में मिलवा के? जो पहले से हैं तुम्हारे धर्म में इनकी भुखमरी-गरीबी-गुरबत तो मिटा लो? इनको इनके बनते-बनते जायज हक ही दे दो?

अन्यथा वही बात, हम आ रहे हैं, महाराजा सूरजमल और सर छोटूराम के अनुयायी, हमें वक्त भले जितना लग जाए परन्तु हम आ रहे हैं| और तुम्हारी तरह चार पीढ़ियां नहीं लेंगे, असल तो एक ही पीढ़ी में अन्यथा दूसरी में तो तुम्हें जरूर बता देंगे कि अपनी कौम-धर्म-देश की सब वर्गों की जनता-जनार्दन के हक-हलूल कैसे पाले व् रखवाए जाते हैं| याद रखना उदारवादी जमींदार तो किसी को पीठ-कंधे पर बैठा के चल भी लेता है, तुम्हारा तो इतना भी जाथर नहीं है कि अगर उदारवादी जमींदार तुम्हारी पीठ पर बैठ गया तो दो ढंग भी चल सको, उदाहरण महाराजा सूरजमल और सर छोटूराम| वो टूटी ही टूटी समझो, बस एक बार कंधे के ऊपर से मुड़ के देखने की जरूरत भर है| छोड़ दो ये चलित्र, वरना इतना समझ लो कि हमारे मनों से दिन-भर-दिन छिंटकते जा रहे हो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

ऐ परस-चौपाल-बंगले बनाने वालो, इस साल से सामूहिक अनाज-के-गोदाम बनाने शुरू कर दो, गाम गेल!

ऐ उदारवादी जमींदारों (हर जाति-धर्म वाला), पूरे हिंदुस्तान में एक तुम्हारी धरती (अमृतसर से लेकर धौलपुर व् सिरसा से लेकर अमरोहा तक) ऐसी है जहाँ पर अंग्रेजों-फ्रेंचों की तर्ज पर मिनी-फोट्र्रेस टाइप परस-चौपाल-बंगले मिलते हैं, गाम गेल| लेकिन अब वक्त आ गया है कि इन परस-चौपाल-बंगलों की तर्ज पर साझे गेहूं के गोदाम बनाओ| ताकि जहाँ जब-जब ऐसी भिखमंगी-मंगतों की सरकारें आवें जैसी आज के दिन हरयाणा में चल रही हैं तो तुम्हें मंडियों में इनके आगे रिडाना ना पड़े| व् जब इनकी मरोड़ निकल जाए, तब फसल बेचो| इसके लिए अपनी-अपनी खेती को कॉर्पोरेट में तब्दील करके, गोदाम बनाने के राइट्स में आओ और शुरू कर दो इसी साल से गाम गेल सामूहिक गोदाम बनाने| और हाँ बंद करो ये गाम-पान्ने जेल 80-80 फुट के घंटे व् पताकाएं चढ़ानी, क्या यह तुम्हारी फसल रख लेंगे अब, एक ऐसे समय में जब सरकारें तक तुम्हें खिजा रही हैं? पूछो इनसे, जवाब ना में मिले तो शुरू कर दो, इसी साल से पहली फुर्सत से सामूहिक अनाज-के-गोदाम बनाने|

हरयाणा सरकार वालो सुनी है गेहूं से 5 किलो प्रति किवंटल व् सरसों पर 1 किलो प्रति किवंटल किसान की मर्जी-बेमर्जी तथाकथित दान के नाम पर धक्के से काट रहे हो? अरे भिखमंगों, कुँए-जोहड़ क्यों ना टोह लेते तुम?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

धर्म इतना ही कि, "मंगता-साधु भूखा मरे नहीं, इससे ज्यादा जो मांगे उसके दो लठ रखने में डरें नहीं"!

साधू भी सच्चे वाला, फंडी बदमाश नहीं!

गाम-समाज के नाम पर एक गाम या एक पंचायत का एक ही गामी/सरकरी/पंचायती/दागा हुआ झोटा/सांड छोड़ा जाता है| अगर किसान-जमींदार हर जानवर को गामी-सरकारी-दागा हुआ खुला सांड या झोटा छोड़ दे तो वह उसके खेत-घर-क्यार-नोहरे-दरवाजे सब क्याहें का खोसण उठा दें| यही दशा धर्म की होती है| सरकारी के नाम पर अपने पुरखों के बनाये सर्वमान्य दादे खेड़ों को रखो क्योंकि मानवता और जेंडर सेंसिटिविटी पे यही सबसे बेहतर हैं| और इन बाकी सबको इनके गले में बाँध-बाँध बेल खोरों-खूँटों पे बाँध के रखो और इनसे यथाशक्ति काम लेते रहो और उसी हिसाब से खुराक दो| जैसे दूध देने वाली भैंस/गाय से दूध लेने का काम व् बदले में बढ़िया चाट (डांगरों वाला चाट, कहीं रेहड़ियों पे मिलने वाला चाट समझ लो) वाला खाना| जो दूध ना दे उसको जोड़ो हल-बुग्गी वगैरह में|

प्रैक्टिकल बता दी, यह करोगे तो सुखी रहोगे क्योंकि तुम्हारे पुरखे इसी तरह सुखी रहे और जाट जी व् जाट देवता कहलाये| अन्यथा तो यह इसका उल्टा तुम्हारे साथ करने में एक पल ना लगाएंगे| इसका एक्साम्प्ल भी गामी झोटा/सांड ही से लो, एक खुला चरता है तो तुम्हें भी पता नहीं लगता; सारे जानवर खुले चरने छोड़ दिए तो छोड़ेंगे कोई डिक्का तुम्हारे लिए खेतों में? आधी खा गेरेंगे और आधी छड़ गेरेंगे|

ये अपने बाप के सगे ना होते, तुम्हारे तो तब से होंगे| भगवान तक के नाम से डरा के तुमसे हफ्ता वसूली कर जाते हैं और तुम बेबे सा मुंह बनाये, थोथी धार्मिक होने की फील में ग्याभण हुए रह जाते हो| ग्याभण भी वो "विकास" टाइप वाले जो 2014 से ले आज 6 साल हो गए परन्तु आज तक हो के नहीं दे लिया|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 21 April 2020

जाट का धार्मिक-मार्किट में शेयर व् होल्डिंग, उसका चढ़ाव-उतार-ढलान व् भविष्य!

जाट का ही जिक्र क्यों?: फरवरी 2016 वाले 35 बनाम 1 ने समझाया कि जाट ऐसी क्या बला है जो इस 35 में बाकी सब थे या धक्के से लपेटे गए थे परन्तु 1 में सिर्फ जाट था परन्तु क्यों था? जिस गैर-जाट को इस लेख के शीर्षक से आपत्ति हो वह इस सवाल का जवाब ढूंढ के दे दे कि 35 बनाम 1 में, 1 तू क्यों नहीं था; जाट ही क्यों था?

संदेश: अगर तुम अपने पुरखों की भांति धर्म में अपना मार्किट शेयर पुरखों वाली चौधर व् अणख के साथ बरकार नहीं रखोगे जाटो, तो तुम्हें यूँ ही पीटने-घेरने-मारने-दबाने की कोशिशें तुम्हारे ही धर्म वाले बार-बार करने आएंगे, जैसे फरवरी 2016 में 35 बनाम 1 के बहाने आये थे| इंतज़ार मत करना कि कोई मुस्लिम या ईसाई या कोई अन्य धर्मी तुम्हें मारने आने वाला है, ना-ना उससे पहले तो तुम्हें यह स्वधर्मी ही मारेंगे, उसमें भी खासकर से 35 में जो भी टूल रहे हैं| ये वाकई 35 हैं भी या 35 का चोला ओढ़े चले आ रहे हैं| "कुणबाघाणी" क्या होती है सुनी होगी? बाकि समझदार हो|

खैर, आगे बढ़ते हैं| उत्तरी भारत में धर्म की मार्किट में किसी एक जाति-वर्ण-वर्ग की मोनोपॉली नहीं चली, सीधे-सीधे दखल से तो कभी चली ही नहीं और शायद ऐसा कभी होवे भी नहीं अगर जाट ने फरवरी 2016 से अपना सही सबक ले लिया है तो| और मानवता-समाजवाद को जिन्दा रखना है और खुद भी इज्जत से जिन्दा रहना है तो असल तो 36 बिरादरी जाट के साथ मिलके अन्यथा जाट तो जरूर से जरूर अपने पुरखों का धर्म की मार्किट में उसका शेयर व् होल्डिंग बरकरार करे, रखे| कैसे और कौनसा धर्म मार्किट का शेयर व् होल्डिंग?

उठाने के तो माइथोलॉजी वालों के जमानों से उठा सकता हूँ परन्तु इतने पीछे 90% गपोड़ें मिलती हैं| आईये फ़िलहाल मात्र 1469 से 1839 व् 1839 से 1875, फिर 1875 से 1945, 1945 से 1986, 1986 से 2000, 2000 से 2016 व् 2016 से आज और आज से आगे यानि भविष्य में जाट धार्मिक मार्किट में इसका शेयर कैसे बरकरार रह सकेगा|

सन 1469 से 1839: वह वक्त जब सबसे ज्यादा फंडी के फंडवाद से तंग आ कर जाट ने सनातन धर्म विंग से खुद को ऑफिशियली अलग किया| ऑफिशियली अपनाया तो कभी था ही नहीं| भक्त जरा नोट करें यहां, किसी मुस्लिम या ईसाई ने नहीं छिंटकवाया था; फंडियों की बकचोदियों ने छिंटकवाया था जाटों को इनसे| उससे पहले इनको अपनाया भी नहीं था तो ऐसे ऑफिशियली दुत्कारा भी नहीं था| भक्त यह भी नोट करें और बुलंदी देखिए सिख धर्म की व् इस धर्म में जाट का मार्किट शेयर व् होल्डिंग देखिए, अणख देखिए| मेरे ख्याल से बाकी सब धर्मों के जाटों से ज्यादा है| मार्किट शेयर व् होल्डिंग की बात अगर करूँ तो जाट को यह सबसे ज्यादा सिखिज्म में है, फिर मुस्लिम धर्म में, फिर बुद्धिज्म में, फिर रही तो आर्य-समाज में (आज के दिन यह स्टेक रिस्क पे रखा है और इसी से उद्वेलित यह लेख है) व् इसके बाद किसी अन्य में| सनातन विंग में तुम्हारा स्टेक ना कभी था न कभी होगा, मानों या ना मानों; इनके लिए तुम दुग्ध देती उस गाय से ज्यादा कुछ औकात के नहीं जिसको चारा भी यह खुद डालना चाहते हैं| यानी तुम्हारी धरती-फसल-प्रॉपर्टी सब इनको इनके कण्ट्रोल में चाहिए, कहने मात्र को नाम तुम्हारा, परन्तु उसका पूरा आउटपुट इनका| तुम्हारे लिए छोड़ा जायेगा तो बस गाय के चारे जितना| हजम नहीं होती ना? वक्त के साथ हो जाएगी, अगर अभी भी नहीं सुधरे तो, खासकर शहरी व् इलीट जाट;क्योंकि गाम वाले 90% तुमको फॉलो करते हैं| खैर आगे बढ़ते हैं, सन 1839 में महाराजा रणजीत सिंह के राज में सिख धर्म अपनी बुलंदी की इतनी प्रकाष्ठा पर था कि बाकी का जाट भी सिखिज्म में जाने लगा| कैथल-थानेसर-करनाल (3 क का कॉम्बिनेशन बनाकर कुरुक्षेत्र भी लिखना चाहता था परन्तु उस वक्त कुरुक्षेत्र नाम का कोई शहर था ही नहीं, यह बना ही 1947 में है वह भी उस वक्त जब पाकिस्तान से आये शरणार्थी भाईयों के थानेसर के बगल में लगे कैंप का नाम रखा गया था "कुरुक्षेत्र", जैसे रोहतक में "गाँधी कैंप", हिसार में "पटेल कैंप" ऐसे)|

1839 से 1875: कैथल-थानेसर-करनाल तक सिखिज्म फैलता चला तो सनातनियों को चिंता हुई कि जाट हमारे लिए सबसे दुधारू गाय है, अगर यह चली गई तो हम किसके सहारे खाएंगे? यह चिंतन भी हरयाणा वाले सनातनियों ने नहीं किया था, यह तो भोले खुद ही 90% नारनौंद एमएलए गौतम जी की जुबान वाले किसान हैं| यह चिंतन हुआ महाराष्ट्र व् गुजरात के सनातनियों को| 1870 में टीम बनाई गई कि रिसर्च करो जाट को कैसे मनाया जाए व् कैसे रोके रखा जाए| जिम्मा मिला महर्षि दयानन्द व् टीम को| पांच साल की रिसर्च करके पुणे में 96 लोगों की कमेटी को रिपोर्ट दी गई कि जाट सबसे ज्यादा व् सर्वोत्तम दर्जे पर "दादा नगर खेड़ों" को पूजता है, जिनमें ना वह मर्द पुजारी बिठाता ना औरत पर प्रतिबंध लगाता, बल्कि धोक-ज्योत की लीडरशिप ही औरत को दे रखी है| तो इन खेड़ों से आधार बना "मूर्ती पूजा करने वालों ने" सिर्फ जाट को रोकने व् मनाने हेतु "मूर्ती पूजा रहित आर्य-समाज" स्थापित किया, जिसमें यह क्रेडिट भी छुपा दिया गया कि "मूर्ती-पूजा नहीं करने" का सिद्धांत कहाँ से लिया? साथ ही आर्य-समाज की गीता यानि "सत्यार्थ-प्रकाश" के ग्यारहवें सम्मुल्लास में "जाट जी" व् "जाट देवता" बोल के जाट की स्तुति की गई व् तब जा के आज का जो जाट इनके साथ है, वह यहीं रहा| भक्त बने जाट यह बात नोट कर लें कि उनके पुरखे 1875 में भी यहाँ रहे थे तो "मूर्ती पूजा नहीं करने" को सर्वोच्च मान्यता व् प्रचार मिलने पर| भले ही मूर्ती पूजा नहीं करने की रुट यानि जड़ यानि दादे खेड़े इनमें छुपा दिए गए थे परन्तु इतना तो जाट का ओरिजिनल शेयर व् होल्डिंग रखी गई कि जाटों के "मूर्ती पूजा" नहीं करने के सिद्धांत के साथ सनातनियों ने एडजस्ट किया| बताता चलूँ कि विशाल हरयाणा की धरती पर दादा खेड़े के पर्यावाची हैं "दादा भैया", "बाबा भूमिया", "गाम खेड़ा", "भूमिया खेड़ा", "जठेरा" आदि-आदि| और यही वह शेयर और होल्डिंग है जो आज स्टेक पर है व् मुझे उद्वेलित किये हुए है| आजकल माइथोलॉजी के धार्मिक सीरियल्स देख के इतने धार्मिक हुए पड़े हो शायद, तो सोचा वास्तवतिक धर्म भी दिखा दूँ तो और ज्यादा भावुक हो जाओ, नहीं?

1875 से 1945 (आर्य-समाज का दो विंग्स में बुलंदी फेज, एक DAV फेज व् दूसरा गुरुकुल फेज), 1945 से 1986 (आर्य-समाज का मेच्योर फेज, 1986 से 2000 (टीवी के जरिये माइथोलॉजी की एंट्री व् जाट-खाप-हरयाणा पर लेफ्ट विंग्स, एनजीओज, नेशनल मीडिया के जरिये सनातनियों की सॉफ्ट व् स्ट्रैट टार्गेटिंग), 2000 से 2016 (गाम-गाम गेल कहीं वैसे ही तो कहीं दादे नगर खेड़ों को ही मूर्ती-पूजा रहित की बजाये मूर्ती-पूजा सहित में कन्वर्ट किये जाने के प्रोपगेंडे, साथ ही आर्य-समाज के गुरुकुल-मठों में सनातनियों की सेंधमारी व् इन सब प्रयासों का अल्टीमेट लिटमस टेस्ट यानि 35 बनाम 1 का फरवरी 2016 दंगा) व् 2016 के बाद जाट समाज के बच्चों को वाजिब गैर-वाजिब जेल यातनाएं (सब 1984 के बाद जैसे सिखों के साथ हुआ था, वैसा)|

और अब इससे आगे क्या?: अगर इस लेख को ढंग से पढ़ लिया हो तो आगे है अपने पुरखों की उस अणख पर वापिस लौटना जिसकी वजह से "जाट जी" व् "जाट देवता" लिख के सनातनी आपके साथ ख़ुशी-ख़ुशी एडजस्ट होने को राजी हुए थे या कहिये मजबूर हुए थे| और उस लौटने का का आधार-बिंदु है ""धोक-ज्योत में 100% औरत की लीडरशिप वाले मर्द-पुजारी से रहित, मूर्ती से रहित अपने "दादा नगर खेड़े""| अन्यथा, अन्यथा तो वही बात "दुधारू गाय" बनने का शौक चढ़ा है तो चलते जाओ बावळे हुए| फिर तुम्हारा कोई रूखाळी नहीं, "दादा नगर खेड़ा", "दादा भैया", "बाबा भूमिया", "गाम खेड़ा", "भूमिया खेड़ा", "जठेरा" कोई भी नहीं, कोई रूखाळी नहीं तुम्हारा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 15 April 2020

कुळमाइयाँ - पंजाबी मूवी के पंजाबी-हरयाणवी में पाए जाने वाले 51 कॉमन शब्द जो हिंदी में नहीं मिलते|

यह इस सीरीज की तीसरी मूवी है, इससे पहले "आटे दी चिड़ी" व् "एक्कम" के बारे भी ऐसे शब्दों की लिस्ट बनाई जा चुकी है|
 
बगाना/बिगाना/बगानी/बिगानी
तोरणी/टोरणी
फिरणी
आळे
वरगी/बरगी
सोहणा
परै हो जा
झोळा
लंबियाँ ताणें/ लांबी ताणें
रोळा
ठंडडी हवा/ठंडी हवा
वधी/बधी
डंगर/डांगर
गेड़ा
भाग/किस्मत
ठा
कित्ते
लुकी/लको
फ़ोक्की
ऐकड/अकड़
कठ्ठे
रळ
लोगड़
हूँ-हाँ
डोबणा
साँ
अक
सरदा
कळपी
भाग्गां आळी
साम्भ
मिट्टी पलीद
चुन्नी
पल्ले
फोला
सूट
घोटे
कोक्के
उरे
माडा
साऊ
चुन्नी चढ़ा के
कदे
झोळी
भोत
धी
आपदी आई / आपणी आई
माड़ी-मोट्टी
कढ़या/काढ़या
देळही चढ़ण
कंजर

जय यौद्धेय! - फूल मलिक