Saturday, 24 December 2022

वह कहावतें, लोक्कोक्तियाँ व् छंद-चौपाईयाँ जो महाराजा सूरजमल व् उनके लोहागढ़ साम्राज्य के चलते मिली!

एशियाई प्लेटो अफ़लातून महाराजाधिराज सूरजमल महाराज की 25 दिसंबर, 1763 पुण्य तिथि पर विशेष। 


आगे बढ़ने से पहले सलंगित पोस्टर में महाराजा सूरजमल की लेफ्ट साइड वाली फोटो नोट करें; खासकर उनकी मूछें! 

अब कहावतें व् किस्से:

1 - "बिना जाटां किसने पाणीपत जीते!" - पेशवा जब पानीपत हारे, तब से यह कहावत चली!

2 - "जाट को सताया तो ब्राह्मण भी पछताया!" - पानीपत में हार के बाद घुटनों पे बैठ जब सदाशिवराव भाऊ पेशवा रोया था, तब यह चली!

3 - " गैर-बख्त" बाहर मत जाईयो, हाऊ चिपट ज्यांगे! - खापलैंड की माओं ने अपने बेटी-बेटियों को यह कहावत कहनी शुरू कर दी थी, उनको गैर-बख्त बाहर निकलने पे! भाऊओं की वैचारिक व् व्यवहारिक अस्थिरता देख, खापलैंड की उस वक्त की औरतों ने यह कहावत चलाई थी; व् इनको हाऊ के समकक्ष बता दिया था! हरयाणवी में हाऊ, सफेद रंग का गोलाकार उड़ने वाले कीट को कहते हैं जो छूने में चिरपडा व् छूते ही सिमट के आपके हाथों-कपड़ों पर चिपट जाता है व् उल्टी हो जाने जैसी यक्क वाली भावना पैदा करता है|  

4 - "दोशालों पाट्यो भलो, साबुत भलो ना टाट, राजा भयो तो का भयो, रह्यो जाट गो जाट!" - यही वह तंज था, जिसके चलते सदाशिवराव भाऊ पेशवा, जब जाट महाराजा सूरजमल उनके मुताबिक अंटी में उतरते नहीं दिखे तो अपने छद्म रूप से बाहर आते हुए, अपनी वर्णवादी परवर्ती दिखाते हुए, महाराजा सूरजमल पर बिफर के बोले थे; व् इनकी मिल के लड़ने की ग्वालियर की संधि होते-होते टूट गई थी! दूसरी वजह यह थी कि दिल्ली जीतने के बाद पेशवा दिल्ली, मुग़लों के पास ही रखना चाहते थे, जाटों को नहीं देना चाहते थे!

5 - "बाज्या हे नगाड़ा, म्हारे रणजीत का"! - पंजाब वाले व् लोहागढ़ वाले दोनों रणजीतों के शौर्य के सम्मान में खापलैंड के ब्याह के बानों में यह गाया जाता है! 

6 - "लेडी अंग्रेजन रोवैं कलकत्ते में" - 1804 में जब अंग्रजों ने लोहागढ़ सीज कर, 13 बार हमले किये परन्तु जीत नहीं पाये, तब यह कहावत चली थी क्योंकि जाट सेना ने अंधाधुंध अंग्रेज मारे थे!

7 - “तुम पगड़ी बांधे फिरते हो और वहां शाहदरा के झाऊओं में तुम्हारे पिता की पगड़ी उल्टी पड़ी है!” - महारानी किशोरी ने जब यह तंज उनके बेटे जवाहरमल को मारा था तब वह दिल्ली चढ़ाई को तैयार हुए व् दिल्ली जीती गई| 

8 - "दिल्ली जाटों की बहु है" - लोहागढ़ व् सिख रियासतों ने उस दौरान दिल्ली इतनी बार जीती थी कि आम जनता यह कहावत कहने लगी कि "दिल्ली तो जाटों की बहु हो ली, जब चाहे लेने चढ़े आते हैं व् जीत के जाते हैं! ताजा उदाहरण किसान आंदोलन की जीत का भी इसी तर्ज पे रहा!

9 - गाँधी जी से पहले महाराजा सूरजमल बरतते थे, "अपराध का जवाब अपराध नहीं" की थ्योरी!

10 -  "अरे आवें हो लोहागढ़ के जाट, और दिल्ली की हिला दो चूल और पाट!" - जब गुड़गाम्मा पड़ाव डाला था, गरीब की बेटी हरदौल को मुग़ल-कैद से छुड़वाने के लिए!

11 - भारतीय इतिहास का इकलौता महाराजा जिसका खजांची एक रविदासी दलित हुआ, सेनापति गुज्जर हुआ।

12 -  "जाट मरा तब जानिये जब तेरहवीं हो ले" - जब महाराजा सूरजमल मारे गए तो मुग़लों को यकीं ही नहीं हुआ व् यह बात कही!

13 - महाराजा सूरजमल धर्मनिरपेक्ष इतने धर्मनिरपेक्ष थे कि एक पाले मस्जिद बनवाते थे तो दूसरे पाले मंदिर|


इनके अतिरिक्त, कई सारी छंद-चौपाईयाँ सलंगित पोस्टर में पढ़ें!


जय यौधेय! - फूल मलिक





Saturday, 10 December 2022

क्या 2024 लोकसभा चुनाव मोदी-शाह की जोड़ी आरएसएस को ऐसे ही दरकिनार करके लड़ेगी जैसे गुजरात लड़ा व् जीता?

सबसे पहले गुजरात जीतने के फैक्टर्स:

1) JNU में "ब्राह्मण-बनिया देश छोडो" नारों के पोस्टर्स लगवाना मोदी-शाह का प्लान था; इससे इनसे नाराज चल रहा यह तबका थोड़ा घबराया व् काफी हद तक इनसे आन जुड़ा!
2) आप पार्टी को वोट कटुवा के तौर पर ही गुजरात लाया गया था, जिसने कांग्रेस के 13% वोट्स छीन लिए; बदले में आप को MCD दी गई है (परन्तु इसका कण्ट्रोल भी काफी हद तक मोदी-शाह के हाथ में ही रहना है) व् गुजरात में 6% वोट्स शेयर का क्राइटेरिया पार करवा 13% करवा के इनको नेशनल पार्टी का दर्जा दिलवाने में मदद हुई है|
3) कांग्रेस का उग्र हो के गुजरात में ना उतरना, दलित-ओबीसी-मुस्लिम वोटर्स में विश्वास नहीं भर पाया व् वह काफी हद तक वोट देने ही नहीं निकले! इस अविश्वास को अमित शाह के "2002 दंगों बारे" आचार सहिंता तोड़ते हुए भड़काऊ बोलना और बढ़ा गया| कांग्रेस को इस बयान को तुरंत काउंटर करना था पर नहीं किया|
4) वोटिंग के दिन वोटिंग के बाद अचार सहिंता तोड़ते हुए मोदी का 2.5 घंटे का मार्चपास्ट वह भी टीवी से लाइव|
5) मोदी-शाह द्वारा आरएसएस को खुलकर दरकिनार करना, गुजरात में उन लोगों को रास आया जो हिन्दू तो हैं परन्तु आरएसएस को पसंद नहीं करते| साथ ही जैन तबका इसमें सबसे सक्रिय था| आरएसएस के लिए खतरे की घंटी है उसको ऐसे खुलकर दरकिनार किया जाना| ऊपर से मीडिया में व् भाजपा के पोलिटिकल गलियारों में कहीं भी आरएसएस के योगदान का जिक्र ना होना| क्योंकि मोदी-शाह की दर्किनारी के बाद भी "इनको नहीं तो किनको" के सूत्र पर आरएसएस ने वोट्स तो बीजेपी को ही डलवाये हैं|

2024 की शुरुवात जैन-युग की प्रारम्भ:
आरएसएस अब मोदी-शाह समेत जैनी लॉबी के उस दूरगामी प्लान में दरकिनार करने का सबसे मजबूत ध्येय बन चुका है जिसको "काबू सच्चा, झगड़ा झूठा" कहते हैं| जैनी, एक के बाद एक आरएसएस यानि सनातनियों (हिन्दू धर्म में मुख्यत: दो लॉबी तो हैं ही सनातनी व् आर्य समाजी) की मेहनत चट करते जा रहे हैं; जिससे अब वह एजेंडा साफ़ देखा जा रहा जो 2024 में जीत के बाद "जैन युग" से प्रारम्भ होगा व् सनातनी बुरी तरह से इस दिमागी लड़ाई में जैनियों से मात खाने जा रहे हैं|

हरयाणा की राह व् कांग्रेस:
"राहुल-गाँधी जी" की यात्रा को भुनाने का वक्त व् मौका दोनों हैं परन्तु अगर मुद्दों के साथ भुनाई गई तो, तो ही फायदा देगी| वरना गुजरात की तरह खाली बाई-पास दे दिया तो ज्यादा कुछ हासिल होगा इससे, इसमें संदेह है (गुजरात में कहाँ हुआ)| कांग्रेस को इस यात्रा के हरयाणा में एंटर होने से ले और आगामी लोकसभा व् विधानसभा चुनावों तक हर ब्लॉक लेवल तक अपना एजेंडा फिट करके उसको इतना पकाना होगा कि मोदी-शाह की तिगड़मबाजियां मंद पड़ जाएँ| इस यात्रा के तुरंत बाद ही बूथ-मैनेजमेंट, बूथ-कैडर ट्रेनिंग के निरंतर अभियान चलाने होंगे! बीजेपी-आरएसएस के भीतर के असंतोष बाहर लाने होंगे, मीडिया, सोशल मीडिया में उनपे चर्चे करवाने होंगे, ताकि इनका मानसिक बल तोडा जा सके! 35 बनाम 1 पर नब्ज टटोलनी होगी समाज की, जो कि अभी शांत है, परन्तु एलेक्शंस आते ही, बीजेपी इसको ऐसे उठाएगी, जैसे वेस्ट यूपी में किसान आंदोलन के बावजूद भी "मुस्लिम भय" उठाया व् उसके चलते इनसे नाराज होते हुए भी कुछ किसान बीजेपी को ही वोट दे गए; यह यही हरयाणा में करने वाले हैं , ऐन इलेक्शन के वक्त इस भूत को फिर भुनाने की कोशिश करेंगे| इससे निबटने के लिए लोगों की नब्ज टटोल के रखना होगा उनको मानसिक तौर पर उनके रोजगार-महंगाई-भलाई-हित-हितार्थ के मुद्दों से खिसक के इस नफरत की लाइन पे जा के वोट करने से रोकना होगा; जो बीजेपी ने भुनानी ही भुनानी है| असर कितना करेगी, कांग्रेस की सजगता व् ग्राउंड वर्क पर निर्भर करेगा|

फूल मलिक

Tuesday, 29 November 2022

हरयाणवी (खासकर देसाळी बेल्ट) अर पंजाबी के मेळ खांदे 147 शब्द!

माड़ी, टोह, गुहांड, लीली, गन्ढ़, रीस, नेडे, किते, कदे, उरे-परे, सूधा, सियाना बुजुर्ग, घुसान/घसुन, साढु, क्योंकर, मुंदरी, बाल, साढ, जमा, नठ/नाठ, भज/भाज, झोटे, बेडे़, वड़, ठारा, ठोडि, लठ, गेड़े, घट/घाट, तसला, खंड/खांड, छड़ा (कुंवारा), लोड (ज़रूरत), गोडा, बूचड़, आला, नित/नीत (रोज़), चित/चीत (जी करना), ते (और/से), जे (अगर), गाँ, टोटे, ताते, छ्जा, परात, कल्ला, कठ्ठा, ओट, पिछोकड, आहो, काठ (लक्कड), कुवाधि, बलध, आपां, लिकड़, ता (तापमान), बापू, बेबे/बीबी (बहन), रुलता, गेड़े, खंड़ना (अलग होना), काटो/कन्तो (गिलेहरी), दे/दा/दी, खंड=खांड,जाम(जन्म),छाती=छेती (जल्दी),अक/अखे (तकिया कलाम), भिज/भीज,अमली,घालना/घलना,ढा देना, जिमे/जिन्वे,किमे/किन्वें, किंग(यूपी का) /किंज, बथेरे, जोगी(लायक), टोरा, अल्हड़, गबरू, लाहना, मखौल, औखा, सौखा, याड़ी=आड़ी, टब्बर/टाबर, पाड़, पाट, काड/कड, धर, अनख, दुनाली, रुकबा, रीझ, सु=सौ, खसम, बोटी, सोटा, रोला, पूत/पुत, मोडा, दूजा, तोंदन=टोलना, गल, महेंस, आथन, बरगा, मींह, गंडासी, कुवाड=किवाड, बिलोवना, कसूता, राज=रज, हँडाणा, मनढासा= मनढेसा, तुर्रा=तुर्ला, रूस=रुस, ताता, लून/नून, तड़के, हाँडी, रड़क, रोड़ा (पत्थर), नार, जनानी, साह (सांस), बाँ (बाहें), काग, भीतर, उ को शुरुआत मे छोड़ना व न की जगह ण का प्रयोग जैसे  ठालण (उठाना), रुलना,गल (बात), आंदी-जानदी, अग्गा-पिछा, टाणी, धारा (दूध की), कोय ना, भुलेखा, झोना, पीन्घ, पट्ठा, डोरा (आँख का), धाक, धाकड़, नेतर, हैगी, छाड, साड़, जीरी!

जसकरण ढिल्लों की कलम से!


Monday, 28 November 2022

पंजाब, हरयाणा, वेस्ट यूपी दिल्ली व् उत्तरी राजस्थान यानि गंगा से सिंधु नदी के बीच के क्षेत्र के प्राचीनतम बाशिंदों का कल्चर-खानपान-एथिकल-वैल्यू सिस्टम आज भी एक है!

इसको चार तीरीख़ों के जरिये देखें:


सन 1500 - जब सिख धर्म बना उससे पहले इस क्षेत्र में दो भाषाएँ हरयाणवी व् पंजाबी अघोषित व् अलिखित रूप में बोली जाती थी| सिख धर्म ने पंजाबी को लिपिबद्ध किया व् अपना साहित्य-इतिहास सब उसमें लिखा व् जगत को जनवाया| हरयाणवी भाषा वाले आज तलक भी इस मामले में लिपि नहीं बनाये हैं! लेकिन कल्चर-खानपान-पहनावा-एथिकल-वैल्यू सिस्टम (जिसको एक सामूहिक शब्द में "उदारवादी जमींदारी सभ्यता" यानि "सीरी-साझी वर्किंग कल्चर" भी कहते हैं) दोनों का बदस्तूर समान रहा|
सन 1858 - जब अंग्रेजों ने 1857 में सर्वखाप के किरदार की विशालता को देखते हुए, इस क्षेत्र को यमुना आर व् पार में इस कदर बाँट दिया कि यमुना के इधर-उधर रिश्ते तक बैन हुए; बताया जाता है| यानि इस क्षेत्र के अब पंजाब, हरयाणा आर व् हरयाणा पार; तीन हिस्से हो चुके थे; परन्तु कल्चर-खानपान-पहनावा-एथिकल-वैल्यू सिस्टम तीनों का बदस्तूर समान रहा|
सन 1911 - दिल्ली को खापलैंड के बीच अलग से चिन्हित करके, यहाँ देश की स्थाई राजधानी बनाई गई, जो कि इससे पहले कलकत्ता या मुग़लों के वक्त आगरा में रहती थी| आगरा से राजधानी दिल्ली में बादशाह शाहजहां के वक्त शिफ्ट हुई थी| परन्तु तब इस तरह अलग से चिन्हित नहीं हुई थी जैसे 1911 में हुई| यानि इस क्षेत्र के अब पंजाब, हरयाणा आर व् हरयाणा पार व् दिल्ली; चार हिस्से हो चुके थे; परन्तु कल्चर-खानपान-पहनावा-एथिकल-वैल्यू सिस्टम चारों का बदस्तूर समान रहा|
सन 1947 - भरतपुर व् धौलपुर रियासतें व् हरयाणा से लगते कुछ गाम-कस्बे राजस्थान में मिल दिए गए; जो कि इससे पहले इसी भूभाग में गिने जाते थे| भरतपुर व् धौलपुर तो बाकायदा हैं ही ब्रज बोली बोले जाने वाले क्षेत्र; जो कि हरयाणवी के दस रूपों में से एक है| परन्तु कल्चर-खानपान-पहनावा-एथिकल-वैल्यू सिस्टम पाँचों का बदस्तूर समान रहा|

और यही वजह रही हैं कि जब-जब इस भूभाग के किसी भी हिस्से में कोई आंदोलन खड़ा होता है तो उसका करंट; न्यूनतम इस क्षेत्र में समान रूप से जाता है; ताजा उदाहरण किसान आंदोलन| और यह तभी सम्भव है जब आपका कल्चर-खानपान-पहनावा-एथिकल-वैल्यू सिस्टम समान हो|

हाँ, एक चीज की कमी चली आ रही है, वह है हरयाणवी भाषा को लिपिबद्ध करके, पंजाबी की भांति इसको विकसित करना| यह काम हो जाए तो फिर अपनी भाषा होने के मामले में भी खापलैंड गिनी जायेगी; फ़िलहाल तो आयातित हिंदी को माथे लगाए चल रहे हैं| हिंदी की स्वीकार्यता अभी भी नहीं होने का आलम यह है कि ठेठ हरयाणवी गामों में आप आज भी शुद्ध हिंदी में बात कर दो तो; इतने में ही आपको अंग्रेजी काटने वाला मान लिया जाता है|

जय यौधेय! - फूल मलिक

Saturday, 26 November 2022

अंग्रेज, सन 1804 में जब भरतपुर जाट रियासत से 13 बार हारे तो इनके इतने मुरीद हुए कि इंग्लैंड में भरतपुर नाम से एक एस्टेट ही बना दिया!

और इधर इंडिया में पेशवों के कपूत अहिल्याबाई जैसे टीवी सीरियल्स में महाराजा सूरजमल को हरा के महान होने के सपनों में अपनी पीठ थपथपाना चाहते हैं|  ये ऐसे करेंगे अपने आपको विजयी; वह भी उनसे जिनके मुरीद अपने यहाँ वापस जा कर उनके नाम की ब्रांड से बिज़नेस खोल लिया करते थे| 


जानिये क्या है इंग्लैंड में भरतपुर रैनबसेरा, पब व् एस्टेट बनने का किस्सा:


पहले इस वेबसाइट के इस पेज पे जा कर खुद ही अंग्रेजी में पढ़ लीजिये: https://www.bhurtpore.co.uk/history


जिसका अंग्रेजी में हाथ तंग है वह यहाँ हिंदी में पढ़ लीजिये: 


जैसे कि इस पोस्ट के शीर्षक में बताया, भरतपुर सेना से 13 बार हार देख कर अंग्रेज इनके इतने मुरीद हुए कि इंग्लैंड के बिर्मिंघम में Aston जगह पर भरतपुर नाम से एक पूरी एस्टेट ही बसा दी। यह बात महाराजा सूरजमल जी के बेटे महाराजा रणजीत सिंह के समय की है जब अंग्रेजों ने भरतपुर पर आक्रमण किया था। अंग्रेजों ने एक एक करके पूरे 13 बार आक्रमण किये मगर अजेय लोहागढ़ किले को न भेद सके। इस युद्ध में उन्हें 13 बार हार का सामना करना पड़ा। अंग्रेजों की इतनी लाशें बिछी कि कहावत चली "लेडी अंग्रेजण, रोवैं कलकत्ते में"; क्योंकि भरतपुर से अंग्रेजों की लाशें जाने का सिलसिला थम ही नहीं रहा था| उस समय कहा जाता था कि अंग्रेजो का कभी सूर्यास्त नहीं होता लेकिन अंग्रेज खुद लिखते हैं कि हमारा सूर्य भरतपुर में अस्त हुआ था हम कभी इतनी बुरी तरह से नहीं हारे थे हमने अपनी ताकत का एक बहुत बड़ा हिस्सा भरतपुर में खपा दिया था।


एक यह भरतपुर वाले रणजीत सिंह व् एक पंजाब वाले शेरे-पंजाब रणजीत सिंह ही वह दो पुरख पुरोधे हैं जिनकी वीरताओं के हवालों से ही हमारे यहाँ ब्याह-शादियों में बान बैठते वक्त गाया जाता है, "बाज्या हे नगाड़ा म्हारे रणजीत का"; क्योंकि इनके नगाड़े बजे भारत में थे परन्तु खनक लन्दन तक हुई| और यह पेशवाओं के कपूत, इनको टीवी सीरियलों में हरा के ही अपनी खीज मिटाना चाहते हैं| 

 

खैर, तो आगे हुआ यह कि तब अंग्रेजों के अधिकारी भरतपुर के वीरों से बहुत प्रभावित हुए। और उन्होंने अपने देश जाकर भरतपुर नाम से अपने क्षेत्र का नाम रखा व एक भरतपुर एस्टेट बनाई जिसे आज उनके वंशज बिजनेश के रूप में प्रयोग करते हैं। यहां पर युद्ध के दौरान भरतपुर से चोरी की गई कुछ कीमती तोपें व वस्तुएं भी है जिसके कारण यह पर्यटन स्थल का भी रूप ले चुकी है। आज भरतपुर के नाम से 1804 युद्ध के कमांडरों के बच्चे बड़ी अच्छी कमाई करते हैं। सलंग्न में देखें उस एस्टेट के लोगो की तस्वीर| 


जय यौधेय! - फूल मलिक 





Friday, 25 November 2022

संस्कृत और हम!


देवभाषा अर्थात संस्कृत के इतिहास को लेकर मैंने कुछ समय पहले काफी मशक्कत की थी मगर कोई स्पष्ट इतिहास नजर नहीं आया।बड़े-बड़े संस्कृत के विद्वानों के भाषा को लेकर आलेख पढ़े जिसमे हर जगह यही लिखा हुआ पाया कि यह "अति-प्राचीन","हजारों साल पुरानी" भाषा है!
संस्कृत भाषा भारत व नेपाल के अलावे कहीं नहीं बोली जाती है।हां कहीं धार्मिक स्थल दूसरे देशों में हो और पंडित-पुजारी शास्त्र वाचन करते है वो अलग बात है,लेकिन भाषा के रूप में वार्तालाप का जरिया कहीं नहीं है।
भारत मे कर्नाटक के शिमोगा जिले का मातुर गांव,जहां 300 परिवार रहते है,संस्कृत में वार्तालाप करते है और उसके लिए पिछले कुछ सालों में स्कूल व सुविधाओं का इंतजाम किया गया था।
संविधान में अनुसूचित भाषाओं में संस्कृत भाषा को भी शामिल किया हुआ है।बाकी भाषाओं को शामिल करवाने के लिए राज्यों व भाषाई लोगों का दबाव था मगर संस्कृत बोलने वाले कौनसे इलाके के लोग थे जिन्होंने दबाव बनाया,उनका कहीं उदाहरण नहीं मिलता है।
उत्तराखंड में द्वितीय राजभाषा के रूप में संस्कृत भाषा को मान्यता दी गई है।1880 में विद्यानंद सरस्वती ने चमोली जिले की पोखरी तहसील के किमोठा गांव में संस्कृत विद्यालय खोला था और 24जनवरी 2008 को राज्य सरकार ने इसे संस्कृत गांव बनाने का गजट नोटिफिकेशन जारी किया था बाकी कोई गांव संस्कृत बोलने वाला उत्तराखंड में भी नहीं है।
DD NEWS पर वार्तावली करके एक कार्यक्रम लंबे समय से चलाया जा रहा है जिसमे समाचार भी शामिल है मगर दर्शकों की संख्या को देखते हुए यह नगण्य ही है।
संस्कृत भाषा मे रचित सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद बताया जाता है।संस्कृत भाषा के दो स्वरूप है पहला वैदिक व दूसरा लौकिकी।वैदिक में वेद-पुराण आदि ब्राह्मण ग्रंथ है तो लौकिकी में महाभारत,रामायण व विभिन्न विद्वानों के काव्य,कथाएं जैसे मुद्राराक्षस आदि आते है।
दुनियाँ की संस्कृत ही एक भाषा है जिसका नामकरण बोलने वालों,क्षेत्र या राज्य आदि के नाम पर नहीं हुआ।इससे सिद्ध होता है कि इतिहास में किसी भी क्षेत्र,राज्य में संस्कृत भाषा आम बोलचाल की भाषा नहीं रही है।
संस्कृत भाषा का व्याकरण पाणिनि ने दिया जिसे अष्टाध्यायी के रूप में जाना जाता है।कात्यायन व पतंजलि ने योग आसनों का नामकरण संस्कृत में किया।संस्कृत रचनाओं में धार्मिक व लौकिक कथाओं व कहानियों के अलावे बाकी क्षेत्रों की नुमाइंदगी कहीं नजर नहीं आती।एक कौटिल्य ने जरूर प्रयास किया "अर्थशास्त्र"के रूप में मगर वो भी धार्मिक आधार से परे जाकर नहीं लिख पाये।राज्य चलाने के नैतिक नियमों का जिक्र जरूर किया मगर धर्म से हटकर रचना को मूर्त रूप नहीं दे सके।
संस्कृत के समर्थक विद्वानों ने कहा है कि कंप्यूटर व आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के लिए संस्कृत से उपयुक्त कोई भाषा नहीं है मगर दुनियाँ के विद्वानों ने इनकी मांग पर अभी तक कोई गौर नहीं किया है और यह उपयुक्त भाषा अभी तक उपयोग में नहीं ली जा सकी है।
भारत मे 1791 में काशी(वर्तमान वाराणसी) में पहला संस्कृत महाविद्यालय खोला गया था और उसके बाद देशभर में फैले ब्राह्मण वर्ग के लोग विद्या के लिए काशी जाने लगे।काशी में ये लोग संस्कृत में पूजा करना व करवाना सीखकर आये।19वीं सदी में काशी ब्राह्मण वर्ग के लोगों के लिए बड़े शिक्षा स्थल के रूप में विख्यात हुआ व विभिन्न तरह के ग्रंथों का पुनर्लेखन हुआ है व प्रचार-प्रसार के कार्य ने गति पकड़ी!
दूसरा संस्कृत महाविद्यालय आजादी के बाद बिहार के दरभंगा में 1961 में खोला गया और आज लगभग 14 महाविद्यालय/विश्विद्यालय भारत मे है।भारत के संस्कृत समर्थक लोग कह रहे है कि संस्कृत को हिब्रू की तरह दुबारा स्थापित किया जाना चाहिए।
ज्ञात रहे हिब्रू द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद फिलिस्तीन की जगह नए बसाये यहूदी देश इजराइल की राजकीय भाषा है जिसे यहूदी या इब्रानी भाषा भी कहा जाता है।हिब्रू के लिए जेरुसलम में 1925 में विश्वविद्यालय खोला गया व आज इजरायल के यहूदी लोग यही भाषा बोलते है।
कई संस्कृत समर्थक यह कह रहे है कि सभी भाषाओं की जनक संस्कृत भाषा ही है क्योंकि संस्कृत भाषा के शब्द सभी भाषाओं में मिलते है!थोड़ा उल्टे एंगल से सोचे कि सभी भाषाओं से कुछ-कुछ शब्द लेकर संस्कृत भाषा का निर्माण किया गया हो!कहीं का कंकड़,कहीं का रोड़ा भानुमति ने कुनबा जोड़ा वाला मामला भी तो हो सकता है क्योंकि इस भाषा को बोलने वाले लोग किसी भी केंद्रित क्षेत्र विशेष में नहीं रहते है।जब एक क्षेत्र विशेष के लोग आपस मे वार्तालाप करेंगे वो ही तो भाषा कहलाएगी!
भारत की जनगणना में एक कॉलम मातृ भाषा का भी होता है।1971 की जनगणना में 2212 लोगों ने संस्कृत को अपनी मातृभाषा के रूप में दर्ज करवाया था।1990 के दशक के अंत मे राममंदिर को लेकर देशभर में आंदोलन खड़ा हुआ व जागरूकता अभियान चलाया गया जिसके कारण संस्कृत समर्थकों की उम्मीदें जगी व 1991की जनगणना में संस्कृत को मातृ भाषा के रूप में दर्ज करवाने वाले लोगों की संख्या 49,736 हो गई।
फिर कंप्यूटर क्रांति आई और दुनियाँ ने कंप्यूटर व आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के लिए सर्वोत्तम उपयुक्त भाषा को काम मे नहीं लिया और संस्कृत को मातृभाषा के रूप में दर्ज करवाने वाले लोगों का मोहभंग हो गया और 2001 की जनगणना में यह संख्या घटकर 14135 रह गई।
देवभूमि नेपाल में प्रथम भाषा नेपाली व दूसरे व तीसरे स्थान पर क्रमशः मैथिली व हिंदी है।संस्कृत चौथे स्थान पर बरकरार है क्योंकि बाकी कोई भाषा चुनौती देने के लिए वहां उपलब्ध नहीं है।
गूगल पर उपलब्ध विभिन्न तरह के लेखों,पुस्तकों व विद्वानों के अनुसार दुनियाभर में तकरीबन 10लाख लोग संस्कृत जानते है अर्थात मेरे गृहजिले जोधपुर की शहरी आबादी से भी कम संख्या।कल किसी विद्वान ने मुझे कहा कि हिंदी के बजाय संस्कृत का उपयोग हो तो यह देश की सम्पर्क भाषा बनकर एकता के सूत्र में पीरो देगी!मारवाड़ी बोली से भी कम जानने वालों की भाषा!
देशभर में 3 लाख संस्कृत पढ़ाने के लिए अध्यापक नियुक्त है जिन पर हर साल 30 हजार करोड़ रुपये खर्च किये जा रहे है।यह आज से नहीं आजादी के तुरंत बाद चालू कर दी गई।इन अध्यापकों ने आंकड़ों को देखते हुए क्या परिणाम दिए है उनको समझा जाना चाहिए!3 लाख संस्कृत शिक्षकों ने पूरे देश मे 49,736 संस्कृत भाषी नागरिक तैयार किये है!
खुद कौनसी भाषा बोल रहे है यह भी अज्ञात आंकड़ा ही है!दैवीय भाषा घोषित करके इस तरह सरकारी खजाने की लूट इससे बड़ा उदाहरण आपको दुनियाँ में कहीं नहीं मिलेगा!

Sunday, 13 November 2022

स्वर्ण-शूद्र सामाजिक थ्योरी बनाम सीरी-साझी सामाजिक थ्योरी में रॉयल-सम्मान का अंतर् समझिए!

सीरी-साझी थ्योरी में 36 बिरादरी की बेटी पूरे गाम की बेटी बोली जाती है| ससुराल में माँ-बाप के नाम से नहीं अपितु पीहर के नाम से जानी जाती है| आज तलक भी बारातें जाती हैं तो वहां उस गाम की तमाम बेटियों की बिना उनकी जाति-धर्म देखे सम्मान करने हेतु बारातियों के यूँ समूह-के-समूह जा के बैठते आये हैं जैसे किसी दरबार में गए हों| और यह समूह एक बार तो ससुरालियों को उस बेटी की ताकत का आदर-आदर में ही अहसास करवा देते थे कि इस बेटी के साथ सिर्फ इसका परवार नहीं अपितु पूरा गाम है| इस वजह से भी पहले लड़कियों को ससुरालियों द्वारा सताने के मामले कम होते थे| गाम-गमीणे व्यक्ति को गाम की बेटी कहीं पता लग जाए या मिल जाए तो उसको हाथ रुपया दे के आने का रिवाज रहा है| 

क्या देखा है ऐसा शाही ठाठ व् सम्मान एक स्वर्ण-शूद्र वाले सिस्टम की बेटी का? इसमें शूद्र जो हो गई, उसके घर जा के उसका मान करना तो छोडो; स्वर्ण हाल-चाल पूछने भी नहीं चढ़ता उसके दर पे| बस इनका सारा फोकस स्वघोषित स्वर्ण वर्ण की 2-4 जातियों की बेटियों के अपने-अपने मान-सम्मान तक सिमित रहता है| 


यह है स्वर्ण-शूद्र थ्योरी की संकुचित सोच व् सीरी-साझी थ्योरी की विस्तारित व् लोकतान्त्रिक सोच| 


और इस ऐसी सीरी-साझी थ्योरी जिसमें हर एक बेटी, को राजकुमारी जैसा ट्रीटमेंट मिलता है (जो कि स्वर्ण-शूद्र थ्योरी में सिर्फ स्वर्ण तक सिमित है) की जन्मदाता खापलैंड व् मिसललैंड की धरती को ही नजर लगी पड़ी है फंडियों की; कहीं 35 बनाम 1 वालों की| और मजाल है कोई इस सिसकती बन चली इस लोकतंत्र की शाही व्यवस्था बारे किंचित भी चिंतित हो?

यह ब्याह-भात में गए गाम में अपने गाम की सभी बिरादरियों की बराबर से मान करके आने का रिवाज "खापशाही" के नाम से प्रमोट किया जाना चाहिए| यह उदारवादी जमींदारी व् सामंती जमींदारी + राजशाही की तुलना का सबसे उत्कृष्ट पैमाना है| सिर्फ चिट्ठी-पत्री नहीं होती थी से इसको जोड़ना इसको बहुत ही छोटा करके देखना है; क्योंकि चिट्ठी-पत्री तो "सामंती जमींदारी + राजशाही" (स्वर्ण-शूद्र कांसेप्ट पे चलें वाले) इनके लिए भी नहीं होती थी; तो क्या इनके यहाँ है ऐसा विधान? जवाब है नहीं, तो यह था किसके पास? खाप-खेड़ा-खेत की उदारवादी जमींदारी वालों के पास| जैसे-जैसे खापलैंड से बाहर जाते-जाओगे, यह विधान भी खत्म होता जाता है|  सामंती जमींदारी + राजशाही इनके यहाँ तो सिर्फ स्वर्ण की बेटी या राजा की बेटी ऐसा शाही सम्मान पाती थी; परन्तु खाप-खेड़ा-खेत ने हर वर्ग-जाति-धर्म की बेटी को यह सम्मान दिया| इसलिए इसको जितना ऊँचा बना के बता सको, उतना बताया करो|

जय यौधेय! - फूल मलिक 

GM सीड्स व् खाद-बीज-स्प्रे की दुकानें !

GM सीड्स व् खाद-बीज-स्प्रे की दुकानें जिस तरह इंडिया में गाम-गाम तक फैली हुई हैं; यहाँ यूरोप में ढूंढें से भी नहीं मिलती किसी शहर-कस्बे में; फ्रांस-इंग्लैंड-नीदरलैंड-बेल्जियम-इटली-स्विट्ज़रलैंड तक तो मैंने खुद नोट किया है मेरे अलग-अलग समय पर इन देशों के हुए टूर्स में| यूरोप के देशो में GM सीड्स की खेती ढूंढने पर भी नहीं मिलती| तो फिर भी यह खेती में सबसे अव्वल भी हैं व् गुणवत्ता और देसी बीजों का सरंक्षण करके चले हुए हैं| 


तो इनकी भरमार हमारे यहाँ ही क्यों है? हमारे यहाँ के किसानों में जागरूकता कम है, किसान द्वारा इनके विरोध में कोई कमी है या सरकारों व् व्यापारियों की ऐसे बीज-स्प्रे किसान पे थोंपने की हठधर्मी ज्यादा है? ऊपर से जब-जब जनता के स्वास्थ्य की बात चलती है तो उसका दोष भी यह किसानों के अधिक उत्पादन लेने के लालच पर थोंप पल्ला झाड़ निकल लेते हैं?


जय यौधेय! - फूल मलिक  

Sunday, 6 November 2022

यह मनी पॉलिटिक्स के सहारे चुनाव जीतना कहाँ तक जा के रुकेगा!

मंडी आदमपुर की अनाज मंडी में 2 जानकार हैं; दोनों ही बता रहे थे कि रूपये 1000-2000 के बदले वोट बेचने वाली गरीब जनता तो छोड़ो; इस बार तो मंडी के व्यापारियों से भी किसी को 1 लाख प्रति वोट दे के तो किसी को 2 लाख दे के वोट्स खरीदे गए हैं; यह आलम है सत्तारूढ़ियों के खिलाफ नाराज़गी का| उनका अंदाजा था कि अगर यूँ वोट खरीदने पड़े हैं तो अंदाजा लगा सकते हो कि कितने करोड़ तो अकेले वोट खरीदने में ही बँटे हैं, शायद सैंकड़ों करोड़ों में|

पर सोचने वाली बात ये है कि आखिर किस लेवल तक तो यह खर्चे जाएंगे व् कब तक ऐसा चल पाएगा? MLA इलेक्शन में अगर बांटने में ही आंकड़ा सैकड़ों करोड़ छूने लगा है तो MP वाले चुनावों को तो हजारों करोड़ का बना देंगे ये अबकी बार|
साथ ही बता रहे थे कि कहीं-कहीं अभी भी 35 बनाम 1 फैक्टर बाकी है| लेकिन किसान-मजदूर जातियों में किसानआंदोलन का असर बखूबी बरकरार चल रहा है व् वह लगभग बाहर आ चुके हैं फंडियों के फैलाये 35 बनाम 1 के जहर से| हाँ, शहरी तबकों में कुछ ख़ास प्रजाति अभी भी सोचती है कि इस फार्मूला में अभी भी रस बचा है!
लेकिन एक बात ख़ास देखी, कांग्रेस पहली बार बिना भजनलाल फैमिली के लड़ी व् 51000 वोट्स अकेले अपने दम पर ले गई| व् जीत का मार्जिन पिछली बार जहाँ 29000 हजार था इस बार लगभग आधा यानि 16000 ही रहा|
विशेष: 35 बनाम 1 के चक्कर में अभी भी जो पड़े हैं; उन पर काम करना होगा अगले डेड-दो साल! सीरी-साझी वर्किंग कल्चर के धोतक नैतिक पूंजीवाद वालों को मिल के प्रयास करने होंगे आपस में यह समझने-समझाने के कि इन फंडियों के नफरती, मैनीपुलेशन व् पोलराइजेशन के चक्कर में कब तक अपने घर-रोजगारों व् बच्चों की महंगी होती शिक्षा का धोणा धोवोगे! वैसे भी जिन 1 के खिलाफ यह चलाया गया था, वह तो 70 जुगत लगा के अपने बच्चों को सेट कर रहे हैं; अभी देखो जैसे कि यूक्रेन युद्ध के दौरान जब डॉक्टरी के इंडियन स्टूडेंट्स वहां से वापिस लाए गए तो उनमें हमारे एरिया वाले बच्चों में इन 1 वालों की संख्या का आधोआध का मामला था| व् ऐसे ही अब देख लो IELTS करके बाहर निकल रहे हैं, व् आने वाले वक्त में ऐसे ही अपने परिवारों को सपोर्ट करेंगे जैसे किसान आंदोलन में सिखों से ले हरयाणा-वेस्टर्न यूपी - राजस्थान समेत तमाम भारत के किसानों के बालकों ने किया! तो थम कित जा के लगोगे, सोचो; 2-4 साल बाद और कति कमर टूट लेगी तब सम्भलोगे क्या?
जय यौधेय! - फूल मलिक

Sunday, 30 October 2022

Helloween Day, भूत, भूत का भय और भ्रम!

देशी भाषा में कहूं तो ईसाई लोग इस दिन खुद भूत बन के अपने लोगों, खासकर बच्चों के भीतर से भूत का भय व् भ्रम दूर करने या कहिये कि कम करने हेतु इसको मनाते हैं| और हमारे यहाँ बाबा-फंडी-फलहरी लोग आपको भूत का डर दिखा आपसे क्या-क्या टूणे-टोटके कर क्या-कैसे धन नहीं ऐंठते?

एक ईमानदार धर्म की यही निशानी होती है कि वह अपने समाज के भय-भ्रम दूर करे! ईसाई धर्म इस मामले में आदर्श नहीं तो ईमानदार तो जरूर है| इसीलिए आज 31 अक्टूबर को सारे ईसाई धर्म के देशों में लोग भूतों की रैली निकालते दिखेंगे आपको; अपनी देशी भाषा में कहूं तो "भूतों का रेल्ला"!
आज का दिन यह लोग इसलिए चुनते हैं क्योंकि अगले 3-4 महीने यानि नवंबर-दिसंबर-जनवरी-फरवरी दिन बहुत छोटे होते हैं, रातें 13 से 15 घंटे लम्बी हो जाती हैं; बर्फबारी व् शर्दीले तूफानों की वजह से मानसिक तौर पर भयावह टाइप के माहौल व् प्राकृतिक आकृतियां बनती हैं| इसीलिए यह इस चौमासे कहो या तिमाहे में प्रवेश करने से पहले ही अपने बच्चों को खासकर इस बारे सचेत करते हैं व् उनको मानसिक रूप से मजबूत करते हैं|
यह आकृतियां ठीक वैसे ही होती हैं जैसे हमारे यहाँ रातों में खेतों में पानी दे रहे किसानों-मजदूरों को कभी पेड़ों तो कभी कृषि औजारों की वजह से जंगली जानवरों से ले कीड़े-मकोड़ों तक की आकृतियां बन जाया करती हैं व् अनजान व्यक्ति उनको भूत मान बैठता है| आप रात के वक्त या मुंह-अँधेरे कच्चे रास्ते खेतों में जा रहे हों, ढाब के पौधे हवाओं के चलते लहरा रहे हों तो बैटरी की लाइट या बहुत बार चाँद की चांदनी की वजह से आभास देती है कि जैसे कोई सांप लहरा रहा हो! व् ऐसे ही बन जाने वाली अन्य आकृतियां!
Helloween को मनाने की छोटी-बड़ी और भी वजहें हैं परन्तु सबसे बड़ी व् मुख्य वजह यही है| एक ख़ास बात देखिये, यह कृषि आधारित त्यौहार है ईसाईयों का परन्तु इसको मनाता हर ईसाई है, चाहे शहरी हो या ग्रामीण| यह सबूत है कि कल्चर यानि कल्ट यानि खेती से निकलता है; जबकि हमारे यहाँ फंडी इसको खेती को छोड़ बाकी कहाँ-कहाँ से निकला नहीं बताते?
यह अपनी जनरेशन नेक्स्ट को आज के दिन दिखाते समझाते हैं कि भूत अर्धचेतन व् अचेतन दिमाग की मनोवैज्ञानिक कल्पनाएं हैं; इसलिए इनसे डरें नहीं अपितु इनके डॉक्टरी व् वैज्ञानिक इलाज कराएं, जब भी ऐसा कोई भ्रम पेश आये तो| इसीलिए इनके यहाँ किसी लुगाई-माणस में कोई माता-मसाणी-मोड्डा आता नहीं सुना जाता| हाँ, कुछ-कुछ जगह कुछ पादरी, लोगों का ऐसे धर्म से धर्मपरिवर्तन करवाने बारे सर हिलाते-हिलवाते जरूर दीखते हैं; जिन धर्म में टूणे-टोटकों का फैलाव ज्यादा है!
सबसे बड़ी बात, इनके यहाँ पार्टी-त्यौहार मनाने का ठेका सभी का होता है; यानि सभी अपने-अपने घर से कुछ ना कुछ ले के आएंगे व् घर-खेतों के सामानों से ही इसको मनाएंगे! यहाँ किसी बाबा-माया-भूत को कुछ चढ़ाना नहीं होता कि पता लगा वो बाद में सब समेट के थारा फद्दू सा काट यो गया और वो गया! हजारों में एक केस में कोई ऐसा कर भी दे तो छित्तर खाता है व् अगली बार से उसकी ऐसे मौकों पर खुली इग्नोरेंस की जाती है!
Happy Halloween Day!
जय यौधेय! - फूल मलिक

Wednesday, 26 October 2022

हे जी कोए यौधेय सुणे भ्यर-भाण!

शीर्षक: " हे जी कोए यौधेय सुणे भ्यर-भाण"

 

खेड़्यां के जाएभूमियां के साएहे भईयाँ की यें पिछाण,

हे जी कोए यौधेय सुणे भ्यर-भाण!

 

भूरा-निंघाहिया जोड़ सर चाल्लेजा चढ़ें परस लजवाण!

हे जी कोए चौधरी सुणे भ्यर-भाण!

 

हाकम तोड़ेगौरे फोड़ेभोळी नैं काटे सत्रहा रंगरूटाण!

हे जी कोए यौधेया सुणी भ्यर-भाण!

 

खेती-करां की राड़ छयड़ीजय्ब थे औरंगजेब के राज!

हे जी कोए यौधेय सुणे भ्यर-भाण!

 

ताऊ माडू नैं ले गॉड गोकुला चढ़े, भंवरकौर खपा गई ज्यान!

हे जी कोए यौधेया सुणी भ्यर-भाण!

 

21 मौजिज गए सुलझेड़े नैंलिए रोक काळ की आण!

हे जी कोए चौधरी सुणे भ्यर-भाण!

 

तैमूर आयाचढ़या हड़खायादोआब के जंगळ काहन!

हे जी कोए यौधेय सुणे भ्यर-भाण!

 

हरवीर गुळीया नैं लिया धर खुळीयांलंगड़े का पाट्या पसाण!

हे जी कोए चौधरी सुणे भ्यर-भाण!

 

चुगताई आवैंजींद तळै टकरावैंभागो देवै पासणे पाड़!

हे जी कोए यौधेया सुणी भ्यर-भाण!

 

शाहमल बाबादिल्ली तैं दोआबागौरयां की भिचगी ज्यान!

हे जी कोए यौधेय सुणे भ्यर-भाण!

 

जाटवान दादा नैं कुतबु साध्यादई आधी सेना पसार!

हे जी कोए चौधरी सुणे भ्यर-भाण!

 

रायसाल खोखर नैं गौरी सा होंतरदिया मार म्हाल अफगान!

हे जी कोए यौधेय सुणे भ्यर-भाण!

 

खेड़्यां के जाएभूमियां के साएहे भईयाँ की यें पिछाण,

हे जी कोए चौधरी सुणे भ्यर-भाण!

 

फुल्ले जाट करै पुरख यादबीच बैठक उज़मा उज्यात!

हे जी कोए यौधेय सुणे भ्यर-भाण!

 

जय यौधेय!

Sunday, 23 October 2022

Happy Kolhu-Dhok, Happy Girdi-Dhok, Happy Diwali!

जैसे एक खाती-बड़ई-लुहार अपने औजारों की धोक हेतु "विश्वकर्मा" दिवस मनाता है| एक कुम्हार के चाक को तो सिर्फ कुम्हार ही नहीं बल्कि अन्य समाजों की लुगाई भी धोकने जाती हैं; व् इन सब में इनको गर्व ही महसूस होता है कोई शर्म या ऊंचा-नीचा स्टेटस नहीं! व् इस प्रक्रिया से आध्यात्मिक व् कारोबारी भावनाएं बराबर फलीभूत होती हैं; ऐसे ही मैं भी आज मेरे पुरखों द्वारा "आध्यात्मिक व् कारोबारी भावनाओं" दोनों को कायम रखने वाला त्यौहार यानि "कोल्हू-धोक" दिन मना रहा हूँ, बीते हुए कल "गिरड़ी-धोक" मनाया था! पुरखों का संदेश साफ़ था सीधा लक्ष्मी की बजाए, लक्ष्मी जिससे अर्जित होती हो उस साधन को धोकीए! अत: कोल्हू व् गिरड़ी दोनों को प्रणाम जिनकी वजह से जिस कौम व् किनशिप से मैं आता हूँ उसका आध्यात्म, कल्चर व् अर्थ तीनों आते व् बनते रहे हैं! यही म्हारा कॉपीराइट कल्चर रहा है! हाँ, साथ-साथ शेयर्ड-कल्चर दिवाली की भी सबको शुभकामनाएं!
Happy Kolhu-Dhok, Happy Girdi-Dhok, Happy Diwali!
जय यौधेय! - फूल मलिक






Saturday, 22 October 2022

कंधे से ऊपर की मजबूती के ताने ना सुन्ना चाहो तो लक्ष्मी के साथ-साथ अपनी "गिरड़ी-धोक" (आज का दिन) व् "कोल्हू-धोक" (तड़के का दिन) इनके भी दिए जलाओ!

धर्म और त्योहारों की अपनी पुरख-परिभाषाएं व् आइकॉन जिन्दा रखिए; अगर चाहते हैं कि इसकी आड़ में आपका सामाजिक स्थान व् एथनिसिटी जिन्दा रहे! अगर चाहते हो कि कोई उघाड़ा-उठाईगिरा आप पर "कंधे से नीचे मजबूत व् ऊपर कमजोर" के ताने ना मार जाए!

आज "गिरड़ी-धोक" व् तड़के (कल यानि) "कोल्हू-धोक" के त्योहारों के मौके पर "आज गिरड़ी, तकड़ै दिवाळी; हिड़ो-रै-हिड़ो" की कहावत पर विशेष!
हर बात हर बार सिर्फ इससे भी नहीं चल सकती कि भाईचारा व् अपनापन दिखाने के चक्कर में अपने कॉपीराइट कल्चर आधारित त्योहारों को या तो साइड कर दो या उन पर कोई और लेप इस हद तक चढ़ाते जाओ कि 2-4 पीढ़ियों बाद वह त्यौहार ही ना रहे| इस बात पर चलने की आवश्यकता इसलिए भी है कि दुनिया में हर धर्म व् त्यौहार आपकी आर्थिक आज़ादी व् कल्चरल बुद्धिमत्ता से भी जुड़ा है| और जो यह नहीं करते उनको उघाड़े व् उठाईगिरे किस्म के लोग भी "कंधे से नीचे मजबूत व् ऊपर कमजोर" के ताने दे जाया करते हैं|
यह बात संतुलन में रखते हुए चलना भी इतना आसान नहीं होता, खासकर तब जब आपके इर्दगिर्द आपको "शेयर्ड-कल्चर" वालों की भावनाओं को भी ध्यान में रख के चलना होता है, वरना आप पर बाल ठाकरे टाइप का होने के इल्जाम भी लग सकते हैं| तो शेयर्ड-कल्चर के धर्म-त्यौहार व् इनके पहलुओं की गरिमा को कायम रखते हुए हम बात करेंगे:
खापलैंड के आज के दिन "गिरड़ी-धोक" व् कल यानि तड़के के दिन "कोल्हू-धोक" त्यौहारों की; और यह भला क्यों? क्योंकि क्या किसी भी पेशे-पिछोके के मिस्त्रियों ने अपने औजार धोकने बंद कर दिए? या मात्र व्यापारियों (मात्र इसलिए क्योंकि व्यापारी किसान भी होता है) ने धर्म के नाम पर बाज़ार सजाने बंद कर दिए? जवाब यही पाओगे कि नहीं?
हमारा बचपन कात्यक की काळी चौदस व् मौस के दिनों यह कहावत "आज गिरड़ी, तकड़ै दिवाळी; हिड़ो-रै-हिड़ो" गाते हुए बीता है| फंडियों के स्कूल से पहली से दसवीं की है मैंने (बड़ा हो के पता चला, तब पता चल जाता तो झांकता भी नहीं ऐसे मेरे त्यौहार व् कल्चर की हत्या करने वाले स्कूलों में); तो वहां गिरड़ी के दिन छोटी दिवाळी बोला व् बुलवाया जाता था! आज किधर है वह "गिरड़ी" शब्द? क्या आज की पीढ़ी को इस शब्द के त्यौहार बारे पता भी है? जो इन पहलुओं पर नहीं सोचते वही कंधे से ऊपर कमजोर होने के ताने सुनते हैं|
जैसे इन 2-3 दशकों में 'गिरड़ी' शब्द व् त्यौहार थारी जुबान से हटा दिया गया, ऐसे ही इससे पहले के दो-तीन दशकों में "कोल्हू-धोक" हटाई गई होगी; नहीं? और तुम्हें पता लगी? कब समझोगे यह खेल? दिवाली मनानी है बिल्कुल मनाओ (मैं भी मनाता हूँ शेयर्ड-कल्चर के त्यौहार के तौर पर) परन्तु अपने कॉपीराइट त्यौहारों का भी ख्याल रखो! एक दिया लक्ष्मी का लगाने लगे हो तो उसके लिए वह दिया बुझाने की क्या जरूरत है जो "कोल्हू" के नाम का लगता था? क्या बदला है उस कोल्हू के कांसेप्ट का; उसकी जगह शुगरमिल आ गई ना; तो उसके नाम का लगा लो? हमारे पुरखे यह दिए उन चीजों के नाम के लगाते थे जहाँ से उनको अर्थ अर्जन होता था; तुम कर रहे हो ऐसा? जहाँ कोल्हू है वहां उसका लगाओ व् जहाँ वह नहीं है वहां शुगरमिल का लगा लो, सरसों के तेल निकालने की मशीन का लगा लो; क्योंकि कोल्हू तो तेल निकालने वाले यंत्र को भी कहा जाता था?
सबसे बड़ी बात, "गिरड़ी-धोक" व् "कोल्हू-धोक" मनाने में सम्मान था; होड़ नहीं! तुम्हें मार्किट व् फंडी वर्ग ने धोक मारनी छोड़ धर्म के नाम पर होड़ व् मरोड़ करनी सीखा दिया है| और वह तुमसे यह करवा जाते हैं, इसलिए तुम्हें कंधे से ऊपर कमजोर कह जाते हैं|
कंधे से ऊपर की मजबूती चाहो तो दिवाळी के साथ-साथ अपनी "गिरड़ी-धोक" (आज का दिन) व् "कोल्हू-धोक" (तड़के का दिन) इनके भी दिए जलाओ! यूँ ही निरंतरता से जलाते जाओ व् पीढ़ियों से जलवाते जाओ जैसे म्हारे पुरखे जलाते थे| वह ऐसा करते थे इसलिए ब्राह्मणों से जाट जी व् जाट देवता कहलवाते व् लिखवा लेते थे (सत्यार्थ प्रकाश सम्मुल्लास 11 तो पढ़े होंगे?); तुम क्या पा रहे हो 35 बनाम 1 के षड्यंत्र?
जय यौधेय! - फूल मलिक