कल nd tv के मुकाबला कार्यक्रम में एक महानुभाविका को कहते हुए सुना कि दिल्ली में बलात्कार रोकने के लिए खापों पे नियन्त्रण करना होगा| मतलब कुछ लोगों को तो अपनी बकवास बकने का मौका भर चाहिए फिर चाहे खापों का किसी घटना से दूर-दूर तक कोई नाता ना हो| ऐसे ही जब 16 दिसम्बर 2012 वाली घटना हुई तो कहीं शीला दीक्षित तो कहीं दिल्ली पुलिस a.c.p. श्रीमान लूथरा बाबू यही ...राग अलापते मिले कि खापों पे काबू पाना होगा| खापों को ले के इनकी इतनी बेमौके की बेबाकी इस बात का नतीजा तो नहीं कि "सामने वाला तो शर्म-शर्म में मर गया और बेशर्म जाने मेरे से डर गया" या फिर इसका नतीजा हो कि "पिता तो इंट-इंट जोड़ के मकान बनाए और बेटा मकान बेचने में एक पल भी ना लगाए"?
क्या आखिर समझ क्या रखा है इन लोगों ने खापों को? अगर मैं इन दोनों घटनाओं से जुड़े बलात्कारियों की पृष्ठभूमि और इनका पता बताऊंगा (जो कि आम-जनता में हर कोई जानता है) तो मैं मेरे ही उन क्षेत्रों से आने वाले दोस्तों को नाराज कर लूँगा, जो कि हर मामले में सभ्य और सुशील हैं| पर क्या ये हरामखोर मीडिया वाले समझेंगे इस स्वेंदंशीलता को? जिस तरह की चर्चा और सोच इन घटनाओं पर तथाकथित इन बुद्धिजीवियों की देखने को मिल रही है मैं तो सोच के भी भयभीत हो जाता हूँ कि इन दोनों घटनाओं में अगर भूल से भी कोई खापलैंड का बंदा होता तो इसका मतलब मीडिया ने तो खापों को फांसी चढ़ा देना था? अरे कम-अक्लो आओ मैं दिखाता हूँ तुम्हें खापों का वो मन्त्र जिसका आधा भी कोई अपना ले तो उसको अपनी वासना पे नियन्त्रण करना आ जाए (यह बात खापलैंड और इससे बाहर से आने वाले दोनों के लिए है) और बलात्कारों में कमी आये:
गाँव की लड़की गाँव की 36 बिरादरी की बेटी और गोत्र की बेटी गोत्र में सबकी बेटी (खापों का एक ऐसा विधान जो वासना और कामुकता पर नियन्त्रण करना सिखाता है|):
आज के सन्दर्भ में इस तथ्य को शायद ही कोई समझे या मान्यता दे, क्योंकि मर्यादायें रही नहीं, स्वार्थ का स्वभाव बढ़ता जा रहा है और नैतिकता का पैमाना/दायरा सिकुड़ता जा रहा है| लेकिन खाप बुजुर्गों नें जब यह सिद्धांत बनाया था तो इसकी अध्यात्मिक वजह थी युवक-युवती के ध्यान और मन की चंचलता की भटकन को न्यून कर उसको सम्पूर्ण शारीरिक एवं मानसिक विकास, स्थिरता और सुदृढ़ता के पथ पर एकाग्रित करवाना, ताकि वह वासना के वेग को सहना भी सीखे और संजोना भी| इसका दार्शनिक पहलू यह होता था कि इससे इंसान में सहनशक्ति एवं धैर्य का संचय होता था, जिसकी कि आज के युग में कमी बताई जा रही है| ऐतिहासिक पहलू यह था कि बाहरी शक्तियों से अपनी सिमता को बचाया जा सके और गाँव-समाज में सुख-शांति और हर्षोल्लास बना रहे; वही हर्षोल्लास जो आज के दिन हर गाँव-गली- मोहल्ले-नुक्कड़ से हर तीज-त्यौहार के मौके पर नदारद हो चुका है और हर हँसी-ख़ुशी की परिभाषा गली-नुक्कड़ से सिमट कर घरों की चारदीवारियों में कैद हो चुकी है और सामाजिक खुशियाँ बेरंग और बेनूर सी हो चुकी हैं| और घरों से बाहर निकल कर कोई देखता नहीं और इसीलिए बलात्कारी बेख़ौफ़ घूम रहे हैं|
इस स्वर्ण सभ्यता की कमी से समाज से जो हर्षोल्लास और रसता रिक्त हो गई उसको भरने को पता नहीं कब और कौनसा नया रिवाज या मान्यता चलन में आयेगी परन्तु उसके इंतज़ार में समाज इस खुशियों के बिखराव की राह पर इतना आगे ना निकल आया है कि पड़ोस में 5 साल की बच्ची का बलात्कार हो जाता है और किसी को खबर तक नहीं लगती? ऐसा लगता है कि जैसे हमारी सभ्यता एक बिना पते की चिठ्ठी बन के रह गई है, जिसका कोई मुस्सबिर नहीं|
इन मान्यताओं को व्यक्तिगत आजादी की राह में रोड़ा मान, झील के ठहरे हुए पानी सा बताने वाले भी जवाब दें कि जब पैर में कांटा चुभता है तो कांटे को निकाल के फेंका जाता है ना कि पूरा अंग या शरीर ही उस कांटे के दर्द से निजात पाने हेतु काट के फेंक दिया जाता हो? आज के हालात देख के तो यही लगता है कि बलात्कारियों रुपी शरीर में चुभे काँटों को निकालने पे तो किसी का ध्यान नहीं पर जिसको देखो भारतीय सभ्यता के सकरात्मक पहलु वाले शरीर को कान्त के फेंकने पे लगा हुआ है|
दुविधा यह है कि इन फिल्मों और मीडिया वालों ने गैर खापलैंडी तो क्या खाप वालों तक के ऐसे सिद्धांतों से ध्यान हटाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखी| वर्ना एक वक्त वो होता था कि हरयाणा और ncr में बलात्कार नगण्य होते थे और बच्चियों के साथ तो शायद ही कभी सुनने को मिलता था| तो भगवान् इन तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया वालों को थोड़ी सी सद्बुद्धि दें कि ये समाज में गाहे-बगाहे ऐसे हालात ना पैदा करें कि फिर कहीं मुंबई की तरह ncr में भी भाषावाद और क्षेत्रवाद की अग्नि धधक उठे| और इन मुद्दों से ध्यान भटक हर कोई भटक कर समाज से छटंक जाए और पहले से सभ्यता के अकाल से ग्रसित समाज में और भी असभ्यता अपना डरावना साया फैला ले|
क्या आखिर समझ क्या रखा है इन लोगों ने खापों को? अगर मैं इन दोनों घटनाओं से जुड़े बलात्कारियों की पृष्ठभूमि और इनका पता बताऊंगा (जो कि आम-जनता में हर कोई जानता है) तो मैं मेरे ही उन क्षेत्रों से आने वाले दोस्तों को नाराज कर लूँगा, जो कि हर मामले में सभ्य और सुशील हैं| पर क्या ये हरामखोर मीडिया वाले समझेंगे इस स्वेंदंशीलता को? जिस तरह की चर्चा और सोच इन घटनाओं पर तथाकथित इन बुद्धिजीवियों की देखने को मिल रही है मैं तो सोच के भी भयभीत हो जाता हूँ कि इन दोनों घटनाओं में अगर भूल से भी कोई खापलैंड का बंदा होता तो इसका मतलब मीडिया ने तो खापों को फांसी चढ़ा देना था? अरे कम-अक्लो आओ मैं दिखाता हूँ तुम्हें खापों का वो मन्त्र जिसका आधा भी कोई अपना ले तो उसको अपनी वासना पे नियन्त्रण करना आ जाए (यह बात खापलैंड और इससे बाहर से आने वाले दोनों के लिए है) और बलात्कारों में कमी आये:
गाँव की लड़की गाँव की 36 बिरादरी की बेटी और गोत्र की बेटी गोत्र में सबकी बेटी (खापों का एक ऐसा विधान जो वासना और कामुकता पर नियन्त्रण करना सिखाता है|):
आज के सन्दर्भ में इस तथ्य को शायद ही कोई समझे या मान्यता दे, क्योंकि मर्यादायें रही नहीं, स्वार्थ का स्वभाव बढ़ता जा रहा है और नैतिकता का पैमाना/दायरा सिकुड़ता जा रहा है| लेकिन खाप बुजुर्गों नें जब यह सिद्धांत बनाया था तो इसकी अध्यात्मिक वजह थी युवक-युवती के ध्यान और मन की चंचलता की भटकन को न्यून कर उसको सम्पूर्ण शारीरिक एवं मानसिक विकास, स्थिरता और सुदृढ़ता के पथ पर एकाग्रित करवाना, ताकि वह वासना के वेग को सहना भी सीखे और संजोना भी| इसका दार्शनिक पहलू यह होता था कि इससे इंसान में सहनशक्ति एवं धैर्य का संचय होता था, जिसकी कि आज के युग में कमी बताई जा रही है| ऐतिहासिक पहलू यह था कि बाहरी शक्तियों से अपनी सिमता को बचाया जा सके और गाँव-समाज में सुख-शांति और हर्षोल्लास बना रहे; वही हर्षोल्लास जो आज के दिन हर गाँव-गली- मोहल्ले-नुक्कड़ से हर तीज-त्यौहार के मौके पर नदारद हो चुका है और हर हँसी-ख़ुशी की परिभाषा गली-नुक्कड़ से सिमट कर घरों की चारदीवारियों में कैद हो चुकी है और सामाजिक खुशियाँ बेरंग और बेनूर सी हो चुकी हैं| और घरों से बाहर निकल कर कोई देखता नहीं और इसीलिए बलात्कारी बेख़ौफ़ घूम रहे हैं|
इस स्वर्ण सभ्यता की कमी से समाज से जो हर्षोल्लास और रसता रिक्त हो गई उसको भरने को पता नहीं कब और कौनसा नया रिवाज या मान्यता चलन में आयेगी परन्तु उसके इंतज़ार में समाज इस खुशियों के बिखराव की राह पर इतना आगे ना निकल आया है कि पड़ोस में 5 साल की बच्ची का बलात्कार हो जाता है और किसी को खबर तक नहीं लगती? ऐसा लगता है कि जैसे हमारी सभ्यता एक बिना पते की चिठ्ठी बन के रह गई है, जिसका कोई मुस्सबिर नहीं|
इन मान्यताओं को व्यक्तिगत आजादी की राह में रोड़ा मान, झील के ठहरे हुए पानी सा बताने वाले भी जवाब दें कि जब पैर में कांटा चुभता है तो कांटे को निकाल के फेंका जाता है ना कि पूरा अंग या शरीर ही उस कांटे के दर्द से निजात पाने हेतु काट के फेंक दिया जाता हो? आज के हालात देख के तो यही लगता है कि बलात्कारियों रुपी शरीर में चुभे काँटों को निकालने पे तो किसी का ध्यान नहीं पर जिसको देखो भारतीय सभ्यता के सकरात्मक पहलु वाले शरीर को कान्त के फेंकने पे लगा हुआ है|
दुविधा यह है कि इन फिल्मों और मीडिया वालों ने गैर खापलैंडी तो क्या खाप वालों तक के ऐसे सिद्धांतों से ध्यान हटाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखी| वर्ना एक वक्त वो होता था कि हरयाणा और ncr में बलात्कार नगण्य होते थे और बच्चियों के साथ तो शायद ही कभी सुनने को मिलता था| तो भगवान् इन तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया वालों को थोड़ी सी सद्बुद्धि दें कि ये समाज में गाहे-बगाहे ऐसे हालात ना पैदा करें कि फिर कहीं मुंबई की तरह ncr में भी भाषावाद और क्षेत्रवाद की अग्नि धधक उठे| और इन मुद्दों से ध्यान भटक हर कोई भटक कर समाज से छटंक जाए और पहले से सभ्यता के अकाल से ग्रसित समाज में और भी असभ्यता अपना डरावना साया फैला ले|
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