किसान को हीन भावना का चोर बनाती सरकारी नीतियाँ और रीतियाँ (किसान की हद-छात्ती कहूँ या रे-रे माट्टी):
आज तक की सरकारी नीतियाँ किसान को चोर और गर्व की भावानाओ से रहित एक खोखली ओखली बना रही है, एक ऐसी ओखली जिसमें मूसल तो चलते सबको दीखते हैं परन्तु उसमें कूटा जाने वाला महीन अनाज किधर जाता है खुद किसान तक को नहीं पता चल रहा|
एक इंसान उसकी रचना-सरंचना को अपनी इच्छानुसार नाम दे सके, उसका गुणगान कर सके, उस पर गर्व कर सके, उसके बूते ख्याति-प्रसिद्धि और पहचान पा सके, आखिर यही तो अंत-परिमाण के लिए वो जीता है, ताउम्र खटता है| क्योंकि पैसा ही सब कुछ होता तो इनामों-नामों-शोहरतों की लागलपेट से ये दुनिया खाली होती और ये कहावतें ना होती कि “पैसा क्या है, यह तो एक वेश्या भी अर्जित कर लेती है”, परन्तु वो जो अर्जित नहीं कर पाती वो है समाज में मनमुताबिक रुतबा-इज्जत-श्रेय-शोहरत| वैसे तो युगों से ही किसान की ऐसी हालत रही लेकिन आज के हालात देख के तो ऐसा लगता है कि एक वेश्या (लेखक वेश्या को इज्जत की नजर से देखता है, यहाँ उदाहरणार्थ स्वरूप यह कहावत इसलिए प्रयोग की गई है क्योंकि समाज इज्जत के मापदंड पे वेश्या को निचले पायदान पर ही रखता आया है) को इज्जत मिल जाए परन्तु किसान को कदापि नहीं|
और कदापि इसलिए नहीं क्योंकि भारत की आजादी के बाद किसान को छोड़ सबको अपने-अपने हक़ मिले लेकिन किसान को कोई आजादी नहीं, बल्कि सरकारी, गैर-सरकारी नीतियां ऐसी हैं जो उसको “कोल्हू का बैल” तो बना सकती हैं परन्तु गुड़ बनाने का सारा श्रेय तो चाक पर गुड़ की पेड़ियाँ काटने वाला ही ले जाता है, उस बैल का गुणगान कोई नहीं करता, उसका अहसान कोई नहीं मानता जिसने कोल्हू की अथक परिक्रमा कर उस गुड़ के लिए गन्नों का रस निकालने हेतु कोल्हू की चकळीयों और गिरारियों की मरोड़ तोड़ी होती है|
सरकार और तथाकथित पढ़े-लिखे, सभ्य-सभ्रांत समाज ने ऐसी कोई कसर नहीं छोड़ रखी जिससे यह तो सुनिश्चित हो ही कि किसान गँवार-असभ्य-दुर्भाषी तो कहलाये ही साथ ही साथ इसके किये का श्रेय इसको ना मिले और घर में एक नौकर भी रखे तो एक चोर की तरह|
ऐसे ही कुछ पैमानों-सामानों का यहाँ जिक्र कर रहा हूँ जो किसी भी तरीके से अगर कोई किसान कानून की मदद करना चाहे तो वो नहीं करने को मजबूर होता है|
उदाहरणत: अगर मैं एक किसान हूँ और मुझे एक नौकर सालाना तनख्वाह पर रखना है तो मैं कानून द्वारा तय पैमानों के हिसाब से रख ही नहीं सकता| क्योंकि कानून कहता है कि 14 साल से ऊपर के नौकर को आपको किसी भी तरह के कानून द्वारा परिभाषित कार्यों के लिए अधिग्रहित करना है तो उसकी कम से कम तनख्वाह 4800 रूपये माहवार होनी चाहिए और वह सिर्फ दिन में 8 घंटे काम करेगा और हफ्ते में उसको कम से कम एक दिन की छुट्टी भी देनी होगी और सरकारी तन्त्र के तहत उसको न्यूनतम निजी अवकाश भी उपलब्ध करवाना होगा | और यही नियम कृषि क्षेत्र के कृषक पर भी लागू होता है|
यानी अगर महीने में 26 दिन (चार दिन रविवार के नाम के निकाल के) भी नौकर खेतों में काम करता है, वो भी सिर्फ 8 घंटे तो किसान को उसकी प्रतिदिन लागत पड़ी 184.61 रूपये| और यही सरकार जब किसान की फसल की लागत का आंकलन करती है तो उसकी प्रतिदिन की दिहाड़ी गिनाती है 179 रूपये| तो पहले तो जमींदारों को दौलतमंद बताने वाले, उनको धनाढय बताने वाले और उनको अत्याचारी बताने वाले और उनपे बरसने वाले इस बात का जवाब दें कि क्या उन्होंने कभी किसान के इन पहलुओं पर नजर डाल के देखी है? और देखी है तो जिस तन्मयता से उसके सामाजिक रूतबे को कोसते नजर आते हैं उसी तन्मयता से आपके सेमिनारों और सभाओं में उसके ये मुद्दे नदारद क्यों रहते हैं?
क्यों नहीं वो सरकारों-अफसरों से ये पूछते कि खेती का काम दिन-रात का होता है तो जब एक नौकर की दिहाड़ी और उसके कार्य की समय-सीमा तय करी गई तो यह देखा गया कि नहीं कि किसान को रातों में खेतों में पानी भी देने होते हैं, फसलों की रखवाली भी करनी पड़ती है, जिसके लिए उसको 24 घंटे अथक चलना होता है और ऐसे ही उसको नौकर चाहिए होते हैं? तो बताओ जिसकी एक दिन की दिहाड़ी सरकार ने 179 रूपये निर्धारित कर दी हो वो 184 रूपये में आने वाला 8 घंटे का नौकर कहाँ से लायेगा और अगर उस नौकर को 24 घंटे रखना है तो 184*3 = 552 रूपये कहाँ से देगा?
कोई कहे कि फसल से देगा तो वो देखें इस लिंक http://www.nidanaheights.com/choupal.html पे जा के कि उसको फसल में भी क्या बचता है? अपनी ही पैदा की गई उपज का मूल्य निर्धारण तक उसके हाथ में नहीं, उसकी लागत का आंकलन करने में भी उसकी कोई पूछ नहीं, किसान की दिहाड़ी एक मजदूर से भी कम जो सरकारी तन्त्र आंकता हो फिर वो किसान के धनाढय होने का विश्वास दिला दे क्या ऐसा मुमकिन है?
क्या यह आंकड़े किसी तथाकथित दलित-मजदूर की सुरक्षा-समता का रोना पीटने वाले समाजसेवियों को नहीं पता हैं? जो वो अंधे हो मजदूर के लिए हक़ तो मांगने निकल पड़ते हैं परन्तु वो जड़ नहीं देखते जो झगडे का कारण बनती हैं? वो कभी ये नहीं कहते कि एक किसान को 24 घन्टे की मजदूरी 179 रूपये नहीं अपितु कम से कम इतनी तो दी जाए कि वो मजदूर को भी उसके हक़ मुताबिक भुगतान कर सके? सोचने की बात है कि सरकारी आंकड़ों में 179 रूपये की 24 घंटे वाली दिहाड़ी का किसान 552 रूपये की 24 घंटे वाली दिहाड़ी का मजदूर कहाँ से लायेगा?
ऐसे में तो कोई भला-चंगा जागरूक किसान जो ये चाहता हो कि मैं भी सरकारी नियम के अनुसार नौकर अधिगृहित करूँ तो वो भी ना कर पाए? तो फिर ऐसे में उसके पास क्या रास्ता बचा सिवाय उसको सरकारी अनुबंध पे ना ले सदियों से चले आ रहे बनियों की बहियों में कच्चे सहमती पत्र पर उनको रखने के? ऐसे कच्चे सहमती पत्र जिनकी कि सरकारी स्तर पर कोई मान्यता नहीं होती| अपितु बनिए को भी जमींदार को भुगतान करना पड़ता है ऐसे पत्र बनवाने के लिए जिनकी कि कोई मान्यता नहीं?
और इससे अंत परिणाम यही निकलता है कि किसान स्वभाव से उग्र बनता है क्योंकि अंदर ही अंदर उसकी भी चाहत होती है देश के सरकारी तन्त्र में हाथ बंटाने की, परन्तु जब उसके मानक ही इतने उलटे हों तो कोई किसान चाह कर भी देश की मुख्य धारा से कैसे जुड़ जाए|
और गावों के अंदर तो किसान इस तन्त्र के इतने आदि हो गए हैं कि कोई उनको इस पर बात कहे तो वो सिवाय ऊपर-कथित व्यथा सुनाने के गुस्सा भी जाहिर करने लगते हैं कि जैसे पूछने वाले ने ये प्रश्न पूछा ही क्यों| और फिर ईसी से उसकी छवि अंक ली जाती है परन्तु उस अंतहीन व्यथा को बड़े-बड़े पत्रकार भी नकार जाते हैं जो इस गुस्से की जड़ होती है|
और यहाँ यह ना समझें की इस अंतर्वेदना का शिकार सिर्फ किसान ही बनता है| मजदूर भी
तो ऐसे ही सहमती पत्र बनवाने में खुश होता है| क्योंकि वो सरकारी प्रणाली से कार्य समहति पत्र बनवायेगा तो उसको उसकी आमदनी पट कर (tax) देना पड़ेगा| लेकिन उसके पास तो फिर भी विकल्प है, वो चाहे तो किसान को मजबूर कर सकता है कि मुझे तो सरकारी नियमों के तहत कार्य अनुबंध पत्र चाहिए, लेकिन वो किसान क्या करे जिसको ऐसा विकल्प ही नहीं छोड़ा हुआ हो सरकार ने|
और कभी-कभी जब ये 179 रूपये की दिहाड़ी वाला किसान 552 रूपये की दिहाड़ी वाले मजदूर के पैसे चुका नहीं पाता है या देरी कर देता है तो फिर दलित जो कि अधिकतर ऐसे मजदूर होते हैं उनको भारत के SC/ST क़ानून याद आते हैं कि मेरा पैसा चुका नहीं पा रहा है तो ऊठा के इस किसान को मुझसे जातिसूचक शब्द या दुर्व्यवहार के साहस में अंदर करवा दूं और अगर उसके पीछे-पीछे 2-4 N.G.O. वाले और लग जाएँ तो बस फिर कहना ही क्या| शहरों में बैठे इनके लिए ऐसे मामले ऐसे होते हैं कि जैसे बस जगत की सारी ज्यादतियां तथाकथित स्वर्ण किसान ही करता है| लेकिन इसमें सरकार की भावनाओं और प्रेरणाओं से रहित परोक्ष नीतियां शायद ही किसी को आजतक नजर नहीं हों| शर्म और दावे की बात है अगर आज तक हिंदुस्तान की कोई N.G.O. ऐसे झगड़ों के इन मूल-कारणों तक पहुंची हो या पहुँचती हो जो मैंने यहाँ व्यथित कर दिए| वो ऐसे झगड़ों की वजहें ये तो कहते मिल जायेंगे कि किसानों-जमींदारों की जमीनें सिकुड़ रही हैं, अंसतोष फ़ैल रहा है इसलिए वो अपना प्रभुत्व जमाने को दलितों पे अत्याचार करते हैं, लेकिन उनकी सूक्ष्म अनुभूति ये अनुभव नहीं कर पाती जो ऊपर लिखा है
आखिर क्यों नहीं ऐसा हो सकता कि एक किसान भी एक कॉर्पोरेट वाले की तरह नौकर अनुबंध करे, tax भर देश की मुख्य धारा में जुड़े| सब हो सकता है अगर ये सरकारी चीजें पढ़ के इनको खंगाल के कोई इन विसंगतियों को दूर कर सके तो|
कुछ लोग यह भी कुतर्क देते हैं कि किसान 12 माह कार्य नहीं करता? क्यों, आखिर ऐसा कहने वालों की बारह माह की परिभाषा क्या है? यही ना जो सरकारी तन्त्र ने हर सरकारी-गैर सरकारी नौकरीपेशा के लिए निर्धारित कर रखी हैं, जिसमें हर इतवार यानी 52 दिन, तकरीबन 30 त्योहारों की छुट्टियाँ, किसी विभाग में 15 दिन तो किसी में 30 दिन के निजी अवकाश, कहीं महीने के दूसरे शनिवार तो कहीं हर शनिवार की छुट्टी? तो इन छुट्टियों को निकाल के देखो तो एक नौकरीपेशा ने कितने दिन कार्य किया? 3 से 5 महीने का तो अवकाश ही हो जाता है और फिर उसपे कोई 24 घंटे तो काम नहीं करता जबकि किसान का तो फसल चक्र में ऐसा भी वक्त आता है जब उसको दिन का पता होता है ना रात का| नौकरीपेशा तो अधिकतम रात के 12 या 2 बजे तक खट लेगा, लेकिन किसान को तो जब चलना होता है हफ़्तों अनथक निरतंर चलना पड़ता है, तब जा कर एक फसल तैयार कर पाता है तो फिर किसान का कार्य 12 माह का कैसे नहीं हुआ?
कम्पनियों-कोर्पोरेटों-सरकारी विभागों में तो over-time मिलता है लेकिन किसान को तो वो भी कोई addtional नहीं मिलता| और ऐसी परिस्थितियों में पद जाता है कि जैसे गले पड़ा ढोल मन-हो-न-हो बजाना ही पड़ेगा |
आप और हम 10 घंटे over-time कर दें और उसके पैसे ना मिलें तो बॉस से ले कंपनी तक तो 7600 गालियाँ देते हैं और फिर भी सभ्य-सफ़ेद कहलाते हैं अन्यथा शिकायत करने लग जाते हैं कि मुझे कोई motivation ही नहीं है इस job पर, मेरी creativity disturb हो रही है and so on....
लेकिन किसान, उसका तो जैसे कोई motivation ही नहीं, उसकी तो creativity की जैसे कोई value ही नहीं, और फिर तथाकथित सभ्रांत-बुद्धिजीवी किसान को गँवार, असभ्य बताएँगे और कहते मिलेंगे कि किसान में बोलने की तमीज नहीं होती| अरे कभी इन ऊपर बताये हुए सरकार और भारतीय सविंधान द्वारा दिए किसान के इन हालातों में खुद को रख के देखो, अगर इस बात का शुक्र ना मनाओ कि इतना नीरस और उत्साहीन काम का वातावरण होते हुए भी किसान बोल पाता है वही गनीमत है, कैसे बोलता है यह तो उसकी हद-छात्ती जानती है|
इसलिए तो कहा गया है कि "जट्ट दी जूण बुरी रिडक-रिडक मर जाणा” (जट्ट शब्द इसलिए कहा गया है क्योंकि जाट/जट्ट जैसी किसानी दुनियां में कोई नहीं कर सकता और कहा भी गया है कि "बाजी नट की तो खेती जट्ट की")|
और किसान समाज की सबसे बड़ी दिक्कत तो यह भी है कि जो शहरों को निकल गए वो विरले ही पीछे मुड़के देखते हैं कि उनके पूर्वजों के भी कुछ कर्ज उतारने को कोई विरला वापिस उनकी गलियों में आएगा या शहर और सरकारों के बीच इन बातों को उठाएगा| कहाँ उठाने वाले, मैंने तो ऐसे लोग भी देखे हैं जो अपनी पहचान बताने तक को डरते हैं|
किसान की सोच और मेहनत का कोई सच्चा मोल निकाल दे तो साहूकारों को फाके पड़ जाएंगे| लेकिन फिर भी लोग अपने दिमाग और किस्मत के दम पे खाने की हुंकार भरने से बाज नहीं आते और कभी नहीं सोचते की इन हुंकारों में किसी के हक़ भी दबाये गए है, वरना एक किसान ही ऐसा क्यों कि उसकी उपज का मोल भी दूसरे ही उसके लिए निर्धारित करें? उसको बेचना हो तो भी दूसरों के दर पे (मंडियों-बाजारों-मीलों) वो ही जायेगा और उसको खरीदना हो तो भी दूसरों के दर (दुकानों-हट्टीयों) पे वो ही जायेगा?
कोई चुप्पी साध के हक़ मारे है तो कोई दुत्कार के पर किसान को हर कोई लात ही मारे है| शायद इसीलिए तो दुखियारी और अबला नारी को झूठे दिलासे देने हेतु जैसे ये समाज उसको "देवी" कहता आया है वैसे ही जब इस किसान के हक़ की ये बातें कोई सुनता है कर्कस सी आवाज में उसको "अन्नदाता" कह अपनी श्रदांजली सी देता दीखता है| और जब तक तक ये ऊपर-चर्चित loopholes नहीं भरेंगे तब तक किसान एक लाचार अबला सी ही रहेगा|
इस श्रेणी में इस विषय से सम्बन्धित 2 मुद्दे समय और मजदूरी चर्चित किये, अगले लेख मे ऐसे ही दूसरे मुद्दे उठाकर लाऊंगा| आपके विचार, तर्क-वितर्क सहृदय स्वागत हैं|
सद्भावना सहित
आज तक की सरकारी नीतियाँ किसान को चोर और गर्व की भावानाओ से रहित एक खोखली ओखली बना रही है, एक ऐसी ओखली जिसमें मूसल तो चलते सबको दीखते हैं परन्तु उसमें कूटा जाने वाला महीन अनाज किधर जाता है खुद किसान तक को नहीं पता चल रहा|
एक इंसान उसकी रचना-सरंचना को अपनी इच्छानुसार नाम दे सके, उसका गुणगान कर सके, उस पर गर्व कर सके, उसके बूते ख्याति-प्रसिद्धि और पहचान पा सके, आखिर यही तो अंत-परिमाण के लिए वो जीता है, ताउम्र खटता है| क्योंकि पैसा ही सब कुछ होता तो इनामों-नामों-शोहरतों की लागलपेट से ये दुनिया खाली होती और ये कहावतें ना होती कि “पैसा क्या है, यह तो एक वेश्या भी अर्जित कर लेती है”, परन्तु वो जो अर्जित नहीं कर पाती वो है समाज में मनमुताबिक रुतबा-इज्जत-श्रेय-शोहरत| वैसे तो युगों से ही किसान की ऐसी हालत रही लेकिन आज के हालात देख के तो ऐसा लगता है कि एक वेश्या (लेखक वेश्या को इज्जत की नजर से देखता है, यहाँ उदाहरणार्थ स्वरूप यह कहावत इसलिए प्रयोग की गई है क्योंकि समाज इज्जत के मापदंड पे वेश्या को निचले पायदान पर ही रखता आया है) को इज्जत मिल जाए परन्तु किसान को कदापि नहीं|
और कदापि इसलिए नहीं क्योंकि भारत की आजादी के बाद किसान को छोड़ सबको अपने-अपने हक़ मिले लेकिन किसान को कोई आजादी नहीं, बल्कि सरकारी, गैर-सरकारी नीतियां ऐसी हैं जो उसको “कोल्हू का बैल” तो बना सकती हैं परन्तु गुड़ बनाने का सारा श्रेय तो चाक पर गुड़ की पेड़ियाँ काटने वाला ही ले जाता है, उस बैल का गुणगान कोई नहीं करता, उसका अहसान कोई नहीं मानता जिसने कोल्हू की अथक परिक्रमा कर उस गुड़ के लिए गन्नों का रस निकालने हेतु कोल्हू की चकळीयों और गिरारियों की मरोड़ तोड़ी होती है|
सरकार और तथाकथित पढ़े-लिखे, सभ्य-सभ्रांत समाज ने ऐसी कोई कसर नहीं छोड़ रखी जिससे यह तो सुनिश्चित हो ही कि किसान गँवार-असभ्य-दुर्भाषी तो कहलाये ही साथ ही साथ इसके किये का श्रेय इसको ना मिले और घर में एक नौकर भी रखे तो एक चोर की तरह|
ऐसे ही कुछ पैमानों-सामानों का यहाँ जिक्र कर रहा हूँ जो किसी भी तरीके से अगर कोई किसान कानून की मदद करना चाहे तो वो नहीं करने को मजबूर होता है|
उदाहरणत: अगर मैं एक किसान हूँ और मुझे एक नौकर सालाना तनख्वाह पर रखना है तो मैं कानून द्वारा तय पैमानों के हिसाब से रख ही नहीं सकता| क्योंकि कानून कहता है कि 14 साल से ऊपर के नौकर को आपको किसी भी तरह के कानून द्वारा परिभाषित कार्यों के लिए अधिग्रहित करना है तो उसकी कम से कम तनख्वाह 4800 रूपये माहवार होनी चाहिए और वह सिर्फ दिन में 8 घंटे काम करेगा और हफ्ते में उसको कम से कम एक दिन की छुट्टी भी देनी होगी और सरकारी तन्त्र के तहत उसको न्यूनतम निजी अवकाश भी उपलब्ध करवाना होगा | और यही नियम कृषि क्षेत्र के कृषक पर भी लागू होता है|
यानी अगर महीने में 26 दिन (चार दिन रविवार के नाम के निकाल के) भी नौकर खेतों में काम करता है, वो भी सिर्फ 8 घंटे तो किसान को उसकी प्रतिदिन लागत पड़ी 184.61 रूपये| और यही सरकार जब किसान की फसल की लागत का आंकलन करती है तो उसकी प्रतिदिन की दिहाड़ी गिनाती है 179 रूपये| तो पहले तो जमींदारों को दौलतमंद बताने वाले, उनको धनाढय बताने वाले और उनको अत्याचारी बताने वाले और उनपे बरसने वाले इस बात का जवाब दें कि क्या उन्होंने कभी किसान के इन पहलुओं पर नजर डाल के देखी है? और देखी है तो जिस तन्मयता से उसके सामाजिक रूतबे को कोसते नजर आते हैं उसी तन्मयता से आपके सेमिनारों और सभाओं में उसके ये मुद्दे नदारद क्यों रहते हैं?
क्यों नहीं वो सरकारों-अफसरों से ये पूछते कि खेती का काम दिन-रात का होता है तो जब एक नौकर की दिहाड़ी और उसके कार्य की समय-सीमा तय करी गई तो यह देखा गया कि नहीं कि किसान को रातों में खेतों में पानी भी देने होते हैं, फसलों की रखवाली भी करनी पड़ती है, जिसके लिए उसको 24 घंटे अथक चलना होता है और ऐसे ही उसको नौकर चाहिए होते हैं? तो बताओ जिसकी एक दिन की दिहाड़ी सरकार ने 179 रूपये निर्धारित कर दी हो वो 184 रूपये में आने वाला 8 घंटे का नौकर कहाँ से लायेगा और अगर उस नौकर को 24 घंटे रखना है तो 184*3 = 552 रूपये कहाँ से देगा?
कोई कहे कि फसल से देगा तो वो देखें इस लिंक http://www.nidanaheights.com/choupal.html पे जा के कि उसको फसल में भी क्या बचता है? अपनी ही पैदा की गई उपज का मूल्य निर्धारण तक उसके हाथ में नहीं, उसकी लागत का आंकलन करने में भी उसकी कोई पूछ नहीं, किसान की दिहाड़ी एक मजदूर से भी कम जो सरकारी तन्त्र आंकता हो फिर वो किसान के धनाढय होने का विश्वास दिला दे क्या ऐसा मुमकिन है?
क्या यह आंकड़े किसी तथाकथित दलित-मजदूर की सुरक्षा-समता का रोना पीटने वाले समाजसेवियों को नहीं पता हैं? जो वो अंधे हो मजदूर के लिए हक़ तो मांगने निकल पड़ते हैं परन्तु वो जड़ नहीं देखते जो झगडे का कारण बनती हैं? वो कभी ये नहीं कहते कि एक किसान को 24 घन्टे की मजदूरी 179 रूपये नहीं अपितु कम से कम इतनी तो दी जाए कि वो मजदूर को भी उसके हक़ मुताबिक भुगतान कर सके? सोचने की बात है कि सरकारी आंकड़ों में 179 रूपये की 24 घंटे वाली दिहाड़ी का किसान 552 रूपये की 24 घंटे वाली दिहाड़ी का मजदूर कहाँ से लायेगा?
ऐसे में तो कोई भला-चंगा जागरूक किसान जो ये चाहता हो कि मैं भी सरकारी नियम के अनुसार नौकर अधिगृहित करूँ तो वो भी ना कर पाए? तो फिर ऐसे में उसके पास क्या रास्ता बचा सिवाय उसको सरकारी अनुबंध पे ना ले सदियों से चले आ रहे बनियों की बहियों में कच्चे सहमती पत्र पर उनको रखने के? ऐसे कच्चे सहमती पत्र जिनकी कि सरकारी स्तर पर कोई मान्यता नहीं होती| अपितु बनिए को भी जमींदार को भुगतान करना पड़ता है ऐसे पत्र बनवाने के लिए जिनकी कि कोई मान्यता नहीं?
और इससे अंत परिणाम यही निकलता है कि किसान स्वभाव से उग्र बनता है क्योंकि अंदर ही अंदर उसकी भी चाहत होती है देश के सरकारी तन्त्र में हाथ बंटाने की, परन्तु जब उसके मानक ही इतने उलटे हों तो कोई किसान चाह कर भी देश की मुख्य धारा से कैसे जुड़ जाए|
और गावों के अंदर तो किसान इस तन्त्र के इतने आदि हो गए हैं कि कोई उनको इस पर बात कहे तो वो सिवाय ऊपर-कथित व्यथा सुनाने के गुस्सा भी जाहिर करने लगते हैं कि जैसे पूछने वाले ने ये प्रश्न पूछा ही क्यों| और फिर ईसी से उसकी छवि अंक ली जाती है परन्तु उस अंतहीन व्यथा को बड़े-बड़े पत्रकार भी नकार जाते हैं जो इस गुस्से की जड़ होती है|
और यहाँ यह ना समझें की इस अंतर्वेदना का शिकार सिर्फ किसान ही बनता है| मजदूर भी
तो ऐसे ही सहमती पत्र बनवाने में खुश होता है| क्योंकि वो सरकारी प्रणाली से कार्य समहति पत्र बनवायेगा तो उसको उसकी आमदनी पट कर (tax) देना पड़ेगा| लेकिन उसके पास तो फिर भी विकल्प है, वो चाहे तो किसान को मजबूर कर सकता है कि मुझे तो सरकारी नियमों के तहत कार्य अनुबंध पत्र चाहिए, लेकिन वो किसान क्या करे जिसको ऐसा विकल्प ही नहीं छोड़ा हुआ हो सरकार ने|
और कभी-कभी जब ये 179 रूपये की दिहाड़ी वाला किसान 552 रूपये की दिहाड़ी वाले मजदूर के पैसे चुका नहीं पाता है या देरी कर देता है तो फिर दलित जो कि अधिकतर ऐसे मजदूर होते हैं उनको भारत के SC/ST क़ानून याद आते हैं कि मेरा पैसा चुका नहीं पा रहा है तो ऊठा के इस किसान को मुझसे जातिसूचक शब्द या दुर्व्यवहार के साहस में अंदर करवा दूं और अगर उसके पीछे-पीछे 2-4 N.G.O. वाले और लग जाएँ तो बस फिर कहना ही क्या| शहरों में बैठे इनके लिए ऐसे मामले ऐसे होते हैं कि जैसे बस जगत की सारी ज्यादतियां तथाकथित स्वर्ण किसान ही करता है| लेकिन इसमें सरकार की भावनाओं और प्रेरणाओं से रहित परोक्ष नीतियां शायद ही किसी को आजतक नजर नहीं हों| शर्म और दावे की बात है अगर आज तक हिंदुस्तान की कोई N.G.O. ऐसे झगड़ों के इन मूल-कारणों तक पहुंची हो या पहुँचती हो जो मैंने यहाँ व्यथित कर दिए| वो ऐसे झगड़ों की वजहें ये तो कहते मिल जायेंगे कि किसानों-जमींदारों की जमीनें सिकुड़ रही हैं, अंसतोष फ़ैल रहा है इसलिए वो अपना प्रभुत्व जमाने को दलितों पे अत्याचार करते हैं, लेकिन उनकी सूक्ष्म अनुभूति ये अनुभव नहीं कर पाती जो ऊपर लिखा है
आखिर क्यों नहीं ऐसा हो सकता कि एक किसान भी एक कॉर्पोरेट वाले की तरह नौकर अनुबंध करे, tax भर देश की मुख्य धारा में जुड़े| सब हो सकता है अगर ये सरकारी चीजें पढ़ के इनको खंगाल के कोई इन विसंगतियों को दूर कर सके तो|
कुछ लोग यह भी कुतर्क देते हैं कि किसान 12 माह कार्य नहीं करता? क्यों, आखिर ऐसा कहने वालों की बारह माह की परिभाषा क्या है? यही ना जो सरकारी तन्त्र ने हर सरकारी-गैर सरकारी नौकरीपेशा के लिए निर्धारित कर रखी हैं, जिसमें हर इतवार यानी 52 दिन, तकरीबन 30 त्योहारों की छुट्टियाँ, किसी विभाग में 15 दिन तो किसी में 30 दिन के निजी अवकाश, कहीं महीने के दूसरे शनिवार तो कहीं हर शनिवार की छुट्टी? तो इन छुट्टियों को निकाल के देखो तो एक नौकरीपेशा ने कितने दिन कार्य किया? 3 से 5 महीने का तो अवकाश ही हो जाता है और फिर उसपे कोई 24 घंटे तो काम नहीं करता जबकि किसान का तो फसल चक्र में ऐसा भी वक्त आता है जब उसको दिन का पता होता है ना रात का| नौकरीपेशा तो अधिकतम रात के 12 या 2 बजे तक खट लेगा, लेकिन किसान को तो जब चलना होता है हफ़्तों अनथक निरतंर चलना पड़ता है, तब जा कर एक फसल तैयार कर पाता है तो फिर किसान का कार्य 12 माह का कैसे नहीं हुआ?
कम्पनियों-कोर्पोरेटों-सरकारी विभागों में तो over-time मिलता है लेकिन किसान को तो वो भी कोई addtional नहीं मिलता| और ऐसी परिस्थितियों में पद जाता है कि जैसे गले पड़ा ढोल मन-हो-न-हो बजाना ही पड़ेगा |
आप और हम 10 घंटे over-time कर दें और उसके पैसे ना मिलें तो बॉस से ले कंपनी तक तो 7600 गालियाँ देते हैं और फिर भी सभ्य-सफ़ेद कहलाते हैं अन्यथा शिकायत करने लग जाते हैं कि मुझे कोई motivation ही नहीं है इस job पर, मेरी creativity disturb हो रही है and so on....
लेकिन किसान, उसका तो जैसे कोई motivation ही नहीं, उसकी तो creativity की जैसे कोई value ही नहीं, और फिर तथाकथित सभ्रांत-बुद्धिजीवी किसान को गँवार, असभ्य बताएँगे और कहते मिलेंगे कि किसान में बोलने की तमीज नहीं होती| अरे कभी इन ऊपर बताये हुए सरकार और भारतीय सविंधान द्वारा दिए किसान के इन हालातों में खुद को रख के देखो, अगर इस बात का शुक्र ना मनाओ कि इतना नीरस और उत्साहीन काम का वातावरण होते हुए भी किसान बोल पाता है वही गनीमत है, कैसे बोलता है यह तो उसकी हद-छात्ती जानती है|
इसलिए तो कहा गया है कि "जट्ट दी जूण बुरी रिडक-रिडक मर जाणा” (जट्ट शब्द इसलिए कहा गया है क्योंकि जाट/जट्ट जैसी किसानी दुनियां में कोई नहीं कर सकता और कहा भी गया है कि "बाजी नट की तो खेती जट्ट की")|
और किसान समाज की सबसे बड़ी दिक्कत तो यह भी है कि जो शहरों को निकल गए वो विरले ही पीछे मुड़के देखते हैं कि उनके पूर्वजों के भी कुछ कर्ज उतारने को कोई विरला वापिस उनकी गलियों में आएगा या शहर और सरकारों के बीच इन बातों को उठाएगा| कहाँ उठाने वाले, मैंने तो ऐसे लोग भी देखे हैं जो अपनी पहचान बताने तक को डरते हैं|
किसान की सोच और मेहनत का कोई सच्चा मोल निकाल दे तो साहूकारों को फाके पड़ जाएंगे| लेकिन फिर भी लोग अपने दिमाग और किस्मत के दम पे खाने की हुंकार भरने से बाज नहीं आते और कभी नहीं सोचते की इन हुंकारों में किसी के हक़ भी दबाये गए है, वरना एक किसान ही ऐसा क्यों कि उसकी उपज का मोल भी दूसरे ही उसके लिए निर्धारित करें? उसको बेचना हो तो भी दूसरों के दर पे (मंडियों-बाजारों-मीलों) वो ही जायेगा और उसको खरीदना हो तो भी दूसरों के दर (दुकानों-हट्टीयों) पे वो ही जायेगा?
कोई चुप्पी साध के हक़ मारे है तो कोई दुत्कार के पर किसान को हर कोई लात ही मारे है| शायद इसीलिए तो दुखियारी और अबला नारी को झूठे दिलासे देने हेतु जैसे ये समाज उसको "देवी" कहता आया है वैसे ही जब इस किसान के हक़ की ये बातें कोई सुनता है कर्कस सी आवाज में उसको "अन्नदाता" कह अपनी श्रदांजली सी देता दीखता है| और जब तक तक ये ऊपर-चर्चित loopholes नहीं भरेंगे तब तक किसान एक लाचार अबला सी ही रहेगा|
इस श्रेणी में इस विषय से सम्बन्धित 2 मुद्दे समय और मजदूरी चर्चित किये, अगले लेख मे ऐसे ही दूसरे मुद्दे उठाकर लाऊंगा| आपके विचार, तर्क-वितर्क सहृदय स्वागत हैं|
सद्भावना सहित
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