Friday, 24 April 2015

क्या फर्क है 16/12/2012 में और 22/04/2015 में?:

फर्क सिर्फ इतना है कि 16/12/2012 को दिल्ली में 6 सिरफिरों ने एक लड़की का रेप किया था, और आज उसी दिल्ली में सिस्टम और सरकार दोनों ने मिलके किसानियत का रेप किया है|

गजेन्द्र सिंह राजपूत, किसान दौसा-राजस्थान की मौत, संसद भवन से सिर्फ पांच-सौ मीटर दूर जंतर-मंतर पर और सारा मेट्रो तबका सोया सा लगता है या अभी तक किसी को खबर नहीं मिली है जो तमाम मोमबत्ती गैंग अभी तक गुल हैं? या मेट्रो में रहने वाले इस रेप को रेप ही नहीं मानते? क्यों नहीं कोई निकला आज दिल्ली की सड़कों पर मोमबती ले के अभी तक?

क्या यह सिस्टम और सरकारों द्वारा खुले-आम किसानियत का रेप नहीं?

चलो कम से कम इस गूंगी-बहरी सरकार के गुर्गे अब यह तो नहीं कहेंगे कि किसान आत्महत्या नहीं कर रहे|

काश आज दिल्ली के जंतर-मंतर पर गजेन्द्र सिंह राजपूत की फांसी की जगह कोई गाय काटी गई होती, तो लाशें बिछ गई होती|| पर यदि कोई खेती की वजह से मर जाए तो कोई नहीं पूछता|

एक जानवर की रक्षा के लिए सजा का प्रावधान और उसी जानवर को पालने वाले व् देश-समाज को अन्न देने वाले किसान के लिए कोई इंडिया गेट पर एक मोमबत्ती भी नहीं लेकर निकला अभी तक? फिर उसकी सुरक्षा हेतु सजाओं के प्रावधान या कानून तो सपनों की बात हो चली|

वाह रे निरंकुशो और हृदयहीनों, गाय का दूध पीकर गोरक्षा करते हो और किसान का अनाज खाकर उसे मरने के लिए छोड़ देते हो। तुम्हारे चाक-चौबारों के बगल में अन्न पैदा करके तुम्हारा पेट भरने वाला, कपास पैदा करके तुम्हारा तन ढंकने वाला और गन्ना पैदा कर तुम्हारे पानों का स्वाद मीठा करने वाला, वो किसान फांसी झूल गया और तुम अंदर दुबके बैठे हो|

वाकई नराधमों का देश है ये|

सुध ले लो ओ इन गायों के रखवालों की रखवाली करने वालो, इनकी गायों को तो यह खुद बचा लेंगे, तुम पहले अपने को सम्भालो ओ किसानो; ये ना निकालेंगे अपने चौबारों से, तेरे लिए| 

किसान पर एक्सपेरिमेंटल राजनीति का दौर है यह: रहबरे-ए-आजम राय बहादुर दीनबंधु चौधरी सर छोटूराम से लेकर चौधरी चरण सिंह, सरदार प्रताप सिंह कैरों, चौधरी देवीलाल, चौधरी बंसीलाल और बाबा महेंद्र सिंह टिकैत तक, आप सबकी रैलियों में लाखों-लाख किसान पहुंचा करते थे अपने दुःख लेकर, पर क्या मजाल किसी को कभी खरोंच तक भी आई हो| सब सही सलामत घर वापिस पहुँचा करते थे, फिर भरी सभा में आत्महत्या तो सपनों जैसी बात है| निसंदेह यह किसान की भले की राजनीति का दौर नहीं, वरन किसान पर हो रही एक्सपेरिमेंटल राजनीति का दौर है|

जहां प्रधानमंत्री वास्कोडिगामा बने विश्व-भ्रमण में मशगूल हैं, अमेरिका जाते हैं, ऑस्ट्रेलिया - फ्रांस जा आते हैं, परन्तु वहाँ पे यह तक खोज के नहीं लाते कि उनके किसान इतने खुशहाल क्यों हैं| और एक जनाब तो सिर्फ बीस गज की दूरी पर उनकी रैली में फांसी पर झूल जाने वाले गजेन्द्र सिंह राजपूत किसान को ही नहीं बचा पाते और रैली भर लेते हैं समूचे किसान समाज का ठेका उठाने को|

किसी ने सही कहा है, "जब बनिया हो हाकिम, ब्राह्मण शाह और जाट मुहासिब तो जुल्म खुदा|" - फूल मलिक

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