Friday, 12 June 2015

मंडी (व्यापारी) दान के नाम पर अधिकतर मंदिर ही क्यों बनवाता है?


क्योंकि मंदिर बनवाना भी उसके लिए एक इन्वेस्टमेंट होता है| जितनी बड़ी इन्वेस्टमेंट, उसमें उतनी बड़ी फंडों की मण्डली, जितने बड़े फंड उतने अंधभक्त, जितने ज्यादा अंधभक्त उतना बड़ा रिटर्न| रिटर्न कैसे? अरे भाई फंड रचने के लिए जो सामान चाहिए वो कहाँ से खरीदोगे, वापिस व्यापारी की दुकान से ना?

यानी दानी-धर्मात्मा होने का नाम हुआ सो हुआ और रिटर्न का रिटर्न| यह जितने भी लोग ऐसा कहते हैं ना कि व्यापारी अपने पाप धोने के लिए ऐसे मंदिर बनवाते या दान देते हैं, वो अपना भरम दूर कर लें| व्यापारी सिर्फ और सिर्फ इन्वेस्ट करता है| पाप धोने को मंदिर बनाया, यह तो उसकी स्ट्रेटेजी होती है बन्दों को उन्हीं मंदिरों में बुलवा, अंधभक्त बनवा अपना सामान बिकवाने की|

मैंने वैसे तो भारत के कई हिस्सों, परन्तु हरयाणा तो खूब घूम के देखा है| व्यापारियों की धर्मशालाओं से बड़ी तो किसानी जातियों की धर्मशालाएं मिल जाती हैं| यहां तक कि मेरे जींद में तो दलित समाज की धर्मशाला तो इतनी बड़ी है कि उसी की अटालिका पूरे जींद की धर्मशालाओं में सबसे ऊँची टक्कर देती है| कारण साफ़ है किसान या दलित धर्मशाला बनाता है शुद्ध धर्म-पुण्य के लिए या फिर इनको व्यापारियों जैसी चालाकी नहीं आती| जबकि व्यापारी धर्मशाला बनाएगा तो वो भी सिर्फ छोटी सी, क्योंकि धर्मशाला से रिटर्न थोड़े आना है|

वो धर्मशाला की बजाये मंदिर में इन्वेस्ट करता है| क्योंकि पता है वहाँ से रिटर्न आएगा ही आएगा| You know its a cyclic business process, invest there (temple), get return here (shop)!

अरे किसानो-दलितों और नहीं तो कम से कम धर्मपुण्य के जरिये भी कमाना सीख लो| अपने दादा खेड़ों के इर्द-गिर्द बड़े पार्क-बाड़े-स्मृति अथवा प्रेरणा स्थल बनाने सीख लो| आपके खुद के हुए योद्धेयों के किस्से-गाथाएं गानी-गुवानी सीख लो| कम से कम और नहीं तो उनमें देवता तो आपके अपने बैठे हैं| कमाई नहीं भी होगी तो पुरखों की बड़ाई और पहचान तो हो जाएगी समाज-संसार में|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

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