Sunday, 21 June 2015

पहले के जाट नेताओं और आज के जाट नेताओं में फर्क!


2014 के विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी थक हार के जब कोई भी पैंतरा नहीं चल रहा था तो हिसार में भाषण देते हुए कहते हैं कि एक जाति के राज से हरयाणा को मुक्त करो।

लेकिन इनेलो जैसी पार्टी, जिनके मसीहा ताऊ देवीलाल खुद उसी एक जाति के थे, उन जैसा बाण पास में होते हुए भी, मोदी को वापिस यह जवाब नहीं दिया कि, 'ओ मोदी, वो इस 'एक जाति' का ही लीडर था जिसने सेंटर में प्रधानमंत्री बनने का अवसर होते हुए भी 2-2 राजपूतों वी. पी. सिंह और चंद्रशेखर को आगे करके पीएम बनाया और अजगर धर्म निभाया। कसम से इनेलो की सरकार भले ही ना बनती परन्तु बीजेपी को स्पष्ट बहुमत की सीटें शायद ही मिलती। कांग्रेस व् अन्यों के पास तो मोदी के इस बाण का जवाब नहीं था परन्तु इनेलो के पास था। खैर मौका था गया सो गया।

जब मुज़फ्फरनगर में दंगा हुआ तो अजित सिंह चुप रहने की बजाये जनता के बीच एक बार चौधरी चरण सिंह की मजगर थ्योरी ले के जाते और अपना पक्ष ईमानदारी से रखते और जाट और मुस्लिम को यह कहते कि दोनों मेरे हो। आप लोगों को कोई तीसरा भिड़ा रहा है तो ऐसे में मैं किधर जाऊं आप खुद ही बता दो। सच्ची कह रहा हूँ, रालोद को इतना नुक्सान तो कम से कम नहीं होना था कि अजित सिंह भी चुनाव हार जाते।

यह दोनों उदाहरण दे कर मैं यह बात कहना चाहता हूँ कि पहले के जाट नेता सिर्फ जाट के लिए राजनीति नहीं करते थे, उसूलों के लिए राजनीति करते थे। उसमें जाति का भला तो अपने-आप हो जाता था।

इनेलो जाट-आरक्षण के वक्त तो जरूर दिखा देती है कि वो इकोनोमिक आधार पे सबके लिए आरक्षण चाहती है, परन्तु उपर्लिखित मौकों का लाभ उठाने से चूक जाती है| मतलब इकनोमिक आधार बोल के सर्वजातीय-हित वाली जो भूमिका तैयार करती है वो मोदी जैसों को नहले पे दहले वाले जवाब होते हुए भी ना देने से वहीँ की वहीँ धरी रह जाती है|

दूसरा आज के अधिकतर जाट नेता जाति शब्द से एक षड्यंत्र के तहत कुछ इस तरह चिपका दिए गए हैं कि वो इसके मोह-पास में फंस चुके हैं। एंटी-जाट ताकतें इन नेताओं की सोच को दिन-भर-दिन सिर्फ एक जाति विशेष तक संकुचित करते जा रही हैं और क्योंकि जाट का वोट शेयर ही इतना है कि यह लोग उसके मोह में फंसे राजनीति का जवाब राजनीति से देना ही भूल जाने लगे हैं।

ऐसा ही हाल जाट-आरक्षण से जुड़े अधिकतर नेताओं का हो चुका है। वो तो जाति से भी आगे जा के क्षेत्रवाद में जा घुसे हैं। इनके दिल-जिगर इतने सिकुड़ चुके हैं कि इनमें कइयों को तो खापों का साथ भी गँवारा नहीं। इनको डर सताने लग जाता है कि कहीं खाप तुम्हारी क्रेडिबिलिटी ही ना खा जाएँ, इसलिए इनको छोटे से एरिया की दिखाने और बताने लग जाओ। और जब ऐसी सोच पैदा होती है तभी शुरू होता है, 'जाटड़ा और काटड़ा अपने को ही मारे" की थ्योरी का कहर।

इसलिए पहले तो जाट नेताओं को आपस में क्रेडिबिलिटी मैनेजमेंट सीखना होगा। आप जाट हो तो खाप भी जाट हैं यह सोच के उनकी महत्ता खुद ही घटाने लग जाने की बजाय, उनको एडजस्ट करना होगा।

और ब्राह्मण की भांति राजनीति करनी होगी। ब्राह्मण जब राजनीति में होता है तो वो यह कदापि नहीं सोचता कि मुझे ब्राह्मण कंट्रोल या मैनेज करना है, वो सिर्फ मुझे 36 कौम मैनेज करनी हैं, ऐसा सोचता है। जबकि आज के अधिकतर जाट-नेता सिर्फ जाट को ही मैनेज करने तक सिमित पड़े हैं। सर छोटूराम जैसे लीडरों की तरह सोच ले के चलना होगा। अगर चलने से पहले कौम को ही मैनेज करने से ही डरने लग जाओगे और उसको मैनेज करने के चक्कर में कौम के कल्चर व् इतिहास को ही संकुचित करके तोड़ने लग जाओगे तो बन लिए लीडर, उल्टा जाट कौम को दोजख में पहुँचा दोगे।

एक-दो लीडर हैं जो जाट शब्द से नहीं चिपके हुए हैं परन्तु मन में जाट रखते हुए बहुत अच्छा कर रहे हैं और मुझे उम्मीद है कि वो आने वाले वक्त में बहुत अच्छा बन के उभरेंगे।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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