अरे मखा, मैं न्यूं कहूँ पूरे हिन्दू धर्म में जाट अकेली ऐसी कौम है जिसकी, वो ब्राह्मण जो बाकी की हिन्दू कौमों को सिर्फ दिशा-निर्देशों से चलाता आया, वो जाट की स्तुति करता आया है| ब्राह्मण ने अपने हाथों घड़े तथाकथित क्षत्रियों-वैश्यों की इतनी प्रसंशा नहीं करी जितनी जाट की करी| आधुनिक काल का उदाहरण दूँ तो सम्पूर्ण ब्राह्मण समाज के निर्देश पे 1875 में रचित गुजरात वाले ब्राह्मण 'दयानंद सरस्वती' का "सत्यार्थ प्रकाश" उठा के पढ़ लो, "जाट जी" लिख के जाट के गुणों की स्तुति तो करी ही करी, साथ ही जाट सामाजिक मान्यताओं की प्रशंसा पर आधारित पूरी किताब यानी "सत्यार्थ प्रकाश" तक लिखी|
दूसरा आधुनिक काल का उदाहरण हाल ही में "भारत रत्न" से नवाजे गए पंडित मदन-मोहन मालवीय द्वारा जब 1932 में दिल्ली बिड़ला मंदिर की नींव रखने हेतु प्रस्ताव रखा गया कि वो ही राजा इस मंदिर की नींव रखेगा:
1) जिसका वंश उच्च कोटि का हो!
2) जिसका चरित्र आदर्श हो!
3) जो शराब व् मांस का सेवन ना करता हो!
4) जिसने एक से अधिक विवाह ना किये हों!
5) जिसके वंश ने मुग़लों को अपनी लड़की ना दी हो!
6) व् जिसके दरबार में रंडियाँ ना नाचती हों!
इस प्रस्ताव को सुनकर देश के कौनों-कौनों के रजवाड़ों से आये राजाओं-राणाओं ने अपनी गर्दनें झुका ली| तब धौलपुर नरेश महाराजा उदयभानु सिंह राणा अपनी जगह से उठे जो इन सभी 6 शर्तों पर खरे पाये गए| और मालवीय जी ने यह कहते हुए कि "जाट नरेश धौलपुर पूरे भारतवर्ष की शान हैं", राणा जी से दिल्ली बिड़ला मंदिर की नींव का पत्थर रखवाया| आज भी इस मंदिर के प्रांगण में राणा जी की मूर्ती व् संबंधित शिलालेख स्थापित हैं| तो सोचने की बात है कि जो कौम उच्च कोटि के मंदिरों की नींव रखती आई हो वह मंदिर में प्रवेश की मनाही वाली शूद्र की श्रेणी तो हो नहीं सकती| हालाँकि लेखक वर्ण-व्यवस्था और जाति-व्यवस्था का घोर विरोधी है परन्तु क्योंकि यह लेख इन्हीं पहलुओं बारे है तो यह लिखने हेतु जरूरी कारक के रूप में लिखा है|
ऐसे अद्वितीय व् अद्भुत उदाहरण अपनी जलन/द्वेष/प्रतिस्पर्धा शांत करने हेतु जाटों को कभी चांडाल, कभी शूद्र तो कभी लुटेरे कहने वालों के मुंह पे तमाचा मार देते हैं| अत: जिसको उच्च कोटि का ब्राह्मण लिखित और सम्बोधन में 'जी', 'देवता' और 'देश की शान' कहके सम्बोधित किया हो वो कौम भला शूद्र या चांडाल कैसे हो सकती है? सवाल ही पैदा नहीं होता| हालाँकि जाट का इतिहास रहा है कि वो अपनी स्वछंद मति के शब्द को अंतिम मानता आया है, जिसकी कि अपनी वाजिब वजहें भी रही हैं; परन्तु यह भी सच है कि ब्राह्मण ने जाट को "जी" भी कहा है और "देवता" भी|
एक बार मेरे को एक तथाकथित क्षत्रिय ने उसके दो परम्परागत एंटी-जाट यारों के सिखाये पे (सिखाये पे, वैसे सामान्य परिस्थिति में वो अच्छा और साफ़ दिल का दोस्त होता था) 'घुटनों में अक्ल वाला' बोल दिया| तो मैंने उसको तपाक से जवाब दिया था, 'मखा सुन, जिनके चरणों में तुम अपनी अक्ल गिरवी रखते हो ना, वो हमें लिखित में 'जाट जी' और 'जाट देवता' कहते रहे हैं|' इससे हिसाब लगा ले अगर तेरे अनुसार हमारी अक्ल घुटनों में है तो फिर तेरी तो तेरे तलवे भी छोड़ चुकी| जवाब सुनते ही गुम गया और उसको ऐसा बोलने के लिए उकसाने वाले उसके आजू-बाजू खड़े अचम्भित व् शब्दरहित|
लगे हाथ एक पहरे में चांडाल, शूद्र और लुटेरे शब्दों का भी हिसाब कर दूँ| कई लोग अपनी कुंठा को शांत करने हेतु चचनामा का उदाहरण उठा लाते हैं कि चचनामा में जाटों को चांडाल कहा गया है| अरे भाई जो मंत्री होते हुए धोखे से जाट राजा को मार, उसकी रियासत हथिया कर राजा बना हो वो भला फिर जाट की तारीफ कैसे कर देगा? वो तो घृणा वा दुश्मनीवश चांडाल ही कहेगा ना? फिर तर्क देने लग जाते हैं कि जाटों ने आरक्षण लेने के लिए ऐसे तथ्य कोर्ट में क्यों रखे? अरे भाई कोर्ट में रखे तो यह कहने को नहीं रखे कि हम चांडाल थे, अपितु यह बताने को रखे कि इतिहास में हमने क्या-क्या धोखे और दंश झेले हैं| अब फिर कुछ को चांडाल और शूद्र का बाण जब फ़ैल होता दीखता है तो 'लुटेरे' शब्द उठा लाता है| अरे भाई ऐसा कहना ही है तो हमको लुटेरे मत कहो, 'लुटेरों के लुटेरे' कहो! पूछो क्यों? अमां मियां, जो विश्व के महानतम लुटेरों जैसे कि सोमनाथ मंदिर के खजाने को लूटने वाले लुटेरे महमूद ग़ज़नवी की लूट को सिंध में ही लूट लेवें, देश के धन और शान को देश में ही रोक, विदेश जाने के कलंक से बचावें, तो वो तो फिर 'लुटेरों के लुटेरे' हुए ना? और समाजशास्त्र में लुटेरों के लुटेरे को मसीहा अथवा रोबिन हुड केटेगरी बोला जाता है| और ऐसे-ऐसे कारनामों की वजह से ही तो ब्राह्मण ने जाट को जाट देवता कहा, क्योंकि जिस खजाने को लुटने से खुद सोमनाथ देवता नहीं बचा सके, उसको जाट-देवताओं ने लुटेरे से छीन बचाया और देश-कौम-धर्म की लाज की रक्षा करी|
जोड़ते चलूँ कि यह कारनामा सिंध में औजस्वी दादावीर बाला जाट-देवता जी महाराज की नेतृत्व वाली खाप आर्मी ने धाड़ (धाड़ वही युद्ध-कला है जिसको हिंदी में गुर्रिल्लावार कहते हैं, जिसको मराठों और हैदराबादियों ने जाटों से सीखा और जिसको जाट जब सिख बने तो सिख धर्म में साथ ले गए) लगा के किया था| धाड़ के नाम पर आज भी हरयाणा में कहावत चलती है कि फलानि-धकड़ी बात 'रै के धाड़ पड़गी' या 'के धाड़ मारै सै'।
परन्तु दुःख तो आज इन अंधभक्त बने जाटों को देख के होता है कि जिनके पुरखे खुद जिन्दे देवता कहलाते थे और जिनसे फंडी-पाखंडी-आडंबरी इतना भय खाते थे कि उनकी धरती पे पाखंड फैलाने की तो बात बहुत दूर की अपितु जाट को "जाट जी" और "जाट देवता" कहके बुलाते थे; आज उन्हीं जाटों के वंशज कैसे वशीभूत हुए अविवेकी बन अज्ञानी-अधर्मियों की तरह इनके इशारों पे टूल रहे हैं| और शहरी जाट तो इस मामले ग्रामीणों से भी दो चंदे अगाऊ कूदे पड़े हैं|
खापलैंड के तमाम शहरों के जाट घरों में इक्का-दुक्का को छोड़, क्या मजाल जो एक भी घर ऐसा बचा हो कि जिसके यहाँ माता-मसानी पीढ़ा-चौकी लाएं/लगाएं ना बैठी/पसरी पड़ी हो| वैसे तो कहने को राजी हुए रहेंगे कि म्हारै तो जी आदमी-उदमी किमें ना मानते इन पाखंडां नैं, बस यें लुगाई-पताई ना मानती| मानती किसी ना उनके साथ बैठ के कभी खुद की जाति के टाइटल रहे 'जाट जी' और 'जाट देवता' जैसी बातों का कारण समेत जिक्र करो, उनको शुद्ध जाट सभ्यता और मान्यताओं बारे अवगत करवाओ तो कौन नहीं मानेगी?
याद रखना होगा जाट कौम के युवान और अनुभवी दोनों को, अगर हमें 'जाट जी' और 'जाट देवता' बने रहना है तो अपने पुरखों की हस्ती को याद करना होगा, याद रखना होगा, उसको जिन्दा रखना होगा| जाट का धर्म के साथ तभी रिश्ता सुलभ है जब तक जाट धर्म वालों के लिए "जाट जी" और "जिन्दा देवता" है| जिस दिन या जब-जब इन टाइटलों को छोड़ या भूल इनके वशीभूत या अभिभूत हुए, उस दिन सचली (असली) के भूत बना दिए जाओगे और समाज की क्रूरतम जाति बनने और कहलाने के ढर्रे पर धकेल दिए जाओगे| और जो आज के जाट के हालातों को जानता है वो मेरी भूत वाली पंक्ति से सहमत होयेगा|
चलते-चलते यह और कहूँगा कि धरती पर माँ के सिवाय (आपकी खुद की बीवी ना आने तक, उसके आने के बाद माँ की भी गारंटी नहीं) कोई भी आपकी प्रसंशा, अनुसंशा बिना स्वार्थ के नहीं करता| वह ऐसा या तो बदले में कुछ चाहने हेतु करता है या आपके जरिये अपनी कोई स्वार्थ सिद्धि करता है| इसलिए उसकी प्रशंसा को तो स्वीकार करो परन्तु उसका शिकार कभी मत बनो| और यह बात जिस संदर्भ में मैंने कही है मेरी इस बात को मंडी-फंडी और जाट के ऐतिहासिक रिलेशन को जानने वाला अच्छे से समझता है|
जय जाट देवता!
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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