Monday, 17 August 2015

चलो अहले सनम अब हम तो सफर पे निकलते हैं!

चलो अहले सनम अब हम तो सफर पे निकलते हैं,
जीवन-मरण के दर्पण को तोड़, अजीज शोहरत से मिलते हैं!

एक जीवन बिना सोहबत-ओ-रूह तेरी जिया,
जहर आधे पे पलने की ठेकेदारी का पिया!...
अब उन ठेकेदारों की गिरफ्त से निकल, जीवन-शिखर को चलते हैं!
जीवन-मरण के दर्पण को तोड़, अजीज शोहरत से मिलते हैं!


बलात्कारियों ने ज्यूँ बरपाई हो क्रूरता,
उस भय की भयानक कंदराओं में सिसकता!
जोड़ उन चेतना के चिथड़ों को, अब कंधों पे उठा के चलते हैं।
जीवन-मरण के दर्पण को तोड़, अजीज शोहरत से मिलते हैं!

तू कहाँ इस दुनियां की भीड़ में ऐ जीस्त,
चल कफ़न की सफेदी में ढलते हैं!
हौसलाये-उल्फ़त के ढहते मक़ामों की गर्द से उभरते हैं!
जीवन-मरण के दर्पण को तोड़, अजीज शोहरत से मिलते हैं!

डर की जंजीरों को तोड़ के उल्फ़त से उससे मिल,
चल ख़्वाबों के जख़ीरों से कश्ती के तार बुनते हैं।
यूँ टुकर न देख, यकीं कर चल 'फुल्ले-भगत' उसकी पनाह में चलते हैं।
जीवन-मरण के दर्पण को तोड़, अजीज शोहरत से मिलते हैं!

चलो अहले सनम अब हम तो सफर पे निकलते हैं,
जीवन-मरण के दर्पण को तोड़, अजीज शोहरत से मिलते हैं!

फूल मलिक

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