सांझी सिर्फ एक त्यौहार ही नहीं अपितु "जाटू सोशल इकनोमिक साइकिल" का एक नायाब सिंबल भी रहा है|
मूल हरयाणवी परम्पराओं और समाज में हर त्यौहार को मनाने के आर्थिक इकॉनमी को चालू रखने के कारण प्रमुखता से होते आये हैं| किसानी सभ्यता से बाहुल्य इस समाज में हर त्यौहार या तो आर्थिक लाभ-हानि, लेन-देन से जुड़ा होता आया है या फसल चक्र से या फिर सामाजिक व् वास्तविक मान-मान्यता से जुड़ा होता आया है| काल्पनिक कहानियों के आधार पर घड़े हुए त्योहारों से हरयाणा मुक्त रहा|
अभी शरणार्थियों और विस्थापितों के हमारे यहां पलायन के चलते और खुद हम कट्टर प्रवृति के ना होते हुए इन त्योहारों को मनाने लगे| परन्तु हमें अपने मूल त्यौहार कभी नहीं भूलने चाहियें|
जैसे कि हमारे यहां आज के दिन सांझी विसर्जन के साथ-साथ आज की रात तमाम पुराने मिटटी के बने पानी रखने के लिए प्रयोग होने वाले बर्तन गलियों में फेंक के फोड़े जाया करते थे, जैसे मटका, माट आदि| और इसका कुम्हार की इकॉनमी से जुड़ा कारण हुआ करता| साल में एक बार यह पुराने हो चुके बर्तन फोड़ते आये हैं हम| क्योंकि इसी वक्त कुम्हार के चाक से बने नए बर्तन पक के तैयार हो जाया करते और उसकी बिक्री हो इसलिए हर घर पुराने बर्तन तोड़ दिया करता था|
हालाँकि सारे बर्तन नहीं तोड़े जाया करते, परन्तु कुम्हार को उसकी इकॉनमी चलाने हेतु सिंबॉलिक परम्परा बनी रहे, इसलिए हर घर कुछ बर्तन या जो वाकई में जर्जर हो चुके होते, उनको जरूर फोड़ा करता| और कुम्हार को उसके बिज़नेस की आस्वस्तता जरूर झलकाया करता|
खुद मैंने बचपन में मेरी बुआओं के साथ घर के पुराने मटके गलियों में फोड़ते देखा भी है और फोड़े भी हैं| इसको "जाटू सोशल इकनोमिक साइकिल" भी कहा करते हैं| मुझे विश्वास है कि जो चालीस-पचास की उम्र के हरयाणवी फ्रेंड मेरी लिस्ट में हैं वो मेरी इस बात से सहमत भी करेंगे|
ठीक इसी प्रकार हमारे यहां खेतों में गन्ना पकने के वक्त पहला गन्ना तोड़ के लाने पे दिए जलाये जाते थे, परन्तु इसको अवध-अयोध्या से इम्पोर्टेड दिवाली के साथ रिप्लेस करवा दिया गया|
बसंत-पंचमी तो सब जानते हैं कि सरसों पे पीले फूल आने की ख़ुशी में मनता आया है|
बैशाखी गेहूं की फसल पकने की ख़ुशी में मनती आई है|
आप सभी को शुद्ध हरयाणवी त्यौहार सांझी विसर्जन की बधाई और अवध-अयोध्या से इम्पोर्टेड त्यौहार दशहरे की भी शुभकामनायें!
जय योद्धेय! - फूल मलिक
मूल हरयाणवी परम्पराओं और समाज में हर त्यौहार को मनाने के आर्थिक इकॉनमी को चालू रखने के कारण प्रमुखता से होते आये हैं| किसानी सभ्यता से बाहुल्य इस समाज में हर त्यौहार या तो आर्थिक लाभ-हानि, लेन-देन से जुड़ा होता आया है या फसल चक्र से या फिर सामाजिक व् वास्तविक मान-मान्यता से जुड़ा होता आया है| काल्पनिक कहानियों के आधार पर घड़े हुए त्योहारों से हरयाणा मुक्त रहा|
अभी शरणार्थियों और विस्थापितों के हमारे यहां पलायन के चलते और खुद हम कट्टर प्रवृति के ना होते हुए इन त्योहारों को मनाने लगे| परन्तु हमें अपने मूल त्यौहार कभी नहीं भूलने चाहियें|
जैसे कि हमारे यहां आज के दिन सांझी विसर्जन के साथ-साथ आज की रात तमाम पुराने मिटटी के बने पानी रखने के लिए प्रयोग होने वाले बर्तन गलियों में फेंक के फोड़े जाया करते थे, जैसे मटका, माट आदि| और इसका कुम्हार की इकॉनमी से जुड़ा कारण हुआ करता| साल में एक बार यह पुराने हो चुके बर्तन फोड़ते आये हैं हम| क्योंकि इसी वक्त कुम्हार के चाक से बने नए बर्तन पक के तैयार हो जाया करते और उसकी बिक्री हो इसलिए हर घर पुराने बर्तन तोड़ दिया करता था|
हालाँकि सारे बर्तन नहीं तोड़े जाया करते, परन्तु कुम्हार को उसकी इकॉनमी चलाने हेतु सिंबॉलिक परम्परा बनी रहे, इसलिए हर घर कुछ बर्तन या जो वाकई में जर्जर हो चुके होते, उनको जरूर फोड़ा करता| और कुम्हार को उसके बिज़नेस की आस्वस्तता जरूर झलकाया करता|
खुद मैंने बचपन में मेरी बुआओं के साथ घर के पुराने मटके गलियों में फोड़ते देखा भी है और फोड़े भी हैं| इसको "जाटू सोशल इकनोमिक साइकिल" भी कहा करते हैं| मुझे विश्वास है कि जो चालीस-पचास की उम्र के हरयाणवी फ्रेंड मेरी लिस्ट में हैं वो मेरी इस बात से सहमत भी करेंगे|
ठीक इसी प्रकार हमारे यहां खेतों में गन्ना पकने के वक्त पहला गन्ना तोड़ के लाने पे दिए जलाये जाते थे, परन्तु इसको अवध-अयोध्या से इम्पोर्टेड दिवाली के साथ रिप्लेस करवा दिया गया|
बसंत-पंचमी तो सब जानते हैं कि सरसों पे पीले फूल आने की ख़ुशी में मनता आया है|
बैशाखी गेहूं की फसल पकने की ख़ुशी में मनती आई है|
आप सभी को शुद्ध हरयाणवी त्यौहार सांझी विसर्जन की बधाई और अवध-अयोध्या से इम्पोर्टेड त्यौहार दशहरे की भी शुभकामनायें!
जय योद्धेय! - फूल मलिक
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