Saturday, 10 October 2015

मोहन भागवत, जाति अभी जिन्दा है!

दनकौर (नोएडा) में हिन्दू दलित परिवार को हिन्दुओं द्वारा नग्न किये जाने की (कई लोग कह रहे हैं कि वो खुद नग्न हुए थे, फिर भी कोई यूँ-ही बैठे-बिठाये तो नग्न नहीं हो जायेगा, कुछ तो उंच-नीच का पेंच उलझा ही  होगा)  तालिबानी उत्पीड़न की क्षुब्धता विश्व के कौनों-कौनों तक गूंजी है| यूरोप वाले इसको "हिन्दू तालिबान" व् "हिन्दू सऊदी" तक कहने लग गए हैं|

पिछले महीने ही आरएसएस और मोहन भागवत वक्तव्य देते हैं कि नौकरियों में जातीय आधार के आरक्षण की पुनर्विवेचना होनी चाहिए| क्योंकि आपको जातीय आरक्षण देश पर कलंक लगता है और दावा करते हैं कि इससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की छवि नहीं बन पा रही है| जबकि कहानी उल्टी है, आपकी काल्पनिकता से बिलकुल उल्टी|

दादरी (गाजियाबाद) और दनकौर (नोएडा) की घटनाएं चीख रही हैं कि धर्म और जातीय कटटरता और फूहड़ता अभी जिन्दा हैं| 'हिन्दू एकता और बराबरी' एवं 'हिन्दू बटेगा, देश घटेगा' जैसे स्लोगन्स ढकोसला हैं| और दनकौर की घटना साक्षी है इस बात की| एक पशु के नाम पर उदंडता फ़ैलाने वाले हिन्दुओं के समक्ष ही एक हिन्दू दलित परिवार को सरेआम नग्न किया जा रहा था या वह खुद हो रहा था और किसी हिन्दू का उस परिवार को या उसको नग्न करने वालों के खिलाफ खून नहीं खोला|

दूसरी तरफ एक तथाकथित हिन्दू-हृदय सम्राट संगीत सोम खुद जब एक बूचड़खाने जिसमें की गाय भी कटती हैं के डायरेक्टर निकलते हैं तो यही तथाकथित हिन्दू व् इनके धर्माधिकारी तक भी चूं तक नहीं करते। कम से कम यह आर्टिकल लिखे जाने तक ऐसी कोई खबर नहीं की किसी गाय के भगत ने चूं तक भी किया हो इस खुलासे पे।

यह कैसा धर्म है और कैसी इसकी शिक्षा कि इंसानी अपमान पे जिसके खून में कोई हलचल नहीं होती वो जानवरों के गोबर-मूत पे किन्हीं तालिबानियों की भांति झींगा-लाला-हु-हु झिँगाने लगते हैं|

मैं किसी को आईना नहीं दिखाना चाहता, मुझे तो इनके ड्रामों की रग-रग का पता है| परन्तु मानवता कहीं रोती है या रूलती है तो अंतर्मन क्रंदन करने लगता है|

आखिर लोग कब समझेंगे कि "हिन्दू" नाम का कोई धर्म नहीं (सुप्रीम कोर्ट तक कह चुका है कि हिन्दू नाम का कोई धर्म नहीं) , "हिन्दू" नाम की कोई स्थाई सोच नहीं| "हिन्दू" शब्द कोरी एक राजनीति है, इसका धर्म-इंसानियत-सभ्यता-जिम्मेदारी से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं| "हिन्दू" नाम के पार्सल में आज भी आपको ना सिर्फ धर्म अपितु जातिवाद का जहर ही पिलाया जा रहा है| तभी तो एक पशु के खाने की अफवाह मात्र पर किसी संगीत की धुन की भांति सहायता का सोमरस पिलाने वालों से ले रण के सुरेश बनने वाले "हिन्दू-हृदय सम्राटों" के लावलश्कर तो क्या उनके संदेश तक 'दनकौर' नहीं पहुंचे| यहां तक दलित-पिछड़ों के मॉडर्न-ब्रांड मसीहा महाशय श्री राजकुमार सैनी तक ने एक शब्द अभी तक इसके खंडन पर नहीं बोला|

'पापी के मन में डूम का ढांढा' वाली बात है यह तो श्रीमान भागवत| स्पष्ट है कि 'दनकौर' जैसी घटना अपने आपमें इस बात की पुनर्विवेचना है कि आज भी इस देश में आरक्षण और वो भी आर्थिक या शैक्षणिक नहीं अपितु सामाजिक आरक्षण क्यों जरूरी है|

दलित और किसान 'जातिवाद' को समझें और इस जातीय जहर को इसको लिखने-घड़ने वालों की किताबों तक में ही समेट दो या फिर उनके ही ऊपर उड़ेल दो| क्योंकि मोहन भागवत की तो बाट जोहना मत कि जैसे उन्होंने "नौकरी आरक्षण" की पुनर्विवेचना की कह दी वो कभी सपनों में भी "जातिवाद" की पुनर्विवेचना या इसको समाज से हटाने की कहेंगे या इसमें बसी जातीय-वर्णीय बंटवारे की डंकनी सोच से इसको मुक्त कर पाएंगे अथवा करने की कहेंगे| उनके तो खुद के संगठन में आजतक स्वर्ण से तले कोई प्रधान नहीं बन पाया।

किसान वर्ग की जातियों को यह खेल समझना होगा कि जब आप अपनी वास्तविक "अन्नदेवता" वाली उच्चता (जिसके आगे धर्म भी नतमस्तक है) को छोड़ इनके हिन्दुवाद की अव्यवहारिक व् असामाजिक छद्म उच्चता ओढ़ते हो तो कैसे खुद को दलित के खिलाफ खड़ा कर लेते हो|

इस वायरल का असर यहीं तक थम जावे तो काम चल भी जावे, परन्तु असली खेल तो इससे आगे होवे है| उंच-नीच के नाम पर बंटे आप दलित-किसान को फिर यही जातिवादी आपको वोटों के दो धड़ों के रूप में बड़ी सहजता से प्रयोग करते हैं|

जातिवाद को अपने समाज, दिलों और मस्तिष्कों से निकाल के बाहर करो क्योंकि यह सिवाय "यूज एंड थ्रो" की न्यूनतम दर्जे की अमानवीय-हिंसक राजनीति के कुछ नहीं|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

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