गाय जैसे पशु के लिए तणे-तुड़ाने वाले, उनको गौहत्थों के बाड़ों से छुड़ाने हेतु त्राहिमाम मचाने वाले धर्म के ठेकेदारो, यह विधवा-आश्रमों वाले बाड़ों से विधवा औरतों को कब छोड़ोगे? कब विधवाओं का जीवन इन बाड़ों में सड़ाना बंद करोगे?
अब वक्त आ गया है कि विधवा-आश्रमों की कुप्रथा का अंत हो| गंगोत्री से ले हुगली तक के नदी घाटों और वृन्दावन जैसे विधवा आश्रमों को समूल नष्ट किया जाए| विधवा को उसके पति की सम्पत्ति से बेदखल कर धर्म के नाम पर आजीवन इन बाड़ों में सड़ाना अब बंद हो|
विधवा-आश्रम जीवन तो सती-प्रथा से भी घिनोनी क्रूरता है, सती-प्रथा में औरत कम से कम एक बार में स्वाहा हो के अपना पिंड तो छुड़ा लिया करती| इन विधवा-आश्रमों में तो तिल-तिल तो औरत की जिंदगी फफक-फफक मरती ही है, और अगर कोई इनका जीवन देख ले तो साक्षात धरती पर ही नरक के दर्शन हो जावें|
और कहीं से इसकी शिक्षा और प्रेरणा नहीं मिलती हो तो कम से कम अपने ही धर्म बाहुल्यता के हरयाणा के मूल-हरयाणवियों से ही प्रेरणा ले लो कि कैसे इस धरती के लोग विधवा को भी स्वेच्छा से दूसरा जीवन चुनने की आज़ादी देते आये हैं| विडंबना तो यह है कि भारत में सबसे ज्यादा मानवाधिकारों को व्यवहारिकता में पालने वाले हरयाणा को मीडिया के माध्यम से यही मति के लोग ज्यादा तालिबानी दिखाते हैं जो अपने यहां विधवाओं को चुपचाप आश्रमों में सड़-सड़ के मरने हेतु पशुओं की भांति ठूंस दिया जाना देख-2 के बड़े हुए होते हैं|
क्या व्यक्तिगत अपराधों से बड़े और भयावह इस तरह के सामूहिक अपराध नहीं, और वो भी सरेआम धर्म के नाम पर? क्या बाकी तरह की तमाम करुणा पालने से पहले, मानवता को ठीक से पालने की सुध और सलीका आना सबसे जरूरी नहीं?
मुझे तो अचरज इस बात का होता है कि नेटिव हरयाणवियों की धरती वृन्दावन पर यह बंगाली विधवाओं का आश्रम बन कैसे गया और कैसे इसको यहां चलने दिया जा रहा है| जबकि यहां का स्थानीय हरयाणवी तो अपनी विधवाओं को पुनर्विवाह या स्वेच्छा से दिवंगत पति की सम्पत्ति की मालकिन होते हुए उस पर राज करते व् उसको भोगते हुए स्वाभिमान भरा जीवनयापन का हक देता है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
अब वक्त आ गया है कि विधवा-आश्रमों की कुप्रथा का अंत हो| गंगोत्री से ले हुगली तक के नदी घाटों और वृन्दावन जैसे विधवा आश्रमों को समूल नष्ट किया जाए| विधवा को उसके पति की सम्पत्ति से बेदखल कर धर्म के नाम पर आजीवन इन बाड़ों में सड़ाना अब बंद हो|
विधवा-आश्रम जीवन तो सती-प्रथा से भी घिनोनी क्रूरता है, सती-प्रथा में औरत कम से कम एक बार में स्वाहा हो के अपना पिंड तो छुड़ा लिया करती| इन विधवा-आश्रमों में तो तिल-तिल तो औरत की जिंदगी फफक-फफक मरती ही है, और अगर कोई इनका जीवन देख ले तो साक्षात धरती पर ही नरक के दर्शन हो जावें|
और कहीं से इसकी शिक्षा और प्रेरणा नहीं मिलती हो तो कम से कम अपने ही धर्म बाहुल्यता के हरयाणा के मूल-हरयाणवियों से ही प्रेरणा ले लो कि कैसे इस धरती के लोग विधवा को भी स्वेच्छा से दूसरा जीवन चुनने की आज़ादी देते आये हैं| विडंबना तो यह है कि भारत में सबसे ज्यादा मानवाधिकारों को व्यवहारिकता में पालने वाले हरयाणा को मीडिया के माध्यम से यही मति के लोग ज्यादा तालिबानी दिखाते हैं जो अपने यहां विधवाओं को चुपचाप आश्रमों में सड़-सड़ के मरने हेतु पशुओं की भांति ठूंस दिया जाना देख-2 के बड़े हुए होते हैं|
क्या व्यक्तिगत अपराधों से बड़े और भयावह इस तरह के सामूहिक अपराध नहीं, और वो भी सरेआम धर्म के नाम पर? क्या बाकी तरह की तमाम करुणा पालने से पहले, मानवता को ठीक से पालने की सुध और सलीका आना सबसे जरूरी नहीं?
मुझे तो अचरज इस बात का होता है कि नेटिव हरयाणवियों की धरती वृन्दावन पर यह बंगाली विधवाओं का आश्रम बन कैसे गया और कैसे इसको यहां चलने दिया जा रहा है| जबकि यहां का स्थानीय हरयाणवी तो अपनी विधवाओं को पुनर्विवाह या स्वेच्छा से दिवंगत पति की सम्पत्ति की मालकिन होते हुए उस पर राज करते व् उसको भोगते हुए स्वाभिमान भरा जीवनयापन का हक देता है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
No comments:
Post a Comment