Tuesday, 22 December 2015

घर के झगड़े बीच बाजार खुद ही उघाड़ोगे तो क्या ख़ाक घर संभालोगे!

बहुत सारे जाट भाई, यह सोच के कि जाट कहीं देशवाली, कहीं खादर, कहीं बागड़ी, कहीं बाँगरू, कहीं बृजवासी, कहीं दोआबी, कहीं कौरवी, कहीं पंजाबी जाट, कहीं मेव, कहीं मारवाड़ी, कहीं खड़ी बोली वाले जाटों में बंटे हुए हैं और नाउम्मीदगी के अतिरेक में दूरियां मिटानी असम्भव बता जाते हैं| तो ऐसे भाईयों से एक ही बात कहूँगा कि आप तो दिल्ली के चारों ओर 300-350 कोस की छोटी सी परिधि में होते हुए भी एक नहीं हो सकने की बात करते हैं; मैं कहता हूँ हमें पूरे भारत में फैले ब्राह्मण से सीख लेनी चाहिए| कभी देखा है नागपुरी ब्राह्मण, बनारसी ब्राह्मण, तमिल ब्राह्मण, बंगाली ब्राह्मण, गुजराती ब्राह्मण को खुले में ऐसी बातें करते या फैलाते हुए? जबकि उनके तो हमसे भी बड़े मुद्दे हैं, भाषा से ले के क्षेत्र के और रिवाज से ले काज तक के|

इसलिए हमें इन व्यर्थ के भ्रमों में नहीं पड़ते हुए, "यूनिटी इन डाइवर्सिटी" फार्मूला के तहत "मिनिमम कॉमन एजेंडा" के तहत इस बात पे ध्यान देना चाहिए कि हमें एक कौम के तौर पर क्या चाहिए| जब इस पर सोच केंद्रित होगी तो यह 20-30 कोस के जो बैरियर हम खुद ही लगाये बैठे हैं, यह दूर-दूर तक भी नजर नहीं आएंगे|

आज जाट समाज की दिक्क्त क्षेत्री और भाषाई बैरियर्स नहीं हैं अपितु कौम के स्तर के कॉमन एजेंडों की कमी हो चली है हमारे यहां, इसलिए ऐसी सोचें पनपने लगी हैं| एजेंडे सोचो, कौम के भले का होगा तो भारत के किसी भी कोने में बैठा जाट दौड़ा चला आएगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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