Wednesday, 23 December 2015

एशियाई प्लूटो चिरकाल कूटनीतिज्ञ अफ़लातून महाराजाधिराज 'सूरजमल' सिनसिनवार, भरतपुर (लोहागढ) को उनकी पुण्य तिथि (25 दिसंबर, 1763) पर सत-सत नमन!

जयपुर के राजा ईश्वरी सिंह ने जाट नरेश ठाकुर बदन सिंह से जब कुछ इस तरह सहायता मांगी:

“करी काज जैसी करी गरुड ध्वज महाराज,
पत्र पुष्प के लेत ही थै आज्यो बृजराज|”


तो अपनी यायावरी-यारी निभाने हेतु ठाकुर साहब के आदेश पर कुंवर सूरजमल ने जब 3 लाख 30 हजार सैनिकों से सजी 7-7 सेनाओं {पेशवा मराठा, मुग़ल नवाब शाह, राजपूत (राठौर, सिसोदिया, चौहान, खींची, पंवार)} को मात्र 20 हजार सैनिकों के दम पर बागरु (मोती-डुंगरी), जयपुर के मैदानों में धूळ-आँधी-बरसात-झंझावात के बीच 3 दिन तक गूंजी गगनभेदी टंकारों के मध्य हुए महायुद्ध में अकेले ही पछाड़ा तो समकालीन कविराज कुछ यूँ गा उठे:

ना सही जाटणी ने व्यर्थ प्रसव की पीर,
गर्भ से उसके जन्मा सूरजमल सा वीर|
सूरजमल था सूर्य, होल्कर उसकी छाहँ,
दोनों की जोड़ी फबी युद्ध भूमि के माह||

जाटों से संधि कर, जाटों को ही धोखे में रख दिल्ली अफगानों (अब्दाली) से जीत, जाट राज्य को सौंपने की अपेक्षा मुग़लों को ही देने की छुपी योजना रखने वाले महाराष्ट्री पेशवाओ की चाल को अपनी कुटिल बुद्धि से पहचान, अपने आप पर पेशवाओं द्वारा बिछाए बंदी बनाने के जाल को तोड़ निकल आने वाला वो सूरज सुजान, जब ले सेना रण में निकलता था तो धुर दिल्ली तक मुग़ल भी कह उठते थे:

तीर चलें, तलवार चलें, चलें कटारें इशारों तैं,
अल्लाह-मियां भी बचा नहीं सकदा, जाट भरतपुर आळे तैं!

ऐसी रुतबा-ए-बुलंदी थी लोहागढ़ के उस लोहपुरुष की!

खैर, जाटों का बुरा सोचने वाले महाराष्ट्री पेशवाओं को पानीपत में सबक मिल ही गया था| और महाराजा सूरजमल ने फिर भी अपनी राष्ट्रीयता निभाते हुए, पेशवाओं के दुश्मन (अब्दाली) से दुश्मनी मोल लेते हुए, पानीपत के घायलों की मरहमपट्टी कर, सकुशल महाराष्ट्र छुड़वाया|

परन्तु आजकल फिर उधर के ही नागपुर के स्वघोषित राष्ट्रवादी पेशवा दोबारा से जाटों की ताकत और अहमियत को नकारने की गलती दोहरा रहे हैं| भगवान सद्बुद्धि दे इनको, आमीन!

ऐसी नींव और दुर्दांत दुःसाहस की परिपाटी रख के गया था वो सिंह-सूरमा कि आगे चल 1805 में जिनके राज में सूरज ना छिपने की कहावतें चलती थी उन अंग्रेजों को आपके वंशज महाराजा रणजीत सिंह (जाटों के यहां दो रणजीत हुए हैं, एक ये वाले और दूसरे पंजाबकेसरी महाराज रणजीत सिंह) ने 1-2 नहीं बल्कि पूरी 13 बार पटखनी दी थी और इतना खून बहाया था गौरों का कि:

"हुई मसल मशहूर विश्व में, आठ फिरंगी, नौ गौरे!
लड़ें किले की दीवारों पर, खड़े जाट के दो छोरे!"

और क्योंकि इस भिड़ंत ने अंग्रेजों के इतने शव ढहाये थे कि कलकत्ते में बैठी अंग्रेजन लेडियां, शौक मनाती-मनाती अपने आँसू पोंछना भी भूल गई थी| उनका विलाप करना और शोक-संतप्त होना पूरे देश में इतना चर्चित हुआ था कि कहावत चली कि:

"लेडी अंग्रेजन रोवैं कलकत्ते में"।

और जाटों के दोनों रणजीतों का जिक्र आज तलक भी जाटों के यहां जब ब्याह के वक्त लड़के को बान बिठाया जाता है तो ऐसे गीत गा के किया जाता है कि:

"बाज्या हो नगाड़ा म्हारे रणजीत का!"

जी हाँ, यह नगाड़ा वाकई में बाजा था, जिसने अंग्रेजों का भ्रम तोड़ के रख दिया था|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

 

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