पच्चीस वर्ष के रोहित, जो एक पी.एच.डी. शोधार्थी थे, ने वर्णवाद और
जातिवाद से सिंचित राष्ट्रवादी विचारधारा के दबाव व् राजनीति के चलते
हैदराबाद विश्वविद्यालय में आत्महत्या कर ली। ऐसे ही गए साल कुछ दिनों पहले
एम.डी.यू. रोहतक में बाबा साहेब आंबेडकर पर ए.बी.वी.पी. ने कांफ्रेंस के
लिए आयोजित हॉल में बाबा साहेब पर कांफ्रेंस नहीं होने दी, जिसके साक्षी
यूनियनिस्ट मिशन के कई यौद्धेय भी बने थे। मैं रोहित की किलिंग को दूसरे महर्षि संभूक की राम द्वारा हत्या और द्रोण द्वारा दूसरे एकलव्य का अँगूठा मांग लिए जाने बराबर मानता हूँ।
हैदराबाद की तरफ का तो ज्यादा नहीं जानता, परन्तु ऐसे इन्सिडेंट्स से हरयाणा में खासकर एक जो चीज खुल के अब दलित-पिछड़े समुदाय के सामने आ रही है वो यह कि जाट इतना भी बुरा समाज नहीं, जितना की मंडी-फंडी ने झूठे-सच्चे प्रचार करके दलित-पिछड़े को दिखाया। कई दलित मित्रों से बात होती रहती है तो कहते हैं कि जाट नाम का तो हव्वा ही ज्यादा खड़ा कर रखा था, हमारे असली दुश्मन तो यह मंडी-फंडी ही हैं। सरकारी नौकरियों में हमारा बैकलॉग भी मुख्यत: यह मंडी-फंडी खाते हैं।
जाट के यहाँ तो हमें रोजगार से ले पारिवारिक साझापन व् संवेदना तक मिलती रही है, परन्तु यह लोग तो आज भी वर्णवाद और जातिवाद से परे हमसे व्यवहार करने तक को राजी नहीं। जाट से तो 90% झगड़े कारोबारी रहे, जो कॉर्पोरेट के बॉस और कर्मचारियों तक में होते हैं, परन्तु मंडी-फंडी तो मानसिक रूप से दबाता है। आज भी सर्वजनिक स्थलों पर चढ़ने-उतरने तक पर बैन लगाये रखना चाहता है।
चलो अच्छा है गैर-जाट सीएम आने से दोहरे फायदे होते दिख रहे हैं, एक तो हरयाणा में भी दलित-पिछड़ों के ऊपर पड़ा आवरण हट के उनको असली दुश्मन नजर आने लगा है और दूसरा सुनता हूँ कि जाट को भी समझ आने लगा है कि जाट एकता कितनी जरूरी है। राजनैतिक पार्टी प्रतिबद्धता से जरूरी व् ऊपर कौमी-एकता है। बस जो जाट जातिवाद और वर्णवाद को ढोते हैं वो इसको छोड़ के अपनी शुद्ध सामाजिक धर्म-सम्प्रदाय से रहित 'खाप-परम्परा' की परिपाटी पर आ जावें तो इनका भी शुद्धिकरण हो जावे। खाम्खा जातिवाद के उस कचरे को ढोते रहते हैं जो ना इन्होनें रचा और जो ना इनकी मूल सभ्यता और खून का वह अंग। अपितु इसको ढोने का जाट को नुकसान ज्यादा उठाना पड़ता है, क्योंकि फिर मंडी-फंडी अपने इस कचरे के लिए दलित-पिछड़े के आगे जाट को ही जिम्मेदार बना के दिखाता है।
और यह कचरा ही सबसे मूल कारण है हरयाणा में 'जाट बनाम नॉन-जाट' अखाड़े सजाये जाने के पीछे। जिस दिन जाट (हालाँकि 50% से अधिक जाट इसको नहीं ढोते) ने मंडी-फंडी का रचा यह वर्ण व् जातिवाद का कचरा ढोना छोड़ दिया, उस दिन मंडी-फंडी के पास कोई वजह ही नहीं बचेगी कि वो दलित और पिछड़ों में जाट को बदनाम कर सके।
कभी सर छोटूराम, चौधरी चरण सिंह, सरदार प्रताप सिंह कैरों के जमाने हुआ करते थे जब जाट और मंडी-फंडी में सीधी टक्कर होती थी; परन्तु आज स्थिति में एक बदलाव बनता जा रहा है। हरयाणा में मंडी-फंडी के निशाने पर तो आज भी जाट ही है परन्तु मंडी-फंडी अब जाट से ज्यादा दलित-पिछड़े के सीधे निशाने पे आ गया है।
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
हैदराबाद की तरफ का तो ज्यादा नहीं जानता, परन्तु ऐसे इन्सिडेंट्स से हरयाणा में खासकर एक जो चीज खुल के अब दलित-पिछड़े समुदाय के सामने आ रही है वो यह कि जाट इतना भी बुरा समाज नहीं, जितना की मंडी-फंडी ने झूठे-सच्चे प्रचार करके दलित-पिछड़े को दिखाया। कई दलित मित्रों से बात होती रहती है तो कहते हैं कि जाट नाम का तो हव्वा ही ज्यादा खड़ा कर रखा था, हमारे असली दुश्मन तो यह मंडी-फंडी ही हैं। सरकारी नौकरियों में हमारा बैकलॉग भी मुख्यत: यह मंडी-फंडी खाते हैं।
जाट के यहाँ तो हमें रोजगार से ले पारिवारिक साझापन व् संवेदना तक मिलती रही है, परन्तु यह लोग तो आज भी वर्णवाद और जातिवाद से परे हमसे व्यवहार करने तक को राजी नहीं। जाट से तो 90% झगड़े कारोबारी रहे, जो कॉर्पोरेट के बॉस और कर्मचारियों तक में होते हैं, परन्तु मंडी-फंडी तो मानसिक रूप से दबाता है। आज भी सर्वजनिक स्थलों पर चढ़ने-उतरने तक पर बैन लगाये रखना चाहता है।
चलो अच्छा है गैर-जाट सीएम आने से दोहरे फायदे होते दिख रहे हैं, एक तो हरयाणा में भी दलित-पिछड़ों के ऊपर पड़ा आवरण हट के उनको असली दुश्मन नजर आने लगा है और दूसरा सुनता हूँ कि जाट को भी समझ आने लगा है कि जाट एकता कितनी जरूरी है। राजनैतिक पार्टी प्रतिबद्धता से जरूरी व् ऊपर कौमी-एकता है। बस जो जाट जातिवाद और वर्णवाद को ढोते हैं वो इसको छोड़ के अपनी शुद्ध सामाजिक धर्म-सम्प्रदाय से रहित 'खाप-परम्परा' की परिपाटी पर आ जावें तो इनका भी शुद्धिकरण हो जावे। खाम्खा जातिवाद के उस कचरे को ढोते रहते हैं जो ना इन्होनें रचा और जो ना इनकी मूल सभ्यता और खून का वह अंग। अपितु इसको ढोने का जाट को नुकसान ज्यादा उठाना पड़ता है, क्योंकि फिर मंडी-फंडी अपने इस कचरे के लिए दलित-पिछड़े के आगे जाट को ही जिम्मेदार बना के दिखाता है।
और यह कचरा ही सबसे मूल कारण है हरयाणा में 'जाट बनाम नॉन-जाट' अखाड़े सजाये जाने के पीछे। जिस दिन जाट (हालाँकि 50% से अधिक जाट इसको नहीं ढोते) ने मंडी-फंडी का रचा यह वर्ण व् जातिवाद का कचरा ढोना छोड़ दिया, उस दिन मंडी-फंडी के पास कोई वजह ही नहीं बचेगी कि वो दलित और पिछड़ों में जाट को बदनाम कर सके।
कभी सर छोटूराम, चौधरी चरण सिंह, सरदार प्रताप सिंह कैरों के जमाने हुआ करते थे जब जाट और मंडी-फंडी में सीधी टक्कर होती थी; परन्तु आज स्थिति में एक बदलाव बनता जा रहा है। हरयाणा में मंडी-फंडी के निशाने पर तो आज भी जाट ही है परन्तु मंडी-फंडी अब जाट से ज्यादा दलित-पिछड़े के सीधे निशाने पे आ गया है।
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
No comments:
Post a Comment