किसी ने सिर्फ किले बनाये, तो किसी ने सिर्फ मंदिर!
किसी के यहां सिर्फ राजे हुए तो किसी के यहां सिर्फ पुजारी।
राजा-यौद्धेय-पंचायती, तीनों जिसके यहां हुए वो खाप सभ्यता हमारी।
राजा किले पे गर्व करे, करे खाप चौपाल पे और यौद्धेय करे गढ़ियों पे।
पूरे भारत में एक इकलौती खाप सभ्यता है जिसने किलों-मंदिरों से बढ़ के चौपालें बनाई। यह वो दर्श हैं जहां युगों-युगों से निशुल्क और बिना तारीख पे तारीख का ताबड़तोड़ न्याय मिलता रहा है। चौपालों के सभागारों में समाज के समाजों के बड़े से बड़े झगड़े अमन-चैन की रौशनी में बैठ के सुलझते आये हैं। गाँवों के गाँव के उजड़ने के बैर इनमें निमटते रहे हैं। राजा-महाराजा-नवाब-बादशाह तक इन दर्शों पर शीश नवाते रहे हैं।
जिस 'सोशल ज्यूरी' के दम पर अमेरिका-कनाडा-ऑस्ट्रेलिया-फ्रांस से ले के बड़े-बड़े माने हुए यूरोपियन देशों की न्याय व्यवस्था चलती है, उनके जैसा ग्लोबल स्टैण्डर्ड का यह सिस्टम इनसे भी सदियों पहले से भारत में रहा और हमारी 'खाप-सभ्यता' का रहा, जो इन चौपालों के जरिये चलता आया। पूरे भारत में ऐसे सभागार खापलैंड को छोड़ के कहीं नहीं हैं। विदेशों में जैसे कि यूरोप-अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया में यह 'सेंट्रल-हॉल' तो कहीं 'होटल-दू-विल' के नाम से मिलते हैं। यह ग्लोबल चरित्र की परिपाटी का भारत में खाप की चौपालों से मेल उन कारणों में से एक प्रमुख कारण है जिसकी वजह से खाप-सभ्यता का ग्लोबल स्टैण्डर्ड का चरित्र उभर के सामने आता है|
चौपाल पे हर धर्म-सम्प्रदाय का प्राणी चढ़ता-उतरता रहा है| चौपाल के चबूतरे पे आया दान-चंदा ऐसे कार्यों में लगता है जो सर्वहित के हों और सामाजिक हों और सबके सामने हों। जबकि जगत में ऐसे भी चंदे-दान ऐंठने के अड्डे हैं जो सिर्फ और सिर्फ एक जाति-विशेष के ही अधिकार क्षेत्र के होते हैं और उनको गए दान का यह तक पता नहीं लगता कि वो गया या लगा किस खाते।
यही वो कुछ मूलभूत अंतर हैं जिनकी वजह से मंडी-फंडी चाहते हैं कि जल्द से जल्द खाप और इसकी चौपाल जैसी स्वर्णिम संस्थाएं खत्म हो जावें। और इसीलिए इनका बाहुल्य व् निर्देशित मीडिया, खाप की अनूठी कृतियों और कार्यों पर से ध्यान हटवा, 'चूचियों में हाड ढूंढने' की भांति कभी खापों को हॉनर किलिंग तो कभी लिंगानुपात के मसलों से जोड़ता रहता है। ताकि एक तरफ खाप समाज इन चीजों में उलझा रहे और दूसरी तरफ चौपाल जैसी स्वर्णिम कलाकृतियों और परम्पराओं को संभालने का अवसर ही ना मिले और यह स्व:स्व: खात्मे के कगार पर पहुँच जावें। यह "कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना" वाली परिपाटी पे रचा जा रहा और खेला जा रहा खेल है।
यही खाप-सिस्टम की वो उच्च मान्यताएं हैं जिनकी वजह से एंटी-खाप मंडी-फंडी को यह फूटी आँख नहीं भाते। क्योंकि इनके लिए एक चौपाल के बनाने में व्यय होने वाला पैसा, उस पैसे को इनको मिल सकने की संभावना का खात्मा लगता है| इनको यह कभी नहीं दीखता कि न्याय और सामाजिक विवेचना का दर समाज की सबसे ऊँची और पहली जरूरत होती है।
पोस्ट में जो विभिन्न चौपालों की तस्वीरें साझी कर रहा हूँ, यह वास्तुकला के वो अनूठे उदाहरण हैं जो सोरम, मुज़फ्फरनगर से ले धनाणा, भिवानी, अबोहर से ले अमरोहा और अम्बाला से आगरा-भरतपुर और इनसे भी आरपार जहाँ तक खाप सोशल ज्यूरी सिस्टम चलता है वहाँ-वहाँ खाप-सभ्यता के ग्लोबल स्टैण्डर्ड की होने के टेस्टिमोनी रूप में खड़ी हैं।
फोटोज तो मैं इसमें शहरों में बनी चौपालों की भी डालना चाहता था। परन्तु क्योंकि लोगों ने इनको शहरों में जाते ही "चौपाल" की जगह कहीं "धर्मशाला" तो कहीं "भवन" कहना-लिखना शुरू कर दिया है इसलिए नहीं डाल रहा। पंरतु एक सुझाव जरूर सूझ रहा है कि अगर हमको अपनी चौपाल परम्परा, इस नाम और इसकी यूनीफ़ॉर्मिटी को जिन्दा और बरकरार रखना है तो खाप-विचारधारा के समाजों को "भवन" व् "धर्मशालाओं" से ज्यादा शहरों में भी "चौपालें" बनानी चाहियें। जहां "धर्मशाला" और "भवन" जाति सम्प्रदाय की सूचक हैं, वहीँ "चौपाल" सर्वसमाज की सूचक हैं।
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
किसी के यहां सिर्फ राजे हुए तो किसी के यहां सिर्फ पुजारी।
राजा-यौद्धेय-पंचायती, तीनों जिसके यहां हुए वो खाप सभ्यता हमारी।
राजा किले पे गर्व करे, करे खाप चौपाल पे और यौद्धेय करे गढ़ियों पे।
पूरे भारत में एक इकलौती खाप सभ्यता है जिसने किलों-मंदिरों से बढ़ के चौपालें बनाई। यह वो दर्श हैं जहां युगों-युगों से निशुल्क और बिना तारीख पे तारीख का ताबड़तोड़ न्याय मिलता रहा है। चौपालों के सभागारों में समाज के समाजों के बड़े से बड़े झगड़े अमन-चैन की रौशनी में बैठ के सुलझते आये हैं। गाँवों के गाँव के उजड़ने के बैर इनमें निमटते रहे हैं। राजा-महाराजा-नवाब-बादशाह तक इन दर्शों पर शीश नवाते रहे हैं।
जिस 'सोशल ज्यूरी' के दम पर अमेरिका-कनाडा-ऑस्ट्रेलिया-फ्रांस से ले के बड़े-बड़े माने हुए यूरोपियन देशों की न्याय व्यवस्था चलती है, उनके जैसा ग्लोबल स्टैण्डर्ड का यह सिस्टम इनसे भी सदियों पहले से भारत में रहा और हमारी 'खाप-सभ्यता' का रहा, जो इन चौपालों के जरिये चलता आया। पूरे भारत में ऐसे सभागार खापलैंड को छोड़ के कहीं नहीं हैं। विदेशों में जैसे कि यूरोप-अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया में यह 'सेंट्रल-हॉल' तो कहीं 'होटल-दू-विल' के नाम से मिलते हैं। यह ग्लोबल चरित्र की परिपाटी का भारत में खाप की चौपालों से मेल उन कारणों में से एक प्रमुख कारण है जिसकी वजह से खाप-सभ्यता का ग्लोबल स्टैण्डर्ड का चरित्र उभर के सामने आता है|
चौपाल पे हर धर्म-सम्प्रदाय का प्राणी चढ़ता-उतरता रहा है| चौपाल के चबूतरे पे आया दान-चंदा ऐसे कार्यों में लगता है जो सर्वहित के हों और सामाजिक हों और सबके सामने हों। जबकि जगत में ऐसे भी चंदे-दान ऐंठने के अड्डे हैं जो सिर्फ और सिर्फ एक जाति-विशेष के ही अधिकार क्षेत्र के होते हैं और उनको गए दान का यह तक पता नहीं लगता कि वो गया या लगा किस खाते।
यही वो कुछ मूलभूत अंतर हैं जिनकी वजह से मंडी-फंडी चाहते हैं कि जल्द से जल्द खाप और इसकी चौपाल जैसी स्वर्णिम संस्थाएं खत्म हो जावें। और इसीलिए इनका बाहुल्य व् निर्देशित मीडिया, खाप की अनूठी कृतियों और कार्यों पर से ध्यान हटवा, 'चूचियों में हाड ढूंढने' की भांति कभी खापों को हॉनर किलिंग तो कभी लिंगानुपात के मसलों से जोड़ता रहता है। ताकि एक तरफ खाप समाज इन चीजों में उलझा रहे और दूसरी तरफ चौपाल जैसी स्वर्णिम कलाकृतियों और परम्पराओं को संभालने का अवसर ही ना मिले और यह स्व:स्व: खात्मे के कगार पर पहुँच जावें। यह "कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना" वाली परिपाटी पे रचा जा रहा और खेला जा रहा खेल है।
यही खाप-सिस्टम की वो उच्च मान्यताएं हैं जिनकी वजह से एंटी-खाप मंडी-फंडी को यह फूटी आँख नहीं भाते। क्योंकि इनके लिए एक चौपाल के बनाने में व्यय होने वाला पैसा, उस पैसे को इनको मिल सकने की संभावना का खात्मा लगता है| इनको यह कभी नहीं दीखता कि न्याय और सामाजिक विवेचना का दर समाज की सबसे ऊँची और पहली जरूरत होती है।
पोस्ट में जो विभिन्न चौपालों की तस्वीरें साझी कर रहा हूँ, यह वास्तुकला के वो अनूठे उदाहरण हैं जो सोरम, मुज़फ्फरनगर से ले धनाणा, भिवानी, अबोहर से ले अमरोहा और अम्बाला से आगरा-भरतपुर और इनसे भी आरपार जहाँ तक खाप सोशल ज्यूरी सिस्टम चलता है वहाँ-वहाँ खाप-सभ्यता के ग्लोबल स्टैण्डर्ड की होने के टेस्टिमोनी रूप में खड़ी हैं।
फोटोज तो मैं इसमें शहरों में बनी चौपालों की भी डालना चाहता था। परन्तु क्योंकि लोगों ने इनको शहरों में जाते ही "चौपाल" की जगह कहीं "धर्मशाला" तो कहीं "भवन" कहना-लिखना शुरू कर दिया है इसलिए नहीं डाल रहा। पंरतु एक सुझाव जरूर सूझ रहा है कि अगर हमको अपनी चौपाल परम्परा, इस नाम और इसकी यूनीफ़ॉर्मिटी को जिन्दा और बरकरार रखना है तो खाप-विचारधारा के समाजों को "भवन" व् "धर्मशालाओं" से ज्यादा शहरों में भी "चौपालें" बनानी चाहियें। जहां "धर्मशाला" और "भवन" जाति सम्प्रदाय की सूचक हैं, वहीँ "चौपाल" सर्वसमाज की सूचक हैं।
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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