ईसाई, बुद्ध, मुस्लिम, जैन, सिख कोई धर्म ऐसा नहीं जिसमें उसके संस्थापक, रचयिता शख्स या जमात अपने-आपको हर अपराध-गलती-ग्लानि से ऊपर बताता हो, किसी भी गंभीर से गंभीर अपराध में खुद को दोषी पाया जाना स्वीकार ना करता हो; सिवाय हिन्दू धर्म की मनुस्मृति के| जो कहती है कि एक वर्ग-विशेष चोरी करे, जारी करे, क़त्ल करे, लूट करे चाहे जो अपराध करे वो दंड का प्रतिभागी नहीं होता| वो हर सजा से ऊपर होता है| वो आपसे लूट के खाए, छीन के खाए, धोखे से खाए, वो उसका हक़ है|
दूसरा जो बड़ा अंतर है वो है दान का| हिन्दू धर्म में दान के प्रयोग और बाकी के धर्मों में दान के प्रयोग में जो मूलभेद है वो यह है कि बाकी के धर्मों में उसके तमाम अनुयायियों में बिना किसी पक्षपात के यह पैसा सिर्फ और सिर्फ समरूप तरीके से ना सिर्फ उस धर्म की बौद्धिक अपितु विश्व स्तर की शैक्षणिक योग्यता बढ़ाने पर खर्च किया जाता है| जबकि हिन्दू धर्म में उस पैसे का उपयोग सिर्फ और सिर्फ दान लेने वाले समुदाय के कल्याण हेतु किया जाता है, या फिर जातिपाती का जहर और दंगे बढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाता है| उदाहरण के तौर पर हरयाणा का जाट बनाम नॉन-जाट का अखाडा या फिर दलित उत्पीड़न के बंदोबस्त|
और जब तक धर्म के नाम पर कब्ज़ा जमाये बैठी, इस दो बिन्दुओं पर केंद्रित यह थ्योरी हिन्दू धर्म और भारत देश से मॉडिफाई नहीं की जाएगी, भारत से भ्रष्टाचार युग-युगांतर तक भी खत्म नहीं होगा, चाहे कोई कितने ही अथक प्रयास कर ले|
इसका सीधा सा और मोटा उदाहरण न्यायव्यवस्था में बैठे जजों के मुकदमों को सुलझाने के रवैये से स्पष्ट समझा जा सकता है| हमारे देश के 90% से ज्यादा जज इसी वर्ग से आते हैं जो हर अपराध-गलती-ग्लानि-दोष-सजा से खुद को ऊपर मानते हैं| इससे होता यह है कि किसी मुकदमे में चाहे कितनी तारीखें लग जावें, चाहे कितने ही साल लग जावें, चाहे कोई पक्ष न्याय ना मिलने की वजह से या न्याय में देरी की वजह से आत्महत्या कर लेवे परन्तु इनको यह अपराधबोध कभी नहीं होता कि फलां व्यक्ति ने तुम्हारे द्वारा की गई देरी या विलंबता के चलते ऐसा किया| और यही वजह है कि आज देश में तीन करोड़ से ज्यादा मुकदमे अटके अथवा लटके पड़े हैं|
भारत में जो न्याय व्यवस्था अंग्रेज छोड़ के गए थे जो कि गुलामों के लिए बनाई गई थी, वह मनुस्मृति के लिए यूँ की यूँ फिट बैठी और इन्होनें इसको मॉडिफाई करने में कतई रुचि नहीं ली| क्योंकि एक उपनिवेशिक यानी गुलाम के लिए न्याय की जो नीतियां उन गुलामों पे राज करने वाला बनाता और बरतता है, मनुस्मृति ठीक उसी की वकालत करती है| तो जाहिर सी बात है इसके सिद्धांतों के साये तले पल के देश के सिस्टम में चले जाने वाले लोग, देश को इसके ही अनुसार चलाएंगे और वही हो रहा है|
एक ऐसे देश में जहां एक दिहाड़ी मजदूर से ले फौजी तक की जवाबदेही होती है, एक मैनेजर से ले एक वॉचमैन तक की जवाबदेही होती है, वहाँ एक जज की कोई जवाबदेही नहीं| मुकदमा एक साल चले, दस चले, लटका खड़ा रहे, गवाह मरें, सबूत इधर-उधर हो जावें, कोई जवाबदेही नहीं; क्योंकि यह लोग इस मति से पाले गए होते हैं कि तुमसे तो कोई अपराध हो ही नहीं सकता| तुम तो अपराधी ठहराए ही नहीं जा सकते| जब तक इनके दिमागों से यह विचारधारा नहीं निकलेगी, देश में भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, भाई-भतीजावाद निरंतर चलता रहेगा|
यहां साथ ही मैं यह भी जोड़ दूँ कि भ्रष्टाचार के अनेक रूप हैं, हर देश, समुदाय समाज के हिसाब से भिन्न-भिन्न भी मिलते हैं| परन्तु भारत के भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी जड़ मनुस्मृति से निकलने वाली यह सोच है, जिसकी ऊपर व्याख्या की|
भारत देश से अगर इन बिमारियों को खत्म करना है और अगर हम वाकई में गुलामों वाली न्यायव्यवस्था में नहीं जीना चाहते हैं तो हमें अमेरिका-कनाडा-ऑस्ट्रेलिया-ब्रिटेन-फ्रांस की तर्ज पर 'सोशल ज्यूरी' सिस्टम लागू करना होगा|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
दूसरा जो बड़ा अंतर है वो है दान का| हिन्दू धर्म में दान के प्रयोग और बाकी के धर्मों में दान के प्रयोग में जो मूलभेद है वो यह है कि बाकी के धर्मों में उसके तमाम अनुयायियों में बिना किसी पक्षपात के यह पैसा सिर्फ और सिर्फ समरूप तरीके से ना सिर्फ उस धर्म की बौद्धिक अपितु विश्व स्तर की शैक्षणिक योग्यता बढ़ाने पर खर्च किया जाता है| जबकि हिन्दू धर्म में उस पैसे का उपयोग सिर्फ और सिर्फ दान लेने वाले समुदाय के कल्याण हेतु किया जाता है, या फिर जातिपाती का जहर और दंगे बढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाता है| उदाहरण के तौर पर हरयाणा का जाट बनाम नॉन-जाट का अखाडा या फिर दलित उत्पीड़न के बंदोबस्त|
और जब तक धर्म के नाम पर कब्ज़ा जमाये बैठी, इस दो बिन्दुओं पर केंद्रित यह थ्योरी हिन्दू धर्म और भारत देश से मॉडिफाई नहीं की जाएगी, भारत से भ्रष्टाचार युग-युगांतर तक भी खत्म नहीं होगा, चाहे कोई कितने ही अथक प्रयास कर ले|
इसका सीधा सा और मोटा उदाहरण न्यायव्यवस्था में बैठे जजों के मुकदमों को सुलझाने के रवैये से स्पष्ट समझा जा सकता है| हमारे देश के 90% से ज्यादा जज इसी वर्ग से आते हैं जो हर अपराध-गलती-ग्लानि-दोष-सजा से खुद को ऊपर मानते हैं| इससे होता यह है कि किसी मुकदमे में चाहे कितनी तारीखें लग जावें, चाहे कितने ही साल लग जावें, चाहे कोई पक्ष न्याय ना मिलने की वजह से या न्याय में देरी की वजह से आत्महत्या कर लेवे परन्तु इनको यह अपराधबोध कभी नहीं होता कि फलां व्यक्ति ने तुम्हारे द्वारा की गई देरी या विलंबता के चलते ऐसा किया| और यही वजह है कि आज देश में तीन करोड़ से ज्यादा मुकदमे अटके अथवा लटके पड़े हैं|
भारत में जो न्याय व्यवस्था अंग्रेज छोड़ के गए थे जो कि गुलामों के लिए बनाई गई थी, वह मनुस्मृति के लिए यूँ की यूँ फिट बैठी और इन्होनें इसको मॉडिफाई करने में कतई रुचि नहीं ली| क्योंकि एक उपनिवेशिक यानी गुलाम के लिए न्याय की जो नीतियां उन गुलामों पे राज करने वाला बनाता और बरतता है, मनुस्मृति ठीक उसी की वकालत करती है| तो जाहिर सी बात है इसके सिद्धांतों के साये तले पल के देश के सिस्टम में चले जाने वाले लोग, देश को इसके ही अनुसार चलाएंगे और वही हो रहा है|
एक ऐसे देश में जहां एक दिहाड़ी मजदूर से ले फौजी तक की जवाबदेही होती है, एक मैनेजर से ले एक वॉचमैन तक की जवाबदेही होती है, वहाँ एक जज की कोई जवाबदेही नहीं| मुकदमा एक साल चले, दस चले, लटका खड़ा रहे, गवाह मरें, सबूत इधर-उधर हो जावें, कोई जवाबदेही नहीं; क्योंकि यह लोग इस मति से पाले गए होते हैं कि तुमसे तो कोई अपराध हो ही नहीं सकता| तुम तो अपराधी ठहराए ही नहीं जा सकते| जब तक इनके दिमागों से यह विचारधारा नहीं निकलेगी, देश में भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, भाई-भतीजावाद निरंतर चलता रहेगा|
यहां साथ ही मैं यह भी जोड़ दूँ कि भ्रष्टाचार के अनेक रूप हैं, हर देश, समुदाय समाज के हिसाब से भिन्न-भिन्न भी मिलते हैं| परन्तु भारत के भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी जड़ मनुस्मृति से निकलने वाली यह सोच है, जिसकी ऊपर व्याख्या की|
भारत देश से अगर इन बिमारियों को खत्म करना है और अगर हम वाकई में गुलामों वाली न्यायव्यवस्था में नहीं जीना चाहते हैं तो हमें अमेरिका-कनाडा-ऑस्ट्रेलिया-ब्रिटेन-फ्रांस की तर्ज पर 'सोशल ज्यूरी' सिस्टम लागू करना होगा|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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