"खेती में कुछ नहीं रहा, नौकरी के लिए पढ़ो!"
शहरी और ग्रामीण जाट में अंतर पैदा करने वाली यह ऐसी पंक्ति है जो जाट को बदलनी होगी, इसकी जगह बच्चों को कहो कि
’हर क्षेत्र में जाट कौम का वर्चस्व कायम करना है, इसलिए पढ़ो!
ऐसा क्यों जरूरी है: खेती में कुछ नहीं रहा वाला तर्क दे के पढ़ने के लिए प्रेरित करने वाला तर्क सिमित प्रेरणा और पहुंच वाला है| इसमें वो दूरदर्शी प्रेरणा नहीं जिससे कि शहर में गया जाट, पैसा कमाने से आगे बढ़ के अपनी कौम के वर्चस्व, वैभव हेतु भी कुछ हट के करे, जैसे कि पीछे मुड़ के अपने ग्रामीण जाटों आर्थिक-सामाजिक-शैक्षणिक मसलों की सुध ले| उन्हें लगने लगता है कि माता-पिता, दादा-दादी ने नौकरी और पैसे के लिए ही तो प्रेरित किया था, वो हासिल हो ही गया, सो बैठो आराम से घर में| 90% शहरी जाट की यही कहानी है|
दूसरा यह तर्क अलगाव पैदा करने वाला है, जो कि एक श्राप की भांति भी साबित होता है| एक कहावत है कि कोई भी कार्य छोटा नहीं होता, इसलिए कृषि का कार्य महज इसलिए छोटा या कुछ नहीं रहा वाला कैसे हो सकता है कि किसान को फसलों के भाव नहीं मिलते? निसंदेह अगर ग्रामीण जाट कहो या किसान कहो, वो अपने बच्चों को वर्चस्व के लिए पढ़ने के कहेगा तो कभी न कभी सलफता की सीढ़ी पे चढ़े शहरी जाट को, अपने पुरखे की वर्चस्व वाली बात याद आएगी और वह कोशिश करेगा कि मैं कुछ ऐसा करूँ कि गाँव में बैठे मेरी कौम के ग्रामीण भाईयों को उनकी फसलों के उचित दाम मिल सकें या कृषि दवाइयाँ वगैरह उत्तम व् सही दाम में मिल सकें, आदि-आदि| लेकिन क्योंकि आपको खेती से अलग ही यह कह के किया गया था कि इस कृषि में कुछ नहीं रहा तो किसी भी शहरी जाट में इसके लिए कुछ करने का जज्बा बनने की बजाये, अलगाव पैदा हो जाता है|
और फिर इसके ऊपर लेप लगाते हैं मंडी-फंडी के गुर्गे, कभी धर्म के नाम पर, कभी पाखंड के नाम पर, कभी श्रेष्ठता के नाम पर, कभी धनाढ्यता के नाम पर| और शहर के भोले जाट, अपना ढेर सारा पैसा इनके फंडों के जरिये इनके पेट में उतारते रहते हैं| जबकि अगर इनको गाँव से निकलते वक्त पुरखों ने यह प्रेरणा पकड़ाई होती कि तुम्हें नौकरी-पैसा इसलिए कमाना है ताकि साधन-सम्पन्न होने के बाद अपनी कौम के वर्चस्व के लिए योगदान दे सको तो यह लोग अवश्य अपने ग्रामीण जाटों से वापिस जुड़ने की सोचते|
हालाँकि हाल में हुए जाट-आरक्षण आंदोलन ने ग्रामीण और शहरी जाट को निसंदेह नजदीक ला दिया है| परन्तु इस नजदीकी के और अच्छे नतीजे हासिल करने के लिए जरूरी है कि जड़ों से निकलते वक्त प्रेरणा स्वरूप दी जाने वाली, "खेती में कुछ नहीं रहा, नौकरी के लिए पढ़ो!" पंक्ति की बजाये, "हर क्षेत्र में हमारी कौम का वर्चस्व कायम करना है, इसलिए पढ़ो!" दी जावे|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
शहरी और ग्रामीण जाट में अंतर पैदा करने वाली यह ऐसी पंक्ति है जो जाट को बदलनी होगी, इसकी जगह बच्चों को कहो कि
’हर क्षेत्र में जाट कौम का वर्चस्व कायम करना है, इसलिए पढ़ो!
ऐसा क्यों जरूरी है: खेती में कुछ नहीं रहा वाला तर्क दे के पढ़ने के लिए प्रेरित करने वाला तर्क सिमित प्रेरणा और पहुंच वाला है| इसमें वो दूरदर्शी प्रेरणा नहीं जिससे कि शहर में गया जाट, पैसा कमाने से आगे बढ़ के अपनी कौम के वर्चस्व, वैभव हेतु भी कुछ हट के करे, जैसे कि पीछे मुड़ के अपने ग्रामीण जाटों आर्थिक-सामाजिक-शैक्षणिक मसलों की सुध ले| उन्हें लगने लगता है कि माता-पिता, दादा-दादी ने नौकरी और पैसे के लिए ही तो प्रेरित किया था, वो हासिल हो ही गया, सो बैठो आराम से घर में| 90% शहरी जाट की यही कहानी है|
दूसरा यह तर्क अलगाव पैदा करने वाला है, जो कि एक श्राप की भांति भी साबित होता है| एक कहावत है कि कोई भी कार्य छोटा नहीं होता, इसलिए कृषि का कार्य महज इसलिए छोटा या कुछ नहीं रहा वाला कैसे हो सकता है कि किसान को फसलों के भाव नहीं मिलते? निसंदेह अगर ग्रामीण जाट कहो या किसान कहो, वो अपने बच्चों को वर्चस्व के लिए पढ़ने के कहेगा तो कभी न कभी सलफता की सीढ़ी पे चढ़े शहरी जाट को, अपने पुरखे की वर्चस्व वाली बात याद आएगी और वह कोशिश करेगा कि मैं कुछ ऐसा करूँ कि गाँव में बैठे मेरी कौम के ग्रामीण भाईयों को उनकी फसलों के उचित दाम मिल सकें या कृषि दवाइयाँ वगैरह उत्तम व् सही दाम में मिल सकें, आदि-आदि| लेकिन क्योंकि आपको खेती से अलग ही यह कह के किया गया था कि इस कृषि में कुछ नहीं रहा तो किसी भी शहरी जाट में इसके लिए कुछ करने का जज्बा बनने की बजाये, अलगाव पैदा हो जाता है|
और फिर इसके ऊपर लेप लगाते हैं मंडी-फंडी के गुर्गे, कभी धर्म के नाम पर, कभी पाखंड के नाम पर, कभी श्रेष्ठता के नाम पर, कभी धनाढ्यता के नाम पर| और शहर के भोले जाट, अपना ढेर सारा पैसा इनके फंडों के जरिये इनके पेट में उतारते रहते हैं| जबकि अगर इनको गाँव से निकलते वक्त पुरखों ने यह प्रेरणा पकड़ाई होती कि तुम्हें नौकरी-पैसा इसलिए कमाना है ताकि साधन-सम्पन्न होने के बाद अपनी कौम के वर्चस्व के लिए योगदान दे सको तो यह लोग अवश्य अपने ग्रामीण जाटों से वापिस जुड़ने की सोचते|
हालाँकि हाल में हुए जाट-आरक्षण आंदोलन ने ग्रामीण और शहरी जाट को निसंदेह नजदीक ला दिया है| परन्तु इस नजदीकी के और अच्छे नतीजे हासिल करने के लिए जरूरी है कि जड़ों से निकलते वक्त प्रेरणा स्वरूप दी जाने वाली, "खेती में कुछ नहीं रहा, नौकरी के लिए पढ़ो!" पंक्ति की बजाये, "हर क्षेत्र में हमारी कौम का वर्चस्व कायम करना है, इसलिए पढ़ो!" दी जावे|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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