मेरे एक मित्र अजय कुमार ने आज मेरे को एक फोटो में टैग किया जिसपे लिखा
था कि "समझ नहीं आता भारत 1000 साल तक मुग़लों, गौरों और पुर्तगालियों का
गुलाम कैसे रहा। ....... तब ये दबंग जाट, गुज्जर, पटेल कहाँ रहे थे, शोध का
विषय है?"
इसका बड़े सलीके वाला जवाब है| पर उससे पहले इस सवाल करने वाले से यह जरूर पूछना चाहूंगा कि तूने यह सवाल क्षत्रिय-क्षत्रिय चिल्लाने वालों से और इनके भी ऐसे उस्ताद जिन्होनें इनके पुरखों को 21-21 बार मौत के घाट उतार धरती क्षत्रियविहीन कर दी थी, उनसे क्यों नहीं किया? क्योंकि इसका जवाब देना तो उनको बनता है कि क्यों इन शूरवीरों के रहते हुए देश 1000 साल तक गुलाम रहा?
अब बताता हूँ जाट-गुज्जर क्या कर रहे होते थे ऐसे वक्तों में| आगे का लेख मैं भाई अजय कुमार को सम्बोधित करते हुए लिखूंगा|
भाई अजय कुमार यह मनुवाद की वह थ्योरी है जिसको "किसी को उभरने नहीं देना" कहा जाता है| बिना युद्ध के भी युद्ध जैसे समाज में माहौल रखने, भाई को भाई का बैरी बना के रखना और जाति को जाति का बैरी बना के रखना; यही तो है मनुवाद| क्योंकि जाटों ने "जाट आंदोलन" के जरिये इनके सारे बहम तोड़े हैं और समाज में अपनी खोती जा रही साख का कुछ प्रतिशत (वही साख जिसको यह लोग पिछले डेड दशक से मीडिया, माता की चौकी और बाबाओं के माध्यम से निशाने पर लिए हुए थे) वापिस स्थापित किया है तो यह उसकी खीज में इनका प्रतिकार है|
मनुवाद कोई आपसे हथियार उठा के थोड़े ही लड़ेगा, यह जुबान के शेर होते हैं और जुबान से दुष्प्रचार फैला के अपने लिए राहें तलाशा करते हैं| सो आप इनकी ज्यादा चिंता ना करें| जब तक यह ऐसी हरकतें नहीं करेंगे, तब तक जाट युथ जगेगा थोड़े ही| रही बात इसके जवाब की तो इसमें कोई सच्चाई नहीं|
वैसे तो दर्जनों-सैंकड़ों उदाहरण हैं, परन्तु कुछेक सटीक और सबसे बड़े उदाहरणों से आपको बताता हूँ| आज जो 35 बनाम 1 यानि जाट बनाम नॉन-जाट का माहौल इन लोगों ने खापलैंड पर खड़ा किया हुआ है ठीक ऐसा ही माहौल 8वीं सदी में जाटों के विरुद्ध ब्राह्मण राजा दाहिर ने किया हुआ था, (दाहिर के पिता चच ने जाट राजा से धोखे से राजगद्दी हथियाई थी)। उसने जाटों को चांडाल-शुद्र तक ठहराने हेतु अपने लेखक-विद्वान् ठीक उसी तरह लगा रखे थे जैसे आज एंटी-जाट मीडिया लगा रहता है| सुनने में आता है कि जाटों को हथियार रखना और घोड़े पे चढ़ के चलना भी बैन करवा दिया था| तो ऐसे हालातों में और अतिविश्वास में मद दाहिर के राज्य में अरब के व्यापारियों को बेजवह तंग किया जाने लगा| इसकी खबर वहाँ के खलीफा को लगी तो उसने मुहमद बिन कासिम को अपने व्यापारियों के अधिकारों की रक्षा हेतु 712 ईसवीं में सिंध पर हमला करने को भेजा| अब सोचो एक ऐसे माहौल में जब जाट को हथियार उठाना व् घोड़े पे चलना प्रतिबंधित हो तो एक राज्य की सैन्य-शक्ति की ताकत में कितनी कमी होगी| बिना जाट के दाहिर ने लड़ाई लड़ी और हार गया| परन्तु फिर तब जब दाहिर हारा और राज्य दाहिर के हाथों से चला गया तो जाट बागी हो गए और कराची की बंदरगाह पर कासिम और जाटों की खाप सेना के बीच घमासान हुआ| जाट जीत तो नहीं पाये परन्तु कासिम को इससे काफी नुकसान हुआ| और उसको पीछे हटने पर विचार करना पड़ा| इस बंदरगाह पर हुए युद्ध का जिक्र कई अरब इतिहासकारों की लेखनी में मिलता है, जो स्वीकारते हैं कि सिंध में जाट ना होते तो वो उसी वक्त और भी आगे बढ़ जाते| उस वक्त 5000 के करीब जाटों को बिन कासिम बंदी बना के अरब ले गया था|
ऐसा ही किस्सा 1025 A.D. में सोमनाथ के मंदिर की लूट का है| जब इनके सारे दावे-दम धत्ता करते हुए गजनबी ले चला लूट सोमनाथ के खजाने को; तब देश की इज्जत देश से बाहर ना निकल जाए, उठ आये थे जाट गजनबी को छटी का दूध याद दिलाने को| बाकी इस किस्से में क्या कैसे हुआ वह तो इतिहास का स्वर्णिम पन्ना है, कम से कम जाटों के लिए तो| परन्तु यह तो इतने अहसान फरामोश हैं कि आजतक भी एक बार भी जाट को धन्यवाद स्वरूप भी जो एक शब्द तक इनकी कलमों से फूटा हो तो| वजह, वही इनकी "किसी को उभरने नहीं देना" की नीति|
1398 A.D. में जो तैमूर लंग, जिसके आगे मुहम्मद तुगलक भी हथियार डाल गया था, उसको जाटों-गुज्जरों-दलितों के नेतृत्व वाली सर्वखाप सेना ने ही भारत से भगाया था| गौरी (1206 A.D.) और रज़िया सुल्तान (1240 A.D.) को जाटों ने ही मारा था|
ऐसा ही दूसरा किस्सा पानीपत की तीसरी (1761 A.D.) लड़ाई का है| जब बावजूद महाराजा सूरजमल के सकारात्मक सहयोग के भी ब्राह्मण पेशवा सेनापति सदाशिव राव भाऊ ने महाराजा सूरजमल को ही बंदी बनाने की चेष्टा करके अपनी संकीर्ण और पीठ में छुरा घोंपने की मानसिकता दिखाई|
तो जब-जब जाट ऐसे जौहर करते हैं तो इनकी कलम जहर उगलती ही आई है| परन्तु चिंता नहीं करने का, अब हमने भी कलम उठाई है तो देखें गाढ़ी किसकी कलम की स्याही है| अपनी राज करने की नीतियों को धर्म का चोला औढ़ा के समाज को अपना कह के फिर उसी समाज को वर्ण-जाति-सम्प्रदाय के आधार पर विखण्डित करके रखना और फिर बिन कासिम, गजनबी या अब्दाली जैसे हमलों का वक्त आये तो अपनी भुंड करवा लेना; यही अंजाम है इनकी नीतियों का और इसीलिए यह कभी विश्व-विजेता नहीं बन पाये| जाट से इनका कितना बैर है यह गुलामी के दौर में भी तो जारी था| इनको अंग्रेजों-मुग़लों की चाटुकारिता करनी मंजूर थी परन्तु जाट के साथ मिलके आज़ादी के लिए लड़ना कतई नहीं|
और जब तक यह नहीं समझेंगे कि लेखन और रचनात्मकता से देश-धर्म-समाज नहीं चला करते, या हम में से कोई इनको इसका अहसास नहीं करवाएगा; इनके यह छेछर जारी रहेंगे| परन्तु अब हमने (आज वाली जाट पीढ़ी के युवा ने) इतना तो कम से कम ठाना है कि अब जाट के ऊपर इनकी मनवांछित कलम नहीं चलने देंगे|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
इसका बड़े सलीके वाला जवाब है| पर उससे पहले इस सवाल करने वाले से यह जरूर पूछना चाहूंगा कि तूने यह सवाल क्षत्रिय-क्षत्रिय चिल्लाने वालों से और इनके भी ऐसे उस्ताद जिन्होनें इनके पुरखों को 21-21 बार मौत के घाट उतार धरती क्षत्रियविहीन कर दी थी, उनसे क्यों नहीं किया? क्योंकि इसका जवाब देना तो उनको बनता है कि क्यों इन शूरवीरों के रहते हुए देश 1000 साल तक गुलाम रहा?
अब बताता हूँ जाट-गुज्जर क्या कर रहे होते थे ऐसे वक्तों में| आगे का लेख मैं भाई अजय कुमार को सम्बोधित करते हुए लिखूंगा|
भाई अजय कुमार यह मनुवाद की वह थ्योरी है जिसको "किसी को उभरने नहीं देना" कहा जाता है| बिना युद्ध के भी युद्ध जैसे समाज में माहौल रखने, भाई को भाई का बैरी बना के रखना और जाति को जाति का बैरी बना के रखना; यही तो है मनुवाद| क्योंकि जाटों ने "जाट आंदोलन" के जरिये इनके सारे बहम तोड़े हैं और समाज में अपनी खोती जा रही साख का कुछ प्रतिशत (वही साख जिसको यह लोग पिछले डेड दशक से मीडिया, माता की चौकी और बाबाओं के माध्यम से निशाने पर लिए हुए थे) वापिस स्थापित किया है तो यह उसकी खीज में इनका प्रतिकार है|
मनुवाद कोई आपसे हथियार उठा के थोड़े ही लड़ेगा, यह जुबान के शेर होते हैं और जुबान से दुष्प्रचार फैला के अपने लिए राहें तलाशा करते हैं| सो आप इनकी ज्यादा चिंता ना करें| जब तक यह ऐसी हरकतें नहीं करेंगे, तब तक जाट युथ जगेगा थोड़े ही| रही बात इसके जवाब की तो इसमें कोई सच्चाई नहीं|
वैसे तो दर्जनों-सैंकड़ों उदाहरण हैं, परन्तु कुछेक सटीक और सबसे बड़े उदाहरणों से आपको बताता हूँ| आज जो 35 बनाम 1 यानि जाट बनाम नॉन-जाट का माहौल इन लोगों ने खापलैंड पर खड़ा किया हुआ है ठीक ऐसा ही माहौल 8वीं सदी में जाटों के विरुद्ध ब्राह्मण राजा दाहिर ने किया हुआ था, (दाहिर के पिता चच ने जाट राजा से धोखे से राजगद्दी हथियाई थी)। उसने जाटों को चांडाल-शुद्र तक ठहराने हेतु अपने लेखक-विद्वान् ठीक उसी तरह लगा रखे थे जैसे आज एंटी-जाट मीडिया लगा रहता है| सुनने में आता है कि जाटों को हथियार रखना और घोड़े पे चढ़ के चलना भी बैन करवा दिया था| तो ऐसे हालातों में और अतिविश्वास में मद दाहिर के राज्य में अरब के व्यापारियों को बेजवह तंग किया जाने लगा| इसकी खबर वहाँ के खलीफा को लगी तो उसने मुहमद बिन कासिम को अपने व्यापारियों के अधिकारों की रक्षा हेतु 712 ईसवीं में सिंध पर हमला करने को भेजा| अब सोचो एक ऐसे माहौल में जब जाट को हथियार उठाना व् घोड़े पे चलना प्रतिबंधित हो तो एक राज्य की सैन्य-शक्ति की ताकत में कितनी कमी होगी| बिना जाट के दाहिर ने लड़ाई लड़ी और हार गया| परन्तु फिर तब जब दाहिर हारा और राज्य दाहिर के हाथों से चला गया तो जाट बागी हो गए और कराची की बंदरगाह पर कासिम और जाटों की खाप सेना के बीच घमासान हुआ| जाट जीत तो नहीं पाये परन्तु कासिम को इससे काफी नुकसान हुआ| और उसको पीछे हटने पर विचार करना पड़ा| इस बंदरगाह पर हुए युद्ध का जिक्र कई अरब इतिहासकारों की लेखनी में मिलता है, जो स्वीकारते हैं कि सिंध में जाट ना होते तो वो उसी वक्त और भी आगे बढ़ जाते| उस वक्त 5000 के करीब जाटों को बिन कासिम बंदी बना के अरब ले गया था|
ऐसा ही किस्सा 1025 A.D. में सोमनाथ के मंदिर की लूट का है| जब इनके सारे दावे-दम धत्ता करते हुए गजनबी ले चला लूट सोमनाथ के खजाने को; तब देश की इज्जत देश से बाहर ना निकल जाए, उठ आये थे जाट गजनबी को छटी का दूध याद दिलाने को| बाकी इस किस्से में क्या कैसे हुआ वह तो इतिहास का स्वर्णिम पन्ना है, कम से कम जाटों के लिए तो| परन्तु यह तो इतने अहसान फरामोश हैं कि आजतक भी एक बार भी जाट को धन्यवाद स्वरूप भी जो एक शब्द तक इनकी कलमों से फूटा हो तो| वजह, वही इनकी "किसी को उभरने नहीं देना" की नीति|
1398 A.D. में जो तैमूर लंग, जिसके आगे मुहम्मद तुगलक भी हथियार डाल गया था, उसको जाटों-गुज्जरों-दलितों के नेतृत्व वाली सर्वखाप सेना ने ही भारत से भगाया था| गौरी (1206 A.D.) और रज़िया सुल्तान (1240 A.D.) को जाटों ने ही मारा था|
ऐसा ही दूसरा किस्सा पानीपत की तीसरी (1761 A.D.) लड़ाई का है| जब बावजूद महाराजा सूरजमल के सकारात्मक सहयोग के भी ब्राह्मण पेशवा सेनापति सदाशिव राव भाऊ ने महाराजा सूरजमल को ही बंदी बनाने की चेष्टा करके अपनी संकीर्ण और पीठ में छुरा घोंपने की मानसिकता दिखाई|
तो जब-जब जाट ऐसे जौहर करते हैं तो इनकी कलम जहर उगलती ही आई है| परन्तु चिंता नहीं करने का, अब हमने भी कलम उठाई है तो देखें गाढ़ी किसकी कलम की स्याही है| अपनी राज करने की नीतियों को धर्म का चोला औढ़ा के समाज को अपना कह के फिर उसी समाज को वर्ण-जाति-सम्प्रदाय के आधार पर विखण्डित करके रखना और फिर बिन कासिम, गजनबी या अब्दाली जैसे हमलों का वक्त आये तो अपनी भुंड करवा लेना; यही अंजाम है इनकी नीतियों का और इसीलिए यह कभी विश्व-विजेता नहीं बन पाये| जाट से इनका कितना बैर है यह गुलामी के दौर में भी तो जारी था| इनको अंग्रेजों-मुग़लों की चाटुकारिता करनी मंजूर थी परन्तु जाट के साथ मिलके आज़ादी के लिए लड़ना कतई नहीं|
और जब तक यह नहीं समझेंगे कि लेखन और रचनात्मकता से देश-धर्म-समाज नहीं चला करते, या हम में से कोई इनको इसका अहसास नहीं करवाएगा; इनके यह छेछर जारी रहेंगे| परन्तु अब हमने (आज वाली जाट पीढ़ी के युवा ने) इतना तो कम से कम ठाना है कि अब जाट के ऊपर इनकी मनवांछित कलम नहीं चलने देंगे|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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