मनुवादियों द्वारा जनमानस को गुलाम बनाने की विधि को आजतक दो ही जनसमूह समझ पाने के साथ-साथ मुंहतोड़ जवाब दे पाये हैं, एक अंग्रेज और दूसरे जाट| इसीलिए जब हम इतिहास उठा के देखते हैं तो यह दोनों ही मनुवाद के सबसे तगड़े निशाने पे रहे| अंग्रेज तो चले गए परन्तु जाट आज भी इनके निशाने पे है और इस हद तक निशाने पर है कि अंग्रेजों के बाद अब जाट को भी यह भारत से गायब कर दें, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं| अंग्रेजों के जाते ही इनके जाट को कुचलने के षड्यंत्र के पदचिन्ह हम तब से ले के आजतक ट्रेस कर सकते हैं| यह एक बड़े ही सुनियोजित तरीके से पहले जाट की छवि धूमिल करते हुए, फिर जाट की सभ्यता-संस्कृति जिसको "जाटू सभ्यता" कहा जाता रहा है को मद्धम करके, अब राजनीति-खेल हर जगह जाटों को ठिकाने लगाने पे आमादा हैं|
भला हो फरवरी 2016 के जाट आंदोलन का जिसने जाट की तुंगभद्रा तोड़ी और जाट कुछ सम्भला| और इस प्रकार आज़ादी के बाद से लगातार जारी इनके जाट विरोधी षड्यंत्रों का भांडाफोड़ भी हुआ और इनके अजेंडे को "सौ सुनार की एक लौहार की" तर्ज पे धक्का भी लगा| परन्तु इस तुंगभद्रा के दौर में यह इस हद तक जाट की छवि का नुकसान कर चुके हैं कि जाट अपनी सभ्यता तक को अपनी कहने से कतराता है और शहरी जाट तो सार्वजनिक स्थलों पर हरयाणवी बोलने या खुद को हरयाणवी कहने तक की हिम्मत नहीं कर पाता| वैसे खुद को हरयाणवी कहने में तो जाट क्या, हर मूल-हरयाणवी कतरा रहा है, इस स्तर तक की हवा खराब करके रख दी है इन्होनें हरयाणवी की| अब जब तक जाट इनसे सीधे-सीधे बात या दो-दो हाथ नहीं करता, यह यूँ ही करते रहेंगे|
इनके षड्यंत्रों को समझने की कूबत तो दलित में भी रही है बल्कि आज के दिन तो जाट से ज्यादा दलित में हो चली है| परन्तु जाट के तरीके का मुखर विरोध और इनसे निजात दलित नहीं पा सके, जो इतिहास में जाट ने समय-समय पर इनसे पाई है| जाट ने तो इनको "जाट जी" कहने तक पर लाया हुआ है इतिहास में, परन्तु अब जाट उसी "जाट जी" के चक्कर से नहीं निकल पा रहा| जाट-दलित शक्तियां दोनों अपना एक न्यूनतम साझा समझौता बना के, मनुवाद के खिलाफ एक जुट हो जाएँ, तो मनुवाद को खत्म होते देर नहीं लगेगी|
भला हो फरवरी 2016 के जाट आंदोलन का जिसने जाट की तुंगभद्रा तोड़ी और जाट कुछ सम्भला| और इस प्रकार आज़ादी के बाद से लगातार जारी इनके जाट विरोधी षड्यंत्रों का भांडाफोड़ भी हुआ और इनके अजेंडे को "सौ सुनार की एक लौहार की" तर्ज पे धक्का भी लगा| परन्तु इस तुंगभद्रा के दौर में यह इस हद तक जाट की छवि का नुकसान कर चुके हैं कि जाट अपनी सभ्यता तक को अपनी कहने से कतराता है और शहरी जाट तो सार्वजनिक स्थलों पर हरयाणवी बोलने या खुद को हरयाणवी कहने तक की हिम्मत नहीं कर पाता| वैसे खुद को हरयाणवी कहने में तो जाट क्या, हर मूल-हरयाणवी कतरा रहा है, इस स्तर तक की हवा खराब करके रख दी है इन्होनें हरयाणवी की| अब जब तक जाट इनसे सीधे-सीधे बात या दो-दो हाथ नहीं करता, यह यूँ ही करते रहेंगे|
इनके षड्यंत्रों को समझने की कूबत तो दलित में भी रही है बल्कि आज के दिन तो जाट से ज्यादा दलित में हो चली है| परन्तु जाट के तरीके का मुखर विरोध और इनसे निजात दलित नहीं पा सके, जो इतिहास में जाट ने समय-समय पर इनसे पाई है| जाट ने तो इनको "जाट जी" कहने तक पर लाया हुआ है इतिहास में, परन्तु अब जाट उसी "जाट जी" के चक्कर से नहीं निकल पा रहा| जाट-दलित शक्तियां दोनों अपना एक न्यूनतम साझा समझौता बना के, मनुवाद के खिलाफ एक जुट हो जाएँ, तो मनुवाद को खत्म होते देर नहीं लगेगी|
कहने को तो हरयाणा वो स्थली है जो देश को सबसे ज्यादा सैनिक और अन्न देती है; मातृभूमि के प्यार और कटटरता के लिए जानी जाती है| परन्तु जब हम संस्कृति-भाषा-बोली से प्यार और सम्मान के पहलु पर बात करते हैं तो मेरे ख्याल से पूरी दुनिया में हम हरयाणवी ही एक ऐसा अपवाद मिलेंगे, जिनकी धरती पर आकर कॉर्पोरेट सेक्टर में बैठ गैर-हरयाणवी ह्यूमन रिसोर्स वाले यह रिसर्च करवाते हैं कि हरयाणवी बोलने वालों को नौकरियां मत दो| और यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि जाट और दलित की मनुवाद के खिलाफ लड़ने वाली ताकतें अलग-अलग लड़ रही हैं| जब तक यह दोनों ताकतें एक नहीं होंगी, यह हरयाणा के भीतर के मनुवादी व् गैर-हरयाणवी ना तो हमारा और ना ही हमारी संस्कृति का सम्मान करना नहीं सीखेंगे, बल्कि हमें हमारी ही धरती पर आ के खुड्डे-लाइन लगाने के प्रपंच निरंतर करते रहेंगे|
हमें यह भी नहीं करना कि महाराष्ट्रियों-मुंबईकरों की भांति इनको यहां से मार के भगाना है, नहीं, बस मनुवाद को हटाते हुए, इनसे हमारी सभ्यता-संस्कृति का आदर-मान करवाना है|
विशेष: सनद रहे, इस लेख में हरयाणा मतलब, "वर्तमान हरयाणा + दिल्ली + पश्चिमी यूपी+उत्तराखंड + उत्तरी राजस्थान + हरयाणा का सीमांतीय पंजाब"।
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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