Tuesday 17 May 2016

दादा, थाहम इन लपुसियां नै अर प्रशासन नै सुलट लियो बस, गुहांड नैं तो हम धानक ए ठा ल्यावंगे!

निडाना का हुलिया (महिपाल) हरयाणवी गाँव-गणतंत्र के प्रति अटूट लगाव और कट्टरता का प्रतीक था|

आज हरयाणा के जिला जींद का निडाना गाँव अपने पांच लाडलों की अकस्मात मौत से सदमे में है| कुँए की जहरीली गैस ने जिन पांच लालों को लीला उसमें एक व्यक्ति को मैं (इस लेख का लेखक) बचपन से व्यक्तिगत तौर पर जानता हूँ| बहुमुखी प्रतिभा के धनी महिपाल का निकनेम हुलिया (अंधंड के बंवडर को हरयाणवी में 'हुलिया' कहते हैं, जो रास्ते में आने वाली हर चीज को लपेटता हुआ ऊपर की ओर फेंकता चलता है) भी शायद इसीलिए पड़ा होगा क्योंकि उसमें काफी सारे सामाजिक, सांस्कृतिक और ग्रामीण पहलुओं बारे जो अदम्य साहस, उत्साह और क्रांतिकारी प्रेरणा थी; वो विरले लोगों में देखने को मिलती है| वह मनुवाद की बनाई जातिवादी व् वर्णवादी व्यवस्था का धुर्र विरोधी क्रांतिकारी था; हरयाणवी गाम-खेड़े की अस्मिता पर आंच आये तो सबसे आगे जेली-गंडासे ले के खड़े होने वालों में था; वह एक अर्दली भी था जिसकी आवाज गाँव के दूसरे छोर से भी सुन जाती थी कि आज हुलिया गाँव में मुनादी कर रहा है; वह सबसे आदर-मान-सम्मान और सभ्यता से व्यवहार करने वाला स्वाभिमानी इंसान था| साझे कर रहा हूँ उसके उत्साह और साहस की मेरे बचपन से ले अभी पिछली बार गाँव विजिट के दौरान की कुछ यादें, जो निडाना गाँव-गुहांड को गमगीन छोड़ के जाने वाले इन पाँचों सपूतों को समर्पित हैं|

बात तब की है जब मैं ग्रेजुएशन कर रहा रहा था, शायद सन 2000-01 की| दशहरे का दिन था, शाम होते-होते मनहूस खबर आई कि हमारे गुहांड (सामाजिक व् समरसता कारणों से गुहाण्ड का नाम नहीं लिख रहा हूँ) में निडाना के गामी-झोटे को वहाँ के कुछ असामाजिक तत्वों ने घायल कर, गुहांड के बाहर से जाती 'बिद्रो' यानि ड्रेन में उड़ेल दिया है| हरयाणवी संस्कृति में गाँव का सांड और झोटा दोनों गाँव के देवता माने जाते हैं, अत: उन पर बाहरी आक्रमण को गाँव की प्रतिष्ठा पर आक्रमण माना जाता है| आगे क्या कैसे हुआ के पूरे किस्से में तो अभी नहीं जाऊंगा, क्योंकि बाद में गठवाला खाप और गुहांड की खाप के स्थानीय तपों ने मिल कर मुजरिमों को ढूंढ भी निकाला था और मसले का शांतिपूर्ण हल भी हो गया था| हाँ, इसमें हुलिए का किरदार आज भी मुझे याद है| उस वक्त मेरे सगे चचेरे दादा हुक्म सिंह गाँव के सरपंच होते थे|

वो, गाँव के कई अन्य गणमाण्य लोग, मैं (मैं वहाँ गाम की स्मिता की बात होने के साथ-साथ इसलिए भी मौजूद था क्यों कि उस झोटे को मैंने अपने हाथों दाना-चारा खिला के पाला था, फिर बाद में मेरे पिता जी ने गाँव के कहने पर उसको गाँव को दे दिया था; इस घटना से घायल उस झोटे का 1.5 महीने तक इलाज भी हमारे घेर में मेरी ही देख-रेख मैंने खुद ही करवाया था| झोटा इतना घायल था कि 15 दिन तो उसको अपने-आप से खड़ा होने में लग गए थे, कॉलेज से आते ही उसके पास जाता तो मेरी गोद में सर रखते ही झोटे की आँखों से आँसू टपक पड़ते; जैसे मुझे अपना दर्द बताने लग जाता हो) और हुलिया समेत लगभग आधा गाँव जेली-गंडासे ले के गाँव के बाहरी छोर पर जमा थे|

रात के नौ बजे थे जींद के एसपी, एसडीएम और 3-4 पुलिस की टुकड़ियां मौके पर आई हुई थी| कोई बड़ी अनहोनी ना हो इसलिए पुलिस गुहांड की तरफ घेराबंदी करे खड़ी थी| गाँव के मौजिज लोग और पुलिस-प्रशासन में वार्तालाप हो रही थी| इतने में गाँव की धानक बिरादरी का "पहलवानी दस्ता" जेली-गंडासी समेत गाँव की तरफ से हमारी तरफ आते दीखते हैं और हुलिया एक दम से दादा हुक्म सिंह से रुक्का मार के ललकारा कि "दादा थाहम, इन लपुसियां नै अर प्रशासन नै सुलट लियो बस, गुहांड नैं तो हम धानक ए ठा ल्यावंगे|" यह पंक्तियां आज भी यूँ-की-यूँ मेरे कानों में हैं उस इंसान की| खैर बुजुर्ग लोग हुलिया के जोश को समझा-बुझा कर ठंडा करते हैं व् फिर से प्रशासन से बातों में लग जाते हैं| यहां बता दूँ कि गठवाला खाप के आदेशों व् पुकारों पर आपातकाल व् लड़ाइयों में भाग लेने हेतु हमारे गाँव में धानक-जाट व् अन्य जातियों के पहलवानों का पहलवानी दस्ता हमेशा तैयार रहता आया है| तो यह था हुलिया का अपने गाँव की अस्मिता के प्रति मोह और जज्बे का पहला किस्सा|

दूसरा किस्सा बताता है कि वह कैसे मनुवाद की जाति व् वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध भी अपनी आवाज उठाता रहता था| अक्टूबर 2014 में छुट्टियों पे इंडिया आया हुआ था तो सोचा कि गाँव की सभी जातियों के बुजुर्गों के बीच बैठ के गाँव का जातिवार इतिहास लिखा जाए| इसी सिलसिले में मैं धानको की ओर चला गया| वहाँ दादा दयानन्द जी से गाँव व् धानक बिरादरी का निडाना गांव में योगदान व् सम्पर्ण बारे लिख के लाया; जो कि एक लेख के रूप में निडाना हाइट्स की वेबसाइट पर पब्लिश किया हुआ है|

जब वहाँ बैठा गाँव के इतिहास व् संस्कृति पर लिख रहा था तो हुलिया आता है और नमस्ते मलिक साहब कहते ही सीधा कुछ सवाल छोड़ता है:

हुलिया: मलिक साहब, यह जातिपाति और वर्णव्यवस्था पर क्या विचार है आपका?
मैं: भाई, मैं इसका विरोधी हूँ| और यह खत्म होनी चाहिए|
हुलिया: भाई मैं जानु सूं आप, आपके पिता जी और आपका कुनबा तो कोनी मानता जातिपाति को और आपके पिता जी तो म्हारी गेल बैठ खाने-पीने से भी नहीं झिझकते; पर सारे इहसे कोनी| अर इतना कहे तैं काम भी कोनी चालता अक आप कोनी मानते, आप जिहसे आदमी को तो आगे आ के इसको खत्म करवाना चाहिए?
मैं: मखा भाई अपनी औड तैं पूरे प्रयास जारी सैं, जीबे आड़े आया सूं, नहीं तो गाम का इतिहास और संस्कृति तो जाटों के बुड्ढे भी भतेरी बता चुके| पर मैं उसको क्रॉस-चेक करना चाहूँ कि क्या यही बातें यूँ-की-यूँ दलित बुड्ढे भी बताएँगे कि कुछ अलग मिलेगा|
हुलिया: तो मलिक साहब फेर पाया किमें फर्क?
मैं: भाई जो गाम की सब जातियों की कॉमन हिस्ट्री है उसमें कोई फर्क नहीं| हाँ दादा दयानन्द से गाम के धानक समाज की कुछ नई बातें जरूर जानने को मिली|
हुलिया: बढ़िया मलिक साब, इस ज्यात-पात नैं खत्म करण खातर करो किमें?
मैं: मखा हुलिए, इब मामला दो ढाल का हो लिया, एक जो मनुवादी सदियों से रखते आये और दूसरा मखा सरकार भी सारी योजना जाति देख के बनाती है, नेता लोग टिकट तक भी जाति ही देख के बाँटते हैं| मखा भाई काम बहुत भारी है, पर तेरा भाई इसको मिटाने की ओर ही अग्रसर है|
दादा दयानन्द: अरे हुलिए थम जा तू इब, छोरे ताहिं दो-चार बात और बता लेण दे|

और यह था उसके साथ दूसरा अनुभव| इसके अलावा वो एक अर्दली था वह ऊपर बता चुका| हमारे खेतों में दिहाड़ी-मजदूरी पर आता रहता था तो पूरा काम और पूरी लगन से करके देता था|

अंत में यही कहूंगा कि हुलिया के रूप में गाँव ने सिर्फ एक आदमी नहीं अपितु ऊंच-नीच और छुआछात से लड़ने की जीती-जागती क्रांति खो दी है| हुलिया और बाकी चारों दिवंगतों को भावभीनी श्रदांजलि|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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