निष्कर्ष: अभी वक्त तांडव का नहीं, अपितु तांडव करते रावण की घिस्स निकालने का है|
पहली तो बात मुझे यह ही समझ नहीं आया कि जब हरयाणा के डीजीपी साहब ने यह कहा कि "उपद्रवी-दंगाई-आगजनी-लूटपाट करने वालों को जनता को गोली मारने का कानून हक देता है!" की बात कह कर जनाब ट्रेंड-कबूतर मंडली और राजकुमार सैनी की ब्रिगेड की हौंसला अफजाई कर रहे थे या जाटों को दंगाइयों को गोली से उड़ाने की खुली छूट दे रहे थे? काश, डीजीपी साहब अपनी बात का इतना पक्ष भी स्पष्ट कर जाते तो मुझे समझने में और आसानी रहती| खैर, डीजीपी लेवल के अधिकारी की तरफ से इतना बौखलाहट भरा बयान मुझे परेशानी में डालता है कि अगर प्रदेश सरकार इतनी डरी हुई है तो आखिर किस से, ट्रेंड-कबूतरों और सैनी की ब्रिगेड से या जाटों से? जहां तक मेरा मानना है पुलिस के तो विचलित होने का प्रश्न ही नहीं होना चाहिए| जाटों के मद्देनजर सोचूं तो मोटे तौर पर जो कारण समझ आते हैं वो इस प्रकार हो सकते हैं:
1) जब से बीजेपी की सरकार बनी थी, आरएसएस जाटों में बड़े जोर से पांव पसार रही थी| बॉर्डर पे फौजी ड्रेस में सबसे ज्यादा पाई जाने वाली कौम में लाजिमी है कि इनके देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति जैसे शब्द जादू बिखेर रहे थे| मेरे पिता वाली पीढ़ी तक आरएसएस को मुंह भी ना लगाने वाले समाज की आज की युवा पीढ़ी वाले शाखाओं की तरफ बड़े आकर्षित भी हो चले थे| यहां तक कि इनका गाँव स्तर तक शाखाएं खोलने का विचार भी हो चला था| बेहिसाबा दान-चंदा-इज्जत सबकुछ दोनों हाथों बटौर रहे थे यह जाट समाज से| मतलब चांदी ही चांदी हो रखी थी|
अब ऐसे में बीच में जाट आंदोलन आ के इनके मंसूबों पर ग्रहण लगा जाए और इनको हरयाणा में सबसे ज्यादा फाइनेंस देने वाली कौम ही इनसे इनके ही अटूट जाट-प्रेम (जो इन्होनें फरवरी 2016 में जाटों पर जलियावाला बाग़ की भांति गोलियां बरसवा के दिखाया) के चलते इनसे छिंटक जाए तो चंदे-चढ़ावे पे लगी लात की वजह से इनको परेशानी तो होनी ही थी| अब भले ही कितने ही 35 बनाम 1, जाट बनाम नॉन-जाट खेल लेवें, उनसे इतना फाइनेंस थोड़े ही मिल पाता है बेचारों को जितना जाटों से एक ही कौम में मिल जाता था| तो वह सब खुद की ही घिनौनी हरकतों की वजह से छिन जाने की वजह से लगे हैं गीदड़ भभकियों से अपनी खीज मिटाने, कभी अश्वनी चोपड़ा को बोलते हैं कि जाटों को अकेला रह जाने का डर दिखा और कह कि "गैर-जाटो, जाटों के खिलाफ लामबंद हो जाओ!", और अबकी बार तो सीधा सरकारी अधिकारी यानि डीजीपी को भी लगा दिया डराने पे|
2) जाट के खिलाफ और जाट की आड़ में जिन भी जातियों ने जाट-आंदोलन के दौरान उपद्रव व् आगजनी की, जाट उनसे बहुत खफा बताये जा रहे हैं और बहुत से तो अभी भी उपद्रव मचाने वाली बिरादरियों की दुकानों की तरफ वापिस नहीं मुड़े हैं| अब ऐसे में यह लोग बैठे-बैठे या तो मक्खी मार रहे हैं या फिर इनके कारोबार मंदे चल रहे हैं| थोड़ा बहुत वापिस मुड़े थे परन्तु कभी आर्य, कभी सैनी, कभी चोपड़ा फिर से कोई जहर बुझा तीर छोड़ देते हैं और जाट फिर इनसे मुंह मोड़ लेता है| सब जानते हैं कि एक व्यापारी के लिए ग्राहक ही भगवान होता है, ना ग्राहक का कोई मजहब होता, ना जाति; परन्तु उसी ग्राहक के साथ जाति-जाति खेलोगे तो कैसे चलेगा? कोई यह चाहे कि भगवान् को गाली भी देते रहें और फिर भी भगवान उससे ही सामान खरीदते रहें तो दोनों चीजें थोड़े ही चलती हैं एक साथ|
तो भाड़े पे उपद्रवी हायर करने वालों की दूसरी खीज यह हो रखी है कि एक तरफ तो भाड़े पे उपद्रवी हायर करके जाटों से पंगा भी करवाया, ऊपर से वो ही जाट की आड़ में इनकी दुकानें लूट ले गए और इधर से जाट जैसा सबसे बड़ी कंस्यूमर पावर वाला ग्राहक खोते जा रहे हैं सो अलग| आम दिन तो आम दिन, तीज-त्यौहार तक फीके निकल रहे हैं|
3) एक तो जाट वैसे ही मंदिर कम जाता रहा है, ऊपर से जाट आंदोलन ने जाट की रुचि को ऐतिहासिक तरीके से न्यूनतम स्तर पर ला दिया है| इसलिए मंदिरों में भी चंदे-चढ़ावे में गिरावट आई है|
और ऐसे भाड़े पे उपद्रवी हायर करके समाज में आग लगवाने वालों की सबसे बड़ी कमजोरी यह भी है कि एक तो इनको गलती स्वीकारनी नहीं आती और गलती के लिए माफ़ी माँगना तो इनके डी.एन.ए. में ही नहीं है| यह जुड़े-जुड़ाए समाज को तोड़ तो सकते हैं, परन्तु जोड़ नहीं सकते| लेकिन अब इनकी मजबूरी हो चली, क्योंकि ऐसा साल-छह महीने और चला तो इनके घरों की अर्थव्यस्था और अधिक बीमार होती चली जाएगी|
तो ऐसे में इन्होनें जोड़ने-झुकाने का नया रास्ता निकाला है कि जाटों को अकेले पड़ जाने का भय दिखाओ, सीधा डीजीपी से ब्यान दिलवाओ| बस वही "मुल्ला की दौड़, मस्जिद तक" वाली कहानी है|
लेकिन इनको इतना तो समझना चाहिए कि जाट साक्षात् शिवजी होता है; जब तक सहेगा जहर सा पी के सहेगा परन्तु जब तांडव पे उतरेगा या नाराज होएगा तो आसानी से थोड़े ही मनेगा; रूठे शिवजी को तो पार्वती ना मना सकी, और यह चाहते हैं कि कभी चोपड़ा तो कभी डीजीपी की भभकियों के डर से ही जाट वापिस मुड़ आएं| मतलब गलती का अहसास है इनको, परन्तु आदत से मजबूर गलती माननी नहीं, बेशक फिर से वही डरावे-दबावे के कितने ही प्रपंच आजमाने पड़ जाएँ| आजमाओ परन्तु उन पर जिन पर यह चलें| जाट समाज को निजी तौर पर जानता हूँ, वो सीधी-सपाट बात से एक पल में मान जाए, परन्तु उसको घुमाया जाए तो वो घूमे ना घूमे परन्तु उसको घुमाने वाले जरूर घूम जाते हैं, और सरकार घूमी हुई है तभी तो डीजीपी स्तर तक के अफसर से ऐसे ब्यान दिलवा रही है जिनको भारतीय कानून ही मान्यता नहीं देता| अरे जिनके पुरखे शिवजी भगवान उर्फ़ दादा ओडिन को जंगलों-पहाड़ों का अकेलापन नहीं डरा सकता तुम उसको उसी की बसाई धरती पे अकेलेपन के डर से वापिस मोड़ लोगे, मुंह धो के आओ यार|
चलते-चलते जाट समाज से इतनी ही उम्मीद रखूँगा कि वो लोग आरक्षण की आगे की लड़ाई को रोड-सड़क की बजाये कोर्टों में लड़ें| बाकी यह लोग तो साल-छह महीने में वो हरयाणवी वाली कहावत के अनुसार अपने आप ही ब्या लेंगे, जब इनके बजट डगमगायेंगे| अभी वक्त तांडव का नहीं, अपितु तांडव करते रावण की घिस्स निकालने का है, इसलिए शांति धार के दादा ओडिन उर्फ़ बाबा शिवजी की भांति धूने में रम जाओ, कोर्टों में|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
पहली तो बात मुझे यह ही समझ नहीं आया कि जब हरयाणा के डीजीपी साहब ने यह कहा कि "उपद्रवी-दंगाई-आगजनी-लूटपाट करने वालों को जनता को गोली मारने का कानून हक देता है!" की बात कह कर जनाब ट्रेंड-कबूतर मंडली और राजकुमार सैनी की ब्रिगेड की हौंसला अफजाई कर रहे थे या जाटों को दंगाइयों को गोली से उड़ाने की खुली छूट दे रहे थे? काश, डीजीपी साहब अपनी बात का इतना पक्ष भी स्पष्ट कर जाते तो मुझे समझने में और आसानी रहती| खैर, डीजीपी लेवल के अधिकारी की तरफ से इतना बौखलाहट भरा बयान मुझे परेशानी में डालता है कि अगर प्रदेश सरकार इतनी डरी हुई है तो आखिर किस से, ट्रेंड-कबूतरों और सैनी की ब्रिगेड से या जाटों से? जहां तक मेरा मानना है पुलिस के तो विचलित होने का प्रश्न ही नहीं होना चाहिए| जाटों के मद्देनजर सोचूं तो मोटे तौर पर जो कारण समझ आते हैं वो इस प्रकार हो सकते हैं:
1) जब से बीजेपी की सरकार बनी थी, आरएसएस जाटों में बड़े जोर से पांव पसार रही थी| बॉर्डर पे फौजी ड्रेस में सबसे ज्यादा पाई जाने वाली कौम में लाजिमी है कि इनके देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति जैसे शब्द जादू बिखेर रहे थे| मेरे पिता वाली पीढ़ी तक आरएसएस को मुंह भी ना लगाने वाले समाज की आज की युवा पीढ़ी वाले शाखाओं की तरफ बड़े आकर्षित भी हो चले थे| यहां तक कि इनका गाँव स्तर तक शाखाएं खोलने का विचार भी हो चला था| बेहिसाबा दान-चंदा-इज्जत सबकुछ दोनों हाथों बटौर रहे थे यह जाट समाज से| मतलब चांदी ही चांदी हो रखी थी|
अब ऐसे में बीच में जाट आंदोलन आ के इनके मंसूबों पर ग्रहण लगा जाए और इनको हरयाणा में सबसे ज्यादा फाइनेंस देने वाली कौम ही इनसे इनके ही अटूट जाट-प्रेम (जो इन्होनें फरवरी 2016 में जाटों पर जलियावाला बाग़ की भांति गोलियां बरसवा के दिखाया) के चलते इनसे छिंटक जाए तो चंदे-चढ़ावे पे लगी लात की वजह से इनको परेशानी तो होनी ही थी| अब भले ही कितने ही 35 बनाम 1, जाट बनाम नॉन-जाट खेल लेवें, उनसे इतना फाइनेंस थोड़े ही मिल पाता है बेचारों को जितना जाटों से एक ही कौम में मिल जाता था| तो वह सब खुद की ही घिनौनी हरकतों की वजह से छिन जाने की वजह से लगे हैं गीदड़ भभकियों से अपनी खीज मिटाने, कभी अश्वनी चोपड़ा को बोलते हैं कि जाटों को अकेला रह जाने का डर दिखा और कह कि "गैर-जाटो, जाटों के खिलाफ लामबंद हो जाओ!", और अबकी बार तो सीधा सरकारी अधिकारी यानि डीजीपी को भी लगा दिया डराने पे|
2) जाट के खिलाफ और जाट की आड़ में जिन भी जातियों ने जाट-आंदोलन के दौरान उपद्रव व् आगजनी की, जाट उनसे बहुत खफा बताये जा रहे हैं और बहुत से तो अभी भी उपद्रव मचाने वाली बिरादरियों की दुकानों की तरफ वापिस नहीं मुड़े हैं| अब ऐसे में यह लोग बैठे-बैठे या तो मक्खी मार रहे हैं या फिर इनके कारोबार मंदे चल रहे हैं| थोड़ा बहुत वापिस मुड़े थे परन्तु कभी आर्य, कभी सैनी, कभी चोपड़ा फिर से कोई जहर बुझा तीर छोड़ देते हैं और जाट फिर इनसे मुंह मोड़ लेता है| सब जानते हैं कि एक व्यापारी के लिए ग्राहक ही भगवान होता है, ना ग्राहक का कोई मजहब होता, ना जाति; परन्तु उसी ग्राहक के साथ जाति-जाति खेलोगे तो कैसे चलेगा? कोई यह चाहे कि भगवान् को गाली भी देते रहें और फिर भी भगवान उससे ही सामान खरीदते रहें तो दोनों चीजें थोड़े ही चलती हैं एक साथ|
तो भाड़े पे उपद्रवी हायर करने वालों की दूसरी खीज यह हो रखी है कि एक तरफ तो भाड़े पे उपद्रवी हायर करके जाटों से पंगा भी करवाया, ऊपर से वो ही जाट की आड़ में इनकी दुकानें लूट ले गए और इधर से जाट जैसा सबसे बड़ी कंस्यूमर पावर वाला ग्राहक खोते जा रहे हैं सो अलग| आम दिन तो आम दिन, तीज-त्यौहार तक फीके निकल रहे हैं|
3) एक तो जाट वैसे ही मंदिर कम जाता रहा है, ऊपर से जाट आंदोलन ने जाट की रुचि को ऐतिहासिक तरीके से न्यूनतम स्तर पर ला दिया है| इसलिए मंदिरों में भी चंदे-चढ़ावे में गिरावट आई है|
और ऐसे भाड़े पे उपद्रवी हायर करके समाज में आग लगवाने वालों की सबसे बड़ी कमजोरी यह भी है कि एक तो इनको गलती स्वीकारनी नहीं आती और गलती के लिए माफ़ी माँगना तो इनके डी.एन.ए. में ही नहीं है| यह जुड़े-जुड़ाए समाज को तोड़ तो सकते हैं, परन्तु जोड़ नहीं सकते| लेकिन अब इनकी मजबूरी हो चली, क्योंकि ऐसा साल-छह महीने और चला तो इनके घरों की अर्थव्यस्था और अधिक बीमार होती चली जाएगी|
तो ऐसे में इन्होनें जोड़ने-झुकाने का नया रास्ता निकाला है कि जाटों को अकेले पड़ जाने का भय दिखाओ, सीधा डीजीपी से ब्यान दिलवाओ| बस वही "मुल्ला की दौड़, मस्जिद तक" वाली कहानी है|
लेकिन इनको इतना तो समझना चाहिए कि जाट साक्षात् शिवजी होता है; जब तक सहेगा जहर सा पी के सहेगा परन्तु जब तांडव पे उतरेगा या नाराज होएगा तो आसानी से थोड़े ही मनेगा; रूठे शिवजी को तो पार्वती ना मना सकी, और यह चाहते हैं कि कभी चोपड़ा तो कभी डीजीपी की भभकियों के डर से ही जाट वापिस मुड़ आएं| मतलब गलती का अहसास है इनको, परन्तु आदत से मजबूर गलती माननी नहीं, बेशक फिर से वही डरावे-दबावे के कितने ही प्रपंच आजमाने पड़ जाएँ| आजमाओ परन्तु उन पर जिन पर यह चलें| जाट समाज को निजी तौर पर जानता हूँ, वो सीधी-सपाट बात से एक पल में मान जाए, परन्तु उसको घुमाया जाए तो वो घूमे ना घूमे परन्तु उसको घुमाने वाले जरूर घूम जाते हैं, और सरकार घूमी हुई है तभी तो डीजीपी स्तर तक के अफसर से ऐसे ब्यान दिलवा रही है जिनको भारतीय कानून ही मान्यता नहीं देता| अरे जिनके पुरखे शिवजी भगवान उर्फ़ दादा ओडिन को जंगलों-पहाड़ों का अकेलापन नहीं डरा सकता तुम उसको उसी की बसाई धरती पे अकेलेपन के डर से वापिस मोड़ लोगे, मुंह धो के आओ यार|
चलते-चलते जाट समाज से इतनी ही उम्मीद रखूँगा कि वो लोग आरक्षण की आगे की लड़ाई को रोड-सड़क की बजाये कोर्टों में लड़ें| बाकी यह लोग तो साल-छह महीने में वो हरयाणवी वाली कहावत के अनुसार अपने आप ही ब्या लेंगे, जब इनके बजट डगमगायेंगे| अभी वक्त तांडव का नहीं, अपितु तांडव करते रावण की घिस्स निकालने का है, इसलिए शांति धार के दादा ओडिन उर्फ़ बाबा शिवजी की भांति धूने में रम जाओ, कोर्टों में|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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