शायद ही ब्राह्मणों ने कोई अन्य ग्रन्थ-पुराण-शास्त्र में किसी जाति को 'जी' कह के सम्बोधित किया हो, जैसे कि सत्यार्थ प्रकाश में 'जाटों' को 'जी-जी' कह के उनकी स्तुति कर रखी है| यहां तक रामायण-महाभारत में क्षत्रियों की जाति का ही कहीं जिक्र नहीं, उसके आगे पीछे 'जी' लगाने की तो फिर बात ही नहीं| सवाल है कि पांच हजार से ज्यादा जातियों में जाटों को ही इनको 'जी' 'जी' का लेप क्यों लेपना पड़ा?
कारण साफ़ था 1875 में पुणे में ब्राह्मणों की सभा हुई थी कि जाट अंधाधुंध सिख धर्म में जा रहा है| जींद-कैथल-करनाल तक सिखिज्म का प्रभाव आ चुका है और ऐसे ही चला तो सारे देश का जाट सिख हो जायेगा| तब निर्धारित किया गया था कि इनको डरा-धमका-लोभ-लालच दिखा के नहीं रोका जा सकता; इसलिए इनकी स्तुति में कोई ग्रन्थ लिखो, उस ग्रन्थ में इनके समाज की बढ़िया-बढ़िया रीति-रिवाजों की प्रशंसा करो, इनको 'जी' 'जी' कह के इनका वंदन करो, तब शायद जाट रुक जाएँ| और आदर-मान को सम्मान देने वाले जाट पर इनका यह पैंतरा चला और जींद-कैथल-करनाल से आगे का जाट सिखिज्म में जाने से रुक गया| पंरतु इसको यह जाट बनाम नॉन-जाट और 35 बनाम एक के अखाड़े तक ले आएंगे, इसकी तो शायद जाटों के पुरखों ने भी कल्पना नहीं की थी|
सलंगित हैं सत्यार्थ प्रकाश के वो पन्ने, जिनमें मूलशंकर तिवारी उर्फ़ दयानन्द सरस्वती ने 'जी' 'जी' के साथ खूब जाट स्तुति की हुई है| अब या तो ब्राह्मण समाज को अपने ही ब्राह्मण का सम्मान नहीं अन्यथा फिर क्या वजह है कि इन लोगों ने जाटलैंड पे जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े सजवाए हुए हैं? ब्राह्मणों का सबसे बड़ा संगठन आरएसएस आखिर क्यों चुप है इसपे?
क्या मैं इसके यह मायने निकाल लूँ कि इनकी दुश्मनी से भी घातक होती है इनकी दोस्ती| इनसे जितना दूर रहा जाए उतना अच्छा| जितना न्यूट्रल रहा जाए, उतना बेहतर| सिर्फ व्यवहारिक बोलचाल रखो, जितना अन्य-जाति समुदायों को सम्मान देते हो, उतना दो और सुखी रहो| इनके साथ कारोबार करना है करो, परन्तु इनको अपनी आध्यात्मिक व् बौद्धिक स्वछंदता मत दो, वर्ना इनकी अंतिम मंजिल वही होती हो आजकल इन्होनें जाटलैंड की बना छोड़ी है, यानि जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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