Tuesday, 21 June 2016

ग्रन्थ-शास्त्रों की क्रियान्वयन में लाने वाली एक ही बात तर्कसंगत है बस, "वसुधैव कुटुंबकम"!

संस्कृत सीखना, परन्तु इसके इस श्लोक को सबसे ऊपर रखना, "वसुधैव कुटुंबकम" यानि पूरी धरती आपका घर है, आपका परिवार है| इसलिए सिर्फ संस्कृत पढ़के शास्त्री टीचर इत्यादि लगने तक संतुष्ट मत रहना, अपितु आगे बढ़के ऐसे कोर्स और पढाई पढ़ना जो आपको पूरी दुनिया में अपनी जड़ों से जुड़े रहते हुए कहीं भी रहने, कार्य करने लायक बनाये|

वैसे मैं खुद 10 साल तक (पहली से दसवीं कक्षा) आर.एस.एस. के स्कूल में पढ़ा हूँ, रामायण-महाभारत-गीता सबको को रट्टा मारा है, परन्तु इनमें रोजगार नहीं है ना ही भविष्य सिवाय पुजारी-फेरे करवाने वाले पंडित और शास्त्री अध्यापक की पोस्टों को छोड़ के| और इन पोस्टों पर भी 99% एक विशेष वर्ग का आरक्षण है|

खुद मैंने छटी से आठवीं तक तीन साल संस्कृत पढ़ी, हर साल 100 में से 95 से ऊपर नंबर लिए; परन्तु संस्कृत मुझे खुद से कभी नहीं जोड़ पाई| क्योंकि समाज में जब रोजगार हेतु संस्कृत विद्वानों की हालत देखता था तो स्वत: विमुख हो जाता था|

दूसरी बात इनको पढ़ने से डरें भी नहीं, क्योंकि मैं आज इनके ऊपर इतना बेबाकी से लिख-बोल पाता हूँ तो सिर्फ यही वजह है कि मैंने इनको पढ़ा और जाना और पाया कि यह महज इंसान की काल्पनिक शक्ति की रचना से ज्यादा कुछ नहीं| व्यवहारिकता से इनका कोई लेना देना नहीं| इनको पढ़ पाया तो आज मुझे कोई भी बाबा व् तथाकथित गॉडमैन फद्दु नहीं खींच सकता|

तीसरी बात इन रचनाओं का मानव की कल्पना शक्ति के तौर पर आदर करें, ताकि आप आपकी कल्पना शक्ति का सदुपयोग कर सकें| इनसे नफरत ना करें, क्योंकि उससे आपकी जिंदगी और रचनात्मकता इनसे नफरत करने में ही निकल जाएगी और आप ना ही तो इनके मर्म को जान पाएंगे और ना अपने आध्यात्म को परख पाएंगे|

चौथा इन सबमें से घूम फिर के अंत में सवाल और निचोड़ यही निकलेगा कि, "जब पुराण महात्मा बुद्ध को हिन्दू धर्म का नौवां अवतार बताते हैं तो उस अवतार की उपासना क्यों नहीं करने देते?" यह सवाल मैंने अंतहीन शास्त्रार्थियों से किया, परन्तु किसी के पास जवाब नहीं| परन्तु बुद्ध तक पहुँचने और उस पर स्थिरता से जमने के लिए इन लोगों के इन काल्पनिक शक्ति से रचित ग्रंथों से निकलना जरूरी है| अन्यथा यह आपमें संशय बनाये रखने से बाज नहीं आएंगे और आप इन्हीं में आध्यात्म तलाशते-तलाशते मर जायेंगे, बुद्ध को तो छू भी नहीं पाएंगे| छोटी उम्र में निकल लीजिए, ताकि बड़ी उम्र में फिर वो कर सको जो मानवता के लिए सबसे सर्वोत्तम होता है|

और मेरे ख्याल से अब जो भाजपा और आरएसएस की सरकार है यह कार्य करके बड़ा बढ़िया कर रही है| हरयाणा सरकार इस बात के लिए बधाई की पात्र है कि एक ज़माने और पुरातन काल में शुद्र-दलित-ओबीसी के लिए प्रतिबंधित यह पुस्तकें अब सिलेबस में डाली जा रही हैं| इनको पढ़ें, आपको इनमें रोजगार का मौका मिले तो करें, अन्यथा अपने रोजगार संबंधी विषय पर केंद्रित जरूर रहें| क्योंकि एक विशेष वर्ग के अलावा अगर कल को इनको पढ़ के धर्म-गुरु भी बनना चाहोगे तो जैसे अभी हाल ही में एक शहर में स्वर्ण पुजारियों द्वारा दलितों को पुजारी बनने का विरोध किया गया, ऐसे ही पाबंदियों में डाल दिए जाओगे|

यह लोग आलोचना के मामले में बड़े डरपोक होते हैं, तर्क-वितर्क में शून्य होते हैं, इनकी सहनशक्ति तो हमेशा विस्फोटक मोड में रहती है; किसी ने इन चीजों की थोड़ी सी भी आलोचना करी नहीं कि यह थर-थर कांपने लग जाते हैं| वैसे आशाराम, रविशंकर, मुरारी बापू आदि-आदि का भी फूफा बनने का टैलेंट अपने में भी जन्मजात है| पर इनके रास्ते चल के किसान-दलित-पिछड़े का भला नहीं हो सकता, इसलिए यह राह नहीं चुनी| कल को इनके जैसी कोई राह चुननी भी पड़ी तो बुद्ध या यौद्धेयों वाली चुनेंगे|

अंत का सार यही है कि इन रचनाओं को ही आपको यह कह के "कुँए का मेंढक" बनाने की कोशिशें की जाएँगी कि यही संसार है, यह जीवन का सार है| नहीं संस्कृत मात्र और यह रचनाएँ मात्र संसार नहीं; संसार है "वसुधैव कुटुंबकम"। इनको भी पढ़ें परन्तु उसको तो शर्तिया पढ़ें जो आपको दुनियां में कहीं भी रहने लायक और रोजगार करने लायक बनाता हो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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