वेश्या को भी एक समाज जो सहजता से
लेता हो, उसके लिए अलग बस्ती-सड़क या रोड़ जो ना बनाता हो, वेश्या दलित के घर
की हो या स्वर्ण घर की, सब बनती भी अपनी मर्जी से हैं, वेश्या बनने के लिए
किसी पे देवदासी बन मंदिरों में बैठने या विधवा हुई तो विधवा-आश्रम में
बैठने जैसी कोई कंडीशन नहीं, वेश्या हुई तो उसको अछूत या गिरी हुई जो समाज
ना दिखाता हो, वेश्या हुई तो उसको कोई समाज बिलकुल सहजता से लेता हो,
वेश्या हुई तो कोई समाज उसको अपने में ही घुलामिला के रखता हो; हाँ, बस
शरीफ परिवार उससे दूरी जरूर रखते हैं, अपने बच्चों-मर्दों को उससे दूर रखते
हैं, पंरतु रहते एक ही गाँव-नगरी में हैं; ऐसी धरती है मेरे हरयाणा की| और
यह मैं कोई एलियंस की भांति दूसरे गृह-राज्य-संस्कृति का प्राणी नहीं,
अपितु उसी संस्कृति से जन्मा-पला-बढ़ा हुआ कहता हूँ|
और लोग बोलते हैं कि यहां सबसे मेल-डोमिनेंट सोसाइटीज रहती हैं, यहां औरत को सम्मान नहीं; स्थान नहीं| मैंने मेरे गाँव में दलित से ले के स्वर्ण महिला तक अपनी मर्जी से वेश्यावृति करती देखी हैं; परन्तु उनके प्रति कोई घृणित या मलिन मन नहीं रखता; उनको भी अन्य औरतों की भांति चाची-काकी-दादी कह के ही बोला जाता है| असल में हम हरयाणवी तो उनको सीधे-मुंह तो वेश्या कहने तक से कतराते हैं; क्योंकि हम उनके लिए सामान्य समाज में वापिस लौट आने का ऑप्शन खुला रखते हैं| यह है उस धरती की संस्कृति जिसको हरयाणा के साथ-साथ जाटलैंड और खापलैंड भी बोला जाता है|
इतनी बेबाकी से इस पहलु को रखने पर बेशक बहुत से लोग मुझसे खफा हों परन्तु मैं ऐसे जाहिल-गंवारों की संस्कृति से तो बेहतर संस्कृति रखता हूँ, जो औरत को अपने श्लोकों में "ढोल, गंवार, शुद्र, नारी, यह सब ताड़न के अधिकारी" लिखते हैं और समाज में दर्शनशास्त्र और समाजशास्त्र के स्वघोषित पुरोधा प्रचारित किये जाते हैं| और यह उन वजहों में से एक सबसे बड़ी वजह है कि क्यों हरयाणा की धरती को धर्मसंगत नहीं बोला जाता| यकीन नहीं हो तो कभी आजमा के देख लेना, किसी कितने ही खुद में स्वघोषित और स्वप्रमाणित धर्मधीस से बहस कर लेना, उसको गुस्सा दिलाना चुटकियों का खेल है|
और क्यों इस धरती पर आकर ही धर्म वालों के फैसले भी युद्ध के जरिए ही होते हैं| क्योंकि यहां आकर इनके उलजुलूल तर्क धरासायी होते रहे हैं और जब धर्म वाले के तर्क धरासायी हो जाते हैं तो उसको क्रोध उठता है और वो क्रोध में लड़ने लग जाता है| इसीलिए तो इनके सारे देवी-देवता भी अस्त्रों से लैश होते हैं; दूर से इशारा होता है कि या तो हमारी बात मान जाना वर्ना कलह-कलेश को तैयार रहना| सिर्फ बुद्ध, नानक और महावीर हुए हैं; जो अस्त्रों से और जानवर की सवारी से लैश नहीं थे| उनको भी इन्होनें तड़ीपार कर दिया| यही कड़वी सच्चाई है, आपको भगवान कहलाना है तो आपको अस्त्रों से लैश होना और किसी जानवर की पद्दी (पीठ) पे बैठना पहली शर्त है|
खैर, इससे पहले कि शीर्षक से भटक कर ज्यादा दूर निकल जाऊं; लेख को यहीं समेटता हूँ और इतना ही कहता हूँ कि हरयाणवियो अपनी संस्कृति के खुलेपन को पहचानो और इसको सामने रखना शुरू करो| वर्ना वो लोग तो आगे बढ़ते ही जा रहे हैं जो आपको हरयाणा की धरती पर हरयाणवी होने और कहलाने के भी चोर बना देंगे|
विशेष: हरयाणा-हरयाणवी यानि वर्तमान हरयाणा, दिल्ली, वेस्ट यूपी, उत्तराखंड, उत्तरी राजस्थान|
बहुत करी "विद्रोह-क्रांति", बहुत करी "हरित-क्रांति", बहुत करी "श्वेत-क्रांति", अब हो जाये एक "लेखन-क्रांति"!
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
और लोग बोलते हैं कि यहां सबसे मेल-डोमिनेंट सोसाइटीज रहती हैं, यहां औरत को सम्मान नहीं; स्थान नहीं| मैंने मेरे गाँव में दलित से ले के स्वर्ण महिला तक अपनी मर्जी से वेश्यावृति करती देखी हैं; परन्तु उनके प्रति कोई घृणित या मलिन मन नहीं रखता; उनको भी अन्य औरतों की भांति चाची-काकी-दादी कह के ही बोला जाता है| असल में हम हरयाणवी तो उनको सीधे-मुंह तो वेश्या कहने तक से कतराते हैं; क्योंकि हम उनके लिए सामान्य समाज में वापिस लौट आने का ऑप्शन खुला रखते हैं| यह है उस धरती की संस्कृति जिसको हरयाणा के साथ-साथ जाटलैंड और खापलैंड भी बोला जाता है|
इतनी बेबाकी से इस पहलु को रखने पर बेशक बहुत से लोग मुझसे खफा हों परन्तु मैं ऐसे जाहिल-गंवारों की संस्कृति से तो बेहतर संस्कृति रखता हूँ, जो औरत को अपने श्लोकों में "ढोल, गंवार, शुद्र, नारी, यह सब ताड़न के अधिकारी" लिखते हैं और समाज में दर्शनशास्त्र और समाजशास्त्र के स्वघोषित पुरोधा प्रचारित किये जाते हैं| और यह उन वजहों में से एक सबसे बड़ी वजह है कि क्यों हरयाणा की धरती को धर्मसंगत नहीं बोला जाता| यकीन नहीं हो तो कभी आजमा के देख लेना, किसी कितने ही खुद में स्वघोषित और स्वप्रमाणित धर्मधीस से बहस कर लेना, उसको गुस्सा दिलाना चुटकियों का खेल है|
और क्यों इस धरती पर आकर ही धर्म वालों के फैसले भी युद्ध के जरिए ही होते हैं| क्योंकि यहां आकर इनके उलजुलूल तर्क धरासायी होते रहे हैं और जब धर्म वाले के तर्क धरासायी हो जाते हैं तो उसको क्रोध उठता है और वो क्रोध में लड़ने लग जाता है| इसीलिए तो इनके सारे देवी-देवता भी अस्त्रों से लैश होते हैं; दूर से इशारा होता है कि या तो हमारी बात मान जाना वर्ना कलह-कलेश को तैयार रहना| सिर्फ बुद्ध, नानक और महावीर हुए हैं; जो अस्त्रों से और जानवर की सवारी से लैश नहीं थे| उनको भी इन्होनें तड़ीपार कर दिया| यही कड़वी सच्चाई है, आपको भगवान कहलाना है तो आपको अस्त्रों से लैश होना और किसी जानवर की पद्दी (पीठ) पे बैठना पहली शर्त है|
खैर, इससे पहले कि शीर्षक से भटक कर ज्यादा दूर निकल जाऊं; लेख को यहीं समेटता हूँ और इतना ही कहता हूँ कि हरयाणवियो अपनी संस्कृति के खुलेपन को पहचानो और इसको सामने रखना शुरू करो| वर्ना वो लोग तो आगे बढ़ते ही जा रहे हैं जो आपको हरयाणा की धरती पर हरयाणवी होने और कहलाने के भी चोर बना देंगे|
विशेष: हरयाणा-हरयाणवी यानि वर्तमान हरयाणा, दिल्ली, वेस्ट यूपी, उत्तराखंड, उत्तरी राजस्थान|
बहुत करी "विद्रोह-क्रांति", बहुत करी "हरित-क्रांति", बहुत करी "श्वेत-क्रांति", अब हो जाये एक "लेखन-क्रांति"!
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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