Friday 17 June 2016

पलायन, कौतूहल और हल!

आज के दिन मेरी जन्मनगरी निडाना (हिंदी में गाँव) में एक भी बनिया परिवार नहीं है, सब रोजगार की प्राथमिकताओं के चलते छत्तीसगढ़ से ले के जींद-दिल्ली तक पलायन कर चुके हैं| आज से करीब 20 साल पहले तक 10 के करीब बनिया परिवार रहते थे नगरी में| और लगभग यही कहानी हर हरयाणवी नगरी की है| बनिया तो बनिया, बनिए से ज्यादा तो हर नगरी से जाट, ओबीसी यहां तक कि नौकरी पेशा तो एससी-एसटी तक ने पैतृक नगरियां छोड़ के पास-पड़ोस शहरों में कोठियां बना के वहाँ पलायन कर लिया है|

अब जिस तरीके से यह गंवार *(नीचे नोट देखें) "कैराना" का मामला उठा रहे हैं; उसको देखते हुए तो लगता है कि यह हरयाणा में अगला झगड़े-फसाद का मुद्दा यही उठाने वाले हैं| और क्योंकि 70% हरयाणा की नगरियां (हिंदी में गाँव) जाट बाहुल्य हैं; तो जाट रहो तैयार एक और इल्जाम भुगतने को कि इनके आतंक के चलते यह सब पलायन हुए हैं| वाह बैठे-बिठाए क्या नायाब फार्मूला हाथ लगा है फुस्स हो चुके "जाट बनाम नॉन-जाट" यानि 35 बनाम 1 के फसाद को फिर से हवा देने का|

तोड़ की कह दूँ भाई, "यें लातों के भूत हैं, बातों से नहीं लठ खा के पैंडा छोड़ेंगे!"; तो जो अगर अबकी बार इन्होनें ऐसा कोई बेहूदा राग अलापा, इनके तसल्ली से टाकणे छांग दो|

और बिहार-बंगाल-आसाम के जितने भी लोग एनसीआर-हरयाणा-पंजाब-वेस्ट यूपी में नौकरी करते हैं, तैयार रहें; क्योंकि अब यह लोग आपके पलायन का भी हल करेंगे; आपको आपके गृह-राज्यों में ही रोजगार उपलब्ध करवा के, आपकी गृह-राज्य वापसी अभियान चलवा के|

*नोट = गंवार ही कहूंगा इनको क्योंकि यह जो अब मुद्दा उठाया है यह मेरे हरयाणा में "ठाली न्यान काटडे मूंदें" वाली तर्ज पर "चूचियों में हाड ढूँढ़ने वाले" निठ्ठले-नाकारा लोग उठाया करते हैं| इनके लच्छन देख के तो लगता ही नहीं कि जनता ने कोई सरकार चुनी है, ऐसा प्रतीत होता है कि गुंडे-लफंगों को देश की ऐसी-तैसी करने का लाइसेंस थमा बैठे हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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