ग्रेटर हरयाणा (वर्तमान हरयाणा-दिल्ली-वेस्ट यूपी-उत्तरी राजस्थान) के हर
दस किलोमीटर पर एक गुरुकुल, हर दूसरे डिस्ट्रिक्ट सिटी में एक जाट कॉलेज और
एक जाट स्कूल मिलता है| गुरुकुल अधिकतर जाटों की दान की हुई भूमि पर बने
हुए हैं|
बात करता हूँ जाति के नाम पर बने हुए जाट स्कूल व् कॉलेजों की, इनमें किसी में भी यह नियम नहीं कि सिर्फ जाट का बालक ही इनमें पढ़ेगा, या इनका टीचिंग से ले नॉन-टीचिंग स्टाफ सब सिर्फ जाट ही होगा|
परन्तु इसी हरयाणा में दो कॉलेज तो मैं निजी तौर पर जानता हूँ, जिनके नाम भी ब्राह्मण जाति के महापुरुषों पर हैं और टीचिंग व् नॉन-टीचिंग पूरा स्टाफ सिर्फ ब्राह्मण होगा, इस कंडीशन के साथ यह कालेज चलते हैं| शायद इनमें पढ़ने वाले भी कम से कम 90% तो ब्राह्मण हैं ही, शायद हों इससे ज्यादा भी| और यह कॉलेज हैं कुरुक्षेत्र में पड़ने वाला परशुराम कॉलेज और जींद जिले के रामराय में पड़ने वाला एक संस्कृत महाविद्यालय|
परन्तु फिर भी अस्वर्ण हो या खुद स्वर्ण ही क्यों ना हो, इनको जातिवादी दिखेगा या यह जातिवादी बताएँगे तो जाट को|
क्या वक्त नहीं आ गया है कि अब ऐसे तमाम जाति-विशेष के स्टाफ और स्टूडेंट दोनों स्तर पर आरक्षित स्कूल-कालेजों को या तो सबके के लिए खुलवाया जाए, अन्यथा इन पर ताले लगवाए जाएँ?
विशेष अनुरोध जाट समाज से: दो चीजें दुरुस्त कर लो:
1) गाँव से जब भी अपने बच्चे को कुछ बड़ा बनने के लिए शहरों में भेजो तो उसको यह कदापि मत कहो कि खेती छोटा काम है, दुखदायी काम है, घाटे का काम है, यहाँ जीवन नहीं; बल्कि यह कहो कि तुम्हें अपनी जाति-संस्कृति-गाँव-खेड़े का नाम रोशन करने के साथ-साथ वापिस मुड़ के इनके सम्मान और सम्पदा को बढाने और बचाने में योगदान देना है| पहले वाला कारण देते रहे बुजुर्ग इसलिए मेरे पिता वाली पीढ़ी (आज के 45 से 65 साल का ग्रुप) में 90% जाट वापिस गाँवों की तरफ मुड़े ही नहीं| और यही वजह है कि शहरी चकचौंध को ही संस्कृति मान बैठे और रम गए जगराते-भंडारे-चौकी इत्यादि की संस्कृति में| यह घर के अगले दरवाजे से कमा के लाते हैं और इनकी तथाकथित आधुनिकता में चूर औरतें घर के पिछले दरवाजे से अधिकतर कमाई ढोंगी-पाखंडी-सत्संगी-पूछा पाडू-बाबों इत्यादि के नल में उतरती रहती है और राजी हुई रहती हैं कि तुमसे बड़ी कलावंती ना कोई हुई ना होगी| सच कह रहा हूँ 90% शहरी जाटों की जिंदगी इससे ज्यादा कुछ नहीं कि मर्द अगले दरवाजे से कमा के लाएगा और घर की औरतें उसको पिछले दरवाजे से पाखंडियों को पूजती रहेंगी| और यह पाखंडी भी तो कौन है; सिर्फ और सिर्फ मंडी-फंडी|
2) मेरे दादा जी वाली पीढ़ी अपने दान के पैसे को अपने हाथों से लगाती थी, इसलिए अंधाधुंध स्कूल-कालेज-गुरुकुल बनवाये| और मेरे पिता वाली पीढ़ी ने यह ठेका अपनी घर की औरतों के जरिये थमा रखा है इन ढोंगी-पाखंडियों को, इसलिए सिर्फ और सिर्फ मंदिर-धर्मशालाएं बन रही हैं| और बाकी के पैसे से जाट बनाम नॉन-जाट के दंगल फाइनेंस हो रहे हैं|
इसलिए और कृपया आप मेरे पिता की पीढ़ी वालों से अनुरोध है कि कृपया हम आपके बच्चों को समझें, हमारा साथ देवें, हम अपने दादाओं की भांति हमारी कमाइयों के दान से स्कूल-कालेज बनवाना चाहते हैं, जाट भवन व् हैबिटेट सेंटर्स बनवाना चाहते हैं; मात्रा और मात्र मंदिर या धर्मशालाएं नहीं| मंदिर-धर्मशालाएं जरूरत के हिसाब से बनें परन्तु इतनी बेहिसाबी भी नहीं कि ऊपर बैठे हमारे दादे-पड़दादे हमारे को कोसते हों|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
बात करता हूँ जाति के नाम पर बने हुए जाट स्कूल व् कॉलेजों की, इनमें किसी में भी यह नियम नहीं कि सिर्फ जाट का बालक ही इनमें पढ़ेगा, या इनका टीचिंग से ले नॉन-टीचिंग स्टाफ सब सिर्फ जाट ही होगा|
परन्तु इसी हरयाणा में दो कॉलेज तो मैं निजी तौर पर जानता हूँ, जिनके नाम भी ब्राह्मण जाति के महापुरुषों पर हैं और टीचिंग व् नॉन-टीचिंग पूरा स्टाफ सिर्फ ब्राह्मण होगा, इस कंडीशन के साथ यह कालेज चलते हैं| शायद इनमें पढ़ने वाले भी कम से कम 90% तो ब्राह्मण हैं ही, शायद हों इससे ज्यादा भी| और यह कॉलेज हैं कुरुक्षेत्र में पड़ने वाला परशुराम कॉलेज और जींद जिले के रामराय में पड़ने वाला एक संस्कृत महाविद्यालय|
परन्तु फिर भी अस्वर्ण हो या खुद स्वर्ण ही क्यों ना हो, इनको जातिवादी दिखेगा या यह जातिवादी बताएँगे तो जाट को|
क्या वक्त नहीं आ गया है कि अब ऐसे तमाम जाति-विशेष के स्टाफ और स्टूडेंट दोनों स्तर पर आरक्षित स्कूल-कालेजों को या तो सबके के लिए खुलवाया जाए, अन्यथा इन पर ताले लगवाए जाएँ?
विशेष अनुरोध जाट समाज से: दो चीजें दुरुस्त कर लो:
1) गाँव से जब भी अपने बच्चे को कुछ बड़ा बनने के लिए शहरों में भेजो तो उसको यह कदापि मत कहो कि खेती छोटा काम है, दुखदायी काम है, घाटे का काम है, यहाँ जीवन नहीं; बल्कि यह कहो कि तुम्हें अपनी जाति-संस्कृति-गाँव-खेड़े का नाम रोशन करने के साथ-साथ वापिस मुड़ के इनके सम्मान और सम्पदा को बढाने और बचाने में योगदान देना है| पहले वाला कारण देते रहे बुजुर्ग इसलिए मेरे पिता वाली पीढ़ी (आज के 45 से 65 साल का ग्रुप) में 90% जाट वापिस गाँवों की तरफ मुड़े ही नहीं| और यही वजह है कि शहरी चकचौंध को ही संस्कृति मान बैठे और रम गए जगराते-भंडारे-चौकी इत्यादि की संस्कृति में| यह घर के अगले दरवाजे से कमा के लाते हैं और इनकी तथाकथित आधुनिकता में चूर औरतें घर के पिछले दरवाजे से अधिकतर कमाई ढोंगी-पाखंडी-सत्संगी-पूछा पाडू-बाबों इत्यादि के नल में उतरती रहती है और राजी हुई रहती हैं कि तुमसे बड़ी कलावंती ना कोई हुई ना होगी| सच कह रहा हूँ 90% शहरी जाटों की जिंदगी इससे ज्यादा कुछ नहीं कि मर्द अगले दरवाजे से कमा के लाएगा और घर की औरतें उसको पिछले दरवाजे से पाखंडियों को पूजती रहेंगी| और यह पाखंडी भी तो कौन है; सिर्फ और सिर्फ मंडी-फंडी|
2) मेरे दादा जी वाली पीढ़ी अपने दान के पैसे को अपने हाथों से लगाती थी, इसलिए अंधाधुंध स्कूल-कालेज-गुरुकुल बनवाये| और मेरे पिता वाली पीढ़ी ने यह ठेका अपनी घर की औरतों के जरिये थमा रखा है इन ढोंगी-पाखंडियों को, इसलिए सिर्फ और सिर्फ मंदिर-धर्मशालाएं बन रही हैं| और बाकी के पैसे से जाट बनाम नॉन-जाट के दंगल फाइनेंस हो रहे हैं|
इसलिए और कृपया आप मेरे पिता की पीढ़ी वालों से अनुरोध है कि कृपया हम आपके बच्चों को समझें, हमारा साथ देवें, हम अपने दादाओं की भांति हमारी कमाइयों के दान से स्कूल-कालेज बनवाना चाहते हैं, जाट भवन व् हैबिटेट सेंटर्स बनवाना चाहते हैं; मात्रा और मात्र मंदिर या धर्मशालाएं नहीं| मंदिर-धर्मशालाएं जरूरत के हिसाब से बनें परन्तु इतनी बेहिसाबी भी नहीं कि ऊपर बैठे हमारे दादे-पड़दादे हमारे को कोसते हों|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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