पता नहीं बॉलीवुड वालों से तुक्का लगा, या क्या; परन्तु एक अर्से बाद किसी
फिल्म में जाट को उसके वास्तविक डीएनए यानि "Savior of Society and
Socialism" के अनुरुप दर्शाया तो बड़ा शुकुन मिला। इस फिल्म की पूरी टीम को
हृदय से धन्यवाद, मुझे एक ऐसी फिल्म देने के लिए कि अगर कोई पूछें कि जाट
क्या है तो मैं उसको इस फिल्म का नाम बता सकूं; कि इसमें जो "चौधरी साहब"
का करैक्टर है वो ही असली जाट है, वही एक पहुँचे हुए
जाट का चरित्र है जिसकी वजह से दुनिया में जाट "जाट-देवता" के नाम से भी
प्रसिद्ध रहा है, जिसकी वजह से उसके लिए कहावत बनी है कि "अनपढ़ जाट पढ़े
जैसा, और पढ़ा जाट खुदा जैसा!"; और इस फिल्म में जाट का वो खुदा वाला रूप
बखूबी दिखाया गया है|
और कोई इस फिल्म को देखे ना देखे परन्तु अंधभक्ति में चूर और पथभ्रष्ट जाट इस फिल्म को कम-से-कम एक बार जरूर देखें। इस फिल्म को देखते हुए और "चौधरी साहब" के बेटे की मौत के बाद से उनके रवैये को देख फिल्म के अंत तक बार-बार यही आभास हो रहा था इस फिल्म का नाम "शोरगुल" की बजाय "Jat the Savior" रखा गया होता तो निसंदेह सिल्वर-स्क्रीन पर ज्यादा बेहतर उतरती।
जिस तरीके से इस फिल्म में "चौधरी साहब" का चरित्र, दोनों तरफ के धर्म वालों के वहशीपने और पीड़ित के साथ वास्तविक न्यायकारी होते हुए पूरी फिल्म में जद्दोजहद के साथ पिसता हुआ दिखाया गया है, मेरा विश्वास है कि कुछ ऐसा ही हाल और वेदना हर पहुंचे हुए जाट के अंदर आज देश के हालात देख के गुजर रही है। इस फिल्म के लेखक और डायरेक्टर ने इस चरित्र को "चौधरी साहब" का नाम दे, इस रोल के साथ पूरा न्याय किया है। अपने बेटे की मौत पे भी संयम रखने, धर्मान्धों द्वारा भड़काने की लाख कोशिशों पर भी ना भड़कने, जवान बेटे की मौत के गम के माहौल में भी पडोसी की मुस्लिम बेटी को बचाने का जज्बा और होशोहवास रखते हुए (इस सीन पर तो मुझे ग़दर में शकीना को बचाने वाला तारा जट्ट याद हो आया; हालाँकि अगले सीन में पता लगता है कि धर्मान्धों से लड़की को वह बचा के लाये) और उसके न्याय के लिए लड़ने का जज्बा; यही एक सच्चे "गणतांत्रिक न्यायाधीश" का गुण होता है, वास्तव में जाट होता है।
निसंदेह ना सिर्फ जाट युवा अपितु समाज के हर युवा को यह फिल्म झकझोरने के साथ उसको सही राह पर लाने का संदेश लिए हुए है।
धन्यवाद फिल्म के डायरेक्टर पवन कुमार सिंह और जीतेन्द्र तिवारी, एक ऐसे माहौल में यह फिल्म निकालने के लिए जब पूरा उत्तरी भारत सत्ताधारियों ने जाट बनाम नॉन-जाट के लफड़े में सुलगा रखा है।
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
और कोई इस फिल्म को देखे ना देखे परन्तु अंधभक्ति में चूर और पथभ्रष्ट जाट इस फिल्म को कम-से-कम एक बार जरूर देखें। इस फिल्म को देखते हुए और "चौधरी साहब" के बेटे की मौत के बाद से उनके रवैये को देख फिल्म के अंत तक बार-बार यही आभास हो रहा था इस फिल्म का नाम "शोरगुल" की बजाय "Jat the Savior" रखा गया होता तो निसंदेह सिल्वर-स्क्रीन पर ज्यादा बेहतर उतरती।
जिस तरीके से इस फिल्म में "चौधरी साहब" का चरित्र, दोनों तरफ के धर्म वालों के वहशीपने और पीड़ित के साथ वास्तविक न्यायकारी होते हुए पूरी फिल्म में जद्दोजहद के साथ पिसता हुआ दिखाया गया है, मेरा विश्वास है कि कुछ ऐसा ही हाल और वेदना हर पहुंचे हुए जाट के अंदर आज देश के हालात देख के गुजर रही है। इस फिल्म के लेखक और डायरेक्टर ने इस चरित्र को "चौधरी साहब" का नाम दे, इस रोल के साथ पूरा न्याय किया है। अपने बेटे की मौत पे भी संयम रखने, धर्मान्धों द्वारा भड़काने की लाख कोशिशों पर भी ना भड़कने, जवान बेटे की मौत के गम के माहौल में भी पडोसी की मुस्लिम बेटी को बचाने का जज्बा और होशोहवास रखते हुए (इस सीन पर तो मुझे ग़दर में शकीना को बचाने वाला तारा जट्ट याद हो आया; हालाँकि अगले सीन में पता लगता है कि धर्मान्धों से लड़की को वह बचा के लाये) और उसके न्याय के लिए लड़ने का जज्बा; यही एक सच्चे "गणतांत्रिक न्यायाधीश" का गुण होता है, वास्तव में जाट होता है।
निसंदेह ना सिर्फ जाट युवा अपितु समाज के हर युवा को यह फिल्म झकझोरने के साथ उसको सही राह पर लाने का संदेश लिए हुए है।
धन्यवाद फिल्म के डायरेक्टर पवन कुमार सिंह और जीतेन्द्र तिवारी, एक ऐसे माहौल में यह फिल्म निकालने के लिए जब पूरा उत्तरी भारत सत्ताधारियों ने जाट बनाम नॉन-जाट के लफड़े में सुलगा रखा है।
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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