1) बहन पी.वी. सिंधु के फाइनल में पहुँचने से पहले कोई हवन-यज्ञ-मन्त्रोचारण नहीं हुआ था, फाइनल के लिए हुआ और वो हारी।
2) भाई योगेश्वर दत्त के लिए तो पहली बाउट शुरू होने से पहले से ही बताया जा रहा है कि इतना हवन-यज्ञ-मन्त्रोचारण हुआ कि भाई के परिजनों ने दो घी के पिप्पे हवनवेदी में झोंक दिए थे और नतीजा क्या निकला, शिफर। छोरा उससे भी हार गया, जिससे कोई सपनों में भी उम्मीद नहीं किया होगा।
इन उदाहरण का यह भी मतलब नहीं कि हवन-यज्ञ-मन्त्रोचारण हुए तो यह हारे, परन्तु हवन-यज्ञ-मन्त्रोचारण करने से जीते भी तो नहीं?
तो फिर यह हवन-यज्ञ-मन्त्रोचारण होते किस लिए हैं? यह होते हैं फंडी को रोजगार देने हेतु और फंडी के फ़ंडों के माध्यम से मंडी का सामान बिकवाने हेतु। सीधी और सपाट बात, समझ में आती हो तो थारे बुद्धि रुपी घर में जचा लो और नहीं तो हांडे जाओ इन मोडडों के यहां अपने घर धकाते।
और गज़ब की बात तो यह है कि यह लोग बाद में इस बात का अहसान और अहसास भी नहीं मानते कि आपने हवन-यज्ञ करके इनको रोजगार दिया तो इनका घर चला, अपितु उसको भी उल्टा आपपे ही अहसान दिखाया जाता है। यानी इनको रोजगार भी दो और फिर इनसे दबे भी रहो। इनकी पंडोकली में घर भी उड़ेलो और फिर इनसे यह अहसान भी ना धरवाओ कि तुमने इनका पेट भर दिया। बल्कि यह अहसान धरवाओगे तो यह तुम्हें उल्टी लात और मारने लगते हैं। तू तो दुष्ट है पापी है, यह है वह है आदि-आदि।
दूसरा जो कांसेप्ट यह फंड-पाखंड साधते हैं वह है चढ़ते हुए को सलूट मार उसके ऊपर अपना ठप्पा लगा अपना बनाने का या अपने वाले का गैरजरूरी प्रचार कर समाज में उसकी मिथ्या छवि बनाने का। यानी सिंधु गोल्ड ले आती, तो उसपे यह फंडी हमने हवन-यज्ञ से जितवाया का फटाक से ठप्पा लगा देते; योगी को तो यह पहले से उठाये फिर ही रहे थे।
सफलता-शौहरत हासिल करने का कोई शॉर्टकट नहीं। परन्तु हाँ प्रचार और सलूट जरूर मारो, लेकिन हार-जीत की हर परिस्तिथि में स्थिर रहते हुए। चढ़ते को सलाम करना और हारे को दुत्कारना, यह भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद की सबसे बड़ी जड़ें हैं।
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
2) भाई योगेश्वर दत्त के लिए तो पहली बाउट शुरू होने से पहले से ही बताया जा रहा है कि इतना हवन-यज्ञ-मन्त्रोचारण हुआ कि भाई के परिजनों ने दो घी के पिप्पे हवनवेदी में झोंक दिए थे और नतीजा क्या निकला, शिफर। छोरा उससे भी हार गया, जिससे कोई सपनों में भी उम्मीद नहीं किया होगा।
इन उदाहरण का यह भी मतलब नहीं कि हवन-यज्ञ-मन्त्रोचारण हुए तो यह हारे, परन्तु हवन-यज्ञ-मन्त्रोचारण करने से जीते भी तो नहीं?
तो फिर यह हवन-यज्ञ-मन्त्रोचारण होते किस लिए हैं? यह होते हैं फंडी को रोजगार देने हेतु और फंडी के फ़ंडों के माध्यम से मंडी का सामान बिकवाने हेतु। सीधी और सपाट बात, समझ में आती हो तो थारे बुद्धि रुपी घर में जचा लो और नहीं तो हांडे जाओ इन मोडडों के यहां अपने घर धकाते।
और गज़ब की बात तो यह है कि यह लोग बाद में इस बात का अहसान और अहसास भी नहीं मानते कि आपने हवन-यज्ञ करके इनको रोजगार दिया तो इनका घर चला, अपितु उसको भी उल्टा आपपे ही अहसान दिखाया जाता है। यानी इनको रोजगार भी दो और फिर इनसे दबे भी रहो। इनकी पंडोकली में घर भी उड़ेलो और फिर इनसे यह अहसान भी ना धरवाओ कि तुमने इनका पेट भर दिया। बल्कि यह अहसान धरवाओगे तो यह तुम्हें उल्टी लात और मारने लगते हैं। तू तो दुष्ट है पापी है, यह है वह है आदि-आदि।
दूसरा जो कांसेप्ट यह फंड-पाखंड साधते हैं वह है चढ़ते हुए को सलूट मार उसके ऊपर अपना ठप्पा लगा अपना बनाने का या अपने वाले का गैरजरूरी प्रचार कर समाज में उसकी मिथ्या छवि बनाने का। यानी सिंधु गोल्ड ले आती, तो उसपे यह फंडी हमने हवन-यज्ञ से जितवाया का फटाक से ठप्पा लगा देते; योगी को तो यह पहले से उठाये फिर ही रहे थे।
सफलता-शौहरत हासिल करने का कोई शॉर्टकट नहीं। परन्तु हाँ प्रचार और सलूट जरूर मारो, लेकिन हार-जीत की हर परिस्तिथि में स्थिर रहते हुए। चढ़ते को सलाम करना और हारे को दुत्कारना, यह भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद की सबसे बड़ी जड़ें हैं।
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
No comments:
Post a Comment