जिसका जितना क्रेडिट बनता हो उतना ही दिया जाए तो सभ्यता कहलाती है, हद से
ज्यादा भावुक हो के सारा क्रेडिट उसी पे उड़ेल दो तो वह अंधभक्ति कहलाती
है|
पहली तो बात जाट इतने ही अज्ञानी रहे होते तो सत्यार्थ प्रकाश में उनको "जाट जी" कह के नहीं लिखा गया होता| यह नहीं कहा गया होता कि "सारी दुनिया जाट जैसी हो जाए तो पण्डे भूखे मर जाएँ!" कुछ तो ज्ञान रखते होंगे हमारे पुरखे तभी उनकी एक ब्राह्मण की लिखी पुस्तक में स्तुति की गई| वरना हजारों-हजार जातियां हैं भारत में, हुई है आजतक किसी की किसी भी ब्राह्मण की पुस्तक-ग्रन्थ-शास्त्र में "जी" लगा के अनुशंषा,जाट को छोड़ के?
दूसरी बात जो अज्ञानी होता है उसको कोई जी लगा के नहीं बोलता, जो शिष्य होता है उसकी कोई जी लगा के स्तुति नहीं करता| सत्यार्थ प्रकाश लिखने से पहले जाटों के ज्ञान और मान्यताओं को भलीभांति पढ़ा और परखा गया था, तभी सत्यार्थ प्रकाश लिखा गया था| यह ठीक उसी तरह है जैसे कि आज कोई जाट की मान्यताओं पर जाट की स्तुति करते हुए पुस्तक निकाल दे|
मानता हूँ दयानंद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में काफी चीजें जाटों से सम्बन्धित डॉक्यूमेंट कर दी, परन्तु उसके साथ ही सड़ी-गली दुनिया की क्रूरतम मनुवाद की वर्णव्यस्था भी उसी पुस्तक में जाट के चिपका दी| सत्यार्थ प्रकाश में लिखा कि लड़की का सानिध्य लड़के के लिए आग में घी के समान होता है इसीलिए लड़के-लड़की को अलग-अलग जगह रख के पढ़ाया जाए; परन्तु दूसरी तरफ उसी आर्यसमाज के नाम से Co-education के DAV स्कूल/कॉलेज बनाये गए; किसी जाट ने प्रश्न किया इस बात पे? एक पल को एडजस्ट भी कर लूँ कि शहरों में इंग्लिश माध्यम के DAV बनाये और गाँव में संस्कृत के गुरुकुल; परन्तु जब दोनों ही संस्थाएं एक पुस्तक को मानती थी तो यह "लड़की लड़के के लिए अग्नि के समान होती है" वाली बात का अनुपालन DAV में क्यों नहीं किया गया?
इतना काफी होना चाहिए तार्किक जाट को समझने के लिए कि यह एक हांडी में दो पेट क्यों किये गए? उद्देश्य साफ़ था जाट को सिख धर्म में जाने से रोकना था और दूसरा जाट को ऐसी शिक्षा पद्दति थमानी थी जो दूसरे दर्जे की थी यानी संस्कृत माध्यम से पढाई| आर्य समाज को बराबरी के विचार से बनाया गया था तो क्यों नहीं दयानंद सरस्वती ने गांव में अंग्रेजी को पढ़ाने की वकालत करी? बताईये जरा कि जिस आदमी को जाट समाज इतना सर आँखों पर बैठा चुका था, वह अगर जाटों को अंग्रेजी पढ़ने की कहते तो क्या जाट समाज मना कर देता?
ऐसा जाट के इसी भोलेपन के चलते नहीं किया गया जिस वजह से आज जब मैं आर्य-समाज की कमियों की बात करता हूँ तो कई जाट भाई भावुक हो जाते हैं| सनद रहे भावुकता जाट का गहन नहीं| मैं वो इंसान हूँ जिसने बचपन में आर्य-समाज की प्रचार सभाओं में स्टेज के प्रभार भी संभाले और प्रबन्ध भी किये| मैं वो इंसान हूँ जिसने पहली से दसवीं तक आरएसएस के स्कूल में पढाई की है| तो इसका यह मतलब तो नहीं हो जाता है ना कि मैं आर्य-समाज या आरएसएस की कमियों पर बात ही नहीं करूँगा?
आर्य-समाज और आरएसएस तो छोडो लोग तो अभी ठीक से आधिकारिक तौर पर दो साल के भी नहीं हुए यूनियनिस्ट मिशन की ही कितनी आलोचना करने लगे हैं, यह जगजाहिर है| और हम तो इन आलोचनाओं का स्वागत करते हैं, क्योंकि हम आगे बढ़ना चाहते हैं, आगे बढ़ते हुए अपने में सुधार करते रहना चाहते हैं|
इसलिए जाट अपने इस भोलेपन में सुधार कर ले कि किसी ने उसके लिए कुछ कर दिया तो फिर उसके लिए बिलकुल ही भावभंगिम की भांति अंधे ही हो जाओ| अंधे हुए बैठे रहे और आर्य-समाज में समय रहते यह सुधार नहीं किये, इसलिए तो आज सुनने में आ रहा है कि आर्य-समाज पर मूर्तिपूजा करने वाले सनातनी कब्ज़ा करते जा रहे हैं,सही है ना? सुन रहे हैं ना आर्य-समाजी लोग, आपके मूर्तिपूजा के विरोध के सिद्धांत पर स्थापित समाज को मूर्तिपूजा करने वाले सनातनी कब्जाने की फिराक में हैं|
और इन कब्ज़ा करने की मंशा रखने वालों की बानगी भी भलीभांति जानते ही होंगे आप| जी, यह जैसे सिखों को हिन्दू-रक्षक बोल के असली हिन्दू बता के उनको कब्जाने की फिराक में रहते हैं; परन्तु सिख इनको दूर से ही दुत्कार देते हैं; ठीक ऐसे ही इनसे दूरी बना के रखिये; वर्ना ना घर के रहेंगे ना घाट के|
अत: समय रहते चेत जाईये और आर्य-समाज को सनातनियों से बचाईये, बचाईये अगर आज भी अपने को वाकई का आर्य-समाजी मानते हो तो|
और इसकी शुरुवात आपके घरों के पिछले दरवाजे से आपकी औरतों के जरिये दान-चढ़ावे-चन्दे के नाम पर पैठ लगाए ढोंगी-पाखंडियों से दूर रहने हेतु उनको समझाने से शुरू करें। औरत का हृदय कोमल होता है, वो अपने घर के भले के लिए कुछ भी कर गुजरती है; इसलिए आदमी की अपेक्षा औरत का इन ढोंगियों के बहकावे में आना आसान होता है| इसीलिए यह आपके घरों की औरतों को इनकी औरतों व् खुद के द्वारा निशाना बनाते हैं और अपने घर भरते हैं। अत: इस घर के पिछले दरवाजे से घर की कमाई में लगी सेंध को बन्द करवाने हेतु, अपने-अपने घर की औरतों से बैठ के मन्त्रणा कीजिये। आपकी औरतें जो अपनापन इन मोडडों-पाखण्डियों की चिकनी-चुपड़ी बातों में पाती हैं, वो आप खुद दो बोल प्यार से बोल के दोगे तो आपकी औरतें ही इनको आगे धका देंगी।
और इस तरह जाट का मूर्तिपूजा रहित समाज का वह मूल-सिद्धांत बचाने में आप कामयाब रहेंगे, जिससे कि जाट समाज पे लट्टू हो के दयानद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश लिख डाला था या इनसे लिखवाया गया था। सनद रहे यह "मूर्ती-पूजा" रहित समाज की थ्योरी दयानंद कहीं बाहर से कॉपी करके नहीं लाये थे, आपके अपने पुरखों के यहां से ही उठाई हुई है। जो जाट हो गया वो ज्ञानी तो जेनेटिकली ही होता है। कृपया यह अनजान और नादान बनने के स्वघाती स्वांग बन्द कीजिये और अपने डीएनए के अनुरूप अपनी उस कहावत को सहेजने में अपना सहयोग दीजिये कि "अनपढ़ जाट पढ़े जैसा, और पढ़ा जाट खुदा जैसा!"।
और अगर वहाँ असहाय प्रतीत हो रहा है इन चीजों की रक्षा करना तो यूनियनिस्ट मिशन ज्वाइन कर लीजिये, क्योंकि दलित-किसान-पिछड़े के आर्थिक व् सामाजिक हितों की रक्षा व् आवाज बनने के साथ-साथ, हम हमारी इन स्वर्णिम मान्यताओं को सहजने व् सँजोने हेतु भी कार्यरत हैं|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
पहली तो बात जाट इतने ही अज्ञानी रहे होते तो सत्यार्थ प्रकाश में उनको "जाट जी" कह के नहीं लिखा गया होता| यह नहीं कहा गया होता कि "सारी दुनिया जाट जैसी हो जाए तो पण्डे भूखे मर जाएँ!" कुछ तो ज्ञान रखते होंगे हमारे पुरखे तभी उनकी एक ब्राह्मण की लिखी पुस्तक में स्तुति की गई| वरना हजारों-हजार जातियां हैं भारत में, हुई है आजतक किसी की किसी भी ब्राह्मण की पुस्तक-ग्रन्थ-शास्त्र में "जी" लगा के अनुशंषा,जाट को छोड़ के?
दूसरी बात जो अज्ञानी होता है उसको कोई जी लगा के नहीं बोलता, जो शिष्य होता है उसकी कोई जी लगा के स्तुति नहीं करता| सत्यार्थ प्रकाश लिखने से पहले जाटों के ज्ञान और मान्यताओं को भलीभांति पढ़ा और परखा गया था, तभी सत्यार्थ प्रकाश लिखा गया था| यह ठीक उसी तरह है जैसे कि आज कोई जाट की मान्यताओं पर जाट की स्तुति करते हुए पुस्तक निकाल दे|
मानता हूँ दयानंद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में काफी चीजें जाटों से सम्बन्धित डॉक्यूमेंट कर दी, परन्तु उसके साथ ही सड़ी-गली दुनिया की क्रूरतम मनुवाद की वर्णव्यस्था भी उसी पुस्तक में जाट के चिपका दी| सत्यार्थ प्रकाश में लिखा कि लड़की का सानिध्य लड़के के लिए आग में घी के समान होता है इसीलिए लड़के-लड़की को अलग-अलग जगह रख के पढ़ाया जाए; परन्तु दूसरी तरफ उसी आर्यसमाज के नाम से Co-education के DAV स्कूल/कॉलेज बनाये गए; किसी जाट ने प्रश्न किया इस बात पे? एक पल को एडजस्ट भी कर लूँ कि शहरों में इंग्लिश माध्यम के DAV बनाये और गाँव में संस्कृत के गुरुकुल; परन्तु जब दोनों ही संस्थाएं एक पुस्तक को मानती थी तो यह "लड़की लड़के के लिए अग्नि के समान होती है" वाली बात का अनुपालन DAV में क्यों नहीं किया गया?
इतना काफी होना चाहिए तार्किक जाट को समझने के लिए कि यह एक हांडी में दो पेट क्यों किये गए? उद्देश्य साफ़ था जाट को सिख धर्म में जाने से रोकना था और दूसरा जाट को ऐसी शिक्षा पद्दति थमानी थी जो दूसरे दर्जे की थी यानी संस्कृत माध्यम से पढाई| आर्य समाज को बराबरी के विचार से बनाया गया था तो क्यों नहीं दयानंद सरस्वती ने गांव में अंग्रेजी को पढ़ाने की वकालत करी? बताईये जरा कि जिस आदमी को जाट समाज इतना सर आँखों पर बैठा चुका था, वह अगर जाटों को अंग्रेजी पढ़ने की कहते तो क्या जाट समाज मना कर देता?
ऐसा जाट के इसी भोलेपन के चलते नहीं किया गया जिस वजह से आज जब मैं आर्य-समाज की कमियों की बात करता हूँ तो कई जाट भाई भावुक हो जाते हैं| सनद रहे भावुकता जाट का गहन नहीं| मैं वो इंसान हूँ जिसने बचपन में आर्य-समाज की प्रचार सभाओं में स्टेज के प्रभार भी संभाले और प्रबन्ध भी किये| मैं वो इंसान हूँ जिसने पहली से दसवीं तक आरएसएस के स्कूल में पढाई की है| तो इसका यह मतलब तो नहीं हो जाता है ना कि मैं आर्य-समाज या आरएसएस की कमियों पर बात ही नहीं करूँगा?
आर्य-समाज और आरएसएस तो छोडो लोग तो अभी ठीक से आधिकारिक तौर पर दो साल के भी नहीं हुए यूनियनिस्ट मिशन की ही कितनी आलोचना करने लगे हैं, यह जगजाहिर है| और हम तो इन आलोचनाओं का स्वागत करते हैं, क्योंकि हम आगे बढ़ना चाहते हैं, आगे बढ़ते हुए अपने में सुधार करते रहना चाहते हैं|
इसलिए जाट अपने इस भोलेपन में सुधार कर ले कि किसी ने उसके लिए कुछ कर दिया तो फिर उसके लिए बिलकुल ही भावभंगिम की भांति अंधे ही हो जाओ| अंधे हुए बैठे रहे और आर्य-समाज में समय रहते यह सुधार नहीं किये, इसलिए तो आज सुनने में आ रहा है कि आर्य-समाज पर मूर्तिपूजा करने वाले सनातनी कब्ज़ा करते जा रहे हैं,सही है ना? सुन रहे हैं ना आर्य-समाजी लोग, आपके मूर्तिपूजा के विरोध के सिद्धांत पर स्थापित समाज को मूर्तिपूजा करने वाले सनातनी कब्जाने की फिराक में हैं|
और इन कब्ज़ा करने की मंशा रखने वालों की बानगी भी भलीभांति जानते ही होंगे आप| जी, यह जैसे सिखों को हिन्दू-रक्षक बोल के असली हिन्दू बता के उनको कब्जाने की फिराक में रहते हैं; परन्तु सिख इनको दूर से ही दुत्कार देते हैं; ठीक ऐसे ही इनसे दूरी बना के रखिये; वर्ना ना घर के रहेंगे ना घाट के|
अत: समय रहते चेत जाईये और आर्य-समाज को सनातनियों से बचाईये, बचाईये अगर आज भी अपने को वाकई का आर्य-समाजी मानते हो तो|
और इसकी शुरुवात आपके घरों के पिछले दरवाजे से आपकी औरतों के जरिये दान-चढ़ावे-चन्दे के नाम पर पैठ लगाए ढोंगी-पाखंडियों से दूर रहने हेतु उनको समझाने से शुरू करें। औरत का हृदय कोमल होता है, वो अपने घर के भले के लिए कुछ भी कर गुजरती है; इसलिए आदमी की अपेक्षा औरत का इन ढोंगियों के बहकावे में आना आसान होता है| इसीलिए यह आपके घरों की औरतों को इनकी औरतों व् खुद के द्वारा निशाना बनाते हैं और अपने घर भरते हैं। अत: इस घर के पिछले दरवाजे से घर की कमाई में लगी सेंध को बन्द करवाने हेतु, अपने-अपने घर की औरतों से बैठ के मन्त्रणा कीजिये। आपकी औरतें जो अपनापन इन मोडडों-पाखण्डियों की चिकनी-चुपड़ी बातों में पाती हैं, वो आप खुद दो बोल प्यार से बोल के दोगे तो आपकी औरतें ही इनको आगे धका देंगी।
और इस तरह जाट का मूर्तिपूजा रहित समाज का वह मूल-सिद्धांत बचाने में आप कामयाब रहेंगे, जिससे कि जाट समाज पे लट्टू हो के दयानद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश लिख डाला था या इनसे लिखवाया गया था। सनद रहे यह "मूर्ती-पूजा" रहित समाज की थ्योरी दयानंद कहीं बाहर से कॉपी करके नहीं लाये थे, आपके अपने पुरखों के यहां से ही उठाई हुई है। जो जाट हो गया वो ज्ञानी तो जेनेटिकली ही होता है। कृपया यह अनजान और नादान बनने के स्वघाती स्वांग बन्द कीजिये और अपने डीएनए के अनुरूप अपनी उस कहावत को सहेजने में अपना सहयोग दीजिये कि "अनपढ़ जाट पढ़े जैसा, और पढ़ा जाट खुदा जैसा!"।
और अगर वहाँ असहाय प्रतीत हो रहा है इन चीजों की रक्षा करना तो यूनियनिस्ट मिशन ज्वाइन कर लीजिये, क्योंकि दलित-किसान-पिछड़े के आर्थिक व् सामाजिक हितों की रक्षा व् आवाज बनने के साथ-साथ, हम हमारी इन स्वर्णिम मान्यताओं को सहजने व् सँजोने हेतु भी कार्यरत हैं|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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