दयानंद ऋषि ने सत्यार्थ प्रकाश में एक बहुत बड़ी चालाकी खेली थी|
1) एक तरफ तो जाटू-सभ्यता की मान्यताओं को डॉक्यूमेंट किया, जैसे कि जाटों की "मूर्तिपूजा विरोधी" मान्यता को प्रमुख आधार बनाया| परन्तु दूसरी तरफ उसी में पुराण-ग्रन्थ इत्यादि की "मूर्ती-पूजा" को मानने वाली माइथोलॉजी भी घुसा दी|
2) एक तरफ जाटू-सभ्यता की एक गौत से बाहर ब्याह व् माता-पिता की उपस्थिति के बिना प्रेम-विवाह तक नहीं करने की कही, परन्तु दूसरी तरफ हर आर्यसमाजी मन्दिर बिना माता-पिता की उपस्थिति के मनुवादी परम्परा वाले प्रेम-विवाही फेरे पढ़ देते हैं|
3) सत्यार्थ प्रकाश में जाट को "जाट जी" व् "जाट-देवता" कह के जाट की स्तुति करी, परन्तु दूसरी तरफ उसी स्तुति की आड़ में जाट को चुपके से मनुवादी चतुर-वर्णव्यवस्था भी इसी पुस्तक के जरिये चिपका दी|
और जाटों ने देखो इससे क्या सीखा?
1) मूर्तिपूजा के विरोधी से मूर्तिपूजा करने लगे| क्या आर्य-समाज का अंत उद्देश्य जाट को मूर्तिपूजा विरोधी से मूर्तिपूजा प्रेमी बनाना तो नहीं था? यदि नहीं था तो क्या वजह है कि जाट मूर्तिपूजा में घुसता चला जा रहा है?
2) आर्यसमाज मन्दिरों की मनमानी पर सत्यार्थ प्रकाश का हवाला देते हुए भी रोक लगवाने हेतु जाट कोई कदम नहीं उठा पाए?
3) "जाट-देवता" और "जाट-जी" के चरित्र को छोड़कर शुद्ध मनुवादी व्यवस्था में रमते चले गए और इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि मनुवादी ही दलितों-गरीबों पर जाटों द्वारा मनुवादी रवैया अपनाने पर मीडिया में इनकी सबसे ज्यादा बैंड बजाते हैं| यानि जाट मनुवाद को आगे बढ़ा रहे हैं परन्तु फिर भी जाट को दलित का दुश्मन दिखाने हेतु, मनुवादी ही जाट के जुल्म को "सत्यार्थ-प्रकाश" के जरिये जाट में घुसेड़ी मनुवादी मानसिकता का परिणाम बताने की बजाये इसको जाट की मानसिकता बता के उछालते हैं|
तो ऐसे में हल क्या हो?
ऋषि दयानंद को जाटू-सभ्यता की शुद्ध मान्यताओं को डॉक्यूमेंट करने हेतु धन्यवाद देते हुए, इस मिश्रण को अलग-अलग करना चाहिए| सत्यार्थ-प्रकाश में जो जाटों के यहां से लिया गया था उसको ले के आगे बढ़ें और जो मनुवादियों का इसमें मिश्रित कर दिया गया था, वो मनुवादियों को वापिस लौटा देवें| और ऐसा करना इसलिए अत्यंत आवश्यक है क्योंकि जाट को इस लेख के "और जाटों ने देखो इससे क्या सीखा?" भाग के बिंदु 3 से अपने आपको सॉफ्ट-टारगेट होने से बचाना है|
जब दयानंद ऋषि ने जाटू-सभ्यता के यह पहलु डॉक्यूमेंट किये, उससे पहले जाटों के यहां एकछत्र "खाप-परम्परा" की "यौद्धेय-सभ्यता" चलती थी; जिसमें वर्ण व् जातिवाद का कोई स्थान नहीं था| इसीलिए तो खाप इतिहास दलित-ओबीसी-जाट-गुज्जर-यादव-राजपूत-मुस्लिम-सिख चाहे किसी भी समुदाय का सूरमा यौद्धेय/यौद्धेया रहा/रही हो; बिना लाग-लपेट के बराबरी से लिखा और गाया है| मनुवाद व् आरएसएस की तरह थोड़े ही होता था खाप-परम्परा में कि सिर्फ 2-3 जाती-समुदाय के हीरो लोगों को ही गाएंगे, उन्हीं की जयंती व् मरण दिवस मनाएंगे|
इसलिए आर्य-समाज को इतने तक लाभकारी-अलाभकारी जैसा भी साथ देने हेतु धन्यवाद देते हुए, आगे बढ़ें और शुद्ध खाप-परम्परा के जातिवाद और वर्णवाद रहित "खापदवारे" (गुरुद्वारों की तर्ज पर) बनाने हेतु जाट व् साथी कौमें अग्रसर होवें| अन्यथा मनुवाद तो आपको तब तक छोड़ेगा नहीं जब तक आपको वास्तव के चांडाल, अछूत व् अस्पृश्य नहीं बना देंगे| अभी आज जो हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट के जरिये चल रहा है यह तो आपको आर्थिक आधार से कंगाल व् संसाधन रहित बनाने के उस प्लान का हिस्सा मात्र है जिसकी आखिरी मंजिल आपको चांडाल, अछूत व् अस्पृश्य बनाना है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
1) एक तरफ तो जाटू-सभ्यता की मान्यताओं को डॉक्यूमेंट किया, जैसे कि जाटों की "मूर्तिपूजा विरोधी" मान्यता को प्रमुख आधार बनाया| परन्तु दूसरी तरफ उसी में पुराण-ग्रन्थ इत्यादि की "मूर्ती-पूजा" को मानने वाली माइथोलॉजी भी घुसा दी|
2) एक तरफ जाटू-सभ्यता की एक गौत से बाहर ब्याह व् माता-पिता की उपस्थिति के बिना प्रेम-विवाह तक नहीं करने की कही, परन्तु दूसरी तरफ हर आर्यसमाजी मन्दिर बिना माता-पिता की उपस्थिति के मनुवादी परम्परा वाले प्रेम-विवाही फेरे पढ़ देते हैं|
3) सत्यार्थ प्रकाश में जाट को "जाट जी" व् "जाट-देवता" कह के जाट की स्तुति करी, परन्तु दूसरी तरफ उसी स्तुति की आड़ में जाट को चुपके से मनुवादी चतुर-वर्णव्यवस्था भी इसी पुस्तक के जरिये चिपका दी|
और जाटों ने देखो इससे क्या सीखा?
1) मूर्तिपूजा के विरोधी से मूर्तिपूजा करने लगे| क्या आर्य-समाज का अंत उद्देश्य जाट को मूर्तिपूजा विरोधी से मूर्तिपूजा प्रेमी बनाना तो नहीं था? यदि नहीं था तो क्या वजह है कि जाट मूर्तिपूजा में घुसता चला जा रहा है?
2) आर्यसमाज मन्दिरों की मनमानी पर सत्यार्थ प्रकाश का हवाला देते हुए भी रोक लगवाने हेतु जाट कोई कदम नहीं उठा पाए?
3) "जाट-देवता" और "जाट-जी" के चरित्र को छोड़कर शुद्ध मनुवादी व्यवस्था में रमते चले गए और इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि मनुवादी ही दलितों-गरीबों पर जाटों द्वारा मनुवादी रवैया अपनाने पर मीडिया में इनकी सबसे ज्यादा बैंड बजाते हैं| यानि जाट मनुवाद को आगे बढ़ा रहे हैं परन्तु फिर भी जाट को दलित का दुश्मन दिखाने हेतु, मनुवादी ही जाट के जुल्म को "सत्यार्थ-प्रकाश" के जरिये जाट में घुसेड़ी मनुवादी मानसिकता का परिणाम बताने की बजाये इसको जाट की मानसिकता बता के उछालते हैं|
तो ऐसे में हल क्या हो?
ऋषि दयानंद को जाटू-सभ्यता की शुद्ध मान्यताओं को डॉक्यूमेंट करने हेतु धन्यवाद देते हुए, इस मिश्रण को अलग-अलग करना चाहिए| सत्यार्थ-प्रकाश में जो जाटों के यहां से लिया गया था उसको ले के आगे बढ़ें और जो मनुवादियों का इसमें मिश्रित कर दिया गया था, वो मनुवादियों को वापिस लौटा देवें| और ऐसा करना इसलिए अत्यंत आवश्यक है क्योंकि जाट को इस लेख के "और जाटों ने देखो इससे क्या सीखा?" भाग के बिंदु 3 से अपने आपको सॉफ्ट-टारगेट होने से बचाना है|
जब दयानंद ऋषि ने जाटू-सभ्यता के यह पहलु डॉक्यूमेंट किये, उससे पहले जाटों के यहां एकछत्र "खाप-परम्परा" की "यौद्धेय-सभ्यता" चलती थी; जिसमें वर्ण व् जातिवाद का कोई स्थान नहीं था| इसीलिए तो खाप इतिहास दलित-ओबीसी-जाट-गुज्जर-यादव-राजपूत-मुस्लिम-सिख चाहे किसी भी समुदाय का सूरमा यौद्धेय/यौद्धेया रहा/रही हो; बिना लाग-लपेट के बराबरी से लिखा और गाया है| मनुवाद व् आरएसएस की तरह थोड़े ही होता था खाप-परम्परा में कि सिर्फ 2-3 जाती-समुदाय के हीरो लोगों को ही गाएंगे, उन्हीं की जयंती व् मरण दिवस मनाएंगे|
इसलिए आर्य-समाज को इतने तक लाभकारी-अलाभकारी जैसा भी साथ देने हेतु धन्यवाद देते हुए, आगे बढ़ें और शुद्ध खाप-परम्परा के जातिवाद और वर्णवाद रहित "खापदवारे" (गुरुद्वारों की तर्ज पर) बनाने हेतु जाट व् साथी कौमें अग्रसर होवें| अन्यथा मनुवाद तो आपको तब तक छोड़ेगा नहीं जब तक आपको वास्तव के चांडाल, अछूत व् अस्पृश्य नहीं बना देंगे| अभी आज जो हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट के जरिये चल रहा है यह तो आपको आर्थिक आधार से कंगाल व् संसाधन रहित बनाने के उस प्लान का हिस्सा मात्र है जिसकी आखिरी मंजिल आपको चांडाल, अछूत व् अस्पृश्य बनाना है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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