बात-बात पर जाटों को जमीन की हूल देने वाले मत भूलें कि जाट को जमीन कोई आ
के दान नहीं दे गया था या चंदा इकठ्ठा करके नहीं खरीदवा गया था| जमीन कोई
दान दिया या जनता के चंदे से बनवाया मंदिर नहीं है कि जो पब्लिक प्रॉपर्टी
कहलवाए, जिसपे सामूहिक सम्पत्ति बोल के हर कोई हक़ जताए| माँ कसम,
हरयाणा-देश व् पंजाब की जमीन को समतल व् व्यवस्थित करने के लिए जाट पुरखों
ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी बहुत मरवाई है; तब जाकर ऐसी आँख-टिक जाने वाली सोना उगलने
वाली जमीन बनाई है|
वर्ना यूँ खेत के डोलों पे खड़े हो के मालिकाना हक़ मात्र जताने भर से जमीनें हरयाणा-देश और पंजाब जैसी बन जाती तो बिहारी-बंगाली इधर मजदूरी व् अन्य रोजगार करने ना आते| बंगाल-बिहार में हरयाणा-देश व् पंजाब से कोई कम नदियां नहीं बहती, इधर से उधर की धरती पर कोई कम कम पानी नहीं लगता; परन्तु फिर भी वो धरती हरयाणा-देश व् पंजाब जैसी समतल व् व्यवस्थित क्यों नहीं है?:
1) क्योंकि उधर वो वाला फ्यूडलिज्म है जो हरयाणा-देश व् पंजाब पर सर छोटूराम एक सदी पहले निबटा गए थे|
2) क्योंकि उधर आज भी खेती, 'खेती खसम सेती' वाले सिद्धांत पर नहीं अपितु 'खेती मजदूर सेती' के सिद्धांत पर होती है| जहां हरयाणा देश की धरती पर मालिक खुद भी मजदूर बनके, मजदूर के बराबर जमीन पर खटता है; वहीँ बिहार-बंगाल की तरफ आज भी मालिक सिर्फ खेत के डोले यानी किनारे पर छतरी के नीचे खड़ा हो के मजदूर को आदेश दे के काम करवाने में विश्वास रखता है|
3) और यही वजह है कि उधर आज भी "नौकर-मालिक" की संस्कृति चलती है जबकि हरयाणा देश और पंजाब की धरती पर "सीरी-साझी" यानी पार्टनर्स वाली वर्किंग कल्चर चलती है; जो कि इंटरनेशनल स्टैण्डर्ड की संस्कृति है, क्योंकि गूगल जैसी कंपनी भी नौकर यानी एम्प्लोयी नहीं बल्कि साझी यानी पार्टनर्स हायर करती है|
4) हरयाणा देश व् पंजाब की जमीन ऐसी आँख-का-तारा इसलिए बन पाई क्योंकि प्रथम मालिक ने खुद इसपे पसीना बहा के इसको अपने सपनों सा संवारा व् सँवरवाया| जबकि बिहार-बंगाल साइड आज भी वही अव्यवथित सी पड़ी है क्योंकि प्रथम मालिक जमीन पे उतरता नहीं और सेकंड मालिक उतना ही करता है जितना उसको मजदूरी मिलती है या शायद बहुत बार तो बेगारी करनी पड़ती है|
5) एक गज़ब की वजह यही रही कि हरयाणा-देश व् पंजाब की धरती पर ऐतिहासिक तौर पर सबसे कम बेगारी की शिकायतें रही| और वो इसलिए रही क्योंकि यहां का समाज मनुवाद की थ्योरी से नहीं अपितु जाटू-सभ्यता से चला| जिसकी कि दूसरे-तो-दूसरे खुद बहुतेरे मन्दबुद्धि परन्तु पढ़े-लिखे अनपढ़ बने खड़े जाट तक भी सत्यापना करने को सजग नहीं| पता नहीं जाट को इस तरह की सेल्फ- रियलाइजेशन से इतना भय क्यों लगता है? प्रोफेशन के साथ जाट ने यह ऊपर बताई मानवता पाली और यही वजह है कि हरयाणा देश व् पंजाब की धरती पर सिर्फ दलित मिलता है महा-दलित नहीं| बेशक दलित के जाटों के साथ कितने ही झगड़े मिलें, परन्तु अगर कोई माई का लाल दिखा दे दलितों के ऐसे मकान-हवेलियां भारत के किसी और कोने में जैसे हरयाणा देश व् पंजाब की धरती पर मिल जाते हैं तो बेशक कान काट लियो मेरे कि अक क्या कह रहा था रै?
यह तो रही ऐसी वजहें जो वर्तमान में भी चल रही हैं| आएं अब कुछ ऐसी ऐतिहासिक वजहों पर भी नजर डाल लेते हैं जिनकी वजह से साबित होता है कि जाट ने इस जमीन को अपनी माँ बनाने के लिए कैसे-कैसे नहीं मरवाई:
1) अंग्रेजों व् भारतीय राजाओं के इतने भारी-भारी जमीनी टैक्स भी जाट-जमींदारों पे पूरी प्रतिबद्धता से चुकाए, जो कि जमीनों को पट्टे पर बोने-बुवाने वाले सेठ-साहूकार भी चुकाने में हाथ खड़े कर जाते थे और जमीनों को या तो सुन्नी (बेवारसी यानी बिना मालिक की) छोड़ दिया करते थे या जमीन को बोने वाले की बता कर , टैक्स भरने से पल्ला झाड़ जाया करते थे| परन्तु माँ कसम जाटों ने अपने घर-मकान-बैल-संसाधन तक गिरवी रखने के त्याग और तप इस हरयाणा देश व् पंजाब की जमीन के लिए किये हैं, जो आज सबकी यानी जिसको देखो उसकी आँखों का तारा बनी हुई है| इस जमीन को ऐसे ट्रीट कर रहे हैं जैसे सदा से यह जमीन ऐसी ही थी|
2) एक वक्त में यह सिर्फ और सिर्फ हरा-भरा आरण्य यानी जंगल होती थी और जांगला-देश भी कहलाती थी| ऐतिहासिक हरा-भरा आरण्य होने की वजह से ही इसका नाम हरयाणा पड़ा है| डंके की चोट पर कहता हूँ नहीं पड़ा इसका नाम हरयाणा किसी हरि के यहां आने की वजह से, यह पड़ा सिर्फ इसलिए क्योंकि यह हरा-भरा आरण्य था, उस वक्त जंगल था आज जाटों के पुरखों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने हाड-तोड़ पसीने से इसको समतल बना दिया है, परन्तु रखा हरा-भरा ही है| फर्क सिर्फ इतना है कि पहले जब जंगल था तो नजर दो-चार सौ मीटर तक जा कर ठहर जाती थी; अब नजारा यह है कि इसको देख के अंतर्मन स्वत: कह उठता है कि "तेरे चेहरे से नजर नहीं हटती, नजारे हम क्या देखें "|
अत: इन चौतरफा हमलों के बीच भी मैथोलोजिकल व् काल्पनिक चरित्र कुम्भकरण की भांति तुंगभद्रा में पड़े जाट, उठ खड़ा हो ले, वर्ना तेरा ऊत-मटीला उठने वाला है| और वो कैसे वो ऐसे कि मुझे यह सवाल रात को तीन बजे उठा के कंप्यूटर पर लिखने को बैठा देते हैं| मैं ऐसा जता के कोई अहसान नहीं जता रहा हूँ बस सिर्फ अपनी मनोस्थिति का तड़का इस लेख में लगा रहा हूँ| बाबु कहवे बेटे ब्याह करवा ले, नहीं तो घर से निकाल दूंगा, मैं कहूँ बाबु मेरा तो हो लिया इन चिंताओं के साथ ब्याह| क्या हैं यह सवाल,यह चिंताएं:
1) आखिर क्यों पूरे हरयाणा-देश की सिर्फ 55% जमीन जाट के अधिपत्य में होने पर भी, जाट को ऐसे प्रचारित किया जा रहा है कि जैसे हरयाणा तो सारा ही जाटों का है? हाँ, एक बात तो है कि हरयाणा का सबसे उपजाऊ हिस्सा जाटों के पास है, वर्ना तो रेवाड़ी-गुड़गावं के पत्थर आज भी जंगल ही पड़े हैं|
2) आखिर क्यों राजपूत-अहीर-गुज्जर-सैनी जैसी किसानी जातियां होने पर भी सिर्फ और सिर्फ जाट को ही निशाना बनाया जा रहा है? क्योंकि इन निशाना बनाने वालों ने आपके पुरखों का वो इतिहास अच्छे से पढ़ा है, जिसको पढ़ना आप इतना मुश्किल समझते हो जैसे एक बेहद आलसी द्वारा अपने मुंह से मक्खी हटाते हुए भी क्लेश करना| यह जानते हैं कि राजपूत-गुज्जर-सैनी-अहीर को उनकी जमीनों से हटाना इतनी बड़ी तौब नहीं; परन्तु जाट को हटाना है|
3) क्योंकि आपने "सीरी-साझी" का वो वर्किंग कल्चर अपने यहां पाला, जो कि मनुवाद की "नौकर-मालिक" संस्कृति में कतई फिट नहीं बैठता| बल्कि आँख में कंकर की भांति रड़कता है|
4) क्योंकि आप इन चीजों के प्रचार बारे, दलित-पिछड़े को वर्कशॉप्स-सेमिनार्स के जरिये यह दिखाने बारे कभी सीरियस ही नहीं हुए कि यह देखें कैसे जाट ने जमीन के साथ-साथ मानवता पाली|
5) क्योंकि आपको "मनुवाद" से प्यार हो गया है; उस मनुवाद से जिसको सर छोटूराम जड़ समेत उखाड़ गए थे| उनके जाने के बाद आप तो खरपतवार की भांति उस जड़ समेत उखाड़े "मनुवाद" को खेत की डोल से उठा के आगभर तक नहीं लगा पाए और इस बीच उस उखड़े हुए ने वहीँ-की-वहीँ पड़े-पड़े फिर से जड़ें पकड़ ली|
6) क्योंकि आपने आगन्तुकों की संस्कृति व् तीज-त्यौहार अपनाने से पहले उन पर ऐसी कोई कंडीशन ही नहीं लगाई कि हम आपके मनाएंगे और आप हमारे मनाओ| इसी का तो नतीजा है कि आपने "करवा-चौथ", "नवरात्रे", छट-पूजा", "दुर्गा-पूजा", "वैष्णों-देवी", "धनतेरस" जैसे अनगिनत उनके त्यौहार अपने यहां इम्पोर्ट तो कर लिए, परन्तु वह आपका "तीज" और "बसन्त-पंचमी यानि सर छोटूराम जयंती" भी ढंग से मनाते हुए रोते हैं|
अब बात-बात और हर मौके पे इत-उत जाटों की जमीन-सम्पदा-संसाधन पर गीदड़ों/गिद्धों सी दृष्टि ज़माने वाले और बात-बात पर जमीनों के मालिक होने का तंज देने वाले सुनें और जाट भी इन तथ्यों को पढ़ कर आगे बढ़ाने हेतु सोचें:
1) कुछ तो हस्ती है जाट तेरी, वर्ना यूँ ही नहीं कोई "जाट बनाम नॉन-जाट" सजा दिया करते हैं| सोच कि यह जाट बनाम नॉन-जाट ही क्यों हुआ, ब्राह्मण बनाम नॉन-ब्राह्मण, बनिया बनाम नॉन-बनिया, राजपूत-बनाम नॉन-राजपूत या सैनी बनाम नॉन-सैनी या और कितनी जातियां हैं उनमें से किसी एक के बनाम बाकियों के क्यों ना हुआ?
2) बहुत आएंगे तुझे इस सवाल के जवाब में हतोत्साहित (डिमोटिवेट) से करने वाले उत्तर तेरे मुंह पर चिपकाने वाले जो कहेंगे कि:
2.1. तेरा दबंग रवैया इसकी वजह रहा| ऐसों को उत्तर देना और पूछना कि क्या मन्दिरों में दलित-ओबीसी की बेटियों को देवदासी बना के बैठाने वालों से भी दबंग हैं जाट? क्या विधवाओं को विधवा होते ही उनके पति की सम्पत्ति पर सुख से जीवन काटने देने की बजाये उनको उससे बेदखल कर विधवा आश्रमों में सड़वाने वालों से भी दबंग हैं जाट?
2.2. तेरा अखड़पन इसकी वजह रहा| ऐसों को उत्तर देना और पूछना कि क्या किसी अडानी-अम्बानी-कॉरपोरेट से भी दबंग हो गया जाट; जो कि जाट जैसी तमाम किसानी जातियों की जमीन अधिग्रहित करते वक्त मार्किट रेट भी नहीं देते? या जाट कोई रिलायंस वाला जियो हो गया कि जिसकी ऐडवर्टाइजमेंट खुद देश का पीएम करता है?
2.3. तेरा दलितों से जातीय-उच्चता वाला द्वेष इसकी वजह रहा| ऐसों को उत्तर देना और पूछना कि क्या जातिवाद और वर्णवाद घड़ने वालों से भी ज्यादा द्वेष कर दिया जाट ने? जाट-बाहुल्य इलाकों में तो फिर भी सिर्फ दलित है, जो इस वर्ण-जाति के रचयिताओं का इलाका है वहाँ तो महादलित से ले के पता नहीं और कौनसी-कौनसी राक्षस नाम की असुर जातियों में दलितों का वर्गीकरण किया हुआ है| क्या यहाँ का दलित जाट ने इतना सता दिया कि वो नक्सली बन गया? ……….. इस बिंदु पर यह तो थी जाट को डिफेंड करने की बात, परन्तु साथ ही यह भी कह दूँ कि “जाट सुधर जा”, तेरा डीएनए दलित से वास्तविकता में इतना भी नफरतवादी नहीं है जितना कि तू "कव्वा चला हंस की चाल, अपनी ही चाल भूल बैठा" की लाइन पे चल के कई बार दलित के साथ इस मनुवाद को पालने के चक्कर में कर जाता है| यह वर्णवाद व् जातिवाद के ढोंग-पाखंड-आडम्बर करने जब तेरे डीएनए में ही नहीं तो मत नकल करने की कोशिश किया कर| सच कहूँ तो यही तेरा कमजोर बिंदु है जिसकी वजह से तू सॉफ्ट-टारगेट बनता है, इसको छोड़ के सर छोटूराम की भांति उखाड़ दे इस जाति व् वर्णवाद की जड़ों को और अबकी बार इसको आग लगाना मत भूलना|
3) जाटों के लिए सबसे सुकून की बात यह है कि जाटों व् जाटों के पुरखों ने जमीन अपने-खून पसीने से समतल बनाई है| इस पर मजदूर तो बहुत बाद में आ के काम करने लगे| मजदूर जब जाट के साथ मिलके जमीन को समतल करने पे काम कर रहे होते और जमीन ज्यादा पथरीली होती तो बीच में काम छोड़कर भाग जाया करते थे; परन्तु जाट के पुरखे पीछे नहीं हटे| इसलिए कहा गया है कि जाट वो है जो धरती को भी पलट दे; जाट की अस्मत को ललकारने हेतु उतारू हुए पड़े लोग, समझें यह वास्तविकता|
4) दूसरी बड़ी सुकून की बात यह है कि जमीन कोई दान में मिला/बना मन्दिर नहीं है कि हर कोई मुंह उठा के "प्राकृतिक सम्पदा" का बहाना बना के अधिकार जमाने चला आये| इस जमीन को अपनी बनाये रखने हेतु अपने खून-पसीने के साथ-साथ जाट ने लगातार टैक्स भी भरे हैं यानी लगान चुकाए हैं| इसलिए यूँ ही थोड़े कोई ऐरा- गैरा नत्थू-खैरा ख्याली ख्वाबों की दुल्हन को क्लेम करने की भांति आ के जमीन क्लेम कर लेगा या ऐसे अहसान जता देगा जैसे जमीन खैरात में बाँट के गया हो|
निचोड़ की बात: फिर भी किसी को प्राकृतिक सम्पदाओं का हवाला देते हुए यह ठहाके लगाने ही हैं तो यही ठहाके पहले आपके ही दिए दान-चन्दे से बने कृत्रिम धर्म व् सार्वजनिक स्थलों की आमदनी में अपना हक़ जताने हेतु लगा के दिखाओ और उनकी आमदनी का हिस्सा ले के भी दिखाओ| क्योंकि जमीनों के मालिकों के पास तो इसके सबूत भी हैं कि वो सिर्फ और सिर्फ उनके खून-पसीने की कमाई से कमाई गई हैं; इन कृत्रिम सार्वजनिक स्थल बना के उनके जरिये आपसे दान-चन्दा उगाहने वालों का तो ऐसा भी कोई रिकॉर्ड नहीं कि उन्होंने पूरी नियत से टैक्स भरे हों या उस सबके दिए दान-चन्दे को आपसे बराबर का बाँटा हो| जबकि जाट के तो फसल घर में बाद में पड़ती थी, उससे पहले खलिहान से ही बाल काटने वाले का हिस्सा अलग, कृषि औजार बनाने वाले का अलग, लकड़ी के औजार बनाने वाले का अलग, गाने-बजाने वाले डूम का अलग, मिटटी के बर्तन बनाने वाले का अलग, धर्म-कर्म के नाम पर मांग के खाने वालों का अलग और तब कहीं जा के बचा-खुचा जाट अपने घर ले जाता आया है|और इसी बचे खुचे से जाट को अपने घर भी चलाने होते थे और सरकारों-राजाओं के टैक्स यानि लगान भी भरने होते थे| जाट ने कभी नहीं मुड़ के बाल काटने वाले, औजार बनाने वाले, मिटटी के बर्तन बनाने वाले से, गाने-बजाने वाले से, धर्म-कर्म के नाम पर ले जाने वाले से गुहार लगाई कि भाई लगान या कर्ज चुकाने में कम पड़ रहा है थोड़ा वापिस दे दो या मदद कर दो| इसलिए जाट ने तो अपनी कष्ट-कमाई से भी सबको बराबर का बाँट के खिलाया है, तो जाट पर यह दाड़-पिसाई किस बात की? पीसनी है तो उनपर पीसो जिन्होनें आजतक इतने दान-चंदे डकारे, परन्तु कभी ना तो उसके हिसाब दिए और ना ही उसको आपकी आबादी के अनुपात में बंटवाया|
विशेष: लेखक सम्पूर्णतः जातिवाद व् वर्णवाद के दम्भ से रहित इंसान है| इस लेख को जाट पर केंद्रित करके इसलिए लिखना पड़ा क्योंकि इसका शीर्षक ही इस प्रकार का था| वरना लेखक हर जाति-धर्म-सम्प्रदाय के इंसान का बराबरी का आदर-सम्मान करता है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
वर्ना यूँ खेत के डोलों पे खड़े हो के मालिकाना हक़ मात्र जताने भर से जमीनें हरयाणा-देश और पंजाब जैसी बन जाती तो बिहारी-बंगाली इधर मजदूरी व् अन्य रोजगार करने ना आते| बंगाल-बिहार में हरयाणा-देश व् पंजाब से कोई कम नदियां नहीं बहती, इधर से उधर की धरती पर कोई कम कम पानी नहीं लगता; परन्तु फिर भी वो धरती हरयाणा-देश व् पंजाब जैसी समतल व् व्यवस्थित क्यों नहीं है?:
1) क्योंकि उधर वो वाला फ्यूडलिज्म है जो हरयाणा-देश व् पंजाब पर सर छोटूराम एक सदी पहले निबटा गए थे|
2) क्योंकि उधर आज भी खेती, 'खेती खसम सेती' वाले सिद्धांत पर नहीं अपितु 'खेती मजदूर सेती' के सिद्धांत पर होती है| जहां हरयाणा देश की धरती पर मालिक खुद भी मजदूर बनके, मजदूर के बराबर जमीन पर खटता है; वहीँ बिहार-बंगाल की तरफ आज भी मालिक सिर्फ खेत के डोले यानी किनारे पर छतरी के नीचे खड़ा हो के मजदूर को आदेश दे के काम करवाने में विश्वास रखता है|
3) और यही वजह है कि उधर आज भी "नौकर-मालिक" की संस्कृति चलती है जबकि हरयाणा देश और पंजाब की धरती पर "सीरी-साझी" यानी पार्टनर्स वाली वर्किंग कल्चर चलती है; जो कि इंटरनेशनल स्टैण्डर्ड की संस्कृति है, क्योंकि गूगल जैसी कंपनी भी नौकर यानी एम्प्लोयी नहीं बल्कि साझी यानी पार्टनर्स हायर करती है|
4) हरयाणा देश व् पंजाब की जमीन ऐसी आँख-का-तारा इसलिए बन पाई क्योंकि प्रथम मालिक ने खुद इसपे पसीना बहा के इसको अपने सपनों सा संवारा व् सँवरवाया| जबकि बिहार-बंगाल साइड आज भी वही अव्यवथित सी पड़ी है क्योंकि प्रथम मालिक जमीन पे उतरता नहीं और सेकंड मालिक उतना ही करता है जितना उसको मजदूरी मिलती है या शायद बहुत बार तो बेगारी करनी पड़ती है|
5) एक गज़ब की वजह यही रही कि हरयाणा-देश व् पंजाब की धरती पर ऐतिहासिक तौर पर सबसे कम बेगारी की शिकायतें रही| और वो इसलिए रही क्योंकि यहां का समाज मनुवाद की थ्योरी से नहीं अपितु जाटू-सभ्यता से चला| जिसकी कि दूसरे-तो-दूसरे खुद बहुतेरे मन्दबुद्धि परन्तु पढ़े-लिखे अनपढ़ बने खड़े जाट तक भी सत्यापना करने को सजग नहीं| पता नहीं जाट को इस तरह की सेल्फ- रियलाइजेशन से इतना भय क्यों लगता है? प्रोफेशन के साथ जाट ने यह ऊपर बताई मानवता पाली और यही वजह है कि हरयाणा देश व् पंजाब की धरती पर सिर्फ दलित मिलता है महा-दलित नहीं| बेशक दलित के जाटों के साथ कितने ही झगड़े मिलें, परन्तु अगर कोई माई का लाल दिखा दे दलितों के ऐसे मकान-हवेलियां भारत के किसी और कोने में जैसे हरयाणा देश व् पंजाब की धरती पर मिल जाते हैं तो बेशक कान काट लियो मेरे कि अक क्या कह रहा था रै?
यह तो रही ऐसी वजहें जो वर्तमान में भी चल रही हैं| आएं अब कुछ ऐसी ऐतिहासिक वजहों पर भी नजर डाल लेते हैं जिनकी वजह से साबित होता है कि जाट ने इस जमीन को अपनी माँ बनाने के लिए कैसे-कैसे नहीं मरवाई:
1) अंग्रेजों व् भारतीय राजाओं के इतने भारी-भारी जमीनी टैक्स भी जाट-जमींदारों पे पूरी प्रतिबद्धता से चुकाए, जो कि जमीनों को पट्टे पर बोने-बुवाने वाले सेठ-साहूकार भी चुकाने में हाथ खड़े कर जाते थे और जमीनों को या तो सुन्नी (बेवारसी यानी बिना मालिक की) छोड़ दिया करते थे या जमीन को बोने वाले की बता कर , टैक्स भरने से पल्ला झाड़ जाया करते थे| परन्तु माँ कसम जाटों ने अपने घर-मकान-बैल-संसाधन तक गिरवी रखने के त्याग और तप इस हरयाणा देश व् पंजाब की जमीन के लिए किये हैं, जो आज सबकी यानी जिसको देखो उसकी आँखों का तारा बनी हुई है| इस जमीन को ऐसे ट्रीट कर रहे हैं जैसे सदा से यह जमीन ऐसी ही थी|
2) एक वक्त में यह सिर्फ और सिर्फ हरा-भरा आरण्य यानी जंगल होती थी और जांगला-देश भी कहलाती थी| ऐतिहासिक हरा-भरा आरण्य होने की वजह से ही इसका नाम हरयाणा पड़ा है| डंके की चोट पर कहता हूँ नहीं पड़ा इसका नाम हरयाणा किसी हरि के यहां आने की वजह से, यह पड़ा सिर्फ इसलिए क्योंकि यह हरा-भरा आरण्य था, उस वक्त जंगल था आज जाटों के पुरखों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने हाड-तोड़ पसीने से इसको समतल बना दिया है, परन्तु रखा हरा-भरा ही है| फर्क सिर्फ इतना है कि पहले जब जंगल था तो नजर दो-चार सौ मीटर तक जा कर ठहर जाती थी; अब नजारा यह है कि इसको देख के अंतर्मन स्वत: कह उठता है कि "तेरे चेहरे से नजर नहीं हटती, नजारे हम क्या देखें "|
अत: इन चौतरफा हमलों के बीच भी मैथोलोजिकल व् काल्पनिक चरित्र कुम्भकरण की भांति तुंगभद्रा में पड़े जाट, उठ खड़ा हो ले, वर्ना तेरा ऊत-मटीला उठने वाला है| और वो कैसे वो ऐसे कि मुझे यह सवाल रात को तीन बजे उठा के कंप्यूटर पर लिखने को बैठा देते हैं| मैं ऐसा जता के कोई अहसान नहीं जता रहा हूँ बस सिर्फ अपनी मनोस्थिति का तड़का इस लेख में लगा रहा हूँ| बाबु कहवे बेटे ब्याह करवा ले, नहीं तो घर से निकाल दूंगा, मैं कहूँ बाबु मेरा तो हो लिया इन चिंताओं के साथ ब्याह| क्या हैं यह सवाल,यह चिंताएं:
1) आखिर क्यों पूरे हरयाणा-देश की सिर्फ 55% जमीन जाट के अधिपत्य में होने पर भी, जाट को ऐसे प्रचारित किया जा रहा है कि जैसे हरयाणा तो सारा ही जाटों का है? हाँ, एक बात तो है कि हरयाणा का सबसे उपजाऊ हिस्सा जाटों के पास है, वर्ना तो रेवाड़ी-गुड़गावं के पत्थर आज भी जंगल ही पड़े हैं|
2) आखिर क्यों राजपूत-अहीर-गुज्जर-सैनी जैसी किसानी जातियां होने पर भी सिर्फ और सिर्फ जाट को ही निशाना बनाया जा रहा है? क्योंकि इन निशाना बनाने वालों ने आपके पुरखों का वो इतिहास अच्छे से पढ़ा है, जिसको पढ़ना आप इतना मुश्किल समझते हो जैसे एक बेहद आलसी द्वारा अपने मुंह से मक्खी हटाते हुए भी क्लेश करना| यह जानते हैं कि राजपूत-गुज्जर-सैनी-अहीर को उनकी जमीनों से हटाना इतनी बड़ी तौब नहीं; परन्तु जाट को हटाना है|
3) क्योंकि आपने "सीरी-साझी" का वो वर्किंग कल्चर अपने यहां पाला, जो कि मनुवाद की "नौकर-मालिक" संस्कृति में कतई फिट नहीं बैठता| बल्कि आँख में कंकर की भांति रड़कता है|
4) क्योंकि आप इन चीजों के प्रचार बारे, दलित-पिछड़े को वर्कशॉप्स-सेमिनार्स के जरिये यह दिखाने बारे कभी सीरियस ही नहीं हुए कि यह देखें कैसे जाट ने जमीन के साथ-साथ मानवता पाली|
5) क्योंकि आपको "मनुवाद" से प्यार हो गया है; उस मनुवाद से जिसको सर छोटूराम जड़ समेत उखाड़ गए थे| उनके जाने के बाद आप तो खरपतवार की भांति उस जड़ समेत उखाड़े "मनुवाद" को खेत की डोल से उठा के आगभर तक नहीं लगा पाए और इस बीच उस उखड़े हुए ने वहीँ-की-वहीँ पड़े-पड़े फिर से जड़ें पकड़ ली|
6) क्योंकि आपने आगन्तुकों की संस्कृति व् तीज-त्यौहार अपनाने से पहले उन पर ऐसी कोई कंडीशन ही नहीं लगाई कि हम आपके मनाएंगे और आप हमारे मनाओ| इसी का तो नतीजा है कि आपने "करवा-चौथ", "नवरात्रे", छट-पूजा", "दुर्गा-पूजा", "वैष्णों-देवी", "धनतेरस" जैसे अनगिनत उनके त्यौहार अपने यहां इम्पोर्ट तो कर लिए, परन्तु वह आपका "तीज" और "बसन्त-पंचमी यानि सर छोटूराम जयंती" भी ढंग से मनाते हुए रोते हैं|
अब बात-बात और हर मौके पे इत-उत जाटों की जमीन-सम्पदा-संसाधन पर गीदड़ों/गिद्धों सी दृष्टि ज़माने वाले और बात-बात पर जमीनों के मालिक होने का तंज देने वाले सुनें और जाट भी इन तथ्यों को पढ़ कर आगे बढ़ाने हेतु सोचें:
1) कुछ तो हस्ती है जाट तेरी, वर्ना यूँ ही नहीं कोई "जाट बनाम नॉन-जाट" सजा दिया करते हैं| सोच कि यह जाट बनाम नॉन-जाट ही क्यों हुआ, ब्राह्मण बनाम नॉन-ब्राह्मण, बनिया बनाम नॉन-बनिया, राजपूत-बनाम नॉन-राजपूत या सैनी बनाम नॉन-सैनी या और कितनी जातियां हैं उनमें से किसी एक के बनाम बाकियों के क्यों ना हुआ?
2) बहुत आएंगे तुझे इस सवाल के जवाब में हतोत्साहित (डिमोटिवेट) से करने वाले उत्तर तेरे मुंह पर चिपकाने वाले जो कहेंगे कि:
2.1. तेरा दबंग रवैया इसकी वजह रहा| ऐसों को उत्तर देना और पूछना कि क्या मन्दिरों में दलित-ओबीसी की बेटियों को देवदासी बना के बैठाने वालों से भी दबंग हैं जाट? क्या विधवाओं को विधवा होते ही उनके पति की सम्पत्ति पर सुख से जीवन काटने देने की बजाये उनको उससे बेदखल कर विधवा आश्रमों में सड़वाने वालों से भी दबंग हैं जाट?
2.2. तेरा अखड़पन इसकी वजह रहा| ऐसों को उत्तर देना और पूछना कि क्या किसी अडानी-अम्बानी-कॉरपोरेट से भी दबंग हो गया जाट; जो कि जाट जैसी तमाम किसानी जातियों की जमीन अधिग्रहित करते वक्त मार्किट रेट भी नहीं देते? या जाट कोई रिलायंस वाला जियो हो गया कि जिसकी ऐडवर्टाइजमेंट खुद देश का पीएम करता है?
2.3. तेरा दलितों से जातीय-उच्चता वाला द्वेष इसकी वजह रहा| ऐसों को उत्तर देना और पूछना कि क्या जातिवाद और वर्णवाद घड़ने वालों से भी ज्यादा द्वेष कर दिया जाट ने? जाट-बाहुल्य इलाकों में तो फिर भी सिर्फ दलित है, जो इस वर्ण-जाति के रचयिताओं का इलाका है वहाँ तो महादलित से ले के पता नहीं और कौनसी-कौनसी राक्षस नाम की असुर जातियों में दलितों का वर्गीकरण किया हुआ है| क्या यहाँ का दलित जाट ने इतना सता दिया कि वो नक्सली बन गया? ……….. इस बिंदु पर यह तो थी जाट को डिफेंड करने की बात, परन्तु साथ ही यह भी कह दूँ कि “जाट सुधर जा”, तेरा डीएनए दलित से वास्तविकता में इतना भी नफरतवादी नहीं है जितना कि तू "कव्वा चला हंस की चाल, अपनी ही चाल भूल बैठा" की लाइन पे चल के कई बार दलित के साथ इस मनुवाद को पालने के चक्कर में कर जाता है| यह वर्णवाद व् जातिवाद के ढोंग-पाखंड-आडम्बर करने जब तेरे डीएनए में ही नहीं तो मत नकल करने की कोशिश किया कर| सच कहूँ तो यही तेरा कमजोर बिंदु है जिसकी वजह से तू सॉफ्ट-टारगेट बनता है, इसको छोड़ के सर छोटूराम की भांति उखाड़ दे इस जाति व् वर्णवाद की जड़ों को और अबकी बार इसको आग लगाना मत भूलना|
3) जाटों के लिए सबसे सुकून की बात यह है कि जाटों व् जाटों के पुरखों ने जमीन अपने-खून पसीने से समतल बनाई है| इस पर मजदूर तो बहुत बाद में आ के काम करने लगे| मजदूर जब जाट के साथ मिलके जमीन को समतल करने पे काम कर रहे होते और जमीन ज्यादा पथरीली होती तो बीच में काम छोड़कर भाग जाया करते थे; परन्तु जाट के पुरखे पीछे नहीं हटे| इसलिए कहा गया है कि जाट वो है जो धरती को भी पलट दे; जाट की अस्मत को ललकारने हेतु उतारू हुए पड़े लोग, समझें यह वास्तविकता|
4) दूसरी बड़ी सुकून की बात यह है कि जमीन कोई दान में मिला/बना मन्दिर नहीं है कि हर कोई मुंह उठा के "प्राकृतिक सम्पदा" का बहाना बना के अधिकार जमाने चला आये| इस जमीन को अपनी बनाये रखने हेतु अपने खून-पसीने के साथ-साथ जाट ने लगातार टैक्स भी भरे हैं यानी लगान चुकाए हैं| इसलिए यूँ ही थोड़े कोई ऐरा- गैरा नत्थू-खैरा ख्याली ख्वाबों की दुल्हन को क्लेम करने की भांति आ के जमीन क्लेम कर लेगा या ऐसे अहसान जता देगा जैसे जमीन खैरात में बाँट के गया हो|
निचोड़ की बात: फिर भी किसी को प्राकृतिक सम्पदाओं का हवाला देते हुए यह ठहाके लगाने ही हैं तो यही ठहाके पहले आपके ही दिए दान-चन्दे से बने कृत्रिम धर्म व् सार्वजनिक स्थलों की आमदनी में अपना हक़ जताने हेतु लगा के दिखाओ और उनकी आमदनी का हिस्सा ले के भी दिखाओ| क्योंकि जमीनों के मालिकों के पास तो इसके सबूत भी हैं कि वो सिर्फ और सिर्फ उनके खून-पसीने की कमाई से कमाई गई हैं; इन कृत्रिम सार्वजनिक स्थल बना के उनके जरिये आपसे दान-चन्दा उगाहने वालों का तो ऐसा भी कोई रिकॉर्ड नहीं कि उन्होंने पूरी नियत से टैक्स भरे हों या उस सबके दिए दान-चन्दे को आपसे बराबर का बाँटा हो| जबकि जाट के तो फसल घर में बाद में पड़ती थी, उससे पहले खलिहान से ही बाल काटने वाले का हिस्सा अलग, कृषि औजार बनाने वाले का अलग, लकड़ी के औजार बनाने वाले का अलग, गाने-बजाने वाले डूम का अलग, मिटटी के बर्तन बनाने वाले का अलग, धर्म-कर्म के नाम पर मांग के खाने वालों का अलग और तब कहीं जा के बचा-खुचा जाट अपने घर ले जाता आया है|और इसी बचे खुचे से जाट को अपने घर भी चलाने होते थे और सरकारों-राजाओं के टैक्स यानि लगान भी भरने होते थे| जाट ने कभी नहीं मुड़ के बाल काटने वाले, औजार बनाने वाले, मिटटी के बर्तन बनाने वाले से, गाने-बजाने वाले से, धर्म-कर्म के नाम पर ले जाने वाले से गुहार लगाई कि भाई लगान या कर्ज चुकाने में कम पड़ रहा है थोड़ा वापिस दे दो या मदद कर दो| इसलिए जाट ने तो अपनी कष्ट-कमाई से भी सबको बराबर का बाँट के खिलाया है, तो जाट पर यह दाड़-पिसाई किस बात की? पीसनी है तो उनपर पीसो जिन्होनें आजतक इतने दान-चंदे डकारे, परन्तु कभी ना तो उसके हिसाब दिए और ना ही उसको आपकी आबादी के अनुपात में बंटवाया|
विशेष: लेखक सम्पूर्णतः जातिवाद व् वर्णवाद के दम्भ से रहित इंसान है| इस लेख को जाट पर केंद्रित करके इसलिए लिखना पड़ा क्योंकि इसका शीर्षक ही इस प्रकार का था| वरना लेखक हर जाति-धर्म-सम्प्रदाय के इंसान का बराबरी का आदर-सम्मान करता है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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