Thursday, 15 September 2016

वक्त का तकाजा है कि जाट को फ़िलहाल आंतरिक भाईचारे पर ध्यान देना चाहिए!

"भाईचारा" नाम की क़्वालिटी ने जाटों के बाकी सारे गुण ऐसे ढाँप दिए हैं जैसे माइथोलोजी की पुस्तक रामायण के चरित्र हनुमान को अपने "भक्ति" के गुण की अति के कारण बाकी सब गुणों और ताकतों की भूल पड़ गई थी| जाटों को इस वक्त चाहिए काल्पनिक चरित्र जाम्बवन्त जैसा वास्तविक किरदार; वास्तिक कैसा जो सर छोटूराम की आइडियोलॉजी का जाटों में वापिस संचार कर सके|

अति हर चीज की बुरी होती है, फिर वो भाईचारा हो या भक्ति| बैलेंस बना के रखना जरूरी होता है| भाईचारा चाहिए परन्तु बाहरी भाईचारे से पहले भीतरी भाईचारे को वापिस लाना होगा| और वैसे भी जब तक आर. के. सैनी, अश्वनी चोपड़ा, मनीष ग्रोवर आदि जैसे बाहरी भाईचारे की खुद ही धज्जियाँ उड़ाते फिर रहे हैं तो वक्त की पुकार है कि जाट अपने यहां के भीतरी भाईचारे पर ध्यान देवे| इनसे भाईचारा संभालने की अति हो चुकी है, जाट जितना कर सकता था कर चुका है; अब अपने भीतरी की ओर लौटना चाहिए| हो सकता है तब तक इनको भी अक्ल लग जाए और यह वापिस लौट आएं|

अति हर चीज की बुरी होती है, "भक्ति" की अति अंधभक्त बना देती है तो बाह्य भाईचारे की अति आपको सॉफ्ट-टारगेट बना देती है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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